________________ +24+ आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित दर्शन के रूप में कुछ वृद्धि की। एक तो उन्होंने प्राकृत में सिद्धान्त प्रतिपादन की पद्धति को संस्कृत-गद्यसूत्रों में बदल दिया। दूसरे उपपत्तिपूर्वक सिद्धान्तों का निरूपण प्रारम्भ किया। तीसरे आगम प्रतिपादित ज्ञानमार्गणागत मत्यादि ज्ञानों को प्रमाण संज्ञा देकर उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों का कथन किया। चतुर्थ दर्शनान्तरों में पृथक् प्रमाण स्वरूप से स्वीकृत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान इन्हें मतिज्ञान और शब्द को श्रुतज्ञान कहकर उन्हें आधे परोक्षं सूत्र द्वारा परोक्ष प्रमाण में समाविष्ट किया तथा शेष ज्ञान को प्रत्यक्षमन्यत् सूत्र के द्वारा प्रत्यक्ष में समावेश करके सम्पूर्ण ज्ञान को दो ज्ञानों में गर्भित किया। पाँचवें प्रमाण के समान नय को भी अर्थाधिगम का साधन मानकर उसके भी नैगमादि सात भेद किये। इस प्रकार उमास्वामी आचार्य ने कितना ही नया चिन्तन प्रस्तुत किया। इतना होने पर भी दर्शनशास्त्रों में एकान्तवादों, संघर्षों और अनिश्चयों का तार्किक समाधान नहीं आ पाया जो उनके कुछ समय बाद की चर्चा के विषय हुए हैं। विक्रमी दूसरी, तीसरी शताब्दी का समय दार्शनिक क्रान्ति का समय रहा है। इस समय विभिन्न दर्शनों में अनेक क्रान्तिकारी विद्वान् हुए हैं। बौद्ध और वैदिक दोनों परम्पराओं में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनी जैसे प्रतिद्वन्द्वी प्रभावक विद्वानों का आविर्भाव हुआ और ये सभी अपने मण्डन और दूसरों के खण्डन में लग गये। सद्वाद-असद्वाद, शाश्वतवाद-अशाश्वतवाद, अद्वैतवाद-द्वैतवाद, अव्यक्तवादव्यक्तवाद इन चार विरोधी युगलों को लेकर तत्त्व की मुख्यतया चर्चा होती थी और उनका चार कोटियों से विचार किया जाता था। _____ आचार्य समन्तभद्र, माणिक्यनन्दी, अकलंक देव आदि अनेक आचार्यों ने तत्त्वप्ररूपण में तर्क का उपयोग किया और उस पर विस्तृत चिन्तन कर प्रबन्ध लिखे। इन प्रबन्धों द्वारा उन्होंने प्रतिपादित किया कि तत्त्व का पूर्ण कथन दो या चार कोटियों में निहित नहीं है अपितु सात कोटियों में निहित है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि तत्त्व वस्तुतः अनेकान्तमय है, एकान्त रूप नहीं है। अनेकान्त सत्-असत् आदि विरोधी दो धर्मों के युगल के आश्रय से प्रकाश में आने वाले वस्तुगत सात धर्मों का समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त सप्त धर्मों के समच्चय विराट अनेकान्तात्मक तत्त्व सागर में अनन्त लहरों की तरह लहरा रहे हैं। इसी से उसमें अनन्त सप्त कोटियाँ भरी पड़ी हैं। हाँ, द्रष्टा को सजग और समदृष्टि होना चाहिए। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि वक्ता या ज्ञाता तत्त्व को जब किसी एक धर्म से कहता है तो वह अन्य धर्मों का निषेधक नहीं है, केवल विवक्षावश वह मुख्य है और अन्य धर्म गौण हैं। इस वस्तुतत्त्व को समझने के लिए स्याद्वाद वा सप्तभंगी तथा नयविवक्षा की आवश्यकता है अतः दयालु आचार्यदेवों ने भव्य जीवों का उपकार करने के लिए न्यायग्रन्थों की रचना की है, ऐसा मेरा अभिप्राय है। गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती जी संघस्था बालब्रह्मचारिणी डॉ. प्रमिला जैन