Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । इसका अर्थ यह है कि आप्त, आगम और पदार्थ तत्त्वार्थ हैं। उनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति सम्यग्दर्शन है। यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है। प्राप्त, आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने भी कहा है
अत्तागमतच्चाणं जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ। संकाइदोस रहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ॥ जीवाजीवासव-बंध संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। एयाई सत्त तच्चाई सद्दहंतस्स सम्मत्तं ॥ आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण जीवुवओग-पाण-सण्णाहि ।
जाऊण जीवदग्वं सहहणं होई कायन्वं ॥ आप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोषरहित जो अति निर्मल श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है। जीव, अजीव, मानव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं और इनका श्रद्धान सम्यक्त्व है । प्रायु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गणस्थान, जीवसमास, उपयोग, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीवद्रव्य को जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिये। श्री गुणभद्र आचार्य ने भी कहा है
सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् । सदवृत्तात् स च तच्च बोध नियतं सोऽप्यागमात साथ तेः॥ सा चाप्तात् स च सर्वदोष रहितो रागादयस्तेऽप्यतः ।
तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥ आत्मानुशासन सर्वप्राणी अति-शीघ्र यथार्थ सुख प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं । वह सुख कर्मक्षय से मिलता है। कर्मों का क्षय सव्रत से होता है। सव्रत सम्यग्ज्ञान के द्वारा प्राप्त होते हैं । सम्यग्ज्ञान प्रागम से प्राप्त होता है। वह आगम भी द्वादशांगरूप श्रु त के सुनने से होता है । वह द्वादशांगश्रु त प्राप्त से आविर्भूत होता है। रागादि समस्त दोषों से रहित आप्त होता है । इसलिये सुख के मूल कारणभूत आप्त का युक्तिपूर्वक विचार करके सज्जन मनुष्य सम्पूर्ण सुख देने वाले उसी आप्त का प्राश्रय लेते हैं।
अनेकान्तात्मार्थप्रसवफल भारातिविनते, वचः पर्णाकोणे विपुल नयशास्त्रशतयुते । समुत्तुङ्ग सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिनं ।
शु तस्कन्धे धीमान रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥ आस्मानुशासन श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुअा है, वचनरूप पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है उस श्रु तस्कन्धरूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान को अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमाना चाहिए ।
शास्त्राग्नौ मणिवद्भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः।
शास्त्ररूप अग्नि में प्रविष्ट हुआ भव्यजीव मणि के समान विशुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता हुमा शोभायमान होता है। जिस प्रकार पद्मरागमणि को अग्नि में रखने पर वह मल से रहित होकर अतिशय निर्मल
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