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डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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"जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० सागरमल जैन"
समणी मंगल प्रज्ञा*
प्रो० सागरमल जैन व्यापार करते-करते शिक्षा के क्षेत्र में आये, यह तथ्य मुझे श्री जैन से ही ज्ञात हुआ। मुझे सुनकर विस्मय भी हुआ कि कैसे एक व्यक्ति अनुस्रोत के मार्ग को छोड़कर प्रतिस्रोत के मार्ग में प्रस्थित हो गया। भगवान् महावीर ने कहा- 'अणुसोयसुहोलोगो पडिसोओ आसवो सुविहियाणं जन साधारण को स्त्रोत के अनुकूल चलने में सुख की अनुभूति होती है किंतु असाधारण प्रतिस्रोत में चलकर अभिनव मुकाम को प्राप्त करते हैं। यही प्रो० सागरमल जी के जीवन में घटित हुआ । व्यापार जगत् में रहते हुये भी विद्या के प्रति उनका इतना गहरा आर्कषण था कि उन्होंने विद्या को ही अपना जीवनव्रत बना लिया। आज उनका यह जीवनव्रत जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० सागरमल के रूप में मूर्तिमान् है ।
श्री जैन को मैंने जैनविद्या की अनेक संगोष्ठियों में निकटता से देखा है। सौम्यता, शालीनता एवं गंभीरता उनके व्यक्तित्व की खास पहचान है । उनके विचारों को भी मैंने सुना है। जैन विद्या के प्रति उनका जो आत्मीय अनुराग है वह निश्चित रूप से श्लाघनीय है। एक बार अहमदाबाद से लाडनूं तक की यात्रा में हम साथ-साथ थे। उस समय उनसे दर्शन के विभिन्न विषयों पर चर्चा करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके गम्भीर ज्ञान ने मुझे आकृष्ट किया। डॉ० जैन एक सुलझे हुए विचारक हैं। जैनविद्या के प्रति पूर्ण समर्पित उनका व्यक्तित्व जैन समाज के लिए गौरव का विषय है। डॉ० जैन के जीवन के अमूल्य क्षण जैनशासन की श्री वृद्धि में सतत लगते रहें, यही शुभाशंसा है।
• जैन विश्व भारती, लाडनूं
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