Book Title: Paumchariyam Part 04
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
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पउमचरियं सा एवं वच्चन्ती, निज्झरणाइं च सलिलपुण्णाइं । पेच्छइ सराइ सीया, वरपङ्कयकुमुयछन्नाइं ॥३८॥ कत्थइ तरुघणगहणं, पेच्छइ सा सव्वरीतमसरिच्छं । कत्थइ पायवरहियं, रण्णं चिय रणरणायन्तं ॥३९॥ कत्थइ वणदवद8, रण्णं मसिधूमधूलिधूसरियं । कत्थइ नीलदुमवणं, पवणाहयपचलियदलोहं ॥४०॥ किलिकिलिकिलन्त कत्थइ, नानाविहमिलियसउणसंघटुं । कत्थइ वाणरपउरं, वुक्कारुत्तसियमयजूहं ॥४१॥ कत्थइ सावयबहुविह-अन्नोन्नावडियजुज्झसद्दालं । कत्थइ सीहभउहुय-चवलपलायन्तगयनिवहं ॥४२॥ कत्थइ महिसोरितिय', कत्थइ डुहुडुहुडुहन्तनइसलिलं । कत्थइ पुलिन्दपउरं, सहसा छुच्छु त्ति कयबोलं ॥४३॥ कत्थइ वेणुसमुट्ठिय-फुलिङ्गजालाउलं धगधगेन्तं । कत्थइ खरपवणाहय-कडयडभज्जन्तदुमगहणं ॥४४॥ कत्थइ किरित्ति कत्थइ, भिरि त्ति कत्थइ छिरित्ति रिंछाणं । सद्दो अइघोरयरो, भयजणओ सव्वसत्ताणं ॥४५॥ एयारिसविणिओगं, पेच्छन्ती जणयनन्दणी रण्णं । वच्चइ रहमारूढा, सुणइ य अइमहुरयं सदं ॥४६॥ सीया कयन्तवयणं, पुच्छड् किं राहवस्स एस सरो । तेण वि य समक्खायं, सामिणि ! अह जण्हवीसद्दो ॥४७॥ ताव च्चिय संपत्ता, वइदेही जण्हविं विमलतोयं । पेच्छइ उभयतडट्ठिय-पायवकुसुमच्चियतरङ्गं ॥४८॥ गाह-झस-मगर-कच्छभ-संघदृच्छलियवियडकल्लोलं। कल्लोलविद्दमाहय-निबद्धफेणावलीपउरं ॥४९॥ पउरवरकमलकेसर-नलिणीगुञ्जन्तमहुयरुग्गीयं । उग्गीयरवायण्णिय-सारङ्गनिविट्ठउभयतडं ॥५०॥
सैवं व्रजन्ती निर्झराणि च सलिलपूर्णानि । पश्यति सरांसि सीता वरपङ्कजकुमुदछन्नानि ॥३८॥ कुत्रचित्तरुघनगहनं पश्यति सा शर्वरीतमःसदृशम् । कुत्रचित्पादपरहितमरण्यमेव रणरणायन्तम् ।।३९॥ कुत्रचिद्वनदवदग्धमरण्यं मषिधुम्रधूलिधूसरितम् । कुत्रचिनीलद्रुमवनं पवनाहतप्रचलितदलौघम् ॥४०॥ किलिकिलिकिलन्तं कुत्रचिन्नानाविधमिलितशकुनसंघट्टम् । कुत्रचिद्वानरप्रचूरं गर्जितोत्रासितमृगयूथम् ॥४१॥ कुत्रचित्श्वापदबहुविधान्योन्यापतितयुद्धशब्दवत् । कुत्रचित्सिंहभयोपद्रुतचपलपलायमानगजनिवहम् ॥४२॥ कुत्रचिन्महीषावरितिं कुत्रचिडुहुडुहुडुहन्नदीसलिलम् । कुत्रचित्पुलिन्दप्रचूरं सहसा छुच्छ्विति कृतबोलम् ॥४३|| कुत्रचिद्वेणुसमुत्थितस्फुलिंगज्वालाकूलं धगधगन्तम् । कुत्रचित्खरपवनाहतकडकडभज्जद्रुमगहनम् ॥४४|| कुत्रचित्किरिति कुत्रचिन्मिरिति कुत्रचिच्छिरिति ऋक्षाणाम् । शब्दोऽतिघोरतरो भयजनकः सर्वसत्त्वानाम् ॥४५॥ एतादृशविनियोगं पश्यन्ती जनकनन्दनी अरण्यम् । व्रजति रथमारुढा श्रुणोति चातिमधुरं शब्दम् ॥४६॥ सीता कृतान्तवदनं पृच्छति किं राधवस्यैष स्वरः । तेनापि च समाख्यातं स्वामिनि ! अथ जाण्हविशब्दः ॥४७॥ तावदेव संप्राप्ता वैदेही जाण्हवि विमलतोयाम् । पश्यत्युभयतटस्थितपादपकुसुमार्चिततरङ्गाम् ॥४८।। ग्राह-झस-मगर-कच्छपसंघोच्छलितविकटकल्लोलाम् । कल्लोलविद्रुमाहतनिबद्धफेनावलिप्रचूराम् ॥४९॥ प्रचूरवरकमलकेसरनलिनीगुञ्जन्मधुकरोद्गीताम् । उद्गीतरवाकर्णितसारगनिविष्टोभयतटाम् ॥५०॥
९०. ०यडुहुडुहियडुहंतगिरिणईसलिलं-प्रत्य० । ९१. ०जणणो-प्रत्य० ।
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