Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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[ १४ ] काल तक यदि शब्द अवस्थित नहीं रहेगा तो शाब्दिक ज्ञान होना अशक्य है। शब्द की व्यापकता दो कारणों से स्वीकृत की जाती है, एक तो वह आकाश रूप ब्यापक द्रव्य का गुण है दूसरे एक साथ नाना देशों में सुनाई देता है । मीमांसक के इस मंतव्य का सुविस्तृत निरसन किया गया है, संकेत काल से लेकर व्यवहार काल तक वही शब्द नहीं रहता अपितु तत् सदृश अन्य रहता है, सादृश्य शब्द द्वारा घटादि वाच्य का प्रतिभास होता है, अर्थात् जब कोई वृद्ध पुरुष बालक के प्रति घट वाच्य और घट वाचक शब्द में संकेत करता है उस समय का शब्द नष्ट होता है अन्य समय में जो घट शब्द को बालक सुनता है वह अन्य तत् सदृश शब्द है, इस सादृश्य शब्द से होने वाला ज्ञान असत्य है ऐसा भी नहीं कह सकते अन्यथा धूम हेतु से होने वाला अग्नि का अनुमान असत्य ठहरेगा, अर्थात् संकेत काल का शब्द व्यवहार काल में नहीं होता अतः तज्जन्य ज्ञान भ्रांत है तो रसोई घर के धूम अग्नि में साध्य साधन का संकेत ज्ञात कर पुनः पर्वत पर तत्सदृश धूम को देखकर अग्नि का अनुमान होता है उसको भी भ्रांत मानना होगा ? क्योंकि रसोई घर का धूम तो पर्वतपर है नहीं। तथा मीमांसक ग, क, र आदि वर्णों को सर्वत्र एक व्यापक रूप से मानते हैं, किन्तु ऐसा प्रतीति में नहीं आता, गकार आदि यावन्मात्र वर्ण पृथक् पृथक् अनेकों संख्याओं में एक साथ उपलब्ध हो रहे हैं, विभिन्न देशों में पूर्ण पूर्ण रूपसे अनेकों वर्ण एक साथ उपलब्ध होते हैं, व्यापक पदार्थ इस तरह एक जगह पूर्ण रूपेण उपलब्ध हो ही नहीं सकता अन्यथा वह व्यापक ही काहे का ? व्यापक आकाश क्या एकत्र पूर्ण रूप से उपलब्ध होता है ? शब्द को नित्य मानकर व्यंजक ध्वनि द्वारा उसका संस्कार होने की मान्यता भी आश्चर्यकारी है । वक्ता के मुख से शब्द निकलकर श्रोता के कर्ण तक पाता है तो वह मार्ग में किसी पदार्थ से विच्छिन्न होगा इत्यादि जैन के प्रति दिये गये दूषण मीमांसक के अभिव्यंजक वायु में भी लागू होते हैं। तथा यदि शब्द सर्वथा नित्य है तो उसका संस्कार होना या व्यक्त होना आदि नहीं बन सकता, क्योंकि नित्य में पूर्व की अव्यक्त दशा से उत्तर कालीन व्यक्त दशा में आना रूप परिवर्तन संभव नहीं अन्यथा वह अनित्य ही ठहरता है । इत्यादि अनेक प्रकार से शब्द के नित्यत्व का खंडन होता है ।
शब्दसम्बन्ध विचार- शब्द और पदार्थ में ऐसी ही सहज स्वाभाविक योग्यता है कि गो आदि शब्द तदर्थ वाच्यभूत सास्नामान पदार्थ को अवभासित कराते हैं, पुनश्च इनमें संकेत भी किया जाता है कि अमुक शब्द का अमुक अर्थ होता है, इस
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