________________
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
संस्मरण
साध्वी प्रमोद कुंवर डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय वर्षों पुराना है । उस समय वे व्यवसाय करते थे और मैं पूज्या साध्वी श्री रत्नकुवंर जी म. सा. की सान्निध्य में वैराग्य अवस्था में शाजापुर में अध्ययनरत थीं। मेरी जीवन चर्या का बहुत सा भाग इन्हीं के परिवार में व्यतीत होता था । उस समय आपने एम० ए० किया ही था। मेरे अध्ययन का भार गुरुवर्या साध्वी श्री रत्नकुवंर जी म० सा० ने डॉ० सागरमल जैन के सुपुर्द किया था। इस प्रकार वे मेरे शिक्षा गुरु बने । मेरी हाई स्कूल, इन्टर, बी० ए० और एम० ए० आदि सभी परीक्षाओं का अध्ययन डॉ० सागरमल जी जैन के दिशा निर्देश और सहयोग से ही पूर्ण हुआ । यही नहीं जब मेरे मन में पी-एच० डी० करने की भावना उत्पन्न हुई तो मैंने इस कार्य को भी आपके सानिध्य में रहकर आपके मार्गदर्शन में ही पूरा करने का निश्चय किया। इसके लिए मुझे मालव भूमि से सुदूर वाराणसी के हेतु पद यात्रा करनी पड़ी। मैं १९८८ ई० सन् में वाराणसी पहुंची और अपना अध्ययन प्रारम्भ किया। यद्यपि कुछ वैधानिक कठिनाइयों के कारण मुझे डा० उमेशचन्द्र दुबे के निर्देशन में अपने को पंजीकृत करवाना पड़ा किन्तु विषय चयन से लेकर शोध प्रबन्ध की पूर्णता तक मुझे डॉ० साहब से पूर्ण दिशा निर्देश व सहयोग प्राप्त हुआ।
विद्याश्रम में चल रहीं कक्षाओं के अतिरिक्त भी वे मुझे नियमित रूप से जैन दर्शन का अध्ययन करवाते रहे। मुझे और मेरी सहयोगी साध्वियों को उनके द्वारा अध्ययन करने का लाभ प्राप्त होता रहा । डॉ० साहब की अध्यापन शैली ऐसी विशिष्ट है कि वे कठिनतम विषयों को भी इतने सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि सामान्य स्तर के व्यक्ति को भी वे ग्राह्य बन जाते हैं। पूज्या गुरुवर्या रत्नकुवंर जी म० सा० की हम सभी शिष्याओं को उनसे अध्ययन करने का सौभाग्य मिला है। यह हमारे लिए सुखद अनुभूति का विषय है । इसका एक कारण यह भी है कि पू० रत्न कुवंर जी म० सा० की शिष्याओं में डॉ० सागरमल जैन की पूज्या दादी जी श्री पान कुंवर जी म० सा० और पूज्या वुआ जी श्री वल्लभ कुंवर जी म० सा० भी दीक्षित थीं। इस प्रकार पूज्या गुरुवर्या श्री रत्नकुंवर जी म० सा० का शिष्या परिवार और डॉ० सागरमल जी का परिवार एक दूसरे के निकटतम संबंधी थे । यद्यपि डॉ० साहब हम सभी साध्वियों को गुरुतुल्य ही आदर देते थे किन्तु उनकी चरित्र निष्ठा और अनुशासन कठोर ही था । मेरी दृष्टि में वे जहाँ एक ओर फूलों की अपेक्षा भी कोमल हैं वही दूसरी ओर आचार व्यवस्था व अनुशान के क्षेत्र में वज्र जैसे कठोर भी हैं । भावुकता में मैने अनेक बार उनकी आखों में आँसुओं को छलकते देखा है तो उनके निर्णयों की अडिगता को भी देखा है। वाराणसी में उनके सानिध्य में मेरा लगभग चार वर्ष का प्रवास अध्ययन और ज्ञानार्जन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा।
मैं जब बनारस में थी तभी मैंने यह निर्णय लिया था कि डॉ० साहब साध्वी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन होना चाहिये इसके आर्थिक सहयोग हेतु मैंने कुछ लोगों की प्रेरणायें दी। यद्यपि मैने वाराणसी से प्रस्थान करते समय विद्याश्रम परिवार से इसके शीघ्र प्रकाशन के लिए दिशा-निर्देश भी दिया था किन्तु किन्हीं कारणों वश वह कार्य हाथ में नहीं लिया जा सका । वास्तविकता तो यह भी कि डॉ० साहब अपने कार्य काल में ऐसा कुछ करने देना ही नहीं चाहते थे। मझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता है कि इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी पार्श्वनाथ विद्याश्रम ने और उसकी प्रबन्ध समिति ने यह सुखद निर्णय लिया । वस्तुत: यह पुनीत कार्य करके हम सब अपने को ही गौरवान्वित महसूस करते हैं । मैं डॉ० साहब के स्वस्थ जीवन और शतायु होने की कामना करती हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org