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मनुष्य की संकल्प शक्ति
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने भक्त हनुमान से पूछा - 'तू कौन है ?" यद्यपि इसका उत्तर यह हो सकता था, कि मैं आपका भक्त हूँ, मैं आपका सेवक हूँ । इसका यह भी उत्तर हो सकता था, कि मैं बानर - जाति का एक वीर हूँ, किन्तु हनुमान ने इस प्रकार का कोई उत्तर नहीं दिया । हनुमान अपने मन में सोचने लगता है, कि भगवान राम के इस प्रश्न के पीछे कोई गहन रहस्य होना चाहिए, अन्यथा क्या मेरे आराध्यदेव यह नहीं जानते हैं; कि मैं कौन हूँ ? हनुमान को मौन देखकर, राम ने फिर पूछा - " तू कौन है ?" हनुमान ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा - " आप शरीर की दृष्टि से पूछते हैं अथवा आत्मा की दृष्टि से ? यदि शरीर की दृष्टि से पूछते हैं, तो मैं आपका दास हूँ, एवं मैं आपका सेवक हूँ । यदि आत्म- - दृष्टि से पूछते हैं, तो मैं राम हूँ । आत्म-भाव से आपमें और मुझमें किसी प्रकार का भेद नहीं है । अध्यात्म-दृष्टि से जो आप हैं वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही आप हैं । आत्म-भाव की अपेक्षा से न आप राम हैं और न मैं हनुमान हूँ, हम दोनों आत्मा हैं, हम दोनों ब्रह्म हैं । आपमें और मुझमें अणुमात्र भी तो भेद नहीं है और जो भेद है, वह इस तन का है । तन की दृष्टि से आप राम हैं और मैं हनुमान हूँ । आप स्वामी हैं और मैं सेवक हूँ । आप भगवान हैं और मैं भक्त हूँ ।" बात यह है, कि जब तक देह की दृष्टि रहती है, तब तक मनुष्य दास है । जब तक देह है, तब तक भूख एवं प्यास आदि भी उसके साथ लगे रहते हैं । परन्तु ज्यों ही मनुष्य को विवेक दृष्टि इस देह के आवरण को पार करके देही तक पहुँच जाती है, उस समय सब कुछ आत्ममय हो जाता है । राम ने हनुमान की इस बात को सुनकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और कहा, कि मुझे प्रसन्नता है, कि तुम इस तन में रह कर भी तन की इस स्थिति से बहुत ऊँचे उठ चुके हो । अध्यात्म भाव को प्राप्त करना ही जीवन की सबसे बड़ी साधना है और यही जीवन का चरम लक्ष्य भी है ।
मैं आपसे देह और आत्मा की बात कह रहा था और यह बता रहा था, कि मनुष्य के जीवन का लक्ष्य क्या है, और उसे क्या करना चाहिए । दुर्भाग्य की बात तो यह है, कि हम शास्त्र सुनकर भी और शास्त्र पढ़कर भी, उसमें से कुछ ग्रहण नहीं कर पाते । केवल सुनने से और केवल पढ़ने से कुछ नहीं होता है । जब तक ज्ञान को क्रिया का रूप नहीं दिया जाएगा, और जब तक विचार को आचार का रूप नहीं
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