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मनुष्य की संकल्प-शक्ति
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में सिंह के वापिस लौटने का संकल्प भी उत्पन्न हो गया होता, तो कदाचित् वह न मरता । कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर जिस प्रकार उसने अपने मरण का विचार किया, वैसे ही वह अपने जीवन-रक्षण का विचार भी कर सकता था, किन्तु उसने वैसा संकल्प नहीं किया । उसने सिंह का संकल्प ही किया । कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर भी उसने मौत की बात ही सोची, जबकि उसे सोचना यह था, कि मेरे लिए इस जंगल में भी मंगल हो जाए । उस कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर वह व्यक्ति सुख की अभिलाषा करता, शान्ति की अभिलाषा करता और आनन्द की अभिलाषा करता तो उसे वह सब कुछ मिल सकता था । यह तो बाहर के कल्पवृक्ष की बात है । इस प्रकार का कल्पवृक्ष, कहीं पर है, अथवा नहीं है, इस बात का विचार मत कीजिए, किन्तु आप विचार कीजिए, कि आपका अपना मन ही एक कल्पवृक्ष है । उस मनरूपी कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर आप जैसा भी विचार और संकल्प करते हैं, आपका जीवन वैसा ही बन जाता है । यदि आप अपने इस मन के कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर क्रोध की बात सोचते हैं, तो वह क्रोध ही सिंह बन जाता है । यदि आप इस मन के कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर अभिमान का विचार करते हैं, माया का विचार करते हैं, लोभ का विचार करते हैं, और वासना एवं कामना का विचार करते हैं, तब आपको सुख-शान्ति और आनन्द कैसे मिल सकता है ? दुर्भाग्य है, कि आप अपने मन के कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर भी, विषमय संकल्प ही करते हैं, अमृतमय संकल्प नहीं कर पाते । मनुष्य का संकल्प ही मनुष्य को खा जाता है और मनुष्य के मन का संकल्प ही उसके जीवन की रक्षा कर लेता है । मनुष्य के मन में जब बुरे विकल्पों की आग प्रज्वलित हो जाती है, तो वह स्वयं ही उसमें नहीं जलता, उसका परिवार, उसका समाज और उसका राष्ट्र भी उसमें जल जाता है । रावण के मन में वासना की जो आग जल उठी थी, उससे केवल रावण ही नहीं मरा, उसका सारा घर और उसका सारा साम्राज्य ही उस आग में जलकर खाक हो गया था । दुर्योधन के मन में जो ईर्ष्या की आग जली थी, उससे केवल दुर्योधन ही नहीं जला, अपितु सम्पूर्ण कौरव वंश ही दग्ध हो गया था । मानव-मन के इस संकल्प में आग लगाने की शक्ति भी है और उसमें आग बुझाने की शक्ति भी है । ___आपने सुना होगा, कि राजकुमार गजसुकुमार, श्रीकृष्ण के लघुभ्राता थे, इसलिए श्रीकृष्ण का उस पर अपरिमित प्रेम था । माता देवकी और
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