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स्वयं का ज्ञान ही बाब
हर आदमी को पता है, इसलिए खोज बंद हो गई। इसलिए कोई खोज पर नहीं निकलता। आपको मालूम ही है पहले से ही, तो अब खोजना क्या है? अब खोज का कोई अर्थ ही नहीं है। उपनिषद कंठस्थ हैं, गीता कंठस्थ है; रोज उसका पाठ चल रहा है। परीक्षा में आप उत्तीर्ण हो सकते हैं। धर्म की कोई भी परीक्षा हो, आपको असफल करना मुश्किल है। आपको सब पता ही है। ... यह सब पता का जो भाव पैदा हो गया है, यह भाव खोज में बाधा बन गया है। और इससे अज्ञान की जो शुद्धता है, वह नष्ट हो गई है। अज्ञान की शुद्धता बड़ी कीमत की चीज है। अज्ञान का भाव विनम्र करता है, खोज के लिए तत्पर करता है, द्वार खोलता है। हमारे सब द्वार बंद हैं। हमारे सब बंद द्वारों पर शास्त्रों की कतार लग गई है। कोई गीता से बंद किए है, कोई कुरान से, कोई बाइबिल से। कोई महावीर की मूर्ति अटका कर दरवाजे को बंद किए हुए है कि वहां दरवाजा न खुल जाए।
लाओत्से का यह विचार खयाल में रख लेना कि जब तक आपको स्वयं का कोई अनुभव नहीं है, तब तक सब ज्ञान व्यर्थ है। और उसको ज्ञान आप मानना मत।
'जो दूसरों को जीतता है वह पहलवान है; और जो स्वयं को जीतता है वह शक्तिशाली।'
दूसरों को जो जीतता है उसके पास शरीर की शक्ति है: स्वयं को जो जीतता है उसके पास आत्मा की शक्ति है। दूसरे को जीतना बहुत कठिन नहीं है। दूसरे के जीतने के लिए सिर्फ आपको थोड़ा ज्यादा पशु होना जरूरी है;
और कुछ जरूरी नहीं है। पहलवान का मतलब है कि जो आपसे ज्यादा पाशविक है, जिसके पास शरीर जंगली जानवर का है। दूसरे को जीतने के लिए पशु होना जरूरी है। और जितनी पाशविकता आप में हो, आप उतना दूसरे को जीत सकते हैं-तोड़ने की, विध्वंस की, हिंसा की। स्वयं को जीतने के लिए बहुत मामला और है। वहां पशु की शक्ति काम न आएगी। वहां शरीर की शक्ति भी काम न आएगी। सच तो यह है कि वहां शक्ति काम ही न आएगी।
इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि शक्ति का उपयोग ही दबाना है। स्वयं को जीतने के लिए शक्ति काम ही न आएगी। दूसरे को जीतने के लिए शक्ति के अलावा और कुछ काम न आएगा। तो दूसरे को जीतने का जितना उपाय है वह सब शक्ति का फैलाव है। अगर हम सब तरह की शक्तियों को देखें। व्यक्ति अगर शक्तिशाली है तो दूसरों को दबाएगा, उनकी गर्दन पर सवार हो जाएगा। राज्य अगर शक्तिशाली है तो पड़ोसियों को हड़प लेगा। जिसके पास ताकत है वह गैर-ताकतवर को, कम ताकतवर को सताएगा; उसकी छाती पर सवार हो जाएगा। यह ताकत बहुत रूपों की हो सकती है। लेकिन शक्ति का स्वभाव है कब्जा करना, दबाना, सताना, डॉमिनेशन।
. भीतर आत्मा को भी लोग शक्ति के द्वारा ही पाने की कोशिश करते हैं, तब मुश्किल में पड़ जाते हैं। जिस तरह पहलवान दूसरे से लड़ते हैं ऐसे ही कुछ लोग अपने से लड़ते हैं। अपने से लड़ने की जरूरत ही नहीं है। क्योंकि वहां लड़ाई का कोई सवाल नहीं है। वहां लड़ाई से कुछ भी पाया नहीं जा सकता।
आपने देखा है, जानते हैं कि लोग, साधना में लगे हुए लोग अपने शरीर को सताने में लग जाते हैं, वे अपने ही साथ पहलवानी कर रहे हैं। अगर वे साधु न होते तो शैतान होते, वे किसी और को सता रहे होते। एक कम से कम उनकी बड़ी कृपा है कि वे खुद को ही सता रहे हैं। सताते वे जरूर; उनका रस सताने में है। अब वे अपने ही शरीर पर दुश्मन की तरह हावी हो गए हैं।
ऐसे साधुओं के संप्रदाय रहे हैं जो कांटों पर लेटे हैं, अंगारों पर चल रहे हैं। ईसाइयों में एक संप्रदाय था साधुओं का जो रोज सुबह अपने को कोड़े मारेगा। और जो जितने ज्यादा कोड़े मारता, उतना बड़ा तपस्वी। एक ऐसा संप्रदाय रहा है जो जूते पहनेगा, जिनमें भीतर खीले लगे होंगे, जो पैर में छिदे रहें। कमर में पट्टा बांधेगा, उस पट्टे में खीले लगे रहेंगे, जो घाव बना दें। और जितने ज्यादा खीले वाला साधु, उतना बड़ा तपस्वी।
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