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जिस समय आशाघर धारामें आये थे, उस समय
मालवा के राजा विन्ध्यनरेन्द्र, विन्ध्यवर्मा, अथवा विजयवर्मा थे । प्रशस्तिकी टीका में ' विन्ध्यभूपतिका ' अर्थ ' विजयवर्मा नाम मालवाधिपति ' किया है । जिससे मालूम होता है कि विन्ध्यवर्मा का दूसरा नाम विजयवर्मा है । विन्ध्यवर्माका यह नामान्तर अभीतक किसी शिलालेख या दानपत्र में नहीं पाया गया है | विजयवर्मा परमार महाराज भोजकी पांचवीं पीढ़ीमें थे । पिप्पलियाके अर्जुनदेव के 'दानपत्र में उनकी कुलपरम्परा इस प्रकार लिखी है: - ' भोज - उदयादित्य - नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा ( विजयवर्मा ), सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा । " अर्जुनवर्मा के कोई पुत्र नहीं था । इसलिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल ( साह - (समल्ल) और देवपाल के पीछे उसका पुत्र जैतगिदेव ( जयसिंह )
राजा हुआ । आशाधर जिस समय धारा में आये, उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागरधर्मामृतकी टीका बनाई, तब जैतुगिदेव राजा थे । अर्थात् वे अपने समयमें धाराके सिंहासनपर पांच राजाओं को देख चुके थे । केवल ५० वर्षके बीच में पांच राजाओंका होना एक आश्चर्य की बात है ! आशाघरका विद्याभ्यास समाप्त होते होते उनके पाfuscast कीर्ति चारों ओर फैलने लगी। उनकी विलक्षण प्रति
१–बंगाल एशियाटिक सुसाईटीका जनरल जिल्द ५ पृष्ठ ३७८ ।
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