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मनुष्य की संकल्प - शक्ति
की परिभाषा और व्याख्या पूर्ण नहीं हो सकती है । यदि किसी भी एक पक्ष को पकड़कर मानव जीवन की व्याख्या करने का प्रयत्न किया जाएगा, तो वह प्रयत्न अधूरा ही रहेगा । मानव जीवन की व्याख्या और परिभाषा दोनों पक्षों के संतुलित समन्वय से ही की जा सकती है । मनुष्य के मन में राम भी बैठा रहता है और रावण भी बैठा रहता है । यह ठीक है, कि हम दोनों की एक साथ पूजा नहीं कर सकते, किन्तु उन दोनों को जानना तो आवश्यक है ही । जीवन की बुराई को जानना इसलिए आवश्यक है, कि उसे बुराई समझकर हम उसे छोड़ सकें, और जीवन की अच्छाई को जानना इसलिए आवश्यक है कि उसे अच्छाई समझकर हम जीवन में अपना सकें ।
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मैं आपसे मानव जीवन की बात कह रहा था । जब तक आप अपने जीवन में बुद्धि और विवेक का प्रकाश लेकर नहीं चलेंगे, तब तक जीवन का कल्याण नहीं होगा । यदि किसी व्यक्ति का जीवन अन्धे हाथी के समान, जंगली भैंसे के समान और एक भयंकर भेड़िए के समान है, तो उससे न किसी समाज को लाभ है और न किसी राष्ट्र को ही । मनुष्य का मन जब सो जाता है, तब उसमें किसी प्रकार की स्फूर्ति नहीं रहती । यदि मन में चेतना नहीं है, तो केवल शरीर की चेतना से कोई विशेष लाभ नहीं हो पाता । अन्य कुछ बनने से पहले मनुष्य के मन में, मनुष्य बनने की अभिलाषा होनी चाहिए । मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए, अपनी बुद्धि और अपने मन को जागृत करना होगा । उसके विचार यदि कल्याण के मार्ग पर, और हित के मार्ग पर चल कर इस शरीर में प्रसुप्त ईश्वरत्व को जगाने के लिए हैं और दूसरी आत्माओं को, उन आत्माओं को जो अनन्तकाल से मोह निद्रा मे प्त हैं जागृत करने के लिए एवं प्रेरणा देने के लिए, अथवा भूले राही को सन्मार्ग बताने के लिए, यदि मनुष्य के विचार प्रयुक्त किए जाते हैं, तब तो ठीक है, अन्यथा कुछ नहीं होगा । बात यह है, कि जीवन तो पशु-पक्षियों के पास भी है, कीड़े-मकोड़ों के पास भी है, जीवन के साथ-साथ उनमें गति भी है, किन्तु विकास और प्रगति नहीं है । केवल विचार मात्र से ही काम नहीं चलता है, विकास और प्रगति भी चाहिए । एक पशु में भी भूख एवं प्यास को दूर करने की प्रवृत्ति होती है, वासना की तृप्ति पशु भी करता है, किन्तु इस दृष्टि से मनुष्य और पशु में क्या भेद रहा ? शरीर की आवश्यकताएँ जैसी पशु के पास होती हैं, मनुष्य के पास भी वे हैं, भले
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