Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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हेतु का नहीं मानता उसका निरसन, पूर्वचर प्रादि हेतु की सार्थकता एवं पृथक्त्व । अविरुद्ध उपलब्धि हेतु के विधिसाध्य की अपेक्षा छह भेद, विरुद्ध उपलब्धि हेतु के प्रतिषेध साध्य की अपेक्षा छह भेद, अविरुद्ध अनुपलब्धि हेतु के प्रतिषेध साध्य में सात भेद विरुद्ध अनुपलब्धि हेतु के विधिसाध्य में तीन भेद, इस प्रकार इन सबका वर्णन इस प्रकरण में है ।
वेद अपौरुषेयवाद - मीमांसक अपने वेद मामा ग्रन्थ को अपौरुषेय मानते हैं, इनका कहना है कि सभी पुरुष राग द्वेष युक्त ही होते हैं अतः सत्य अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकते, तथा वेद कर्त्ता का स्मरण नहीं है इसलिये वेद पुरुष रचित न होकर अपौरुषेय ही है । किन्तु यह कथन असत् है कोई भी पद एवं वाक्य अपने आप बिना पुरुष प्रयत्न के निर्मित होता हुआ देखा नहीं जाता जब वेद में भारत रामायण आदि के समान वाक्य रचना पायी जाती है तब उसे अपौरुषेय किस प्रकार मान सकते हैं ? अर्थात् नहीं मान सकते । कर्त्ता का स्मरण नहीं होने से वेद को अपौरुषेय माना जाय तो बहुत से प्राचीन महल, कूप प्रादि के कर्त्ता का स्मरण नहीं होता ग्रतः उन्हें भी अपौरुषेय मानना चाहिये ? दूसरी बात कर्त्ता का अस्मरण कहां है ? कालासुर नामादेव ने अपने वैर का बदला लेने के लिये हिंसापरक इस वेद को रचा था ऐसा हम जैन को भली भांति स्मरण है । तथा मीमांसक वेद को अपौरुषेय इसलिये मानते हैं कि उससे वह ग्रन्थ प्रामाणिक सिद्ध हो किन्तु अपौरुषेय प्रामाण्य की कसौटी नहीं है, यदि ऐसा है तो चोरी आदि के उपदेश को भी प्रमाण मानना होगा, क्योंकि वह भी अपौरुषेय है । वेद को अपौरुषेय मानने पर भी उसके व्याख्यान एवं अर्थ करने वाले तो पुरुष ही रहते हैं, यदि व्याख्याता पुरुष वेद के अर्थ का सही प्रतिपादन कर सकते हैं तो कोई पुरुष विशेष उसको रच भी सकता है । अंत में यही सिद्ध होता है कि वेद पुरुष रचित ही है क्योंकि उसके वाक्य पुरुष रचित जैसे ही हैं, पुरुष प्रयत्न बिना ग्रन्थ रचना सर्वथा संभव है ।
शब्द नित्यत्ववाद - शब्द नित्य व्यापक एवं प्राकाश के गुण स्वरूप हुआ करते हैं ऐसा मीमांसक का अभिमत है, शब्द को नित्य माने बिना संकेत ग्रहण पूर्वक होने वाला अर्थ ज्ञान असंभव है, अर्थात् यह घट है, घट शब्द द्वारा इस पदार्थ को कहा जाता है इत्यादि रूप से घट आदि शब्दों में प्रथम संकेत होता है पुनः किसी समय उन शब्दों को सुनकर अर्थ प्रतिभास होता है इस प्रकार संकेत काल से लेकर व्यवहार
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