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समाज और संस्कृति
पिता वसुदेव का तो वह लाड़ला था ही । सुवर्ण के सुनहरी राजमहल में उसका जन्म हुआ, भोग और विलासमय वातावरण में उसका संवर्धन हुआ, उसके चारों ओर भोग और विलास ही फैला हुआ था । उसके संकल्प की धारा भी उधर ही प्रवाहित हो चुकी थी, जिधर उस राजमहल में रहने वाले अन्य व्यक्तियों की हो रही थी । राजकुमार गजसुकुमार उससे भिन्न बात नहीं सोच सकता था, जो भोग-विलास में पला एक राजकुमार सोच सकता है । किन्तु जब एक बार राजकुमार ने भगवान नेमिनाथ की वैराग्यमयी वाणी सुन ली, तब उसका प्रसुप्त मन एक दम प्रबुद्ध हो गया । मन के संकल्प की जो धारा भोग और विलास की ओर बह रही थी, वह अब त्याग और वैराग्य की ओर बहने लगी । उसके इस त्यागमय जीवन की आभा को देखकर समग्र राजमहल सशंकित हो उठा । उसके मन को वैराग्य से खींचकर भोग-विलास में लगाने का प्रयत्न किया गया । इस प्रयत्न का प्रथम चरण था, उसे राज्य सिंहासन पर बैठा देना । राजकुमार गजसुकुमार को द्वारिका नगरी के विशाल साम्राज्य के सिंहासन पर बैठाकर, जब पूछा गया कि आप क्या चाहते हैं और आपका क्या आदेश है ? अब आप राजा हैं और हम सब यादव आपकी प्रजा हैं, क्या चाहिए आपको, आज्ञा दीजिए । आपको मालूम है, जब एक क्षत्रिय कुमार अपने राज्य के सिंहासन पर आसीन होता है, तब वह क्या सोच सकता है ? वह यही सोच सकता है, कि किसी सुन्दर राजकुमारी के साथ उसका विवाह हो जाए । रहने के लिए सुन्दर-सुन्दर महल बनवा दिए जाएँ । यदि कोई पड़ोस का शत्रु सिर उठाता है, तो उसे कुचल दिया जाए और अपनी शक्ति से उसके राज्य पर अधिकार कर लिया जाए । अधिक से अधिक वह यह सोच सकता है, कि उसके भोग और विलास के लिए राज्य के सुन्दर से सुन्दर पदार्थ उसे अर्पित कर दिए जाएँ । उसके मन में सुरा और सुन्दरी के सिवाय अन्य किसी प्रकार का स्वप्न होता ही नहीं है । भोग, विलास, वासना और कामना की चारदीवारी के बाहर झाँकने की उसमें शक्ति नहीं होती है । इतिहास हमें बताता है, कि संसार में समस्त राजकुमारों के सोचने की यही दिशा रही है । परन्तु संसार के उत्सर्ग का अपवाद भी होता है । सामान्य का विशेष भी होता है । राजकुमार गजसुकुमार के सम्बन्ध में हम ऐसा नहीं कह सकते । उसके सोचने और समझने की दिशा अलग थी । जीवन को नापने का उसका गज अलग था । वह सत्ता, सम्पत्ति तथा
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