Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-उपयोग का बाह्य पदार्थों के साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध अथवा ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध है। श्रीमद देवसेनाचार्य ने कहा भी है
"सम्बन्धोऽविनाभावः संश्लेषः सम्बन्धः, परिणाम परिणामि सम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धय सम्बन्धः, ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः, चारित्रचर्यासम्बन्धश्चेत्यादि ।"
श्री वीरसेनाचार्य ने भी 'जो नेयेकथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धके ।' इन शब्दों द्वारा यह कहा है कि प्रतिबन्धक के नहीं रहने पर अर्थात् ज्ञानावरणकर्म के क्षय हो जाने पर ज्ञाता ज्ञेय के विषय में अज्ञ कैसे रह सकता है ? इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य पदार्थों के साथ उपयोग का ज्ञान-ज्ञेयसम्बन्ध है। यदि ज्ञानज्ञेयसम्बन्ध न माना जाय तो ज्ञानावरणकर्म के हो जाने पर भी ज्ञानोपयोग सर्व पदार्थों को नहीं जान सकेगा इसप्रकार सर्वज्ञ के प्रभाव का प्रसंग मा जायगा।
उपयोग दो प्रकार का है(१) ज्ञानोपयोग (२) दर्शनोपयोग श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है
"स उपयोगो द्विविधः
ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति ।' इन दोनों उपयोगों का पृथक्-पृथक् कार्य श्री वीरसेनाचार्य ने निम्न प्रकार बतलाया है"स्वस्माद्भिनवस्तुपरिच्छेवकं ज्ञानम् स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं दर्शनम् ।"
अर्थात्-अपने से भिन्न वस्तु का परिच्छेदक ज्ञान है और अपने से अभिन्न वस्तु का परिच्छेदक दर्शन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानोपयोग का सम्बन्ध बाह्यपदार्थों से है।
यद्यपि केवलज्ञान में अनंतानन्त-लोकालोक को जानने की सामर्थ्य है (यावांल्लोकालोक स्वभावोऽनन्त तावन्तोऽनन्तानंता यद्यपि स्युः तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं तत् केवलज्ञानवेदितव्यम् ) तथापि शेयों के अभाव के कारण वह सामथ्र्य व्यक्त नहीं हो सकती।
ऐयाभावे विल्ली जिम थक्कइ णाणु वलेवि ।
मुक्कहं जसु पय बिबियउ परम सह उ भणेवि ॥ १।४७ ॥ ( परमात्मप्रकाश ) टोका-"यथा मण्डपाद्यमावे वल्ली ध्यावृत्य तिष्ठति तथा शेयावलम्बनाभावे ज्ञानं व्यावृत्त्य तिष्ठति न च ज्ञातृत्वशक्त्यभावेनेत्यर्थः।"
जैसे मण्डप के अभाव से बेल (लता) ठहर जाती है, अर्थात् जहाँ तक मंडप है, वहां तक तो बेल चढ़ती है और उससे आगे मण्डप का सहारा न मिलने से, सामर्थ्य होते हुए भी आगे नहीं चढ़ सकती उसी प्रकार मुक्त जीवों का केवलज्ञान भी जहाँ तक ज्ञेयपदार्थ हैं वहाँ तक परिच्छेदकरूप से फैल जाता है, किन्तु शक्ति होते हए भी ज्ञेयों का प्रभाव होने के कारण आगे फैलने से रुक जाता है।
श्री स्वामिकातिकेय ने भी कहा है-"रणेयेण विणा कहें गाणं ।" ज्ञेयों के बिना ज्ञान कैसे हो सकता है ? इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है
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