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८ संशयतिमिरप्रदीप । कहना चाहिये । खेद ! क्या कोई इस बात को उचित कह सकेगा कि महाराज विभीषण ने यह अच्छा काम नहीं किया ? मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि लोगों में इतनी समझ के होने पर भी मेरे विषय में उनके “पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम् " इत्यादि असह्य उदार निकलते हैं। ये उद्गार उन लोगों के हैं जिन्हे मेरा भ्रम इष्टजन की तरह समझता था परन्तु आज वह आशा निराशा होकर असह्य कष्ट देने लगी है । इसलिये मुझे भी एक नीति का श्लोक लिखनापड़ता है कि
दुर्जनः परिहर्त्तव्यो गुणोनालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ॥ वे इष्ट होने पर भी असत्कल्पनाओं के सम्बन्ध से ऊपर की तरह दूर करने के योग्य हैं। लोगों को चाहिये कि जिसमें अपनी आत्मा का हित होता हो उसी को ग्रहण करें। किसी के कहने में अपने आत्मा को न फसावै क्योंकि आज कल अच्छी बात के कहने वाले बहुत थोड़े हैं "दुर्लभाः सदुपदेष्टारः” परन्तु बह विषय शास्त्रानुसार होना चाहिये । कोई कुछ क्यों न कहे उसका कुछ भी डर नहीं है और न उन लोगों के कहने से अपने आत्मा को ठग सकता हूं । उन के कहने से मेरा तो कुछ नहीं विंगड़ने का किन्तु वे अपनी आत्मा का अवश्य बुरा कर लेंगे।
पाठक ! मनुष्यों को हर समय में निष्पक्ष होना चाहिये यही कारण है कि “विद्यानन्द स्वामी ने अपनी निष्पक्षता के परिचय मे केवल जैनग्रन्थ के श्रवण मात्र से अपने जैनी होने का निश्चय कर लिया था। उसी के अनुसार हमें भी सत्पथ के लिये कार्यक्षेत्र में उतरना चाहिये । यही तो सत्कुल और सर्द्धम
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