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मनुष्य की संकल्प शक्ति
के जीवन की स्थिति त्रिशंकु के समान होती है । वह न इधर का रहता है, न उधर का रहता है । जैन दर्शन में जीवन - विकास की चौदह भूमिकाएँ मानी गई हैं, जिन्हें गुण-स्थान कहते हैं, उन गुण-स्थानों में एक 'मिश्र' गुण स्थान भी है, जिसमें आत्मा की यह स्थिति हो जाती है, कि वह न तो सम्यक्त्व को ही प्राप्त कर पाता है, और न वह मिथ्यात्व भाव से ही नीचे उतर पाता है । उसकी स्थिति झूले के समान दोलायमान रहती है, कभी इधर और कभी उधर । अतः किसी एक किनारे की गति पर नहीं लग पाता है । इस गुण-स्थान में साधकों की स्थिति त्रिशंकु के समान ही रहती है, जो न आगे बढ़ पाते हैं, और न पीछे ही लौट पाते हैं । यह कहानी हमें यह शिक्षा देती है, कि बीच में ही लटकने वाले त्रिशंकु मत बनो । लोग प्रश्न पूछते हैं, कि आगे कैसे बढ़ें ? इसके समाधान में मैं केवल यही कहना चाहता हूँ, कि एक लक्ष्य स्थिर करके, निरन्तर आगे बढ़ने में ही मानव जीवन का गौरव है । पर याद रखिए, आपके जीवन की वह प्रगति और विकास आपके अपने बल पर ही होना चाहिए, किसी दूसरे के बल पर नहीं । राजा त्रिशंकु ने, यदि अपने बल पर स्वर्ग प्राप्ति का प्रयत्न किया होता, तो उसे सफलता मिल जाती । दूसरे की शक्ति पर अपना विकास सम्भव नहीं है । जो अपनी शक्ति को भूल कर दूसरे की शक्ति पर विश्वास करते हैं, उनकी दशा त्रिशंकु के समान ही होती है । आपको जो कुछ पाना है, उसे आप अपने प्रयत्न से प्राप्त करें, आप जो कुछ बनना चाहते हैं, अपने प्रयत्न से बनें । विश्वामित्र की कितनी भी शक्ति क्यों न हो, किन्तु वह आपको स्वर्ग नहीं दिला सकती । विश्वामित्र का बल और शक्ति अपने आपको तो स्वर्ग पहुँचा सकती थी, किन्तु त्रिशंकु को स्वर्ग नहीं पहुँचा सकी ।
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मैं आप से यह कह रहा था, कि मानव जीवन के दो पक्ष हैं — एक अमृत और दूसरा मर्त्य । एक अध्यात्म और दूसरा भौतिक । मनुष्य जब भौतिकवाद में और अपने मर्त्य भाग में ही बद्ध हो जाता है, तब उसे अमृत एवं मोक्ष कैसे मिल सकता है ? मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को अध्यात्मवादी एवं अमृतमय बनाए । मनुष्य के प्रत्येक कर्म में और प्रत्येक क्रिया में अमृत होना चाहिए । उसका विचार भी अमृत हो, उसकी वाणी भी अमृत हो और उसकी क्रिया भी अमृत हो, तभी वह अपने लक्ष्य पर पहुँच सकेगा । याद रखिए, जिनके जीवन की धरती पर अमृत नहीं है, उनकी आकाश की ऊँची उड़ान में भी अमृत
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