Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२८
तीर्थकर चरित्र
मचाने, पत्थर फेंकने, पर्वतों पर के शिखर तोड़ कर उनके सामने व आस-पास गिराने लगे। कोई सर्प का रूप धारण कर उनके शरीर पर लिपटने लगा कोई सिंह बन कर उनके निकट ही भयंकर गर्जना करने लगा। कोई रीछ, व्याघ्र, बिलाव आदि भयंकर रूप धारण कर विविध प्रकार के शब्द करने लगे। किन्तु वे किंचित् भी चलायमान नहीं हुए । इसके बाद वे उसकी माता, पिता और बहिन सूर्पणखा के रूप बना कर उन्हें बन्दी रूप में उनके सामने लाये और उनसे करुण रुदन करवाने लगे। उन्होंने उनसे कहलाया कि;--
"हे पुत्र ! ये दुष्ट लोग हमें पशुओं की तरह मारते हैं । तुम्हारे देखते हुए ये क्रूर लोग हमें पीट रहे हैं । हे वीरवर दसमुख ! तुम चुप क्यों हों ? बचाओ हमें इन दुष्टों से! शीघ्र बचाओ। ये हमें जान से मार रहे हैं। बचा, बचा, हे कुंभकर्ण ! हे विभीषण ! अरे, तुम हमारी रक्षा क्यों नहीं करते ?"
यों विविध प्रकार से करुणापूर्ण शब्दों के साथ विलाप करते रहे, किन्तु उन तीनों साधकों में से कोई भी किंचित् भी चलायमान नहीं हुआ। तब व्यन्तरों ने उन बनावटी मां-बाप के मस्तक काट कर उनके आगे डाल दिये । इतना होते हुए भी वे ध्यान में अचल ही रहे। इसके बाद व्यन्तरों ने कुंभकर्ण और विभीषण का मस्तक, रावण के आगे डाल दिया और रावण का मस्तक विभीषण और कुंभकर्ण के आगे डाला। रावण तो अचल रहा, परन्तु विभीषण और कुंभकर्ण क्षुब्ध हो गए । रावण के प्रति अनन्य प्रीति से वे विचलित हुए। किंतु रावण तो विशेष रूप से दृढ़ हो गया। उसकी दृढ़ता देख कर आकाश में देवों ने 'साधु, साधु' कह कर हर्ष व्यक्त किया। उपद्रवी व्यन्तर भाग गये । उस समय रावण को एक हजार विद्याएँ सिद्ध हो गई। उनमें
प्रज्ञप्ति, रोहिणी, गोरी, गान्धारी, नभःसंचारिणी, कामदायिनी, कामगामिनी, अणिमा, लघिमा, अक्षोभ्या, मनःस्तंभनकारिणी, सुविधाना, तपोरूवा, दहनि, विपुलोदरी, शुभप्रद, रजोरूपा, दिनरात्रि-विधायिनी, वज्रोदरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरामरा, अनलस्तंभनी, तोयस्तंभनी, गिरिदारिणी, अवलोकिनी, वहनि, घोरा, वीरा, भुजंगिनी, वारिणी, भुवना, अवंध्या, दारुणी, मदनाशिनी, भास्करी रूपसम्पन्ना, रोशनी, विजया, जया, वर्द्धनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, चित्तोद्भवकरी, शांति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरो, बलोत्साही, चंडा, भीति, प्रधर्षिनी, दुनिवारा, जगत्कम्पकारिणी और भानुमालिनी इत्यादि महाविद्याएँ रावण को थोड़े ही दिनों में सिद्ध हो गई।
कुंभकर्ण को-संवृद्धि, जूंभिणी, सर्वाहारिणी व्योमगामिनी और इन्द्राणी, ये पाँच विद्याएँ सिद्ध हुई।
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