Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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"जाणं पेयप्यमाणमुद्दिट्ठ ।
-ज्ञान ज्ञेयों के बराबर है ।
अर्थात् -
श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है
"आत्मार्थव्यतिरिक्त सहाय निरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् ।"
अर्थात - केवलज्ञान आत्मा और श्रथं ( ज्ञेयों ) से अतिरिक्त अन्य किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, इसलिये वह केवल असहाय है । इससे स्पष्ट है कि केवलज्ञान अर्थों ( ज्ञेयों ) की सहायता की अपेक्षा रखता है । इन
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
वाक्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि ज्ञान की शक्ति की व्यक्तता में परपदार्थ सहायक होते हैं । इस प्रकार ज्ञान का परपदार्थों के साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी है ।
'परपदार्थों को जानना' ज्ञान का स्वभाव है, किन्तु एकांतवादी ऐसा मानता है कि परपदार्थों को जानने से ( परपदार्थों में ज्ञानोपयोग जाने से ) ज्ञान मलिन हो जाता है, अतः वह एकान्तवादी परपदार्थों में ज्ञान को नहीं जाने देता ( परपदार्थों को जानने से ज्ञान को रोकता है। ) इसप्रकार वह एकान्तवादी ज्ञान-स्वभाव का नाश करता है । उस एकान्तवादी को समझाने के लिये आचार्य कहते हैं
ज्ञेयाकारकलंकमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति । वैचित्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतः क्षालितं पर्यायैस्तवमेकतां परिमृशनु पश्यत्यनेकांत वित् ॥ २५१ ॥ एकान्तवादी पशु तो ज्ञान में ज्ञेयाकार ( ज्ञेयों के जानने ) को मैल समझ कर एकाकार ( ज्ञान को पर पदार्थों के जानने से रहित करने ) के लिये ज्ञेयाकार को धोकर ज्ञान का नाश करता है । अनेकान्तवादी ज्ञेयाकार से ज्ञान की विचित्रता होने पर भी ज्ञानाकार से ज्ञान को एकाकार मानता है अर्थात् अनेकान्तवादी परज्ञेयों के जानने से ज्ञान में मलिनता नहीं मानता, क्योंकि परपदार्थों का जानना ज्ञानका स्वभाव है ।
जो बाह्यपदार्थों में उपयोग के जाने से ज्ञान का नाश मानते हैं, उनको जीवद्रव्य का भी नाश मानना होगा, क्योंकि ज्ञानरूप लक्षण का नाश होने पर जीवद्रव्य लक्ष्य का भी नाश होना श्रवश्यम्भावी है ।
श्री वीरसेनाचार्य ने तो यहाँ तक कहा है कि किसी भी पदार्थ के आलम्बन से ध्यान हो सकता है
"आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स ।
जं जं मणसा पेच्छेद तं तं आलंबणं होई || ( धवल पु० १३ पृ० ७० ')
यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है । ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है वह वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होता है ।
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- जै. ग. 19-12-74 / / राजमल जैन
"उपयोग बाहर निकले तो जम का दूत ही श्रागया" इत्यादि वाक्य प्रार्ष वाक्यों से प्रतिकूल हैं
शंका- - क्या निम्न बातें आग्रंथानुकूल हैं
(१) उपयोग अपने से बाहर निकले तो जम का दूत ही आया, बाहर में चाहे भगवान भी भले हो । उपयोग बाहर जावे उसमें अपना मरण हो रहा है। बाहर के पदार्थ से तो अपना कोई संबंध ही नहीं ।
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