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संशयति मिरप्रदीप।
के पाने का फल है। इतः पर भी बुद्धि को पक्षपात कर्दम से बाहिर न की जाय तो उसके समान और क्या दौमार्य कहा जा सकेगा? यह आप ही विचारें । इसी अभिप्राय से एक नीति वेत्ता ने अपना आशय लिखा है किः
पक्षपातो ने बीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ इसलिये हम उन लोगों से भी सविनय प्रार्थना करते हैं कि आप भी कुछ देर के लिये पक्षपात का सहाराछोड़कर एक वक्त प्राचीन मुनियों के कथन पर तथा उनके इतिहासों पर ध्यान को दौड़ाईये जिससे ठीक २ बातों का पता लग जावे । अब वह समय नहीं है कि लोग उसी अज्ञानान्धकार में अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करते रहेंगे। किन्तु संस्कृत देवी के अथवा यो कहो कि प्राचीन विद्या के प्रसार का समय है । इसलिये लोग शीघ्र ही अपने सत्यार्थ मार्ग के प्राप्त करने में साधक होंगे। यही प्रार्थना जिन भगवान के पादमूल में भी करते हैं किकरूणानिधे ! इस निराश्रय जाति का उद्धार करो ! जिस से फिर भी अपनी अलौकिक वृत्ति को यह संसार भर में बताने लगे।
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