Book Title: Paumchariyam Part 04
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिनाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइयं सक्कयछायासमलंकियं पउमचारियं (पद्मचरित्रम् ) : छायाकार-संशोधक-संपादकश्च : मुनि पार्श्वरत्नविजयः चतुर्थ विभागः : प्रकाशक: आ. ॐकारसूरी आराधना भवन, गोपीपुरा, सुरत Jain Education internatio For Pastoral & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर ग्रंथावली - ६८ सिरिनाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइयं सक्कयछायासमलंकियं पउमचरियं (पद्मचरित्रम् ) चतुर्थ: विभागः पूर्व सम्पादकः डॉ. हर्मन जेकोबी संशोधकः पुनःसम्पादकश्च मुनिपुण्यविजयः छायाकार-संशोधक-संपादकश्च मुनि पार्श्वरत्नविजयः : प्रकाशक : आ. ॐ कारसूरी आराधना भवन आ. ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर, गोपीपुरा, सुरत For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ का नाम : पउमचरियं (संस्कृत छाया सह) भाग ४ आवृत्ति प्रकाशक : प्रथम सं. २०६८ आ. ॐकारसूरी आराधना भवन गोपीपुरा, सुरत ३०० रूपये ५०० मूल्य : प्रत : प्राप्तिस्थान : • आचार्य श्रीॐकारसूरिज्ञानमंदिर आचार्य श्रीॐकारसूरि आराधनाभवन, सुभाषचोक, गोपीपुरा, सुरत फोन : ९८२४१५२७२७ • आचार्य श्रीॐकारसूरि गुरुमंदिर वावपथकनी वाडी, दशापोरवाड सोसायटी, पालडी चार रस्ता, अमदावाद-३८० ००७ फोन : ०७९-२६५८६२९३ E-mail: omkarsuri@rediffmail.com / mehta_sevantilal@yahoo.co.in • विजयभद्र चेरिटेबल ट्रस्ट पार्श्वभक्तिनगर, नेशनल हाईवे नं. १४, भीलडीयाजी. जि. बनासकांठा-३८५५३५ फोन : ०२७४४-२३३१२९, २३४१२९ • सरस्वती पुस्तक भंडार हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८० ००१ 'आख्यानक मणिकोश' संस्कत छाया के साथ ४ भाग में आगामी दिनो में प्रकाशित होंगा। मुद्रक : किरीट ग्राफीक्स ४१६, वृन्दावन शोपींग सेन्टर, रतनपोळ, अमदावाद-१, दूरभाष : ९८९८४९००९१ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ समर्पण... दीक्षादानेश्वरी युवाजागृतिप्रेरक प.पू.आ.भ.श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा.ना करकमलमां कुसुमांजली... Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पू. आ. भ. श्री अरविंदसूरी म.सा., पू.आ.भ. श्री यशोविजयसूरि म.सा. आदिनी प्रेरणा- मार्गदर्शनपूर्वक आ ग्रंथमाळामां अनेकविध ग्रंथरत्नो प्रगट थई रह्या छे. 'पउमचरियं' ग्रंथना ४ भागना प्रकाशन माटे पू. आ. भ. श्री मुनिचन्द्रसूरि म.सा. प. पू. मुनिराज श्री पार्श्वरत्नविजयजी म.सा. ने प्रेरणा अने मार्गदर्शन आप्युं अने अमारी ग्रंथमाळामां आ महाकाय ग्रंथ प्रगट करवा भलामण करी अ प्रमाणे आ ग्रंथ अमारी संस्था द्वारा प्रकट करता अमो आनंद अनुभवीओ छीओ. प्रस्तुत ग्रंथ प्रगट करवा माटे पू. मुनिराज श्रीपार्श्वरत्नविजयजी म.सा. तेमज साध्वीश्री महायशाश्रीजीओ आ ग्रंथमां प्रुफ संशोधनादि कार्योमां श्रुतभक्तिथी प्रेराई भारे जहमत उठावी छे. तेनी अमो भूरी भूरी अनुमोदना करीओ छीओ. आ साहित्यनो स्वाध्याय करी सहु आत्मकल्याणने वरे से ज अभिलाषा. For Personal & Private Use Only लि. प्रकाशक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं भाग-४ ग्रंथ प्रकाशननो संपूर्ण लाभ श्री गोवालिया टेक जैन संघ मुंबई ज्ञानद्रव्यमांथी लीधो छे. For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'पउमचरिय' प्राकृतभाषानो अनूठो ग्रंथ छे. पउम = पद्म एटले राम. आ रामचरित्र छे. सौथी जुनु जैनरामायण आ छे. आ ग्रंथ, सहु पहेला संपादन जर्मन विद्वान हर्मन जेकोबीए करेलं. ई.स. १९१४मां भावनगरनी आत्मानंद सभाए आनुं प्रकाशन करेलुं. पुनः संपादन आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजय म.ए कहूं. शांतिलाल वोराना हिंदी अनुवाद साथे प्राकृत ग्रंथ परिषद द्वारा ई.स. १९६२ अने १९६८मां बे भागमा प्रकाशित थयु. आ.भ. नरचन्द्रसूरि म.सा.ना प्रयासथी उपरोक्त ग्रंथ, पुनर्मुद्रण आ ज संस्थाए ई.स. २००५मां कयुं छे. प्राकृत ग्रंथ परिषद प्रकाशित भाग-१मां V. M. Kulkarni लिखित Introduction मां अने Dr. K. R. Chandra ए एमना Ph.D. माटेना महानिबंध A Critical Study of Paumacariyam (रीसर्च ईन्स्टीटयूट ओफ प्राकृत जैनोलोजी एन्ड अहिंसा वैशाली मुझफरपुर बिहार द्वारा प्रकाशित)मा 'पउमचरियं' विशे विगते पोतानी रीते चर्चा करी छे. अमे केटलीक वात मूळ ग्रंथ अने आ बे ग्रंथोना आधारे अहीं करीए छीए. ग्रंथकारनो समय अने शाखा सामान्य रीते मोटाभागना ग्रंथकारो पोताना कुल विषे, गुरुपरंपरा विषे अने रचना संवत विषे कशुं लखता नथी होता. सद्भाग्ये पूर्वधर ग्रंथकार श्री विमलसूरिजीए आवी बधी विगतो असंदिग्ध रीते आपी छे. छतां कमनसीबे आधुनिक विद्वानोए एमना समय विषे अने तेओश्री श्वेतांबर शाखाना दिगंबर शाखाना के यापनीय शाखाना होवा विषे भिन्न भिन्न मतो प्रगट कर्या छे. ग्रंथकारे आपेली विगतो आ प्रमाणे छे. "पंचेव य वाससया दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥ ११८-१०३ ॥ राहु नामायरिओ ससमयपरसमयगहियसहभावो । विजओ य तस्स सीसो नाइलकुलवंसनंदियरो ॥ ११८-११७ ।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीसेण तस्स रइयं, राहवचरियं तु सूरिविमलेण । सोऊणं पुव्वगए नारायण-'सीरिचरियाई ॥ ११८-११८ ॥ सुत्ताणुसारसरसं रइयं गाहाहि पायडफुडत्थं ।। विमलेण पउमचरियं संखेवेण निसामेह ॥ १-३१ ॥" अंते : "इइ नाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण महप्पेण पुव्वहरेण । विमलायरिएण विरइयं सम्मत्तं पउमचरियं ॥ ११८ ॥" 'पउमचरियं'नो उल्लेख आ.उद्योतनसूरिजीए ई.स. ७७८मां रचेला कुवलयमाळा ग्रंथमा (पेज ३:११ २७-२९) कर्यो छे. केटलाक विद्वानोनुं मानवं छे के ई.स. ६७७मां रचायेखें 'पद्मचरित' प्रस्तुत 'पउमचरिय'नो ज विस्तार छे. एटले पउमचरियं विक्रमना सातमा सैका पहेलाथी ज जाणीतुं बन्युं छे ए निश्चित छे. ग्रंथकारे आपेली माहिती प्रमाणे नाईलवंशमां सूर्यसमान आचार्य 'राहुसूरि' स्वसमय अने परसमयना विशेषज्ञ हता. तेमना शिष्य नाईलवंशने आनंद करावनार 'विजय' थया. तेमना शिष्य पूर्वधर आ. विमलसूरिए 'पूर्व'मां रहेला नारायण (वासुदेव) अने बळदेवना चरित्र सांभळीने वीरप्रभुना निर्वाणने ५३० वर्ष पसार थया त्यारे संक्षेपमा 'पउमचरिय' रच्युं छे. उद्योतनसूरिए करेला उल्लेख 'बुहयणसहस्सदइयं हरिवंसुप्पत्तिकारयं पढ़मं ।' मुजब विमलसूरिए हरिवंसनुं वर्णन करतुं कोई काव्य रच्युं होय तेम जणाय छे. जो के अत्यारे ते मळतुं नथी. ___ ग्रंथकार श्वेतांबर शाखाना ज होवाना अनेक स्पष्ट प्रमाणो ग्रंथमां उपलब्ध थाय छे. कोइ कोइ बाबतो दिगंबर संमत पण आमां जोवा मले छे ए- कारण एवं पण होय के कोइए संप्रदायव्यामोहथी ग्रंथमा फेरफार को होय. आq अनुमान करवानुं कारण ए छे के पउमचरिय २०:९५मा पूर्वमुद्रित संस्करणमां आ प्रमाणे पाठ छे. अट्ठारस तेर अट्ठ य सयाणि सेसेसु पञ्चधणुवीसं । पडिहायन्तो कमसो उस्सेहो कुलकराण इमो ॥ २०-९५ ॥ जेसलमेरनी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतनो पाठ पउमचरियं भाग-२ परिशिष्ट ७ ‘पाठान्तराणि' पृ. ८४मां आ प्रमाणे छे. नव अट्ठ सत्त सड्ढा छच्छच्च धणू अद्धछट्ठा य । पंच सया पणुवीसा उस्सेहो कुलकराण इमो ॥ पूर्वसंस्करणना पाठ मुजब कुलकरोनी ऊंचाई क्रमशः १८०० १३०० ८०० धनुष्य पछी क्रमशः २५-२५ धनुष घटाडवी एवो अर्थ अभिप्रेत छे. आवो सुधारो कागळनी प्रतोमा दिगंबरग्रंथ तिलोयपन्नत्ति ४२१:४९५ प्रमाणे १. केटलाक विद्वानोए 'सिरि'नो अर्थ बळदेव करवाना बदले 'श्री' को छे. २. एक प्रतना पाठ प्रमाणे ५२० वर्ष अने पं.कल्याणविजयजी गणिना मते 'तिसयवरिससंजुत्ता' पाठ होवो जोईए. ए प्रमाणे गणतां ई.स. २७४ पउमचरियंनो रचना संवत आवे. मुनि मौर्यरत्नविजयजीना अनुमान मुजब जो दूसमाए तिवरिससंजुत्ता पाठ होय तो वी.नि.सं. ५०३मां रचना थई एवो अर्थ थाय. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधार्यो छे तेवू स्पष्ट जणाय छे. ज्यारे जेसलमेरनी ताडपत्रीय प्रतनो पाठ प्राचीन अने स्वीकारवा योग्य होवा छतां ए प्रत मळी त्यारे ग्रंथ- मुद्रण शरू थयु होवाथी एना पाठो ७मा परिशिष्टमां अपाया छे. जे प्रतना पाठ मुजब कुलकरोनी क्रमशः ऊंचाई ९०० ८०० ७०० ६५० ६०० ५५० ५२५ धनुष्य होवानुं जणाय छे. अने आ प्रमाण आवश्यक नियुक्ति गार्था १५६ प्रमाणेनुं छे. ___ आथी स्पष्ट समजाय छे के पाछळथी कागळनी प्रतो उपर प्रतिलेखन करती वखते दिगंबर संप्रदायना अभिनिवेशथी कोईके मनस्वी फेरफारो कर्या छे. आ कारणे प्रस्तुत ग्रंथमां केटलीक वातो दिगंबरसंप्रदायानुसारी जोवा मळे छे. श्री कुलकर्णी अने चंद्रए नोंधेली केटलीक विगतो १. पउमच. २:२८-२९मां भ. महावीरप्रभना लग्ननो उल्लेख नथी. २ पउमच. २:२२ मां भ. महावीरना देवानंदानी कुक्षीमां च्यवननी वात नथी. (जो के ग्रंथकार अतिसंक्षेपमा वर्णन करता होय त्यारे अमुक घटनानो उल्लेख छोडी दे एनो अर्थ एमने ए मान्य नथी एवो करी न शकाय. जेमके त्रिशष्ठि १०मा पर्वमां देवनंदानी कुक्षीमां च्यवननो उल्लेख करनार क.स. हेमचन्द्रसूरि म.सा.ए योगशास्त्रनी टीकामां देवानंदानो उल्लेख नथी कर्यो.) ३. आवी रीते कुलकरनी संख्या १४ (३ : ५०-५६) समाधिमरण, चोथा शिक्षापदमां स्थान (१४ : ११५) वगेरे केटलीक बाबतो विद्वानोए नोंधी छे. कुलकर्णी अने चंद्रए पउमचरियंमा मात्र श्वेतांबर संप्रदायने ज स्वीकार्य थई शके एवी बाबतोनी नोंध आपी छे. केटलीक आ प्रमाणे छे. १. जिणवरमुहाओ अत्थो जो पुव्वि निग्गओ बहुवियप्पो । __ सो गणहरेहिं धरिउं संखेवमिणो य उवइट्ठो ॥ १ : १० ॥ पउमचरियंनी शरूआतमा ज जिनेश्वरना मुखथी निकळेलो अर्थ गणधरोए धारण करी उपदेश आप्यानुं जणावे छे. दिगंबरमत मुजब भगवान देशनामां कोई शब्द बोलता नथी. मात्र दिव्यध्वनि ज प्रगटतो होय छे. पं.श्री कल्याणविजयजीना मते आ मुद्दो ग्रंथकारना श्वेतांबर होवा माटे अगत्यनो छे. २. २ : २६मां मेरूकंपननी वात छे. ३. २ : ३६, ३७मां महावीरप्रभु ठेर ठेर देशना आपतां विपुलगिरि पहोंच्या. ३: ६२, २१ : १२-१४ मरूदेवा माता अने पद्मावती माताने आवेला १४ स्वप्न. (पद्मचरितमां दि. रविषेणाचार्ये १६ स्वप्न बताव्या छे.) १४ स्वप्न माटेनी गाथा गयवसह... अक्षरशः कल्पसूत्र अने ज्ञाताधर्मकथा जोडे मळती आवे छे. १. णव धणुसया य पढमो अट्ठ य सत्तद्ध-सत्तमारं च । छच्चेव अद्धछट्ठा पंचसया पण्णवीसं तु ॥ १५६ ॥ २. जो के कहेवाता विद्वानो क्यारेक साव वाहियात दलीलो करता होय छे. जेमके पउमच.मां स्थावरना पांच प्रकारो बताव्या छे माटे आ ग्रंथ दिगंबर छे एवं पंडित प्रेमी जणावे छे. (जुओ कुलकर्णीनी Introduction पेज १९) Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ८३:१२ कैकयीनु मोक्षगमन. (दिगंबरो स्त्रीओनी मुक्ति मानता नथी.) ६. ७५ : ३५-३६ बार देवलोकनुं वर्णन. (दि. १६ देवलोक माने छे.) ७. १७ : ४२ 'धर्मलाभ' शब्दनो प्रयोग. (दि. 'धर्मवृद्धि' शब्द प्रयोग करे छे.) ८. २ : ८२ वीसस्थानक वर्णन ज्ञाताधर्मकथा ८ : ६९ने मळतुं छे. ९. ४ : ५८, ५ : १६८ चक्रवर्तीनी ६४००० राणीओ (दि.मां ९६००० बतावी छे.) १०. २ : ५० समवसरणना ३ गढनुं वर्णन. (दि.मां माटीना गढ साथे ४ गढ होय छे. तिलोयपन्नत्ति ४ : ७३३) जुदा जुदा विद्वानोना अभिप्रायोनी चर्चा कर्या पछी श्रीकुलकर्णी एवा तारण उपर आवे छे के - ग्रंथकार आ.विमलसूरि श्वेतांबर संप्रदायना हता. आ निर्णय उपर आववा माटे तेओ मुख्य त्रण मुद्दाओ आ प्रमाणे जणावे छे. १. नाईलकुलवंशने नाईलीशाखा अथवा नागेन्द्रगच्छ तरीके ओळखवामां आवे छे. नंदिसूत्रमा श्वेतांबराचार्य भूतदिन्ननुं विशेषण 'नाइलकुलवंशनंदिकर' अपायुं छे. आ ज विशेषण आ. विमलसूरिए (११८ : ११७मा) पोताना गुरु माटे प्रयोज्युं छे. २. पउमचरियंमां चारथी पांच वखत 'सेयंबर' शब्दप्रयोग सहज रीते थयो छे. ३. पउमचरियंनी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत छे. श्वेतांबर संप्रदाय, मोटाभागनुं प्रकरणादि साहित्य महाराष्ट्रीय प्राकृतमां मळे छे. दिगंबरो, साहित्य महाराष्ट्री प्राकृतमां मळतुं नथी. मुख्यतया दि. साहित्य शौरसेनीमां मळे छे.) ग्रंथकारश्रीए आपेलो रचना संवत अमान्य करी केटलाक विद्वानोए जुदी मान्यता रजू करी छे. १. हर्मन जेकोबीना मते वीरनिर्वाण संवत नहीं पण विक्रमसंवत ५३०मां रचना थई हशे. २. डॉ. के. एच. ध्रुवना मते ई.स. ६७८ थी ७७८ वच्चे रचना थई छे. (जैनयुग वो.-१ भाग-२ वि.सं. १९८१ पेज ६८-६९) ३. पं. परमानंद जैन शास्त्रीना मते आ. विमलसूरि कुंदकुंदाचार्य पछी थया छे. (अनेकांत कि. १०-११ ई.स. १९४२) ४. पं. कल्याणविजयजीना मते ई.स. २७४ (डॉ. कुलकर्णी उपरना पत्रमा, जुओ डॉ. कुलकर्णिनी प्रस्तावना) ग्रंथकारे असंदिग्ध शब्दोमां जणावेल रचना संवतने न मानवा माटे विद्वानो केटलाक कारणो आपे छे. ते आवा छे. शक, सुरंग, यवन, दिनार जेवा शब्दोनो उपयोग पउमचरियंमां आवे छे ते शब्दोनो प्रयोग भारतमां मोडेथी शरू थयो छे. २. ग्रहोना नाम ग्रीक असरवाळा छे. ३. केटलाक छंदो अर्वाचीन ग्रंथमा ज जोवा मळे तेवा अहीं छे. Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जो के विद्वानोए आ कारणोने वजूद वगरना जणावी आना उत्तरो पण आप्या छे. १. 'यवन' शब्दनो उल्लेख महाभारत १२ - २०७ - ४३ मां अने पाणिनी अष्टाध्यायी अने अशोकना शिलालेखमां पण छे. 'सुरंग' शब्द अर्थशास्त्रमां पण प्रयुक्त छे. २. ग्रीक शब्दोनो परिचय ई. पूर्वे पांच-छ सदीमां पण होवाना पुरावा छे. वगेरे. समग्रतया जोईए तो ग्रंथकारो पोतानी गुरुपरंपरा रचना संवत विषे भाग्ये ज उल्लेख करता होय छे. क्यारेक रचना संवत आप्यो होय तो पण ए शक संवत के विक्रमसंवत गणवो एवा प्रश्नो थाय छे. ज्यारे अहीं तो प्रभुवीरना मोक्षगमनथी ५३० वर्ष गये छते रचना कर्यानुं लख्युं छे त्यारे एने अमान्य करवानुं कोई व्याजबी कारण जणातुं नथी. वर्तमानकाळमां संस्कृतनुं अध्ययन जेटलुं व्यापक बन्युं छे एटलुं प्राकृत भाषाओनुं बन्युं नथी. संस्कृत छाया संस्कृत अध्ययन माटे विपुल प्रमाणमां साधनग्रंथो रचाया छे. रचाय छे. कमनसीबे प्राकृत अध्ययन माटे प्रमाणमा ओछ्रं साहित्य मळे छे. अभ्यासीओए पण प्राकृत भाषाना अध्ययन माटे विशेष प्रयत्न करवो जरूरी छे एम लागे छे. ज्यारे आपणां बधा आगमग्रंथो अने अनेक प्रकरणादि ग्रंथो अर्धमागधी वगेरे प्राकृत भाषाओमां रचाया छे त्यारे साधु-साध्वीजीओए ए माटे विशेष लक्ष्य आपवुं जरूरी छे. आवा विशिष्ट अभ्यासीओनी अल्पताने कारणे घणां प्राकृत भाषाओना अमूल्य ग्रंथोनो अभ्यास घटतो रह्यो छे. आ संजोगोमां आवा प्राकृत ग्रंथोनी संस्कृत छाया बनाववानो प्रयोग शरू थयो.. ताजेतरमां आ. धनेश्वरसूरिकृत सुरसुंदरी चरियंनी संस्कृत छाया साध्वी श्री महायशाश्रीए अने संवेगरंगसाळानी मुनि मुक्ति श्रमणविजयजीए करी छे. भूतकाळमां पण सुपासनाहचरियं वगेरेनी संस्कृत छायाओ प्रगट थई छे. प्रस्तुत पउमचरियंनी पण संस्कृत छाया आ ग्रंथनो वधु अभ्यास थाय ए लक्ष्यथी करवामां आवी छे. अभ्यासीओ मूळ पउमचरियं ग्रंथने ज वांचवा प्रयत्न करे अने संस्कृत छायाने क्लिष्ट स्थळो समजवा माटे उपयोगमा ले तेवी अपेक्षा छे. मुनिश्री पार्श्वरत्नविजयजीए आ ग्रंथरत्ननी संस्कृतछाया घणा उत्साहथी बनावी ने अभ्यासीओ उपर उपकार कर्यो छे. आख्यानकमणिकोशनी प्राकृतकथाओनी संस्कृतछाया पण तेओ बनावी रह्या छे. प्राकृतसाहित्यने लोकभोग्य बनाववानो आ प्रयत्न सफळ रहे एज आशा आशीर्वाद. पू.आ.भ. श्री अरविन्दसूरीश्वरजी म. सा.ना आज्ञावर्तिनी स्व. सा. श्री सत्यरेखाश्रीजीना शिष्या विदुषी साध्वीश्री महायशाश्रीजीए ग्रंथना आदिथी अंत सुधीना प्रुफो जोया छे अने संस्कृत छायामां जरुरी परिमार्जन वगेरे कर्तुं छे. खूब खूब आशीर्वाद. पू. आ. विजयभद्रसुरीश्वरजीना शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री जिनचंद्रविजयजी म.सा.ना विनेय आ. विजयमुनिचंद्रसूरि For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ग्रन्थानुक्रमः [चतुर्थ विभाग] पृष्ठ नं. | क्रम विषय क्रम विषय पृष्ठ नं. महुरानिवेसविहाणं नाम एगूणनउयं पव्वं ९०. मणोरमालम्भविहाणं नाम नउड़यं पव्वं ९१. राम-लक्खणविभूइदंसणं नाम एक्काणउयं पव्वं ९२. जिणपूयाडोहलविहाणं नाम बाणउयं पव्वं जणचिन्ताविहाणं नाम तेणउयं पव्वं सीयानिव्वासणविहाणं नाम चउणउयं पव्वं ९५. सीयासमासासणं नाम पञ्चाणउयं पव्वं ९६. रामसोयविहाणं नाम छन्नउयं पव्वं ९७. लवणसभवविहाणं नाम सत्ताणउयं पव्वं ९८. लवकसदेसविजयं नाम अट्ठाणउयं पव्वं ९९. लवण-ऽङ्कसजुज्झविहाणं नाम नवनउयं पव्वं १००. लवणं-ऽकुससमागमविहाणं ५७०-५७४ नाम सययमं पव्वं ६२०-६२४ १०१. देवागमविहाणं नाम ५७५-५७७ एक्कोत्तरसयं पव्वं ६२५-६३० १०२. रामधम्मसवणविहाणं नाम ५७८-५८० दुस्तरसयं पव्वं ६३१-६४६ १०३. रामपुव्वभवसीयापव्वज्जा५८१-५८३ विहाणं नाम तिउत्तरसयं पव्वं ६४७-६६० १०४. लवणं-इंकुसपुव्वभवाणुकित्तणं ५८४-५८६ नाम चउस्तरसयं पव्वं ६६१-६६३ १०५. महु-केढवउवक्खाणं नाम ५८७-५९५ पञ्चुत्तरसयं पव्वं ६६४-६७२ १०६. कुमारनिक्खमणं नाम ५९६-६०० छउत्तरसयं पव्वं ६७३-६७६ १०७. भामण्डलपरलोयगमणविहाणं ६०१-६०४ नाम सत्तुत्तरसयं पव्वं ६७७-६७८ १०८. हणुवनिव्वाणगमणं नाम ६०५-६०७ अदुत्तरसयं पव्वं ६७९-६८२ १०९. सक्कसकहाविहाणं नाम ६०८-६१३ नवुत्तरसयं पव्वं ६८३-६८४ ११०. लवणं-ऽकुसतवोवणपवेसविहाणं ६१४-६१९| नाम दसुत्तरसयं पव्वं ६८५-६८८ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम विषय १११. रामविप्पलावविहाणं नाम एगादसुत्तरसयं पव्वं ११२. लक्खणविओगबिहीसणवयणं नाम बारसुत्तरसयं पव्वं ११३. कल्लाणमित्तदेवागमणं नाम तेरसुत्तरसयं पव्वं ११४. बलदेव निक्खमणं नाम चउद्दसुत्तरसयं पव्वं पृष्ठ नं. क्रम विषय पृष्ठ नं. | ११५. गोयरसंखोभविहाणं नाम ६८९-६९०] पञ्चदसुत्तरसय पव्व ७०२-७०३ | ११६. दाणपसंसाविहाणं नाम ६९१-६९२ | सोलसुत्तरसयं पव्वं ७०४-७०५ ११७. पउमस्स केवलनाणुप्पत्तिविहाणं ६९३-६९८ नाम सत्तदसुत्तरसयं पव्वं ७०६-७०९ ११८. पउमनिव्वाणगमणं नाम ६९९-७०१ अट्ठदसुत्तरसयं पव्वं ७१०-७१९ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. महुरानिवेसपव्वं अह अन्नया कयाई, विहरन्ता मुणिवरा गयणगामी । महुरापुरि कमेणं, सत्त जणा चेव अणुपत्ता ॥१॥ सुरमंतो सिरिमंतो, सिरितिल ओ सव्वसुन्दरो चेव । जयमन्तोऽणिलललिओ, अवरो वि य हवइ जयमित्तो ॥२॥ सिरिनन्दणस्स एए, सत्त वि धरणीए कुच्छिसंभूया। जाया नरवइपुत्ता, महापुरे सुरकुमारसमा ॥३॥ पीर्तिकरस्स एए, मुणिस्स दट्टण सुरवरागमणं । पियरेण सह विउद्धा, सव्वे धम्मुज्जया जाया ॥४॥ सो एगमासजायं, ठविऊणं डहरयं सुयं रज्जे । पव्वइओ सुयसहिओ, राया पीतिकरसयासे ॥५॥ केवललद्धाइसओ, काले सिरिनन्दणो गओ सिद्धि । इयरे वि सत्त रिसिया, कमेण महुरापुरिं पत्ता ॥६॥ ताव च्चिय घणकालो, समागओ मेहमुक्त जलनिवहो । जोगं लएन्ति साहू, सत्त वि ते तीए नयरीए ॥७॥ सा ताण पभावेणं, नट्ठा मारी सुराहिवपउत्ता । पुहई वि सलिलसित्ता, नवसाससमाउला जाया ॥८॥ महुरा देसेण समं, रोगविमुक्का तओ समणुजाया । पुण्डुच्छवाडपउरा, अकिट्ठसस्सेण सुसमिद्धा ॥९॥ बारसविहेण जुत्ता, तवेण ते मुणिवरा गयणगामी । पोयणविजयपुराइसु, काऊणं पारणं एन्ति ॥१०॥ अह अन्नया कयाई, साहू मज्झण्हदेसयालम्मि । उप्पइय नहयलेणं, साएयपुरिं गया सव्वे ॥११॥ || ८९. मथुरानिवेशपर्वम् अथान्यदा कदाचिद्विहरन्तो मुनिवरा गगनगामिनः । मथुरापुरि क्रमेण सप्त जना एवानुप्राप्ताः ॥१॥ सुरमंत्रः श्रीमन्त्रः श्रीतिलकः सर्वसुन्दर एव । जयमन्त्रोऽनिलललितोऽपरोऽपि च भवति जयमित्रः ॥२॥ श्रीनन्दनस्यैते सप्ताऽपि गृहिण्याः कुक्षिसंभूताः । जाता नरपतिपुत्रा महापुरे सुरकुमारसमाः ॥३॥ प्रीतिकरस्य एते मुने दृष्ट्वा सुरवरागमनम् । पित्रा सह विबुद्धा सर्वे धर्मोद्यता जाताः ॥४॥ स एकमासजातं स्थापयित्वा लघुकं सुतं राज्ये । प्रव्रजितः सुतसहितो राजा प्रीतिकरसकाशे ॥५॥ केवललब्धातिशयः काले श्रीनन्दनो गतः सिद्धिम् । इतरेऽपि सप्तर्षयः क्रमेण मथुरापुरि प्राप्ताः ॥६॥ तावदेव घनकालः समागतो मेघमुक्तजलनिवहः । योगं लान्ति साधवः सप्ताऽपि ते तस्यां नगर्याम् ॥७॥ सा तेषां प्रभावेन नष्टय मारी सुराधिपप्रयुक्ता । पृथिव्यपि सलिलसिक्ता नवशस्यसमाकूला जाता ॥८॥ मथुरा देशेन समं रोगविमुक्ता ततः समनुजाता । पुण्ड्रेक्षुवाटप्रचूराऽकृष्टशस्येन सुसमृद्धा ।।९।। द्वादशविधेन युक्तास्तपसा ते मुनिवरा गगनगामिनः । पोतनविजयपुरादिषु कृत्वा पारणकमायान्ति ॥१०॥ अथान्यदा कदाचित्साधवो मध्याह्नदेशकाले । उत्पत्य नभस्तलेन साकेतपुरं गताः सर्वे ॥११॥ १.०व संपत्ता-प्रत्य० । २. सिरिनिलओ-प्रत्य० । सिरिनिवओ-मु० । ३. पहापुरे-प्रत्य० । ४. रिसया-प्रत्य० । ५. ०क्कसलिलोहो-प्रत्य० । ६. वि सेलस्स हेटुम्मि-मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ महुरानिवेसपव्वं-८९/१-२४ भिक्खट्टे विहरन्ता, घरपरिवाडीए साहवो धीरा । ते सावयस्स भवणं, संपत्ता अरह दत्तस्स ॥१२॥ चिन्तेइ अरहदत्तो, वरिसाकाले कर्हि इमे समणा । हिण्डन्ति अणायारी, निययठाणं पमोत्तूणं ॥१३॥ पब्भारकोट्ठगाइसु, जे य ठिया जिणवराण आगारे। इह पुरवरीए समणा, ते परियाणामि सव्वे हं ॥१४॥ भिक्खं घेत्तूण तओ, पाणं चिय एसणाए परिसुद्धं । उज्जाणमज्झयारे, जिणवरभवणम्मि पविसन्ति ॥१५॥ एए पुण पडिकूला, सुत्तत्थविवज्जिया य रसलुद्धा । परिहिण्डन्ति अकाले, न य हं वन्दामि ते समणे ॥१६॥ ते सावएण साहू, न वन्दिया गारवस्स दोसेणं । सुण्हाए तस्स नवरं, तत्तो पडिलाभिया सव्वे ॥१७॥ दाऊण धम्मलाभं, ते जिणभवणं कमेण पविसंता । अभिवन्दिया जुईणं, ठाणनिवासीण समणेणं ॥१८॥ काऊण अणायारी, न वन्दिया जुइमुणिस्स सीसेहिं । भणिओ च्चिय निययगुरू, मूढो जो पणमसे एए ॥१९॥ ते तत्थ जिणाययणे, मुणिसुव्वयसामियस्स वरपडिमं । अभिवन्दिउं निविट्ठा, जुईण समयं कयाहारा ॥२०॥ ते साहिऊण ठाणं, निययंचिय पुण नहं समुप्पइया । सत्त वि अणिलसमजवा, खणेण महुरापुरि पत्ता ॥२१॥ चारणसमणे दर्दू, ठाणनिवासी मुणी सुविम्हइया । निन्दन्ति य अप्पाणं, ते च्चिय न य वन्दिया अम्हे ॥२२॥ जाव च्चिय एस कहा, वट्टइ तावागओ अरहदत्तो । जुइणा कहिज्जमाणं, ताणं गुणकित्तणं सुणइ ॥२३॥ महुराहि कयावासा, चारणसमणा महन्तगुणकलिया। सावय ! लद्धिसमिद्धा, अज्ज मए वन्दिया धीरा ॥२४॥ भिक्षार्थे विहरन्तो गृहपरिपाट्या साधवो धीराः । ते श्रावकस्य भवनं संप्राप्ता अर्हद्दत्तस्य ॥१२॥ चिन्तयत्यर्हद्दत्तो वर्षाकाले कुत्रेमे श्रमणाः । हिण्डन्तेऽनाचारिणो निजक स्थानं प्रमुच्य ॥१३॥ प्राग्भारकोष्टकादिषु ये च स्थिता जिनवराणामागारे । इह पुरवर्यां श्रमणास्तान्परिजानामि सर्वानहम् ॥१४॥ भिक्षां गृहीत्वा ततः पानमेवैषणया परिशुद्धम् । उद्यानमध्ये जिनवरभवने प्रविशन्ति ॥१५।। एते पुनः प्रतिकूलाः सूत्रार्थविवर्जिताश्च रसलुब्धाः । परिहिण्डन्तेऽकाले न चाहं वन्दे तान् श्रमणान् ।।१६।। ते श्रावकेन साधवो न वन्दिता गारवस्य दोषेण । श्नुषया तस्य नवरं ततः प्रतिलाभिताः सर्वे ॥१७॥ दत्वा धर्मलाभं ते जिनभवने क्रमेण प्रविशन्तः । अभिवन्दिता द्युतिना स्थाननिवासिना श्रमणेन ॥१८॥ कृत्वाऽनाचारिणो न वन्दिता द्युतिमुनेः शिष्यैः । भणित एव निजगुरु मूढो यः प्रणमस्येतान् ॥१९॥ ते तत्र जिनायतने मुनि सुव्रतस्वामिनो वरप्रतिमाम् । अभिवन्द्य निविष्टा द्युतिना समकं कृताहाराः ॥२०॥ ते कथयित्वा स्थानं निजकं चैव पुन नभः समुत्पतिताः । सप्ताप्यनिलसमजवाः क्षणेन मथुरापुरि प्राप्ताः ॥२१॥ चारण श्रमणान्दृष्ट्वा स्थाननिवासिनो मुनयः सुविस्मिताः । निन्दन्ति चात्मानं त एव न वन्दिता अस्माभिः ॥२२॥ यावदेवैषा कथा वर्तते तावदागतोऽर्हद्ददत्तः । द्युतिना कथ्यमानं तेषां गुणकीर्तनं श्रुणोति ॥२३॥ मथरायां कृतावासाश्चारणश्रमणा महद्गुणकलिताः । श्रावक ! लब्धिसमृद्धा अद्य मया वन्दिता धीराः ॥२४॥ १. वीरा-प्रत्य० । २. अरिह०-प्रत्य० । ३. अरिह०-प्रत्य० । ४. ०या जे य जिणवरागारे-प्रत्य० । ५. तओ अन्न पि य ए०-मु० । ६. ०ण संपत्तामु० । ७. वीरा-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ पउमचरियं अह सो ताण पहावं, सुणिऊणं सावओ विसण्णमणो । निन्दइ निययसहावं, पच्छातावेण डज्झन्तो ॥२५॥ धिद्धि त्ति मूढभावो, अहयं सम्मत्तदंसणविहूणो । अविदियधम्माधम्मो, मिच्छत्तो नत्थि मम सरिसो ॥२६॥ अब्भुट्ठाणं काउं, न वन्दिया जं मए मुणिवरा ते । तं अज्ज वि दहइ मणो, जं चिय न य तप्पिया विहिणा ॥२७॥ दट्ठण साहुरूवं, जो न चयइ आसणं तु सयराहं । जो अवमण्णइ य गुरुं, सो मिच्छत्तो मुणेयव्वो ॥२८॥ ताव च्चिय हयहिययं, डज्झिहिइ महं इमं खलसहावं । जाव न वि वन्दिया ते, गन्तूण सुसाहवो सव्वे ॥२९॥ अह सो तग्गयमणसो, नाऊणं कत्तिगी समासन्ने । जिणवन्दणाए सेट्ठी, उच्चलि ओ धणयसमविभवो ॥३०॥ रह-गय-तुरङ्गमेहि, पाइक्कसएहि परिमिओ सेट्ठी । पत्तो सत्तरिसिपयं, कत्तिगिमलसत्तमीए उ ॥३१॥ सो उत्तमसम्मत्तो, मुणीण काऊण वन्दणविहाणं । विरएइ महापूयं, तत्थुद्देसम्मि कुसुमेहिं ॥३२॥ नड-नट्ट-छत्त-चारण-पणच्चिउग्गीयमङ्गलरावं । सत्तरिसियासमपयं, सग्गसरिच्छं कयं रम्मं ॥३३॥ सत्तुग्घकुमारो वि य, सुणिऊणं मुणिवराण वित्तन्तं । जणणीए समं महुरं, संपत्तो परियणापुण्णो ॥३४॥ साहूण वन्दणं सो, काऊणाऽऽवासिओ तर्हि ठाणे विउलं करेइ पूयं, पडुपडह-मुइङ्गसद्दालं ॥३५॥ साहू समत्तनियमा, भणिया सत्तुग्घरायपुत्तेणं । मज्झ घराओ भिक्खं, गिण्हह तिव्वाणुकम्पाए ॥३६॥ समणुत्तमेण भणिओ, नवरड् ! कयकारिओ पयत्तेणं । न य कप्पइ आहारो, साहूण विसुद्धसीलाणं ॥३७॥ अकया अकारिया वि य, मणसाऽणणुमोइया य जा भिक्खा । सा कप्पइ समणाणं, धम्मधुरं उव्वहन्ताणं ॥३८॥ अथ स तेषां प्रभावं श्रुत्वा श्रावको विषण्णमनाः । निन्दति निजस्वभावं पश्चात्तापेन दहन् ॥२५॥ धिग्धिगिति मूढभावोऽहं सम्यक्त्वदर्शनविहीनः । अविदितधर्माधर्मो मिथ्यात्वो नास्ति मम सदृशः ॥२६।। अभ्युत्थानं कृत्वा न वन्दिता यन्मया मुनिवरास्ते । तमद्यापि दहति मनो यदेव न च तर्पिता विधिना ॥२७॥ दृष्ट्वा साधुरुपं यो न त्यजत्यासनं तु शीघ्रम् । योऽवमन्यते च गुरुं स मिथ्यात्वो मुणितव्यः ॥२८॥ तावदेव हतहृदयं घक्ष्यति ममेदं खलस्वभावम् । यावन्नापि वन्दितास्ते गत्वा सुसाधवः सर्वे ॥२९॥ अथ स तद्गतमना ज्ञात्वा कार्तिकी समासन्ने । जिनवन्दनायां श्रेष्ठ्युच्चलितो धनदसमविभवः ॥३०॥ रथ-गज-तुरङ्गमैः पादातिशतैः परिमितः श्रेष्ठी: । प्राप्तः सप्तर्षिपदं कार्तिकीमलसप्तम्यां तु ॥३१॥ स उत्तमसम्यक्त्वो मुनीनां कृत्वा वन्दनविधानम् । विरचयति महापूजां तत्रोद्देशे कुसुमैः ॥३२॥ नट-नाट्य-छत्र-चारण प्रणतितोद्गीतमङ्गलारावम् । सप्ताश्रमपदं स्वर्गसदृशं कृतं रम्यम् ॥३३॥ शत्रुघ्नकुमारोऽपि च श्रुत्वा मुनिवराणां वृत्तान्तम् । जनन्या समं मथुरां संप्राप्तः परिजनापूर्णः ॥३४॥ साधूनां वन्दनं स कृत्वाऽऽवासितस्तत्र स्थाने । विपुलां करोति पूजां पटुपटहमृदङ्गशब्दवतीम् ॥३५॥ साधवः समाप्तनियमा भणिताः शत्रुघ्नराजपुत्रेण । मम गृहाद्भिक्षां गृह्णीत तीव्रानुकम्पया ॥३६।। श्रमणोत्तमेन भणितो नरपते ! कृतकारितः प्रयत्नेन ।। न च कल्पत आहार: साधूनां विशुद्धशीलानाम् ॥३७॥ अकृताऽकारिताऽपि च मनसाऽननुमोदिता च या भिक्षा । सा कल्पते श्रमणानां धर्मधूरामुद्वहताम् ॥३८॥ १. काउं जं ण मए वंदिया मुणिवरा ते । अज्ज वि तं डहइ मणो ज च्चिय न-प्रत्य० । २. ०ओ णिवइसम०-प्रत्य० । ३. काऊण वंदणं सो, साहूणा550-प्रत्य। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महुरानिवेसपव्वं - ८९/२५-५२ भइ त सत्तुग्घो, भयवं जइ मे न गेण्हह घरम्मि । केत्तियमित्तं पि इहं, अच्छह कालं पुरवरीए ॥३९॥ तुभेत्थ आगहिं, समयं रोगेहि ववगया मारी । नयरी वि सुहसमिद्धा, जाया बहुसासपरिपुणा ॥४०॥ एव भणिओ पत्तो, सेणिय ! मुणिपुङ्गवो सभावन्नू । सत्तुग्घ ! मज्झ वयणं, निसुणेहि हियं च पत्थं च ॥४१॥ इह भारहम्मि वासे, वोलीणे नन्दनरवईकाले । होही पविरलगहणो, जिणधम्मो चेव दुसमाए ॥४२॥ होहिन्ति कुपासण्डा, बहवो उप्पाय - ईइसंबन्धा । गामा मसाणतुल्ला, नयरा चिय पेयलोयसमा ॥ ४३॥ चोरा इव रायाणो, होहिन्ति नरा कसायरयबहुला । मिच्छत्तमोहियमई, साहूणं निन्दणुज्जुत्ता ॥४४॥ जं चेव अप्पसत्थं, तं सुपसत्थं ति मन्नमाणा ते । निस्संजम - निस्सीला, नरए पडिहिन्ति गुरुकम्मा ॥४५॥ निब्भच्छूिण साहू, मूढा दाहिन्ति चेव मूढाणं । बीयं व सीलापट्टे, न तस्स दाणस्स परिवुड्डी ॥४६॥ चण्डा कसायबहुला, देसा होहिन्ति कुच्छियायारा । हिंसा - ऽलिय- चोरिक्का, काहिन्ति निरन्तरं मूढा ॥४७॥ वय-नियम-सील-संजम-रहिएसु अणारिएसु लिङ्गीसु । वेयारिही जणो विय, विविहकुपासण्डसत्थेसु ॥४८॥ धण-रयणदव्वरहिया, लोगा पिइ - भाइ वियलियसिणेहा । होहिन्ति कुपासण्डा, बहवो दुसमाणुभावेणं ॥४९॥ सत्तुग्घ ! एव नाउं कालं दुसमाणुभावसंजणियं । होहि जिणधम्मनिरओ, अप्पहियं कुणसु सत्तीए ॥ ५० ॥ सायारधम्मनिरओ, वच्छलसमुज्जओ जणे होउं । ठावेऊण जिणणं, घरे घरे चेव पडिमाओ ॥५१॥ सत्तुग्ध ! इह पुरीए, चउसु वि य दिसासु सत्तरिसियाणं । पडिमाउ ठवेहि लहुं, होही सन्ती तओ तुज्झं ॥५२॥ भणति ततः शत्रुघ्नो भगवन् ! यदि मे न गृहणुत गृहे । कतिपयमात्रमपीहावं कालं पुरवर्याम् ॥३९॥ युस्माभिरत्रागतैः समकं रोगैर्व्यपगता मारी । नगर्यपि सुखसमृद्धा जाता बहुशस्यपरिपूर्णा ॥४०॥ 1 एवं भणितः प्रोक्तः श्रेणिक ! मुनिपुङ्गवः स्वभावज्ञः । शत्रुघ्न ! मम वचनं निश्रुणु हितं च पथ्यं च ॥४१॥ इह भरते वर्षे व्यतीते नन्दनरपतिकाले । भविष्यति प्रविरलग्रहणो जिनधर्म एव दुःषमायाम् ॥४२॥ भविष्यन्ति कुपाखण्डा बहव उत्पादेतिसंभवाः । ग्रामाः स्मशानतुल्या नगराः चैव प्रेतलोकसमाः ||४३| चौरा इव राजानो भविष्यन्ति नराः कषायरजोबहुलाः । मिथ्यात्वमोहितमतयः साधूनां निन्दनोद्युक्ताः ||४४|| यदेवाप्रशस्तं तं सुप्रशस्तमिति मन्यमानास्ते । निः संयम - निः शीला नरके पतिष्यन्ति गुरुकर्माणः ॥ ४५॥ निर्भत्स्य साधून्मूढा दास्यन्ति एव मूढेभ्यः । बीजं च शिलापट्टे न तस्य दानस्य परिवृद्धिः ॥ ४६ ॥ चण्डाः कषायबहुला देशा भविष्यन्ति कुत्सिताचाराः । हिंसाऽलिकचौरिकाः करिष्यन्ति निरतरं मूढाः ॥४७॥ व्रत-नियम-शील-संयम- रहितैरनार्यै लिङ्गिभिः । प्रतायिष्यते जनोऽपि च विविधकुपाखण्डशास्त्रैः ॥४८॥ धन-रत्नद्रव्यरहिता लोकाः पितृ-भातृविगलितस्नेहाः । भविष्यन्ति कुपाखण्डा बहवो दुःषमानुभावेन ॥४९॥ शत्रुघ्न ! एवं ज्ञात्वा कालं दुःषमानुभावसंजनितम् । भव जिनधर्मनिरत आत्महितं कुरु शक्त्या ॥५॥ साकारधर्मनिरतो वात्सल्यसमुद्यतो जने भूत्वा । स्थापत्वय जिनानां गृहे गृह एव प्रतिमाः ॥५१॥ शत्रुघ्न ! इह पुर्यां चतुर्ष्वपि दिक्षु सप्तर्षीणाम् । प्रतिमाः स्थापय लघु भविष्यति शान्तिस्ततस्तव ॥५२॥ १. हु- प्रत्य० । 1 For Personal & Private Use Only ५७३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ पउमचरियं अज्जपभूईए इहं, जिणपडिमा जस्स नत्थि निययघरे । तं निच्छएण मारी, मारिहिइ मयं व जह वग्घी ॥५३॥ अङ्गट्ठपमाणा वि हु, जिणपडिमा जस्स होहिइ घरम्मि । तस्स भवणाउ मारी, नासिहिइ लहुं न संदेहो ॥५४॥ भणिऊण एवमेयं, सेट्ठिसमग्गेण रायपुत्तेणं । अहिवन्दिया मुणी ते, सत्त वि परमेण भावेणं ॥५५॥ दाऊण धम्मलाहं, ते य मुणी नहयलं समुप्पइया । चारणलद्धाइसया, सीयाभवणे समोडण्णा ॥५६॥ भवणङ्गणट्ठिया ते, सीया दट्टण परमसद्धाए । परमन्नेण सुकुसला, पडिलाहइ साहवो सव्वे ॥५७॥ दाऊण य आसीसं, जहिच्छियं मुणिवरा गया देसं । सत्तुग्यो वि य नयरे, ठावेइ जिणिन्दपडिमाओ॥५८॥ सत्तरिसीण वि पडिमाउ, तत्थ फलएसु सन्निविट्ठाओ। कञ्चणरयणमईओ, चउसु वि य दिसासु महुराए ॥५९॥ देसेण समं नयरी, सव्वा आसासिया भयविमुक्का । धण-धन्न-रयणपुण्णा, जाया महुरा सुरपुरि व्व ॥६०॥ तिण्णेव जोयणाई, दीहा नव परिरएण अहियाई । भवणेसु उववणेसु य, रेहइ महुरा तलाएसु ॥१॥ जाया नरिन्दसरिसा, कुडुम्बिया नरवई धणयतुल्ला । धम्म-ऽत्थ-कामसहिया, मणुया जिणसासणुज्जुत्ता ॥६२॥ महुरापुरीए एवं, आणाईसरियरिद्धिसंपन्नं । रज्जं अणोवमगुणं, सत्तुग्यो भुञ्जइ जहिच्छं ॥३॥ ___ एयं तु जे सत्तमुणीण पव्वं, सुणन्ति भावेण पसन्नचित्ता। ते रोगहीणा विगयन्तराया, हवन्ति लोए विमलंसुतुल्ला ॥६४॥ ॥ इइ पउमचरिए महुरानिवेस विहाणं नाम एगणनउयं पव्वं समत्तं ॥ अद्यप्रभृत्येह जिनप्रतिमा यस्य नास्ति निजगृहे । तं निश्चितेन मारी मारिष्यति मृगमिव यथा व्याघ्री ॥५३॥ अङ्गुष्ठप्रमाणाऽपि खलु जिनप्रतिमा यस्य भविष्यति गृहे । तस्य भवनान्मारी नक्ष्यति लघु न संदेहः ॥५४॥ भणित्वेवमेतच्छ्रेष्ठिसमग्रेण राजपुत्रेण । अभिवन्दिता मुनयस्ते सप्तापि परमेण भावेन ॥५५॥ दत्वा धर्मलाभं ते च मुनयो नभस्तलं समुत्पतिताः । चारणलब्धातिशयाः सीताभवने समवर्तीणाः ॥५६॥ भवनागनस्थिता तान् सीता दृष्ट्वा परमश्रद्धया । परमान्नेन सुकुशला प्रतिलाभयति साधून् सर्वान् ॥५७|| दत्वा चाशीषं यथेच्छं मुनिवरा गता देशम् । शत्रुघ्नोऽपि च नगरे स्थापयति जिनेन्द्रप्रतिमाः ॥५८॥ सप्तर्षीणामपि प्रतिमास्तत्र फलकेषु सन्निविष्टाः । कञ्चनरत्नमय्यश्चतुर्ध्वपि च दिक्षु मथुरायाम् ॥५९॥ देशेन समं नगरी सर्वाऽऽश्वासिता भयविमुक्ता । धनधान्यरत्नपूर्णा जाता मथुरा सुरपूरीव ॥६०॥ त्रिण्येव योजनानि दीर्घा नव परिरयेणाधिकानि । भवनैरुपवनैश्च शोभते मथुरा तडागैः ॥६१।। जाता नरेन्द्रसदृशाः कुटुम्बिका नरपते ! धनदतुल्याः । धर्माऽर्थकामसहिता मनुष्या जिनशासनोद्युक्ताः ॥६२॥ । मथुरापूर्यामेवमाज्ञैश्चर्यद्धिसंपन्नम् । राज्यमनुपमगुणं शत्रुघ्नो भुनक्ति यथेच्छम् ॥६३| एतत्तु ये सप्तमुनीनां पर्वं श्रुण्वन्ति भावेन प्रसन्नचित्ताः । __ ते रोगहीना विगतान्तराया भवन्ति लोके विमलांशुतुल्याः ।।६४॥ ॥इति पद्मचरिते मथुरानिवेशविधानं नामैकोननवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. अज्जप्पभिई च इह-प्रत्य० । २. आवासिया-प्रत्य० । ३. ०सभिहाणं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. मणोरमालंभपव्वं अह वेयड्डनगवरे, दाहिणसेढीए अत्थि रयणपुरं । विज्जाहराण राया, रयणरहो तत्थ विक्खाओ ॥१॥ नामेण चन्दवयणा, तस्स पिया तीए कुच्छिसंभूया । रूव-गुण- जोव्वणधरी, मणोरमा सुरकुमारिसमा ॥२॥ तं पेच्छिऊण राया, जोव्वणलायण्ण कन्तिपडिपुण्णं । तीए वरस्स कज्जे, मन्तीहि समं कुणइ मन्तं ॥३॥ ताव च्चिय हिण्डन्तो, तं नयरं नारओ समणुपत्तो । दिन्नासणोवविट्ठो, रयणरहं भणइ मुणियत्थो ॥४॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, भाया पउमस्स लक्खणो वीरो । किं न सुओ ते नरवइ ?, तस्स इमा दिज्जइ कन्ना ॥५॥ तं एव जंपमाणं, सोऊणं पवणवेगमाईया । रुट्ठा रयणरहसुया, सयणवहं सुमरिडं बहवे ॥६॥ अह तेहि निययभिच्चा, आणत्ता किंकरा हणह एयं । तं सुणिय भउव्विग्गो, उप्पड़ ओ नारओ रुट्ठो ॥७॥ संपत्तो च्चिय सहसा, एयं सो लक्खणस्स निस्सेसं । वत्तं कहेइ एत्तो, मणोरमाई सुरमुणी सो ॥८॥ अह सो चित्तालिहियं, कन्नं दावेइ लच्छिनिलयस्स । जयसुन्दरीण सोहं, हाऊण व होज्ज निम्मविया ॥ ९ ॥ तं पेच्छिऊण विद्धो, वम्महबाणेहि लक्खणो सहसा । चिन्तेइ तग्गयमणो, हियएण बहुप्पयाराई ॥१०॥ जइ तं महिलारयणं अहयं न लभामि तो इमं रज्जं । विफलं चिय निस्सेसं, जीयं पि य सुन्नयं चेव ॥११॥ ९०. मनोरमालाभपर्वम् अथ वैताढ्यनगवरे दक्षिण श्रेण्यामस्ति रत्नपुरम् । विद्याधराणां राजा रत्नरथस्तत्र विख्यातः ॥ १ ॥ नाम्ना चन्द्रवदना तस्यप्रिया तस्याः कुक्षिसंभूता । रुप-गुण-यौवनधरी मनोरमा सुरकुमारि समा ॥२॥ तां दृष्ट्वा राजा यौवनलावण्यकान्तिपरिपूर्णाम् । तस्या वरस्य कार्ये मन्त्रिभिः समं करोति मन्त्रम् ॥३॥ तावदेव हिण्डमानस्तं नगरं नारदः समनुप्राप्तः । दत्तासनोपविष्टो रत्नरथं भणति मुणितार्थः ॥४॥ दशरथनृपस्य पुत्रो भ्राता पद्मस्य लक्ष्मणो वीरः । किं न श्रुतस्त्वया नरपते ! तस्मा इमा दीयते कन्या ॥५॥ तमेवं जल्पन्तं श्रुत्वा पवनवेगादयः । रुष्टा रत्नरथसुताः स्वजनवधं स्मृत्वा बहवः ||६|| अथ तै र्निजभृत्या आज्ञाप्ताः किंकरा घ्ननतैनम् । तच्छ्रुत्वा भयोद्विग्न उत्पतितो नारदो रुष्टः ॥७॥ संप्राप्त चैव सहसा एतत्स लक्ष्मणस्य निःशेषाम् । वार्तां कथयतीतो मनोरमादिं सुरमुनिः सः ॥८॥ अथ स चित्रालिखितां कन्यां दर्शयति लक्ष्मीनिलयस्य । जगत्सुन्दरीणां शोभां हित्वेव भवेन्निर्मापिता ||९|| तां दृष्ट्वा विद्धः कामबाणै र्लक्ष्मणः सहसा । चिन्तयति तद्गतमना हृदयेन बहुप्रकाराणि ॥१०॥ यदि तन्महिलारत्नमहं न लभे तदेदं राज्यम् । विफलमेव निःशेषं जीवितमपि च शून्यमेव ॥११॥ १. ०कंतिसंपुन्नं प्रत्य० । २. धीरो - प्रत्य० । ३. ० इउं णारओट्टो - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ पउमचरियं रयणरहनन्दणाणं, विचेट्ठिये नारएण परिकहिए । रुट्ठो य लच्छिनिलओ, सद्दाविय पत्थिवे चलिओ ॥१२॥ विज्जाहरेहि समयं, गयवर-रह-तुरय-जोहपरिकिण्णा । उप्पइया गयणयलं, हलहर-नारायणा सिग्धं ॥१३॥ संपत्ता रयणपुरं, कमेण असि-कणय-तोमरविहत्था । दगुण आगया ते, रयणरहो खेयरो रुट्ठो ॥१४॥ भडचडगरेण सहिओ, विणिग्गओ परबलं अइसयन्तो । जुज्झइ रणपरिहत्थो, जोहसहस्साइ घाएन्तो ॥१५॥ रयणरहस्स भडेहिं, निद्दयपहराहयं पवगसेन्नं । रुद्धं संगाममुहे, सायरसलिलं व तुङ्गेहिं ॥१६॥ दट्टण निययसेन्नं रुट्ठो लच्छीहरो रहारूढो । अह जुज्झिउं पवत्तो, घाएन्तो रिउभडे बहवे ॥१७॥ पउमो किक्किन्धवई, विराहिओ अङ्गओ य आण्णत्तो । जुज्झइ सिरिसेलो वि य, समयं चिय वेरियभडेहिं ॥१८॥ वाणरभडेसु भग्गं, तिव्वपहाराहयं रिउबलं तं । विवडन्तजोह-तुरयं, जायं च पलायणुज्जुत्तं ॥१९॥ रयणरहेण समाणं, भग्गं दट्ठण नारओ सेन्नं । अङ्गाइ विप्फुरन्तो, हसइ च्चिय कहकहारावं ॥२०॥ एए ते अइचवला, दुच्चेट्ठा खेयराहमा खुद्दा । पलयन्ति पवणवेगा, लक्खणगुणनिन्दया पावा ॥२१॥ पियरं पलायमाणं, दट्ठण मणोरमा रहारूढा । पुव्वं सिणेहहियया, सहसा लच्छीहरं पत्ता ॥२२॥ सा भणइ पायवडिया, मुञ्च तुमं भिउडिभङ्गरं कोवं । एयाण देहि अभयं, लच्छीहर! मज्झ सयणाणं ॥२३॥ सोमत्तणं पवन्ने, चक्कहरे आगओ सह सुएहिं । रयणरहो कयविणओ, समाहिओ राम-केसीहिं ॥२४॥ रत्नरथनन्दनानां विचेष्टिते नारदेन परिकथिते । रुष्टश्च लक्ष्मीनिलयः शब्दाय्य पार्थिवांश्चलितः ॥१२॥ विद्याधरैः समकं गजवर-रथ-तुरग-योधपरिकीर्णौ । उत्पतितौ गगनतलं हलधर-नारायणौ शीघ्रम् ॥१३॥ संप्राप्ता रत्नपुरं क्रमेणासि-कनक-तोमरविहस्तौ । दृष्ट्वाऽऽगतांस्तान् रत्नरथः खेचरो रुष्टः ॥१४॥ भटसमूहेण सहितो विनिर्गतः परबलमतिशयन् । युध्यते रणदक्षो योधसहस्राणि घातयन् ॥१५॥ रत्नरथस्य भटै निर्दयप्रहाराहतं प्लवंगसैन्यम् । रुद्धं संग्राममुखे सागरसलिलमिव तुगैः ॥१६॥ दृष्ट्वा निजसैन्यं रुष्टो लक्ष्मीधरो रथारुढः । अथ योद्धं प्रवृत्तः घातयन् रिपुभटान् बहून् ॥१७॥ पद्मः किष्किन्धिपति विराधितोऽङ्गदश्चान्यतः । युध्यते श्रीशैलोऽपि च समकमेव वैरिभटैः ॥१८॥ वानरभटै भग्नं दृष्ट्वा नारद: सैन्यम् । अङ्गानि विस्फुरन् हसत्येव कहकहारावम् ॥२०॥ एते ते ऽतिचपला दुश्चेष्टाः खेचराधमाः क्षुद्राः । पलायन्ते पवनवेगा लक्ष्मणगुणनिन्दकाः पापाः ॥२१॥ पितरं पलायमानं दृष्ट्वा मनोरमा रथारुढा । पूर्व स्नेहहृदया सहसा लक्ष्मीधरं प्राप्ता ॥२२॥ सा भणति पादपतिता मुञ्च त्वं भृकुटिभङ्गुरं कोपम् । एतेभ्यो देह्यभयं लक्ष्मीधर ! मम स्वजनेभ्यः ॥२३।। सोमत्वं प्रपन्ने चक्रधरे आगतः सह सुतैः । रत्नरथः कृतविनयः समाहितो रामकेशिभ्याम् ॥२४॥ रत्नरथं भणति ततो हसित्वा नारदोऽतिमहद् । भटव्याहृतं कुत्र तत्तव गतं यत्पुरा भणितम् ॥२५॥ १. किक्किंधिवई-प्रत्य० । २. पुट्वि-प्रत्य० । ३. राम-केसीणं-प्रत्य० । ४. वोक्कियं(दे.)-व्याहृतम् (ललकार)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणोरमालंभपव्वं - ९० / १२-३० रयणरहं भणइ तओ, हसिऊणं नारओ अइमहन्तं । भडवोक्कियं कहिं तं, तुज्झ गयं जं पुरा भणियं ॥ २५ ॥ एवं रयणरहेणं पडिभणिओ नारओ तुमे कोवं । नीएण अम्ह जाया, उत्तमपु रिसेसु सह पीई ॥२६॥ अह ते रयणरहेणं हलहर - नारायणा पुरिं निययं । ऊसियधयापडायं, पवेसिया कणगपायारं ॥ २७॥ दिन्ना कणगरहेणं, सिरिदामा हलहरस्स वरकन्ना । लच्छीहरस्स वि तओ, मणोरमा सव्वगुणपुण्णा ॥२८॥ वत्तं पाणिग्गहणं, कमेण दोण्हं पि पवररिद्धीए । विज्जाहरीहि समयं रयणपुरे राम केसीणं ॥ २९ ॥ एवं पयण्डा वि अरी पणामं, वच्चन्ति पुण्णोदयदेसकाले । रस्स रिद्धी व हु होइ तुङ्गा, तम्हा, खु धम्मं विमलं करेह ॥ ३० ॥ ॥ इइ पउमचरिए मणोरमालम्भविहाणं नाम नउड्यं पव्वं समत्तं ॥ एवं रत्नरथेन प्रतिभणितो नारदस्त्वया कोपम् । नीतेनास्माकं जातोत्तमपुरुषैः सह प्रीतिः ||२६|| अथ तौ रत्नरथेन हलधर - नारायणौ पुरीं निजाम् । उच्छ्रितध्वजापताकां प्रवेशितौ कनकप्राकाराम् ॥२७॥ दत्ता कनकरथेन श्रीदामा हलधरस्य वरकन्या । लक्ष्मीधरस्यापि ततो मनोरमा सर्वगुणपूर्णा ॥२८॥ वृत्तं पाणिग्रहणं क्रमेण द्वयोरपि प्रवरर्द्धया । विद्याधरिभिः समकं रत्नपुरे रामकेश्योः ॥ २९ ॥ एवं प्रचण्डा अप्यरयः प्रणामं गच्छन्ति पुण्योदयदेशकाले । नरस्यद्धिरपि खलु भवति तुड्गा तस्मात्खलु धर्मं विमलं कुरुत ॥३०॥ ॥ इति पद्मचरिते मनोरमालाभविधानं नाम नवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ० पुरिसेण स० मु० । For Personal & Private Use Only ५७७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ९१. राम-लक्खणविभूइपव्वं । अन्ने वि खेयरभडा, वेयड्ढे दाहिणाए सेढीए । निवसन्ति लक्खणेणं, ते सव्वे निज्जिया समरे ॥१॥ जे रामसासण गया, विज्जाहरपत्थिवा महिड्डीया । निसुणेहि ताण सेणिय !, नामाइं रायहाणीणं ॥२॥ आइच्चाहिं नयरं, तहेव सिरिमन्दिरं गुणपहाणं । कञ्चणपुरं च एत्तो, भणियं सिवमन्दिरं रम्मं ॥३॥ गन्धव्वं अमयपुरं तहेव लच्छीहरं मुणेयव्वं । मेहपुरं रहगीयं, चक्कउरं नेउरं हवइ ॥४॥ सिरिबहुरवं च भणियं, सिरिमलयं सिरिगुहं च रविभूसं । तह य हरिद्वयनामं, जोइपुरं होइ सिरिछायं ॥५॥ गन्धारपुरं मलयं, सीहपुरं चेव होइ सिरिविजयं । जक्खपुरं तिलयपुरं, अन्नाणि वि एव बहुयाणि ॥६॥ नयराणि लक्खणेणं, जियाइ विज्जाहराणुकिण्णाई । वसुहा य वसे ठविया सत्तसु रयणेसु साहीणा ॥७॥ चक्कं छत्तं च धj, सत्ती य गया मणी असी चेव । एयाइ लच्छिनिलओ, संपत्तो दिव्वरयणाइं ॥८॥ पुणरवि मगहाहिवई, पुच्छड़ गणनायगं पणमिळणं । भयवं ! लवंकुसाणं, उप्पत्तिं मे परिकहेहि ॥९॥ लच्छीहरस्स पुत्ता, कइ वा महिलाउ अग्गमहिसीओ । एव परिपुच्छिओ सो, कहिऊण मुणी समाढत्तो ॥१०॥ निसुणेहि मगहसामिय !, महाणपुरिसाण उत्तमं रज्जं । भुञ्जन्ताण य बहुया, मासा वरिसा य वच्चन्ति ॥११॥ ९१. रामलक्ष्मणविभूतिपर्वम् अन्येऽपि खेचरभटा वैताढ्ये दक्षिणायां श्रेण्याम् । निवसन्ति लक्ष्मणेन ते सर्वे निर्जिताः समरे ॥१॥ ये रामशासनगता विद्याधरपार्थिवा महद्धिकाः । निश्रुणु तेषां श्रेणिक ! नामानि राजधानीनाम् ॥२॥ आदित्याभं नगरं तथैव श्रीमन्दिरं गुणप्रधानम् । कञ्चनपुरं चेतो भणितं शिवमन्दिरं रम्यम् ॥३॥ गान्धर्वममृतपुरं तथैव लक्ष्मीधरं मुणितव्यम् । मेघपुरं रथगीतं चक्रपुरं नुपूरं भवति ॥४॥ श्रीबहुरवं च भणितं श्रीमलयं श्रीगृहं च रविभूषम् । तथा च हरिध्वजनाम ज्योतिष्पुरं भवति श्रीच्छायम् ।।५।। गन्धारपुरं मलयं सिंहपुरमेव भवति श्रीविजयम् । यक्षपुरं तिलकपुरमन्यान्यप्येवं बहूनि ॥६॥ नगराणि लक्ष्मणेन जितानि विद्याधरानुकीर्णानि । वसुधा च वशे स्थापिता सप्तै रत्नैःस्वाधीना ॥७॥ चक्रं छत्रं च धनुः शक्तिश्च गदा मण्यसि चैव । एतानि लक्ष्मीनिलयः संप्राप्तो दिव्यरत्नानि ॥८॥ पुनरपि मगधाधिपतिः पृच्छति गणनायकं प्रणम्य । भगवन् ! लवणांकुशानामुत्पत्तिर्मे परिकथय ॥९॥ लक्ष्मीधरस्य पुत्राः कति वा महिला अग्रमहिष्यः । एवं परिपृष्टः सः कथयितुं मुनिः समारब्धः ॥१०॥ निश्रुणु मगधस्वामिन् ! प्रधानपुरुषाणामुत्तमं राज्यम् । भुञ्जतां च बहवो मासा वर्षाश्च व्रजन्ति ॥११॥ १. ०णरया-मु० । २. ०पुरं नरगीयं-मु० । ३. रविभासं-प्रत्य० । रविभारं-प्रत्य० । ४. अरिंजयणाम-प्रत्य० । ५. गणी-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ राम-लक्खणविभूइपव्वं -९१/१-२४ तुङ्गकुलजाइयाणं, उत्तमगुण-रूव-जोव्वणधरीणं । दस छ च्चेव सहस्सा, रामकणिट्ठस्स महिलाणं ॥१२॥ अट्ठ महादेवीओ, सव्वाण वि ताण उत्तमगुणाओ । ताओ निसुणेहि नरवइ !, नामेहि कहिज्जमाणीओ ॥१३॥ दोणघणसुया पढमा, होइ विसल्ल त्ति नाम नामेणं । बिइया पुण रूवमई, तइया कल्लाणमाला य ॥१४॥ वणमाला य चउत्थी, पञ्चमिया चेव होइ रमाला । छट्ठी वि य जियपउमा, अभयमई सत्तमी भणिया ॥१५॥ अन्ते मणोरमा वि य, अट्ठमिया होइ सा महादेवी । लच्छीहरस्स एसा, रूवेण मणोरमा इट्ठा ॥१६॥ पउमस्स महिलियाणं, अट्ठ सहस्साइ रूवकलियाणं । ताणं पुण अहियाओ, चत्तारि इमेहि नामेहिं ॥१७॥ पढमा उ महादेवी, सीया बीया पहावई भणिया । तइया चेव इनिहा, सिरिदामा अन्तिमा भवइ ॥१८॥ अड्डाइज्जा उसया, लक्खणपुत्ताण गुणमहन्ताणं । साहेमि ताण मज्झे, कइवइयाणं तु नामाई ॥१९॥ वसहो धरणो चन्दो, सरहो मयरद्धओ मुणेयव्यो । हरिणाहो य सिरिधरो, तहेव मयणो कुमारवरो ॥२०॥ अह ताण उत्तमा जे, अट्ठ जणा सिरिधरस्स अङ्गहा । जाण सहावेण जणो, गुणाणुरत्तो धिई कुणइ ॥२१॥ अह सिरिधरो त्ति नामं, दोणघणसुयाए नन्दणो वीरो । पुत्तो रूवमईए, पुहईतिलओ तिलयभूओ ॥२२॥ कल्लाणमालिणीए, मङ्गल निलओ सुओ परमरूवो । विमलप्पहो त्ति नामं, पुत्तो पउमावईए वि ॥२३॥ पुत्तो वणमालाए, अज्जुणविक्खो त्ति नाम विक्खाओ। अइविरियस्स सुयाए, तणओ वि य हवइ सिरिकेसी ॥२४॥ तुड्गकुलजातीनामुत्तमगुणरुपयौवनधारीणाम् । दश षडेव सहस्रा रामकनिष्ठस्य महिलानाम् ॥१२॥ अष्टौ महादेव्यः सर्वासामपि तासामुत्तमगुणाः । ताः निश्रूणु नरपते ! नामभिः कथयिष्यमाणाः ॥१३॥ द्रोणघनंसुता प्रथमा भवति विशल्येति नाम नाम्ना । द्वितीया पुना रूपमती तृतीया कल्याणमाला च ॥१४॥ वनमाला च चतुर्थी पञ्चमी एव भवति रतिमाला । षष्ठ्यपि च जितपद्माऽभयमती सप्तमी भणिता ॥१५॥ अन्ते मनोरमाऽपि चाष्टमी भवति सा महादेवी । लक्ष्मीधरस्यैषा रुपेण मनोरमेष्टा ॥१६॥ पद्मस्य महिलानामष्ट सहस्राणि रुपकलितानाम् । तासां पुनरधिकाश्चत्वार इमाभि र्नामभिः ॥१७॥ प्रथमा तु महादेवी सीता द्वितीया प्रभावती भणिता । तृतीयैव रतिनिभा श्रीदामाऽन्तिमा भवति ॥१८॥ अर्धतृतीयास्तु शता लक्ष्मपुत्राणां गुणमहताम् । कथयामि तेषां मध्ये कतिपयानां तु नामानि ॥१९॥ वृषभो धरणश्चन्द्रः शरभो मकरध्वजो मुणितव्यः । हरिनाथश्च श्रीधरस्तथैव मदनः कुमारवरः ॥२०॥ अथ तेषामुत्तमा येऽष्टौ जना सीरीधरस्याङ्गरुहाः । येषां स्वभावेन जनो गुणानुरक्तो धृतिं करोति ॥२१॥ अथ श्रीरीधर इति नाम द्रोणधनसुताया नन्दनो वीरः । पुत्रो रुपमत्याः पृथिवीतिलकस्तिलकभूतः ॥२२॥ कल्याणमालिन्या मङ्गलनिलयः सुतः परमरुपः । विमलप्रभ इति नाम पुत्रः पद्मावत्या अपि ॥२३॥ पुत्रो वनमालाया अर्जुनवृक्ष इति नाम विख्यातः । अतिवीर्यस्य सुतायास्तनयोऽपि च भवति श्रीकेशी ॥२४॥ १. लतिलओ-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० पउमचरियं नामेण सव्वकित्ती, अभयमइसुओ सुरो व्व रूवेणं । इयरो सुपासकित्ती, मणोरमाकुच्छिसंभूओ ॥२५॥ सव्वे वि रूवमन्ता, सव्वे बलविरियसत्तिसंपन्ना । पुहइयले विक्खाया, पुत्ता लच्छीहरस्सेए ॥२६॥ ते देवकुमारा इव, अन्नोन्नवसाणुगा घणसिणेहा । साएयपुरवरीए, अच्छन्ति सुहं अणुहवन्ता ॥२७॥ अह अद्धपञ्चमाओ, कोडीओ सव्वनिवइपुत्ताणं । सोलस चेव सहस्सा, राईणं बद्धमउडाणं ॥२८॥ __एवं तिखण्डाहिवइत्तणं ते, पत्ता महारज्जसुहं पसत्थं । गमेन्ति कालं वरसुन्दरीसु, सेविज्जमाणा विमलप्प हावा ॥२९॥ ॥ इइ पउमचरिए राम-लक्खणविभूइदंसणं नाम एक्काणउयं पव्वं समत्तं ॥ नाम्ना सर्वकीतिरभयमतीसुतः सुर इव रुपेण । इतरः सुपार्श्वकीतिर्मनोरमाकुक्षिसंभूतः ॥२५॥ सर्वेऽपि रुपवन्तः सर्वे बलवीर्यशक्तिसंपन्नाः । पृथिवीतले विख्याताः पुत्रा लक्ष्मीधरस्यैते ॥२६।। ते देवकुमारा इवान्योन्यवशानुगाः घनस्नेहाः । साकेतपुरवर्यामासते सुखमनुभवन्तः ॥२७॥ अथार्धपञ्चमा कोटयः सर्वनृपतिपुत्राणाम् । षोडशैव सहस्रा राज्ञां बद्धमुकुटानाम् ॥२८॥ एवं त्रिखण्डाधिपतित्वं तौ प्राप्तौ महाराज्यसुखं प्रशस्तम् । गमयति: कालं वरसुन्दरिभिः सेव्यमानौ विमलप्रभावौ ॥२९॥ ॥इति पद्मचरिते रामलक्ष्मणविभूतिदर्शनं नामैकनवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १.०प्पहासा-मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. सीयाजणपूयाडोहलपव्वं अह अन्नया कयाई, भवणत्था महरिहम्मि सयणिज्जे । सीया निसावसाणे, पेच्छइ सुविणं जणयधूया ॥१॥ सा उग्गयंमि सूरे, सव्वालंकारभूसिया गन्तुं । अत्थाणिमण्डवत्थं, पुच्छइ दइयं कयपणामा ॥२॥ किल सामि ! अज्ज सुविणे, दो सरहा तिव्वकेसरारुणिया । ते मे मुहं पविट्ठा, नवरं पडिया विमाणाओ ॥३॥ तो भणइ पउमणाहो, सरहाणं दरिसणे तुमं भद्दे ! । होहिन्ति दोन्नि पुत्ता, अइरेणं सुन्दरायारा ॥४॥ जं पुप्फविमाणओ, पडिया न य सुन्दरं इमं सुविणं । सव्वे गहाऽणुकूला, होन्तु सया तुज्झ पसयच्छि ! ॥५॥ ताव य वसन्तमासो, संपत्तो पायवे पसाहेन्तो । पल्लव-पवाल-किसलय-पुष्फ-फलाइं च जणयन्तो ॥६॥ अंकोल्लतिक्खणक्खो, मल्लियणयणो असोयदलजीहो । कुरबयकरालदसणो, सहयारसुकेसरारुणिओ ॥७॥ कुसुमरयपिञ्जरङ्गो, अइमुत्तलयासमूसियकरग्गो । पत्तो वसन्तसीहो, गयवइयाणं भयं देन्तो ॥८॥ कोइलमुहलुग्गीयं, महुयरगुमुगुमुगुमेन्तझंकारं । कुसुमरएण समत्थं, पिञ्जरयन्तो दिसायक्कं ॥९॥ नाणाविहतरुछन्नं, वरकुसुमसमच्चियं फलसमिद्धं । रेहइ महिन्दउदयं, उज्जाणं नन्दणसरिच्छं ॥१०॥ एयारिसंमि काले, पढमेल्लुगगब्भसंभवे सीया। जाया मन्दुच्छाहा, तणुयसरीरा य अइरेगं ॥११॥ || ९२. सीताजिनपूजादोहदपर्वम् ) अथान्यदा कदाचिद्भवनस्था महार्हे शयनीये । सीता निशावसाने पश्यति स्वप्नं जनकदुहिता ॥१॥ सोद्गते सूर्ये सर्वालङ्कारभूषिता गत्वा । आस्थानिकामण्डपस्थं पृच्छति दयितं कृतप्रणामा ॥२॥ किल स्वामिन् ! अद्य स्वप्ने द्वौ शरभौ तीव्रकेशरारुणितौ । तौ मम मुखं प्रविष्टौ नवरं पतितौ विमानात् ॥३॥ तदा भणति पद्मनाभः शरभयोर्दर्शने त्वां भद्रे ! । भविष्यतो द्वौ पुत्रावचिरेण सुन्दराकारौ ॥४॥ यत्पुष्पविमानात्पतितौ न च सुन्दरमयं स्वप्नः । सर्वे ग्रहा अनुकूला भवन्तु सदा तव प्रसन्नाक्षि ! ॥५॥ तावच्च वसन्तमासः संप्राप्तः पादपान्प्रसादयन् । पल्लव-प्रवाल-किशलय-पुष्प-फलानि च जनयन् ॥६॥ अंकोलतीक्ष्णनखो मल्लिकनयनोऽशोकदलजीह्वः । कुरबककरालदशनः सहकारसुकेशरारुणितः ।।७।। कुसुमरज:पिञ्जराङ्गोऽतिमुक्तलतासमुच्छ्रितकराग्रः । प्राप्तो वसन्तसिंहो गतपतिकानां भयं ददन् ।।८।। कोकिलमुखरुद्गीतं मधुकरगुमगुमगुमज्झंकारम् । कुसुमरजसा समस्तं पिञ्जरयन् दिक्चक्रम् ॥९॥ नानाविधतरुच्छन्नं वरकुसुमसमचितं फलसमृद्धम् । राजते महेन्द्रोदयमुद्यानं नन्दनसदृशम् ॥१०॥ एतादृशे काले प्रथमगर्भसंभवे सीता । जाता मन्दोत्साहा तनुशरीरा चातिरेकम् ॥११॥ १. अत्थाणम०-प्रत्य० । २. सिंहपक्षे - गजपतिकानाम् । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ पउमचरियं तं भणइ पउमनाहो, किं तुज्झ अवट्ठियं पिए ! हियए। दव्वं दोहलसमए ?, तं ते संपाडयामि अहं ॥१२॥ तो सुमरिऊण जंपइ, जणयसुया जिणवरालए बहवे । इच्छामि नाह ! दटुं वन्दामिय तुह प्पसाएणं ॥१३॥ सोऊण तीए वयणं, पउमाभो भणइ तत्थ पडिहारिं । कारेहि जिणहराणं, सोहा परमेण विभवेणं ॥१४॥ सव्वो वि नायरजणो, तत्थ महिन्दोदए वरुज्जाणे । गन्तूण सविभवेणं, जिणालयाणं कुणउ पूयं ॥१५॥ सा एव भणिय सन्ती, पडिहारी किंकराण आएसं । देइ विहसन्तवयणा, तेहिं पि पडिच्छिया आणा ॥१६॥ अह तेहि पुरवरीए, घुटुंचिय सामियस्स वयणं तं । सोऊण सव्वलोओ, जिणपूयाउज्जओ जाओ ॥१७॥ एत्तो जिणभवणाइं जणेण संमज्जिओवलित्ताइं । कयवन्दणमालाइं, वरकमलसमचचियतलाई ॥१८॥ दारेसु पुण्णकलसा, परिठविया जिणहराण रयणमया । वरचित्तयम्मपउरा, पसारिया पट्टया बहवे ॥१९॥ ऊसविया धयनिवहा, रझ्याणि वियाणयाइ विविहाई । मोत्तियओऊल्लाइं, लम्बूसादरिससोहाइं ॥२०॥ पूया कया महन्ता, नाणाविहजलय-थलयकुसुमेहिं । सव्वाण जिणहराणं, अट्ठावयसिहरसरिसाणं ॥२१॥ तूराइ बहुविहाइं, पहयाइं मेहसरिसघोसाइं । गन्धव्वाणि य वहिणिा, महुरसराइं पगीयाई ॥२२॥ उवसोहिए समत्थे, उज्जाणे नन्दणोवमे रामो । पविसइ जुवइसमग्गो, इन्दो इव रिद्धिसंपन्नो ॥२३॥ नारायणो वि एवं, महिलासहिओ जणेण परिकिण्णो । तं चेव वरुज्जाणं, उवगिज्जन्तो समणुपत्तो ॥२४॥ तां भणति पद्मनाभः किं तवावस्थितं प्रिये ! हृदये । द्रव्यं दोहदसमये ? तत्ते संपादयाम्यहम् ॥१२॥ तदा स्मृत्वा जल्पति जनकसुता जिनवरालयान् बहून् । इच्छामि नाथ ! दृष्टुं वन्दे तव प्रसादेन ॥१३॥ श्रुत्वा तस्या वचनं पद्माभो भणति तत्र प्रतिहारिम् । कारयत जिनगृहाणां शोभा परमेण विभवेन ॥१४॥ सर्वोऽपि नागरजनस्तत्र महेन्द्रोदये वरोद्याने । गत्वा सविभवेन जिनालयानां करोतु पूजाम् ।।१५।। सैवं भणिता सती प्रतिहारी किङ्करेभ्य आदेशम् । ददाति विकसद्वदना तैरपि प्रतिच्छिताऽऽज्ञा ॥१६॥ अथ तैः पूरवर्यां घृष्टमेव स्वामिनो वचनं तत् । श्रुत्वा सर्वलोको जिनपूजोद्यतो जातः ॥१७॥ इतो जिनभवनानि जनेन संमर्जितोपलिप्तानि । कृतवन्दनमालानि वरकमलसमर्चिततलानि ॥१८|| द्वारेषु पूर्णकलशाः परिस्थापिता जिनगृहाणां रत्नमयाः । वरचित्रकर्मप्रचूराः प्रसारिताः पट्टका बहवः ॥१९।। उच्छ्रायिता ध्वजनिवहा रचितानि वितानकानि विविधानि । मौक्तिकावचूलानि लम्बुसकादर्शशोभानि ॥२०॥ पूजा कृता महती नानाविधजलजस्थलजकुसुमैः । सर्वेषां जिनगृहाणामष्टापदशिखरसदृशाम् ॥२१॥ तूर्याणि बहुविधानि प्रहतानि मेघसदृशघोषाणि । गान्धर्वाणि च विधिना मधुरस्वराणि प्रगीतानि ॥२२॥ उपशोभिते समस्त उद्याने नन्दनोपमे रामः । प्रविशति युवतिसमग्र इन्द्र इवर्द्धिसंपन्नः ॥२३॥ नारायणोऽप्येवं महिलासहितो जनेन परिकीर्णः । तदेव वरोद्यानमुपगीयमानः समनुप्राप्तः ।।२४।। १. विणएणं-मु० । २. ०ण कणयमया-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाजिणपूयाडोहलपव्वं-९२/१२-२८ ५८३ एवं जणेण सहिया, हलहर-नारायणा तहिं चेव । आवासिया समत्था, देवा इव भद्दसालवणे ॥२५॥ पउमो सीयाए समं, जिणवरभवणाण वन्दणं काउं। सद्द-रस-रूवमाइं, भुञ्जइ देवो व्व विसयसुहं ॥२६॥ सव्वो वि नारयजणो, जिणवरपूयासमुज्जओ अहियं । जाओ संपन्नो, तत्थुज्जाणम्मि अणुदियहं ॥२७॥ एवं जिणिन्दवरसासणभत्तिमन्तो, पूयापरायणमणो सह सुन्दरीसु। तत्थेव काणणवणे पउमो पहट्ठो, पत्तो इं विमलकन्तिधरो महप्पा ॥२८॥ ॥ इइ पउमचरिए जिणपूयाडोह लविहाणं नाम बाणउयं पव्वं समत्तं ॥ एवं जनेन सहितौ हलधर-नारायणौ तत्रैव । आवासितौ समस्तो देवाविव भद्रशालवने ॥२५॥ पद्मः सीताया समं जिनवरभवनानां वन्दनं कृत्वा । शब्द-रस-रुपादयो भुनक्ति देव इव विषयसुखम् ॥२६॥ सर्वोऽपि नागरजनो जिनवरपूजासमुद्यतोऽधिकम् । जातो रतिसंपन्नस्तत्रोद्यानेऽनुदिवसम् ॥२७॥ ___एवं जिनेन्द्रवरशासनभक्तिमान् पूजापरायणमना सह सुन्दरिभिः । तत्रैव काननवने पद्मः प्रहृष्टः प्राप्तो रति विमलकीर्तिधरो महात्मा ॥२८॥ ॥इति पद्मचरिते जिनपूजादोहदविधानं नाम द्वानवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०हलाभिहाणं-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३. जणचिंतापव्वं अह तत्थ वरुज्जाणे, महिन्दउदए ठियस्स रामस्स । तण्हाइया पवत्ता, दरिसणकङ्खी पया सव्वा ॥१॥ एत्थन्तरंमि सीया, सुहासणत्थस्स पउमनाहस्स । साहेइ विम्हियमई, फुरमाणं दाहिणं चक्टुं ॥२॥ चिन्तेइ तो मणेणं, कस्स वि दुक्खस्स आगमं एयं । चक्टुं साहेइ धुवं, पुणो पुणो विप्फुरन्तं मे ॥३॥ एक्केण न संतुट्टो, जं पत्ता सायरन्तरे दुक्खं । दिव्वो अहेउयअरी, किं परमं काहिई अन्नं ? ॥४॥ भणिया भाणुमईए, किं व विसायं गया जणयधूए !? । जं जेण पावियव्वं, तं सो अणुहवइ सुह-दुक्खं ॥५॥ गुणमाला भणइ तओ, किं व कयाए इहं वियक्काए । विरएहि महापूयं, जिणवरभवणाण विदेहि ! ॥६॥ तो ते होही सन्ती, संजम-तव-नियम-सीलकलियाए । जिणभत्तिभावियाए, साहूणं वन्दणपराए ॥७॥ भणिऊण एवमेयं, जणयसुया भणइ कञ्चुइं एत्तो । भद्दकलसं ति नामं, आणवइ इमेण अत्थेणं ॥८॥ होऊण अप्पमत्तो, पइदियहं देहि उत्तमं दाणं । लोगो वि कुणउ सव्वो, जिणवरपूयाभिसेयाई ॥९॥ सो एव भणियमेत्तो, दाणं दाऊण गयवरारूढो । घोसेइ नयरमझे, जं भणियं जणयधूयाए ॥१०॥ इह पुरीवरीए लोगो, होऊणं सील-संजमुज्जुत्तो । कुणउ जिणचेइयाणं, अहिसेयादी महापूयं ॥११॥ सोऊण वयणमेयं, जणेण सिग्धं जिणिन्दभवणाई । उवसोहियाइ एत्तो, सव्वुवगरणहि रम्माइं ॥१२॥ ॥ ९३. जनचिन्तापर्वम् ॥ अथ तत्र वरोद्याने महेन्द्रोदये स्थितस्य रामस्य । तृष्णायिता प्रवृत्ता दर्शनकाक्षी प्रजा सर्वा ॥१॥ अत्रान्तरे सीता सुखासनस्थस्य पद्मनाभस्य । कथयति विस्मितमती स्फुरमाणं दक्षिणं चक्षुः ॥२।। चिन्तयति तदा मनसा कस्यापि दुखस्यागममेतत् । चक्षुः कथयति ध्रुवं पुनः पुन विस्फरन्मे ॥३॥ एकेन न संतुष्टो यत्प्राप्ता सागरान्तरे दुःखम् । दिव्योऽहेतुकारिः किं परमं करिष्यत्यन्यम् ? ॥४॥ भणिता भानुमत्या किं वा विषादं गता जनकदुहित ! । यद्येन प्राप्तव्यं तत्सोऽनुभवति सुख-दुःखम् ॥५॥ गुणमाला भणति ततः किंवा कृतेनेह वितर्केन । विरचय महापूजां जिनवरभवनानां वैदेहे ! ॥६॥ तदा ते भविष्यति शान्तिः संयम-तपोनियम शीलकलितायाः । जिनभक्तिभावितायाः साधुनां वन्दनपरायाः ॥७॥ भणित्वैवमेतज्जनकसुता भणति कञ्चुकिमितः । भद्रकलशमिति नामाज्ञापयत्यनेनार्थेन ॥८॥ भूत्वाऽप्रमत्तः प्रतिदिवसं देहयुत्तमं दानम् । लोकोऽपि करोतु सर्वो जिनवरपूजाभिषेकादयः ॥९॥ स एवं भणितमात्रो दानं दत्वा गजवरारुढः । घोषयति नगरमध्ये यद्भणितं जनकदुहिता ॥१०॥ इह पुरवर्यां लोको भूत्वा शील-संयमोद्यतः । करोतु जिनचैत्यानामभिषेकादयो महापूजाम् ॥११॥ श्रुत्वा वचनमेतज्जनेन शीघ्रं जिनेन्द्रभवनानि । उपशोधितानीतः सर्वोपकरणै रम्यानि ॥१२॥ १.०मणा फुरमाणं दाहिणं अच्छि-प्रत्य० । २. अच्छि सा०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जणचिंतापव्वं - ९३/१-२७ खीर-दहि-सप्पिपउरा, पवत्तिया जिणवराण अभिसेया । बहुमङ्गलोवगीया, तूररवुच्छलियजयसद्दा ॥१३॥ सीया वि य जिणपूयं करेड़ तव - नियम- संजमुज्जुत्ता । ताव य पया समत्था, पउमब्भासं समणुपत्ता ॥१४॥ जयसद्दकयारावा, पडिहारनिवेइया अह पविट्ठा | आबद्धञ्जलिमउला, पणमइ पउमं पया सव्वा ॥१५॥ अह तेण समालत्ता, मयहरया जे पयाए रामेणं । साहह आगमकज्जं, मणसंखोभं पमोत्तूणं ॥१६॥ विजओ य सूरदेवो, 'महुगन्धो पिङ्गलो य सूलधरो । तह कासवो य कालो खेमाई मयहरा एए ॥१७॥ अह ते सज्झसहियया, कम्पियचलणा न देन्ति उल्लावं । पउमस्स पभावेणं, अहोमुहा लज्जिया जाया ॥ १८ ॥ संथाविऊण पुणरवि, पुच्छइ आगमणकराणं रामो । साहह मे वीसत्था, पयहिय सव्वं भउव्वेयं ॥१९॥ एव परिपुच्छियाणं, ताणं चिय भमइ मयहरो एक्को । सामिय अभएण विणा, अम्हं वाया न निक्खमइ ॥२०॥ तो भइ पउमनाहो, न किंचि भयकारणं हवइ तुज्झं । उल्लवह सुवीसत्था, मोत्तूणंसज्झसुव्वेयं ॥२१॥ लद्धम्मितओ अभए, विजओ पत्थावियक्खरं वयणं । जंपइ कयञ्जलिवुडो, सामिय ! वयणं सुणसु अम्हं ॥ २२ ॥ सामिय ! इमो समत्थो, पुहइजणो पावमोहियमईओ । परदोसग्गहणरओ, सहाववंको य सढसीलो ॥२३॥ जंपइ पुणो पुणो च्चिय, जह सीया रक्खसाण नाहेणं । हरिऊ णं परिभुत्ता, इहाणिया तहवि रामेणं ॥२४॥ उज्जाणेसु घरेसु य, तलायवावीस जणवओ सामी । सीयाअववायकहं, मोत्तूण न जंपए अन्नं ॥२५॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, रामो तिसमुद्दमेइणीनाहो । लङ्काहिवेण हरियं, कह पुण आणेइ जणयसुयं ? ॥२६॥ नूणं न एत्थ दोसो, परपुरिसपसत्तियाए महिलाए। जेण इमो पउमाभो, सीया धारेइ निययघरे ॥२७॥ क्षीर-दधि-सर्पिः प्रचूराः प्रवर्त्तिता जिनवराणामभिषेकाः । बहुमङ्गलोपगीतस्तूर्यरवोच्छलितजयशब्दाः ॥१३॥ सीतापि च जिनपूजां करोति तपो नियमसंयमोद्यता । तावच्च प्रजा समस्ता पद्माभ्यासं समनुप्राप्ता ॥१४॥ जयशब्दकृतारावा प्रतिहारनिवेदिताऽथ प्रविष्टा । आबद्धाञ्जलिमुकुला प्रणमति पद्मं प्रजा सर्वा ॥१५॥ अथ तेन समालप्ता महत्तरका ये प्रजाया रामेण । कथयतागमनकार्यं मनः संक्षोभं प्रमुच्य ॥१६॥ विजयश्च सूरदेवो मधुगन्धः पिङ्गलश्च शूलधरः । तथा कासवश्च कालः क्षेमादयो महत्तरा एते ॥१७॥ अथ ते साध्वसहृदया कम्पितचरणा न ददत्युल्लापम् । पद्मस्य प्रभावेनाधोमुखा लज्जिता जाताः ॥१८॥ संस्थाप्य पुनरपि पृच्छत्यागमनकारणं रामः । कथयत मे विश्वस्ताः प्रहाय सर्वं भयोद्वेगम् ॥१९॥ एवं परिपृष्टानां तेषामेव भणति महत्तर एकः । स्वामिन्नभयेन विनाऽस्माकं वाचा न निष्क्रामति ॥२०॥ तदा भणति पद्मनाभो न किंचिद्भयकारणं भवति तव । उल्लपत सुविश्वस्ता मुक्त्वा साध्वसोद्वेगम् ॥२१॥ लब्धे ततोऽभये विजयः प्रस्ताविताक्षरं वचनम् । जल्पति कृताञ्जलिपूटः स्वामिन् ! वचनं श्रुण्वस्माकम् ॥२२॥ स्वामिन्नयं समस्तः पृथिवीजन: पापमोहितमतिकः । परदोषग्रहणरतः स्वभाववक्रश्च शठशीलः ||२३|| जल्पति पुनः पुनरेव यथा सीता राक्षसानां नाथेन । हृत्वा परिभुक्तेहानीता तथापि रामेण ॥२४॥ उद्यानेषु गृहेषु च तडागवापीषु जनपदः स्वामिन् ! । सीतापवादकथां मुक्त्वा न जल्पतेऽन्यत् ॥२५॥ दशरथनृपस्य पुत्रो रामस्त्रिसमुद्रमेदिनीनाथः । लङ्काधिपेन हृतां कथं पुनरानयति जनकसुताम् ? ॥२६॥ नूनं नात्र दोषः परपुरुषप्रसक्तताया महिलायाः । येनायं पद्माभः सीतां धारयति निजगृहे ॥२७॥ १. महुमत्तो पि० - प्रत्य० । २. ०ऊण य प०- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ५८५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ पउमचरित जारिसकम्मायारो, हवइ नरिन्दो इहं वसुमईए । तारिसनिओगनिरओ, अहियं चिय होइ सव्वजणो ॥२८॥ एव भणन्तस्स पभू, जणस्स अइदुट्ठपावहिययस्स । राहव ! करेहि संपइ, अइरा वि य निग्गहं घोरं ॥२९॥ सोऊण वयणमेयं, वज्जेण व ताडिओ सिरे रामो । लज्जाभरोत्थयमणो परमविसायं गओ सहसा ॥३०॥ चिन्तेऊण पवत्तो, हा ! कटुं कारणं इमं अन्नं । जायं अइदुव्विसहं, सीयाअववायसंबन्धं ॥३१॥ जीए कएण रण्णे, अणुहूयं विरहदारुणं दुक्खं । सा सीया कुलयन्दं, मह अयसमलेण मइलेइ ॥३२॥ जीसे कज्जेण मए, विवाइओ रक्खसाहिवो समरे । सा मज्झ अयसमइलं, सीया जसदप्पणं कुणइ ॥३३॥ जुत्तं चिय भणइ जणो जा परपुरिसेण अत्तणो गेहे। नीया पुणो वि यमए, इहाणिया मयणमूढेणं ॥३४॥ अहवा को जुवईणं, जाणइ चरियं सहावकुडिलाणं । दोसाण आगरो च्चिय, जाण सरीरे वसइ कामो ॥३५॥ मूलं दुच्चरियाणं, हवइ य नरयस्स वत्तणी विउला । मोक्खस्स महाविग्धं, वज्जेयव्वा सया नारी ॥३६॥ धन्ना ते सापुरिसा, जे च्चिय मोत्तूण निययजुवईओ। पव्वइया कयनियमा, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता ॥३७॥ एयाणि य अन्नाणि य, चिन्तेन्तो राहवो बहुविहाई । न य आसणे न सयणे, कुणइ धिइं नेव वरभवणे ॥३८॥ नेहा-ऽववायभयसंगयमाणसस्स, वामिस्सतिव्वरसवेयवसीकयस्स । रामस्स धीरविमलस्स वि तिव्वदुक्खं, जायं तया जणयरायसुयानिमित्तं ॥३९॥ ॥ इइ पउमचरिए जणचिन्ताविहाणं नाम तेणउयं पव्वं समत्तं ॥ यादृशकर्माचारो भवति नरेन्द्र इह वसुमत्याम् । तादृशयोगनिरतोऽधिकमेव भवति सर्वजनः ॥२८॥ एवं भणतः प्रभो जनस्यातिदुष्टपापहृदयस्य । राघव ! कुरु संप्रत्यचिरादपि च निग्रहं घोरम् ॥२९॥ श्रुत्वा वचनमेतद्वज्रेणेव ताडितः शिरसि रामः । लज्जाभरखिन्नमनाः परमविषादं गतः सहसा ॥३०॥ चिन्तयितुं प्रवृत्तो हा ! कष्टं कारणमिदमन्यम् । जातमतिदुर्विषहं सीताऽपवादसम्बन्धम् ॥३१॥ यस्याः कृतेनारण्ये अनुभूतं विरहदारुणं दुःखम् । सा सीता कुलचन्द्रं ममायशोमलेन मलिनयति ॥३२॥ यस्याः कार्येण मया विपादितो राक्षसाधिपः समरे । सा ममायशोमलिनं सीता यशोदर्पणं करोति ॥३३।। युक्तमेव भणति जनो या परपुरुषेणात्मनो गृहे । नीता पुनरपि च मयेहानीता मदनमूढेन ॥३४॥ अथवा को युवतीनां जानाति चरितं स्वभावकुटिलानाम् । दोषाणामाकर एव यासां शरीरे वसति कामः ॥३५।। मूलं दुश्चरितानां भवति च नरकस्य वर्तनी विपुला । मोक्षस्य महाविनं वर्जितव्या सदा नारी ॥३६।। धन्यास्ते सत्पुरुषा ये एव मुक्त्वा निजयुवतीः । प्रव्रजिताः कृतनियमाः शिवमचलमनुत्तरं प्राप्ताः ॥३७।। एतानि चान्यानि च चिन्तयन्राघवो बहुविधानि । न चासने न शयने करोति धृति नैव वरभवने ॥३८।। स्नेहापवादभयसंगतमानसस्य व्यामिश्रतीव्ररसवेदवशीकृतस्य । रामस्य धीरविमलस्यापि तीव्रदुःखं जातं तदा जनकराजसुतानिमित्तम् ॥३९॥ ॥इति पद्मचरिते जनचिन्ताविधानं नाम त्रिनवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. हु-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ९४. सीयानिव्वासणपव्वं अह सो एयट्ठमणं, काऊणं लक्खणस्स पडिहारं । पेसेइ पउमनाहो, जणवयपरिवायपरिभीओ ॥१॥ पडिहारसहिओ सो, सोमित्ती आगओ पउमनाहं । नमिऊण समब्भासे, उवविट्ठो भूमिभागम्मि ॥२॥ भूमीगोयरसुहडा खयरा सुग्गीवमाइया एत्तो । अन्ने वि जहाजोगं, आसीणा कोउहल्लेणं ॥३॥ काऊण समालावं, खणन्तरं लक्खणस्स बलदेवो। साहइ जणपरिवायं, सीयाए दोससंभूयं ॥४॥ सुणिऊण वयणमेयं, जंपइ लच्छीहरो परमरुट्ठो । मिच्छं करेमि पहई , लुयजीहं तक्खणं चेव ॥५॥ मेरुस्स चूलिया इव, निक्कम्पा सीलधारिणी सीया। लोएण निग्घिणेणं, कह परिवायरिंगणा दड्डा ? ॥६॥ लोयस्स निग्गहं सो, समुच्छहन्तो समहुरवयणेहिं । संथाविओ कणिट्ठो, रामेणं बुद्धिमन्तेणं ॥७॥ उसभ-भरहोवमेहिं, इक्खागकुलुत्तमेहिं बहवेहिं । लवणोयहिपेरन्ता भुत्ता पुहई नरिन्देहिं ॥८॥ आइच्चजसाईणं, निवईण रणे अदिन्नपिट्ठीणं । ताण जसेण तिहुयणं, अलंकियं वित्थयबलेणं ॥९॥ एयं इक्खागकुलं, ससिकरधवलं विलोयविक्खायं । मज्झ घरिणीए लक्खण !, कलङ्कियं अयसपङ्केणं ॥१०॥ ताव य किंचि उवायं, करेहि सोमित्ति ! कालपरिहीणं । जाव न वि हवइ मज्झ वि, दोसो सीयाववाएणं ॥११॥ ९४. सीतानिर्वासनपर्वम् अथ स एतदर्थमनः कृत्वा लक्ष्मणस्य प्रतिहारम् । प्रेषयति पद्मनाभो जनपदपरिवादपरिभीतः ॥१॥ प्रतिहारशब्दायितः स सौमित्रिरागत: पद्मनाभम् । नत्वा समभ्यास उपविष्टो भूमिभागे ॥२॥ भूमिगोचरसुभटाः खेचराः सुग्रीवादय इतः । अन्येऽपि यथायोगमासीनाः कौतूहलेन ॥३॥ कृत्वा समालापं क्षणान्तरं लक्ष्मणस्य बलदेवः । कथयति जनपरिवादं सीतायाः दोषसंभूतम् ॥४॥ श्रुत्वा वचनमेतज्जल्पति लक्ष्मीधरः परमरुष्टः । मिथ्यां करोमि पृथिवीं लुप्तजीह्वां तत्क्षणमेव ।।५।। मेरोश्चूलिकैव निष्कम्पा शीलधारिणी सीता । लोकेन निघृणेन कथं परिवादाग्निना दग्धा ? ॥६॥ लोकस्य निग्रहं स समुत्सहमानः समधुरवचनैः । संस्थापितः कनिष्ठो रामेण बुद्धिमता ॥७॥ ऋषभ-भरतोपमैरिक्ष्वाकुकुलोत्तमै बहूभिः । लवणोदधिपर्यन्ता भुक्ता पृथिवी नरेन्द्रैः ॥८॥ आदित्ययशसादिना नृपतिना रणे ऽदत्तपृष्टेन । तेषां यशसा त्रिभुवनमलड्कितं विस्तरबलेन ।९।। एतदिक्ष्वाककुलं शशिकरधवलं त्रिलोकविख्यातम् । मम गृहिण्या लक्ष्मण ! कलङ्कितमयश:पड्केन ॥१०॥ तावच्च किञ्चदुपायं कुरु सौमित्रे ! कालपरिहीणम् । यावन्नापि भवति ममापि दोषः सीताऽपवादेन ॥११॥ १. जंपइ जण०-प्रत्य० । २. ०ई हयजीहं तक्खणं सव्वं-प्रत्य० । ३. लुब्भवेहिं बहुएहि-प्रत्य० । ४. अदिट्ठपट्ठीणं-मु० । Jain Education Interational For Personal Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ पउमचरियं अवि परिचयामि सीयं, निहोसं जइ वि सीलसंपन्नं । न य इच्छामि खणेकं, अकित्तिमलकलुसियं जीयं ॥१२॥ अह भणइ लच्छिनिलओ, नरवइ ! मा एव दुक्खिओ होहि । पिसुणवयणेण संपइ, मा चयसु महासइं सीयं ॥१३॥ लोगो कुडिलसहावो, परदोसग्गहणनिययतत्तिल्लो । अज्जवजणमच्छरिओ, दुग्गहहियओ पदुट्ठो य ॥१४॥ भणइ तओ बलदेवो, एव इमं जह तुम समुल्लवसि । किं पुण लोगविरुद्धं, अयसकलङ्कं न इच्छामि ॥१५॥ किं तस्स कीड़ इहं, समत्थरज्जेण जीविएणं वा । जस्स पवादो बहुओ, भणइ च्चिय णं सया अयसो ? ॥१६॥ किं तेण भुयबलेणं, भीयाणं जं भयं न वारेइ ? । नाणेण तेण किं वा, जेणऽप्पाणं न विन्नायं ? ॥१७॥ तावऽच्छउ जणवाओ, दोसो मह अस्थि एत्थ नियमेणं । जा परपुरिसेण हिया, निययघरं आणिया सीया ॥१८॥ पउमुज्जाणठियाए, जाइज्जन्तीए रक्खसिन्देणं । सीयाए निच्छएणं, तं चिय अणुमन्नियं वयणं ॥१९॥ एवं समाउलमणो, सेणाणीयं कयन्तवयणं सो । आणवइ गब्भिणीयं, सीयं छड्डेहि आरण्णे ॥२०॥ एव भणिए पवुत्तो, सोमित्ती राहवं कयपणामो । न य-देव ! तुज्झ जुत्तं, परिचइऊणं जणयधूयं ॥२१॥ परपुरिसदरिसणेणं, न य दोसो हवइ नाह ! जुवईणं । तम्हा देव ! पसज्जसु, मुञ्चसु एयं असग्गाहं ॥२२॥ पउमो भणइ कणिटुं, एत्तो पुरओ न किञ्चि वत्तव्वं । छड्डेमि निच्छएणं, सीयं अववायभीओ हं॥२३॥ जेठुस्स निच्छयं सो, नाऊणं लक्खणो गओ सगिहं । ताव य कयन्तवयणो', समागओ रहवरारूढो ॥२४॥ अपि परित्यजामि सीतां निर्दोषां यद्यपि शीलसंपन्नाम् । न चेच्छामि क्षणमेकमकीर्तिमलकलुषितं जीवितम् ।।१२।। अथ भणति लक्ष्मीनिलयो नरपते ! मैवं दुःखितो भव । पैशुन्यवचनेन संप्रति मा त्यज महासती सीताम् ॥१३॥ लोकः कुटिलस्वभावः परदोषग्रहणनित्यतत्परः । आर्जवजनमत्सरितो दुर्ग्रहहृदयः प्रदुष्टश्च ॥१४॥ भणति ततो बलदेव एवमिदं यथात्वं समुल्लपसि । किं पुन लॊकविरुद्धमयश:कलङ्क नेच्छामि ॥१५॥ किं तस्य क्रियत इह समस्तराज्येन जीवितेन वा । यस्य प्रवादो बहु भ्रमत्येवं सदाऽयशः ? ॥१६॥ किं तेन भुजबलेन भीतानां यद्भयं न वारयति ? । ज्ञानेन तेन किं वा येनाऽऽत्मानं न विज्ञातम् ? ||१७|| तावदस्तु जनापवादो दोषो ममास्त्यित्र नियमेन । या परपुरुषेण हृता निजगृहमानीता सीता ॥१८॥ पद्मोद्यानस्थितया याच्यमानया राक्षसेन्द्रेण । सीतया निश्चयेन तदेवानुमतं वचनम् ।।१९।। एवं समाकूलमना: सेनानिकं कृतान्तवदनं सः । आज्ञापयति गर्भद्वितीयां सीतां मुञ्चारण्ये ॥२०॥ एवं भणिते प्रोक्तः सौमित्री राघवं कृतप्रणामः । न च देव ! तव युक्तं परित्यक्तुं जनकदुहितरम् ॥२१॥ परपुरुषदर्शनेन न च दोषो भवति नाथ ! युवतीनाम् । तस्माद्देव ! प्रसद्य मुञ्चैतदसद्ग्राहम् ॥२२॥ पद्मो भणति कनिष्ठमितः पुरतः न किंचिद्वक्तव्यम् । मुञ्चामि निश्चयेन सीतामपवादभीतोऽहम् ॥२३॥ ज्येष्ठस्य निश्चयं स ज्ञात्वा लक्ष्ममो गतः स्वगृहम् । तावच्च कृतान्तवदनः समागतो रथवरारुढः ॥२४॥ १. सीयं-प्रत्य० । २. ०य तिहुयणे अयसो-मु० । ३. ०णो उच्चलिओ र०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयानिव्वासणपव्वं - ९४ / १२-३७ सन्नद्धबद्धकवयं, जन्तं सेणावई पलोएडं । जंपइ जणो महल्ले, कस्स वि अवराहियं जायं ॥२५॥ संपत्तो यखणेणं, परमं विन्नवइ पायवडिओ सो । सामिय! देहाणत्तिं, जा तुज्झ अवट्ठिया हियए ॥ २६ ॥ तं भइ पनाहो, सीयाए डोहलाहिलासाए । दावेहि जिणहराई, सम्मेयाईसु बहुयाई ॥२७॥ अडविं सीहनिणायं, बहुसावयसंकुलं परमघोरं । सीयं मोत्तूण तर्हि, पुणरवि य लहुं नियत्तेहि ॥२८॥ जं आणवेसि सामिय !, भणिऊणं एव निग्गओ सिग्घं । संपत्तो कयविणओ, कयन्तवयणो भणइ सीयं ॥२९॥ सामिणि ! उट्ठेहि लहुं, आरुहसु इमं रहं 'सुनेवच्छं । वन्दसु जिणभवणाई, पुहइयले लोगपुज्जाई ॥३०॥ सेवईण एवं जं जाणई तओ तुट्टा । सिद्धाण नमोक्कारं, काऊण रहं समारूढा ॥३१॥ जं किंचि पमाएणं, दुच्चरियं मे कयं अपुण्णाए । मरिसन्तु तं समत्थं, जिणवरभवणट्ठिया देवा ॥३२॥ आपुच्छिऊण सयलं, सहीयणं परियणं च वइदेही । जंपड़ जिणभवणाई, पणमिय सिग्धं नियत्तामि ॥ ३३ ॥ एत्थन्तरे रहो सो, कयन्तवयणेण चोइओ सिग्घं । चउतुरयसमाउत्तो, वच्चइ मणपवण समवेगो ॥३४॥ अह सुक्कतरुवरत्थं, दित्तं पक्खावलिं विहुणमाणं । दाहिणपासम्मि ठियं, पेच्छइ रिट्टं करयरन्तं ॥३५॥ सूराभिमुही नारी, विमुक्ककेसी बहुं विलवाणी । तं पेच्छइ जणयसुया, अन्नाणि वि दुण्णिमित्ताणि ॥३६॥ निमिसियमेत्तेण रहो, उल्लङ्घइ जोयणं पवणवेगो । सीया वि पेच्छइ महिं, गामा-गर-नगर- पडिपुण्णं ॥३७॥ सन्नद्धबद्धकवचं यान्तं सेनापतिं प्रलोक्य । जल्पति जनो महत् कस्याप्यपराधितं जातम् ॥२५॥ संप्राप्तश्च क्षणेन पद्मं विज्ञापयति पादपतितः सः । स्वामिन्! देह्याज्ञामिति या तवावस्थिता हृदये ||२६|| तं भणति पद्मनाभः सीताया दोहदाभिलाषायाः । दर्शय जिनगृहाणि सम्मेतादिषु बहुकानि ||२७|| अटवीं सिंहनिनादां बहुश्वापदसंकुलां परमघोराम् । सीतां मुक्त्वा तत्र पुनरपि च लघु निवर्तय ॥२८॥ यदाज्ञापयसि स्वामिन् ! भणित्वैर्वं निर्गतः शीघ्रम् । संप्राप्तः कृतविनयः कृतान्तवदनो भणति सीताम् ॥२९॥ स्वामिनि ! उत्तिष्ठ लघु आरुहेमं रथं सुनेपथ्यम् । वन्दस्व जिनभवनानि पृथ्वीतले लोकपूज्यानि ॥३०॥ सेनापतिनैवं यद्भणिता जानकी ततस्तुष्टा । सिद्धेभ्यो नमस्कारं कृत्वा रथं समारूढा ||३१|| यत्किञ्चित्प्रमादेन दुश्चरितं मया कृतमपुण्यया । मृशन्तु तत्समस्तं जिनवरभवनस्थिता देवाः ||३२|| आपृच्छय सकलं सखीजनं परिजनं च वैदेहि । जिनभवनानि प्रणम्य शीघ्रं निवर्तयामि ||३३|| अत्रान्तरे रथ स कृतान्तवदनेन चोदितः शीघ्रम् । चतुस्तुरगसमायुक्तो गच्छति मनः पवनसमवेगः ॥३४॥ अथ शुष्कतरुवरस्थं दीप्तं पक्षावलिं विघूर्णमानम् । दक्षिणपार्श्वे स्थितं पश्यति रिष्टं करकरन्तम् ॥३५॥ सूर्याभिमुखी नारी विमुक्तकेशी बहुं विलप्यमानी । तां पश्यति जनकसुताऽन्यान्यपि दुर्निमित्तानि ॥३६॥ निमेषमात्रेण रथ उल्लङ्घति योजनं पवनवेगः । सीताऽपि पश्यति महीं ग्रामाऽऽकरनगरप्रतिपूर्णाम् ॥३७॥ १. करेहि ने० - प्रत्य० । २. ०या महिलिया तओ मु० । ३. ०णवेगो सो - प्रत्य० । ४. मही, बहुसावयसंकुलं भीमं - मु० । I 1 For Personal & Private Use Only ५८९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० पउमचरियं सा एवं वच्चन्ती, निज्झरणाइं च सलिलपुण्णाइं । पेच्छइ सराइ सीया, वरपङ्कयकुमुयछन्नाइं ॥३८॥ कत्थइ तरुघणगहणं, पेच्छइ सा सव्वरीतमसरिच्छं । कत्थइ पायवरहियं, रण्णं चिय रणरणायन्तं ॥३९॥ कत्थइ वणदवद8, रण्णं मसिधूमधूलिधूसरियं । कत्थइ नीलदुमवणं, पवणाहयपचलियदलोहं ॥४०॥ किलिकिलिकिलन्त कत्थइ, नानाविहमिलियसउणसंघटुं । कत्थइ वाणरपउरं, वुक्कारुत्तसियमयजूहं ॥४१॥ कत्थइ सावयबहुविह-अन्नोन्नावडियजुज्झसद्दालं । कत्थइ सीहभउहुय-चवलपलायन्तगयनिवहं ॥४२॥ कत्थइ महिसोरितिय', कत्थइ डुहुडुहुडुहन्तनइसलिलं । कत्थइ पुलिन्दपउरं, सहसा छुच्छु त्ति कयबोलं ॥४३॥ कत्थइ वेणुसमुट्ठिय-फुलिङ्गजालाउलं धगधगेन्तं । कत्थइ खरपवणाहय-कडयडभज्जन्तदुमगहणं ॥४४॥ कत्थइ किरित्ति कत्थइ, भिरि त्ति कत्थइ छिरित्ति रिंछाणं । सद्दो अइघोरयरो, भयजणओ सव्वसत्ताणं ॥४५॥ एयारिसविणिओगं, पेच्छन्ती जणयनन्दणी रण्णं । वच्चइ रहमारूढा, सुणइ य अइमहुरयं सदं ॥४६॥ सीया कयन्तवयणं, पुच्छड् किं राहवस्स एस सरो । तेण वि य समक्खायं, सामिणि ! अह जण्हवीसद्दो ॥४७॥ ताव च्चिय संपत्ता, वइदेही जण्हविं विमलतोयं । पेच्छइ उभयतडट्ठिय-पायवकुसुमच्चियतरङ्गं ॥४८॥ गाह-झस-मगर-कच्छभ-संघदृच्छलियवियडकल्लोलं। कल्लोलविद्दमाहय-निबद्धफेणावलीपउरं ॥४९॥ पउरवरकमलकेसर-नलिणीगुञ्जन्तमहुयरुग्गीयं । उग्गीयरवायण्णिय-सारङ्गनिविट्ठउभयतडं ॥५०॥ सैवं व्रजन्ती निर्झराणि च सलिलपूर्णानि । पश्यति सरांसि सीता वरपङ्कजकुमुदछन्नानि ॥३८॥ कुत्रचित्तरुघनगहनं पश्यति सा शर्वरीतमःसदृशम् । कुत्रचित्पादपरहितमरण्यमेव रणरणायन्तम् ।।३९॥ कुत्रचिद्वनदवदग्धमरण्यं मषिधुम्रधूलिधूसरितम् । कुत्रचिनीलद्रुमवनं पवनाहतप्रचलितदलौघम् ॥४०॥ किलिकिलिकिलन्तं कुत्रचिन्नानाविधमिलितशकुनसंघट्टम् । कुत्रचिद्वानरप्रचूरं गर्जितोत्रासितमृगयूथम् ॥४१॥ कुत्रचित्श्वापदबहुविधान्योन्यापतितयुद्धशब्दवत् । कुत्रचित्सिंहभयोपद्रुतचपलपलायमानगजनिवहम् ॥४२॥ कुत्रचिन्महीषावरितिं कुत्रचिडुहुडुहुडुहन्नदीसलिलम् । कुत्रचित्पुलिन्दप्रचूरं सहसा छुच्छ्विति कृतबोलम् ॥४३|| कुत्रचिद्वेणुसमुत्थितस्फुलिंगज्वालाकूलं धगधगन्तम् । कुत्रचित्खरपवनाहतकडकडभज्जद्रुमगहनम् ॥४४|| कुत्रचित्किरिति कुत्रचिन्मिरिति कुत्रचिच्छिरिति ऋक्षाणाम् । शब्दोऽतिघोरतरो भयजनकः सर्वसत्त्वानाम् ॥४५॥ एतादृशविनियोगं पश्यन्ती जनकनन्दनी अरण्यम् । व्रजति रथमारुढा श्रुणोति चातिमधुरं शब्दम् ॥४६॥ सीता कृतान्तवदनं पृच्छति किं राधवस्यैष स्वरः । तेनापि च समाख्यातं स्वामिनि ! अथ जाण्हविशब्दः ॥४७॥ तावदेव संप्राप्ता वैदेही जाण्हवि विमलतोयाम् । पश्यत्युभयतटस्थितपादपकुसुमार्चिततरङ्गाम् ॥४८।। ग्राह-झस-मगर-कच्छपसंघोच्छलितविकटकल्लोलाम् । कल्लोलविद्रुमाहतनिबद्धफेनावलिप्रचूराम् ॥४९॥ प्रचूरवरकमलकेसरनलिनीगुञ्जन्मधुकरोद्गीताम् । उद्गीतरवाकर्णितसारगनिविष्टोभयतटाम् ॥५०॥ ९०. ०यडुहुडुहियडुहंतगिरिणईसलिलं-प्रत्य० । ९१. ०जणणो-प्रत्य० । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९१ सीयानिव्वासणपव्वं-९४/३८-६३ उभयतडहंससारस-चक्कायरमन्तणेयपक्खिउलं । पक्खिउलजणियकलरव-समाउलाइण्णगयजूहं ॥५१॥ गयजूहसमायड्डिय-विसमसमुव्वेलकमलसंघायं । संघायजलावूरिय-निज्झरणझरन्तसद्दालं ॥५२॥ एयारिसगुणकलियं, पेच्छन्ती जणयनन्दणी गङ्गं । उत्तिण्णा वरतुरया, परकूलं चेव संपत्ता ॥५३॥ अह सो कयन्तवयणो, धीरो वि य तत्थ कायरो जाओ । धरिऊण सन्दणवरं, रुवइ तओ उच्चकण्ठेणं ॥५४॥ तं पुच्छइ वइदेही, किं रुवसि तुम इह अकज्जेणं । तेण वि सा पडिभणिया, सामिणि ! वयणं निसामेहि ॥५५॥ दित्तग्गिविससरिच्छं, दुज्जणवयणं पहू निसुणिऊणं । डोहलयनिभेण तुम, चत्ता अववायभीएणं ॥५६॥ तीए कयन्तवयणो, कहेइ नयराहिवाइयं सव्वं । दुक्खस्स य आमूलं, जणपरिवायं जहावत्तं ॥५७॥ लच्छीहरेण सामिणि !, अणुणिज्जन्तो वि राहवो अहियं । अववायपरिब्भीओ, न मुयइ एयं असग्गाहं ॥५८॥ न य माया नेव पिया, न य भाये नेव लक्खणो सरणं । तुज्झइह महारपणे, सामिणि ! मरणं तु नियमेणं ॥५९॥ सुणिऊण वयणमेयं, वज्जेण व ताडिया सिरे सीया । ओयरिय रहवराओ, सहसा ओमुच्छिया पडिया ॥६०॥ कह कह वि समासत्था, पुच्छइ सेणावई तओ सीया । साहेहि कत्थ रामो, केदूरे वा वि साएया ॥६१॥ अह भणइ कयन्तमुहो, अइदूरे कोसला पुरी देवी । अइचण्डसासणं पुण, कत्तो च्चिय पेच्छसे रामं ॥६२॥ तह वि य निब्भरनेहा, जंपइ एयाइ मज्झ वयणाई। गन्तूणं भणिय व्वो, पउमो सव्वायरेण तुमे ॥६३॥ उभयतटहंससारसचक्रवाकरममाणानेकपक्षिकुलाम् । पक्षिकुलजनितकलरवसमाकुलाकीर्णगजयूथाम् ॥५१॥ गजयूथसमाकर्षितविषमसमोद्वेलकमलसंघाताम् । संघातजलापूरितनिर्झरणझरच्छब्दवतीम् ॥५२॥ एतादृशगुणकलितां पश्यन्ती जनकनन्दनी गंगाम् । उत्तीर्णा वरतुरगात् परकुलमेव संप्राप्ता ॥५३॥ अथ स कृतान्तवदनो धीरोऽपि च तत्र कातरो जातः । धृत्वा स्यन्दनवरं रोदिति तत ऊच्चकण्ठेन ॥५४॥ तं पृच्छति वैदेही किं रोदिषि त्वमिहाकार्येण । तेनापि सा प्रतिभणिता स्वामिनि ! वचनं निशामय ॥५५॥ दिप्ताग्निविषसदृशं दुर्जनवचनं प्रभुणा निश्रुत्य । दोहदनिभेन त्वं त्यक्ताऽपवादभीतेन ॥५६॥ तस्याः कृतान्तवदनः कथयति नगराभिवादितं सर्वम् । दुःखस्य चामूलं जनपरिवादं यथावृत्तम् ॥५७॥ लक्ष्मीधरेण स्वामिनि ! अनुनयमानोऽपि राघवोऽधिकम् । अपवादपरिभीतो न मुञ्चत्येतदसदाग्रहम् ॥५८॥ न च माता नैवपिता न च भ्राता नैव लक्ष्मणः शरणम् । तवेह महारण्ये स्वामिनि ! मरणं तु नियमेन ॥५९॥ श्रुत्वा वचनमेतद्वजेणेव ताडिता शिरसि सीता । अवतीर्य रथवरात्सहसावमूच्छिता पतिता ॥६०॥ कथं कथमपि समाश्वास्ता पृच्छति सेनापतिं ततः सीता । कथय कुत्र रामः कियद्दरे वाऽपि साकेता ॥६१॥ अथ भणति कृतान्तमुखोऽतिदूरे कोशला पुरी देवी । अतिचण्डशासनं पुनः कुत एव पश्यसि रामम् ॥६२॥ तथापि च निर्भरस्नेहा जल्पति मम वचनानि । गत्वा भणितव्यः पद्मः सर्वादरेण त्वया ॥६३॥ १. ०लं सीयाए जं जहा०-मु० । २. तुझं इहं अरण्णे, सामिणि ! रण्णं तु-प्रत्य० । ३. ०यव्वो गंतुं सव्वा०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ पउमचरियं जह नय-विणयसमग्गो, गम्भीरो सोमदंसणसहावो । धम्मा-ऽधम्मविहण्णू, सव्वकलाणं च पारगओ ॥६४॥ अभवियजणवयणेणं, भीएण दुगुंछणाए अइरेणं । सामिय ! तुमे विमुक्का, एत्थ अरण्णे अकयपुण्णा ॥६५॥ जइ वि य तुमे महायस!, चत्ता हं पुव्वकम्मदोसेणं । तह वि य जणपरिवायं, मा सामि ! फुडं गणेज्जासुं ॥६६॥ रयणं पाणितलाओ, कह वि पमाएण सागरे पडियं । केण उवाएण पुणो, तं लब्भइ मग्गमाणेहिं ? ॥६७॥ पक्खिविऊण य कूवे, अमयफलं दारुणे तमन्धारे।जह पडिवज्जइ दुक्खं, पच्छायावाहओ बालो ॥६८॥ संसारमहादुक्खस्स, माणवा जेण सामि ! मुञ्चन्ति । तं दरिसणं महग्धं, मा मुञ्चहसे जिणुद्दिटुं ॥६९॥ जं जस्स अणुसरिच्छं, अहियं तं तस्स हवइ भणियव्वं । को सयलजणस्स इहं, करेइ मुहबन्धणं पुरिसो ? ॥७॥ मह वयणेण भणेज्जसु, सेणावइ ! राहवं पणमिऊणं । दाणेण भयसु बलियं, बन्धुजणं पीइजोएणं ॥७१॥ भयसु य सीलेण परं, मित्तं सब्भावनेहनिहसेणं । अतिहिं समागयं पुण, मुणिवसहं सव्वभावेणं ॥७२॥ खन्तीए जिणसु कोवं, माणं पुण मद्दवप्पओगेणं । मायं च अज्जवेणं, लोभं संतोसभावेणं ॥७३॥ बहुसत्थागमकुसलस्स तस्स नय-विणयसंपउत्तस्स । किं दिज्जउ उवएसो, नवरं पुण महिलिया चवला ॥७४॥ चिरसंवसमाणीए, बहुदुच्चरियं तु जं कयं सामि ! । तं खमसु मज्झ सव्वं, मउयसहावं मणं काउं॥७५॥ सामिय ! तुमे समाणं, मह होज्ज न होज्ज दरिसणं नूणं । जइ वि य अवराहस यं, तह वि य सव्वं खमेज्जासु ॥७६॥ यथा नय-विनयसमग्रो गम्भीर: सौम्यदर्शनस्वभावः । धर्माऽधर्मविज्ञः सर्वकलानां च पारगतः ॥६४|| अभविकजनवचनेन भीतेन जुगुप्सयाऽचिरेण । स्वामिन् ! त्वया विमुक्ताऽत्रारण्येऽकृतपुण्या ॥६५॥ यद्यपि च त्वया महायशः ! त्यक्ताहं पूर्वकर्मदोषेण । तथापि च जनपरिवादं मा स्वामिन् ! स्फुटं गणय ॥६६॥ रत्नं पाणितलात्कथमपि प्रमादेन सागरे पतितम् । केनोपायेन पुनस्तल्लभते मार्यमाणैः ॥६७॥ प्रक्षिप्य च कूपेऽमृतफलं दारुणे तमोऽन्धकारे । यथा प्रतिपद्यते दुःखं पश्चात्तापहतो बालः ॥६८॥ संसारमहादुःखस्य मानवा येन स्वामिन् ! मुञ्चन्ति । तद्दर्शनं महायं मा मुञ्च जिनोपदिष्टम् ॥६९॥ यद्यस्यानुसदृशमधिकं तं तस्य भवति भणितव्यम् । कः सकलजनस्येह करोति मुखबन्धनं पुरुषः ? ॥७०॥ मम वचनेन भण सेनापते ! राघवं प्रणम्य । दानेन भज बलिकं बन्धुजनं प्रीतियोगेन ॥७१॥ भज च शीलेन परं मित्रं स्वभावस्नेहनिकषेण । अतिथिं समागतं पुन र्मुनिवृषभं सर्वभावेन ॥७२॥ क्षान्त्या जय कोपं मानं पुन र्दिवप्रयोगेण । मायां चार्जवेन लोभं संतोषभावेण ॥७३॥ बहुशास्त्रागमकुशलस्य तस्य नय-विनयसंप्रयुक्तस्य । किं दीयत उपदेशो नवरं पुन महिला चपला ॥७४।। चिरसंवसमान्या बहुदुश्चरितं तु यत्कृतं स्वामिन् ! । तत्क्षम मम सर्वं मृदुस्वभावं मनः कृत्वा ।।७५॥ स्वामिन् ! त्वया समानं मम भवेन्न भवेद्दर्शनं नूनम् । यद्यपि चापराधशतं तथापि च सर्वं क्षमस्व ॥७६॥ १. अइरेग-प्रत्य० । २. एत्थारण्णे कह अउण्णा?-प्रत्य० । ३. ०सणं भूयं-प्रत्य० । ४. ०सयं तं चिय सव्वं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९३ सीयानिव्वासणपव्वं-९४/६४-८९ सा एव जंपिऊणं, पडिया खरकक्करे धरणिवढे । मुच्छानिमीलियच्छी, पत्ता अइदारुणं दुक्खं ॥७७॥ दट्ठण धरणिपडियं, सीयं सेणावई विगयहासो । चिन्तेइ इहारण्णे, कल्लाणी दुक्करं जियइ ॥७८॥ धिद्धी किवा विमुक्को, पावो हं विगयलज्जमज्जाओ।जणनिन्दियमायारो, परपेसणकारओ भिच्चो ॥७९॥ नियइ च्छवज्जियस्स उ, अहियं दुक्खेक्कतग्गयमणस्स । भिच्चस्स जीवियाओ, कुक्कुरजीयं वरं हवइ ॥८०॥ परघरलद्धाहारो, साणो होऊण वसइ सच्छन्दो । भिच्चो परव्वसो पुण, विक्कियदेहो निययकालं ॥८१॥ भिच्चस्स नरवईणं, दिनाएसस्स पावनिरयस्स । न य हवइ अकरणिज्जं, निन्दियकम्मं पि जं लोए ॥८२॥ पुरिसत्तणम्मि सरिसे, जं आणा कुणइ सामिसालस्स । तं सव्वं पच्चक्खं, दीसइ य फलं अहम्मस्स ॥८३॥ धिद्धी अहो ! अकज्जं, जं पुरिसा इन्दिएसु आसत्ता। कुव्वन्तिह भिच्चत्तं, न कुणन्ति सुहालयं धम्मं ॥८४॥ एयाणि य अन्नाणि य, विलविय सेणावई तहिं रणे।मोत्तूण जणयतणयं, चलिओ साएयपुरिहत्तो ॥८५॥ सीया वि तत्थ रण्णे, सन्नं लभ्रूण दुक्खिया कलुणं । रुवइ सहावविमुक्का, निन्दन्ती चेव अप्पाणं ॥८६॥ हा पउम ! हा नरुत्तम, हा विहलियजणसुवच्छल ! गुणोह ! ।सामिय ! भउडुयाए, किं न महं दरिसणं देहि? ॥४७॥ तुह दोसस्स महाजस ! थेवस्स वि नत्थि एत्थ संबन्धो । अइदारुणाण सामिय!, मह दोसो पुव्वकम्माणं ॥४८॥ किं एत्थ कुणइ ताओ ?, किं व पई ? किं व बन्धवजणो मे? । दुक्खं अणुहवियव्वं, संपइ य उवट्ठिए कम्मे ॥८९॥ सैवं जल्पित्वा पतिता खरकर्कशे धरणिपृष्टे । मूर्छानिमिलिताक्षी प्राप्ताऽतिदारुणं दुखम् ॥७७॥ दृष्ट्वा धरणिपतितां सीतां सेनापति विगतहास्यः । चिन्तयातीहारण्ये कल्याणी दुष्करं जीवति ।।७८॥ धिग्धिक् कृपाविमुक्तः पापोऽहं विगतलज्जामर्यादः । जननिन्दिताचारः परप्रेषणकारको भृत्यः ॥७९।। निजेच्छावर्जितस्य त्वधिकं दुःखैकतद्गतमनसः । भृत्यस्य जीवितात्कुक्कुरजीवं वरं भवति ॥८०॥ परगृहलब्धाहारः श्वा भृत्वा वसति स्वच्छन्दः । भृत्यः परवशः पुन विक्रीतदेहो नित्यकालम् ॥८१॥ भृत्यस्य नरपतिना दत्तादेशस्य पापनिरतस्य । न च भवत्यकरणीयं निन्दितकर्मापि यल्लोके ॥८२॥ पुरुषत्वे सदृशे यदाज्ञा करोति स्वामिनः । तत्सर्वं प्रत्यक्षं दृश्यते च फलमधर्मस्य ॥८३॥ घिग्धिगहो ! अकार्यं यत्पुरुषा इन्द्रियेष्वासक्ताः । कुर्वन्तीह भृत्यत्वं न कुर्वन्ति सुखालयं धर्मम् ॥८४॥ एतानि चान्यानि च विलप्य सेनापतिस्तत्रारण्ये । मुक्त्वा जनकतनयां चलितः साकेतपूर्वाभिमुखः ॥८५॥ सीताऽपि च तत्रारण्ये संज्ञां लब्ध्वा दुःखिता करुणम् । रोदिति स्वभावविमुक्ता निन्दत्येवात्मानम् ॥८६॥ हा पद्म ! हा नरोत्तम ! हा विगलितजनसुवात्सल्य ! गुणौध ! । स्वामिन् ! भयोपद्रुतां किं न मां दर्शनं देहि ? ॥८७॥ तव दोषस्य महायश ! स्तोकस्यापि नास्त्यत्र सम्बन्धः । अतिदारूणानां स्वामिन् ! मम दोषः पूर्वकर्माणाम् ॥८८॥ किमत्र करोति तातः ? किं वा पतिः ? किं वा बन्धुजनो मे ? । दुःखमनुभवितव्यं संप्रति चोपस्थिते कर्मणि ॥८९॥ १. ०वाइ मुक्को-प्रत्य० । २. ०इट्ठव०-प्रत्य० । ३. कुव्वंति अभि०-प्रत्य० । ४. दुक्खे अणुहवियव्वे-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ पउमचरियं नूणं अवण्णवयं, लोए य मए अणुट्ठियं पुव्वं । घोराडवीए मझे, पत्ता जेणेरिसं दुक्खं ॥१०॥ अहवा वि अन्नजम्मे, घेत्तूण वयं पुणो मए भग्गं । तस्सोयएण एयं, दुक्खं अइदारुणं जायं ॥११॥ अहवा पउमसरत्थं, चक्कायजुयं सुपीइसंजुत्तं । भिन्नं पावाए पुरा, तस्स फलं मे धुवं एयं ॥१२॥ किं वा वि कमलसण्डे, विओइयं हंसजुयलयं पुव्वं । अइनिग्घिणाए संपइ, तस्स फलं चेव भोत्तव्वं ॥१३॥ अहवा विमए समणा, दुगुंछिया परभवे अपुण्णाए । तस्स इमं अणुसरिसं, भुञ्जयव्वं महादुक्खं ॥१४॥ जा सयणपरियणेणं, सेविज्जन्ती सुहेण भवणत्था । सा हं सावयपउरे, चिट्ठामिह भीसणे रण्णे ॥१५॥ नाणारयणुज्जोए, पडसयपच्चत्थुए य सयणिज्जे । वीणा-वंसरवेणं, उवगिज्जन्ती सुहं सइया ॥१६॥ सा हं पुण्णस्स खए, गोमाउय-सीहभीमसद्दाले । रण्णे अच्छामि इहं, वसणमहासागरे पडिया ॥१७॥ किं वा करेमि संपइ ?, कवणं व दिसन्तरं पवज्जामि ? । चिट्ठामि कत्थ व इहं, उप्पन्ने दारुणे दुक्खे ? ॥१८॥ हा पउम ! बहुगुणायर !, हा लक्खण ! किं तुमं न संभरसि? । हा ताय ! किं न याणसि, एत्थारपणे ममं पडियं ? ॥१९॥ हा विज्जाहरपत्थिव!, भामण्डल ! पाविणी इहारण्णे। सोयण्णवे निमग्गा, तुम पि किं मे न संभरसि ? ॥१०॥ अहवा वि इहारण्णे, निरत्थयं विलविएण एएणं । किं पुण अणुहवियव्वं, जं पुव्वकयं मए कम्मं ॥१०१॥ एवं सा जणयसुया, जावऽच्छइ ताव तं वणं पढमं । बहुसाहणो पविट्ठो, नामेणं वज्जजङ्घनिवो ॥१०२॥ नूनमवर्णवादं लोके चानुष्ठितं मया पूर्वम् । घोराटव्या मध्ये प्राप्ता येनेदृशं दुःखम् ॥१०॥ अथवाऽप्यन्यजन्मनि गृहीत्वा व्रतं पुन र्मयाभग्नम् । तस्योदयेनेतदु:खमतिदारुणं जातम् ? ॥११॥ अथवा पद्मसर:स्थं चक्रवाकयुगं सुप्रीतिसंयुक्तम् । भिन्नं पापया पुरा तस्य फलं मम ध्रुवजातम् ॥१२॥ कि वाऽपि कमलसण्डे वियोजितं हंसयुगलकं पूर्वम् । अतिनिघृणायाः संप्रति तस्य फलमेव भोक्तव्यम् ॥१३॥ अथवाऽपि मया श्रमणा जुगुप्सितः परभवेऽपुण्यया । तस्येदमनुसदृशं भोक्तव्यं महादुःखम् ॥१४॥ या स्वजनपरिजनेन सेव्यमानी सुखेन भवनस्था । साऽहं श्वापदप्रचूरे तिष्टमीह भीषणेऽरण्ये ॥९५।। नानारत्नोद्योते पटशतप्रत्यास्तृते च शयनीये । वीणा-वंशरवेणोपगीयमानी सुखं शयिता ॥९६।। साऽहं पुण्यस्य क्षये गोमायु-सिंहभीमशब्दवति । अरण्ये वसामीह व्यसनमहासागरे पतिता ॥९७|| किं वा करोमि संप्रति? कं वा दिगन्तरं प्रपद्ये? । तिष्ठामि कुत्र वेहोत्पन्ने दारुणे दुःखे? ॥९८॥ हा पद्म ! बहुगुणाकर ! हा लक्ष्मण ! किं त्वं न स्मरषि ? । हा तात ! किं न जानास्यत्रारण्ये मम पतिताम् ? ॥९९॥ हा विद्याधरपार्थिव ! भामण्डल ! पापिनीहारण्ये । शोकार्णवे निमग्ना त्वमपि कि मे न स्मरषि ? ॥१००॥ अथवापीहारण्यं निरर्थकं विलपितेनैतेन । किं पुनरनुभवितव्यं यत्पूर्वकृतं मया कर्म ॥१०१॥ एवं सा जनकसुता यावदास्ते तावत्तं वनं प्रथमम् । बहुसाधनः प्रविष्टो नाम्ना वज्रजड्यनृपः ॥१०२।। १. अवण्णवण्णं, लो०-मु० । २. पाविणीइ दीणाए । इह रण्णवे णिमग्गं, तुम-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयानिव्वासणपव्वं - ९४ / ९० - १०८ पोण्डरियपुराहिवई, गयबन्धत्थे समागओ रणे । घेत्तूण कुञ्जरवरे निग्गच्छइ साहणसमग्गो ॥१०३॥ ताव य जे तस्स ठिया, पुरस्सरा गहियपहरणावरणा । सोऊण रुण्णसद्दं, सहसा खुभिया विचिन्तेन्ति ॥ १०४॥ गय-महिस-सरह-केसरि - वराह - रुरु- चमरसेविए रणे । का एसा अइकलुणं, रुवइ इहं दुक्खिया महिला ? ॥ १०५ ॥ किं होज्ज देवकन्ना, सुरखइसावेण महियले पडिया ? । कुसुमाउहस्स किं वा, कुविया य रई इहोइण्णा ? ॥१०६॥ एवं सवियक्कमणा, नवि ते वच्चन्ति तत्थ पुरहुत्ता । सव्वे वि भउव्विग्गा, वग्गीभूया य चिट्ठन्ति ॥ १०७॥ तत्थ वणे महयं पि बलं तं, महिलारुण्णसरं सुणिऊणं । जायभयं अइचञ्चलनेत्तं, खायजसं विमलं पि निरुद्धं ॥ १०८ ॥ ॥ इइ पउमचरिए सीयानिव्वासणविहाणं नाम चउणउयं पव्वं समत्तं ॥ पोण्डरिकपुराधिपति र्गजबन्धार्थे समागतोऽरण्ये । गृहीत्वा कुञ्जरवरान्निर्गच्छति साधनसमग्रः ॥१०३॥ तावच्च ये तस्य स्थिताः पुरःसरा गृहीतप्रहरणावरणाः । श्रुत्वा रुदनशब्दं सहसा क्षुभिता विचिन्तयन्ति ॥१०४॥ गज-महिष-शरभ-केसरि - वराह - रुरु - चमरसेविते ऽरण्ये । कैषाऽतिकरुणं रोदितीह दुःखिता महिला ? ॥१०५॥ किं भवेद्देवकन्या सुरपतिशापेन महितले पतिता ? । कुसुमायुधस्य किं वा कुपिता च रतिरिहावतीर्णा ? ॥१०६॥ एवं सविकल्पमना नापि ते गच्छन्ति तत्राभिमुखाः । सर्वेऽपि भयोद्विग्ना व्यग्रीभूताश्च तिष्ठन्ति ॥ १०७॥ तत्र वने महदपि बलं तन्महिलारुदनस्वरं श्रुत्वा । जातभयमतिचञ्चलनेत्रं ख्यातयश: संविमलमपि निरुद्धम् ॥१०८॥ ॥ इति पद्मचरिते सीतानिर्वासनविधानं नाम चतुर्नवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. रणं - प्रत्य० । २. पुरिहुत्ता - प्रत्य० । ३. महिलियरुण्णसरं निसुणेउं - मु० । For Personal & Private Use Only ५९५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५. सीयासमासासणपव्वं जाव य सा निययचमू, रुद्धा गङ्ग व्व पव्वयवरेणं । ताव करेणुविलग्गो, पराइओ वज्जजङ्घनिवो ॥१॥ पुच्छइ आसन्नत्थे, केणं चिय तुम्ह गइपहो रुद्धो । दीसह समाउलमणा, भयविहलविसंठुला सव्वे ? ॥२॥ जाव च्चिय उल्लावं, देन्ति नरिन्दस्स नियय चारभङ्गा । ताव य वरजुवईए, सुणइ रुवन्तीए कलुणसरं ॥३॥ सरमण्डलविन्ना ओ, भणइ निवो जा इहं रुवइ मुद्धा । सा गुव्विणी निरुत्तं, पउमस्स भवे महादेवी ॥४॥ भणिओ भिच्चेहि पहू, एव इमं जं तुमे समुल्लवियं । न कयाइ अलियवयणं, देव ! सुयं जंपमाणस्स ॥५॥ जाव य एसालावो, वट्टइ तावं नरा समणुपत्ता। पेच्छन्ति जणयतणयं, पुच्छन्ति य का तुमं भद्दे ? ॥६॥ सा पेच्छिऊण पुरिसे, बहवे सन्नद्धबद्धतोणीरे । भयविहलवेविरङ्गी, ताणाभरणं पणामेइ ॥७॥ तेहि वि सा पडिभणिया, किं अम्ह विहूसणेहि एएहि । चिट्ठन्तु तुज्झ लच्छी !, ववगयसोगा इओ होहि ॥८॥ पुणरवि भणन्ति सुन्दरि!, मोत्तुं सोगं भयं च एत्ताहे । जंपसु सुपसन्नमणा, किण्ण मुणसि नरवई एयं ॥९॥ पुण्डरियपुराहिवई, एसो इह वज्जजङ्घनरवसभो । चारित्त-नाण-दसण-बहुगुणनिलओ जिणमयंमि ॥१०॥ सङ्काइदोसरहिओ, निच्चं जिणवयणगहियपरमत्थो । परउवयारसमत्थो, सरणागयवच्छलो वीरो ॥११॥ | ९५. सीतासमाश्वासनपर्वम् । यावच्च सा निजचमू रुद्धा गङ्गेव पर्वतवरेण । तावत्करेणुविलग्नः 'परागतो वज्रजघनृपः ॥१॥ पृच्छत्यासन्नस्थान् केनैव युस्मद्गतिपथो रुद्धः । दृश्यध्वम् समाकुलमना भयविह्वलविसंस्थूलाः सर्वे ? ॥२॥ यावदेवोल्लापं ददति नरेन्द्राय निजचारभटाः । तावच्च वरयुवत्याः श्रुणोति रुदन्त्याः करुणस्वरम् ॥३॥ स्वरमण्डलविज्ञातो भणति नृपो येह रोदिति मुग्धा । सा गुर्विणी निश्चितं पद्मस्य भवेन्महादेवी ॥४॥ भणितो भृत्यैः प्रभो ! एवमिदं यत्वया समुल्लपितम् । न कदाचिदलिकवचनं देव ! श्रुतं जल्पतः ॥५॥ यावच्चैष आलापो वर्तते तावन्नराः समनुप्राप्ताः । पश्यन्ति जनकतनयां पृच्छन्ति च का त्वं भद्रे ? ॥६॥ सा दृष्ट्वा पुरुषान्बहून् सन्नद्धबद्धतोणीरान् । भयविह्वलकम्पिताङ्गी तेषामाभरणमर्पयति ॥७॥ तैरपि सा प्रतिभणिता किमस्माकं विभूषणैरेतैः । तिष्ठन्तु तव लक्ष्मी ! व्यपगतशोकेतो भव ॥८॥ पुनरपि भणन्ति सुन्दरि ! मुक्त्वा शोकं भयं चेदानीम् । जल्प सुप्रसन्नमना किन्न मुणसि नरपतिमेनम् ॥९॥ पुण्डरिकपुराधिपतिरेष इह वज्रजघनरवृषभः । चारित्र-ज्ञान-दर्शन-बहुगुणनिलयो जिनमते ॥१०॥ शड्कादिदोषरहितो नित्यं जिनवचनगृहीतपरमार्थः । परोपकारसमर्थः शरणागतवत्सलो वीरः ॥११॥ १. चारु भडा-प्रत्य० । २. महुरसरं-मु० । ३. विनाया-प्रत्य० । ४. तुमं समुल्लवसि । न-प्रत्य० । ५. पिच्छंति कयं (?अं) जलिउडा, स्नम्मि य का तुम-प्रत्य०।६. नाणाभ०-प्रत्य०। ७. तेहि सा-प्रत्य०। ८. ०गा तुम होहि-प्रत्य०। ९. पराइओ (अप.) परागतः । Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयासमासासणपव्वं - ९५ / १-२५ ५९७ 'दीणाईण पुणो वि य, विसेसओ कलुणकारणुज्जुत्तो । पडिवक्खगयमइन्दो, सव्वकलाणं च पारगओ ॥१२॥ एयस्स अपरिमेया, देवि ! गुणा को इहं भणिउकामो । पुरिसो सयलतिहुयणे, जो वि महाबुद्धिसंपन्नो ॥१३॥ जाव य ? एसालावो, वट्टइ तावागओ नरवरिन्दो | अवयरिए करेणूए, करेड़ विणयं जहाजोग्गं ॥१४॥ तत्थ निविट्ठो जंपइ, वज्जमओ सो नरो न संदेहो । इह मोत्तुं कल्लाणि, जो जीवन्तो गओ सगिहं ॥१५॥ एत्थन्तरे पत्तो, मन्ती संथाविऊण जणयसुयं । नामेण वज्जजो, एसो पुण्डरियपुरसामी ॥१६॥ पञ्चाणुव्वयधारी, वच्छे सम्मत्तउत्तमगुणोहो । देव- गुरुपूरणयओ, साहम्मियवच्छलो वीरो ॥१७॥ एवं चिय परिकहिए, सीया तो पुच्छिया नरवईणं । साहेहि कस्स दुहिया ?, कस्स व महिला तुमं लच्छी ? ॥१८॥ जं एव पुच्छिया सा, सीया तो भणड़ दीणमुहकमला । अइदीहा मज्झ कहा, नरवइ ! निसुणेहि संखेवं ॥ १९ ॥ जयनरिन्दस्स सुया, भइहणी भामण्डलस्स सीया हं । दसरहनिवस्स सुण्हा, महिला पुण रामदेवस्स ॥२०॥ कइगइवरदाणनिहे, दाउं भरहस्स निययरज्जं ?? । अणरण्णपत्थिवसुओ, पव्वइओ जायसंवेगो ॥२१॥ रामेण लक्खणेण य, समं गया दण्डयं महारण्णं । संबुक्कवहे नराहिव, हरिया हं रक्खसिन्देणं ॥ २२ ॥ अह ते बलेण सहिया, नहेण गन्तूण राम- सुग्गीवा । लङ्कापुरीए जुज्झं, कुणन्ति समयं दहमुहेणं ॥२३॥ बहुभडजीयन्तकरे, समरे लङ्काहिवं विवाएउं । रामेण आणिया हं, निययपुरि परम विभवे ॥२४॥ दट्ठूण रामदेवं, भरहो संवेगजायसब्भावो । घेत्तूण य पव्वज्जं, सिद्धिसुहं चेव संपत्तो ॥ २५ ॥ दीनादीनां पुनरपि च विशेषतः करुणाकारणोद्यतः । प्रतिपक्षगजमृगेन्द्रः सर्वकलानां च पारगतः ॥ १२ ॥ एतस्यापरिमिता देवि ! गुणाः क इह भणितुकामः । पुरुषः सकलत्रिभुवने योऽपि महाबुद्धिसंपन्नः ॥१३॥ यावच्चैष आलापो वर्तते तावदागतो नरवरेन्द्रः । अवतीर्य करेणोः करोति विनयं यथायोग्यम् ॥१४॥ तत्र निविष्टये जल्पति वज्रमयः स नरो न संदेहः । इह मुक्त्वा कल्याणिं यो जीवन्गतः स्वगृहम् ॥ १५ ॥ अत्रान्तरे प्रोक्तो मन्त्री संस्थाप्य जनकसुताम् । नाम्ना वज्रजङ्घ एष पुण्डरिकपुरस्वामी ॥ १६ ॥ पञ्चाणुव्रतधारी वत्से ! सम्यक्त्वोत्तमगुणौधः । देवगुरुपूजनरतः साधर्मिकवत्सलो वीरः ||१७|| एवमेव परिकथिते सीता तदा पृष्टा नरपतिना । कथय कस्य दुहिता ? कस्य वा महिला त्वं लक्ष्मी ! ? ॥१८॥ एवमेव पृष्टा सा सीता तदा भणति दीनमुखकमलाम् । अतिदीर्घा मम कथा नरपति ! निश्रुणु संक्षेपम् ॥१९॥ जनकनरेन्द्रस्य सुता भगिनी भामण्डलस्य सीताऽहम् । दशरथनृपस्य श्नुषा महिला पुना रामदेवस्य ॥२०॥ कैकयीवरदाननिभेन दत्वा भरतस्य निजराज्यं सः । अनरण्यपार्थिव सुतः प्रव्रजितो जातसंवेगः ॥२१॥ रामेण लक्ष्मणेन च समं गता दण्डकं महारण्यम् । शंबुकवधे नराधिप ! हृता ऽहं राक्षसेन्द्रेण ॥२२॥ अथ ते बलेन सहिता नभसा गत्वा राम सुग्रीवाः । लङ्कापूर्यां युद्धं कुर्वन्ति समकं दशमुखेन ॥२३॥ बहुभटजीवान्तकरे समरे लङ्काधिपं विपाद्य । रामेणानीताऽहं निजपुरिं परमविभवेन ॥ २४ ॥ दृष्ट्वा रामदेवं भरतः संवेगजातसद्भावः । गृहीत्वा च प्रव्रज्यां सिद्धिसुखमेव संप्राप्तः ॥ २५ ॥ १. दीणाण पुण विसेसं अहियं चिय कल्लण० - प्रत्य० । २. केगइ० - प्रत्य० । ३. ०मविणएणं - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ पउमचरियं सुयसोगसमावना, पव्वज्जं केगई वि घेत्तूणं । सम्माराहियचरिया, तियसविमाणुत्तमं पत्ता ॥२६॥ लोगो वि अमज्जाओ, जंपइ अलियं अवण्णवायं मे । जह रावणकयसङ्गा, पउमेण इहाणिया सीया ॥२७॥ सुणिऊण लोगवयणं, पउमेणं अयसदोसभीएणं । जिणवन्दणाभिलासी, डोहलयनिहेणऽहं भणिया ॥२८॥ मा होहि उस्सयमणा, सुन्दरि ! जिणचेइयाइ विविहाइं। वन्दावेमि सहीणो, अहिय? सुर-असुरमहियाइं ॥२९॥ गन्तण पिए ! पढम, अदावयपव्वए जिणं उसहं । वन्दामि तमे सहिओ, जस्स इहं जम्मणं नयरे ॥३०॥ अजियं सुमइमणन्तं, तहेव अहिनन्दणं इह पुरीए । जायं चिय कम्पिल्ले, विमलं धम्मं च रयणपुरे ॥३१॥ चम्पाए वासुपुज्जं, सावत्थी संभवं समुप्पन्नं । चन्दपहं चन्दपुरे, कायन्दीए कुसुमदन्तं ॥३२॥ वाणारसी सुपासं, कोसम्बीसंभवं च पउमाभं । भदिलपुरसंभूयं, सीयलसामि विगयमोहं ॥३३॥ सेयंसं सीहपुरे, मल्लिं मिहिलाए गयपुरे सन्ति । जायं कुन्थु च अरं, तत्थेव य कुञ्जरपुरंमि ॥३४॥ जायं कुसग्गनयरे, मुणिसुव्वयसामियं जियभवोहं । जस्स इह धम्मचक्कं, अज्ज वि पज्जलइ रवितेयं ॥३५॥ एयाइ जिणवराणं, जम्मट्ठाणाइ तुज्ज सिट्ठाई । पणमसु भावेण पिए !, अन्नाणि वि अइसयक राई ॥३६॥ पुष्फविमाणारूढा, मह पासत्था नहेण अमरगिरिं । गन्तण पणमस पिए !, सिद्धाययणाइ दिव्वा इं॥३७॥ कोट्टिम-अकोट्टिमाइं, जिणवरभवणाइ एत्थ पुहइयले । अहिवन्दिऊण पुणरवि, निययपुर आगमीस्सामि ॥३८॥ एक्को वि नमोक्कारो, भावेण कओ जिणिन्दचन्दाणं । मोएइ सो हु जीवं, घणपावपसङ्ग जोगाओ ॥३९॥ जं पिययमेण एवं, भणिया हं तत्थ सुमणसा जाया । अच्छामि जिणहराणं, चिन्तंती दरिसणं निच्चं ॥४०॥ सुतशोकसमापन्ना प्रव्रज्या कैकय्यपि गृहीत्वा । सम्यगाराधितचर्या त्रिदशविमानोत्तमं प्राप्ता ॥२६॥ लोकोऽप्यमर्यादो जल्पत्यलीकमवर्णवादं मे । यथा रावणकतसङगा पदमेनेहानीता सीता ॥२७॥ श्रुत्वा लोकवचनं पद्मनायशोदोषभीतेन । जिनवन्दनाभिलाषिणी दोहदनिभेनाहं भणिता ॥२८॥ मा भवोत्सकमना सन्दरि ! जिनचैत्यानि विविधानि । वन्दापयामि स्वाधीनोऽधिकं सुरासुरमहितानि ॥२९॥ गत्वा प्रिये ! प्रथममष्टापदपर्वते जिनमृषभम् । वन्दे त्वया सहितो यस्येह जन्म नगरे ॥३०॥ अजितं समतिमनन्तं तथैवाभिनन्दनमिह पर्याम । जातमेव काम्पिल्ये विमलं धर्मं च रत्नपुरे ॥३१॥ चम्पायां वासुपूज्यं श्रावस्ति संभवं समुत्पन्नम् । चन्द्रप्रभं चन्द्रपुरे काकन्द्यां कुसुमदन्तम् ॥३२॥ वाणारसीं सपार्वं कौशाम्बीसंभवं च पद्माभम् । भद्दिलपुरसंभूतं शीतलस्वामिनं विगतमोहम् ॥३३॥ श्रेयांसं सिंहपरे मल्लि मिथिलायां गजपुरे शान्तिम । जातं कंथं चारं तत्रैव च कञ्जरपरे ॥३४॥ जातं कशाग्रनगरे मनसव्रतस्वामिनं जितभवौधम । यस्येह धर्मचक्रमद्यापि प्रज्वलति रवितेजः ॥३५॥ एतानि जिनवराणां जन्मस्थानानि तव शिष्टानि । प्रणम भावेन प्रिये ! अन्यान्यप्यतिशयकराणि ॥३६ पुष्पविमानारुढा मम पार्श्वस्था नभसाऽमरगिरिम् । गत्वा प्रणम प्रिये ! सिद्धायतनानि दिव्यानि ॥३७॥ कृत्रिमाकृत्रिमानि जिनवरभवनान्यत्र पृथिवीतले । अभिवन्द्य पुनरपि निजपुरिमागमिष्यामि ॥३८॥ एकोऽपि नमस्कारो भावेन कृतो जिनेन्द्रचन्द्रेभ्यः । मोचयति स खलु जीवं घनपापप्रसङ्गयोगात् ॥३९॥ यत्प्रियतमेनैवं भणिताऽहं तत्र सुमनसा जाता । आसे जिनगृहाणां चिन्तयन्ती दर्शनं नित्यम् ॥४०॥ १. महिलाए-मु० । २. कुसुमानयरे-मु० । ३. ०कयाइं-मु० । ४. सव्वाइं-प्रत्य० । ५. आगमिस्सामि-प्रत्य० । ६. ०ङ्गजोगाणं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयासमासासणपव्वं-९५/२६-५५ ५९९ चलियस्स मए समयं, जिणहरपरिवन्दणस्सयमणस्स । दइयस्स ताव वत्ता, जणपरिवाई लहं पत्ता ॥४१॥ अववायभीयएणं, तत्तो परिचिन्तियं मह पिएणं । लोगो सहाववंको, न अन्नहा जाइ परितोसं ॥४२॥ तम्हा वरं खु एसा, सीया नेऊण छड्डिया रणे । न य मज्झ जसस्स इहं, होउ खणेक्कं पि वाघाओ ॥४३॥ सा हं तेण नराहिव!, जणपरिवायस्स भीयहियएणं । परिचत्ता विह रणे, दोसविमुक्का अकयपुण्णा ॥४४॥ उत्तमकुलस्स लोए, न य एवं खत्तियस्स अणुसरिसं । बहुसत्थपण्डियस्स य, धम्मठिइं जाणमाणस्स ॥४५॥ एयं चिय वित्तन्तं, परिकहिऊणं तओ जणयधूया । माणसजलणुम्हविया, रोवइ कलुणेण सद्देणं ॥४६॥ रोयन्ति जणसुयं, दट्ठण नराहिवो किवावन्नो । संथावणमइकुसलो, जंपइ एयाइ वयणाई ॥४७॥ मा रुयसु तुमं सीए !, जिणसासणतिव्वभत्ति संपन्ने । किं वा दुक्खायाणं, अट्टज्झाणं समारुहसि ? ॥४८॥ किंवा तमे न नाया, लोयठिर्ड एरिसी निययमेव । अधवत्ताऽसरणत्ता, कम्माण विचित्तया चेव ?॥४९॥ किं ते साहुसयासे, न सुयं जह निययकम्मपडिबद्धो । जीवो धम्मेण विणा, हिण्डइ संसारकन्तारे? ॥५०॥ संजोय-विप्पओया, सह-दक्खाणि य बहप्पयाराई । पत्ताइ दीहकालं अणाइनिहणेण जीवेणं ॥५१॥ खज्जन्तेण जल-थले, सकम्मविष्फंदिएण जीवेणं । तिरियभवे दुक्खाई, छुह-तण्हाईणि भुत्ताई ॥५२॥ 'विरह-भय-तज्जणाणिय, निब्भच्छण-रोग-सोगमादीयं । जीवेण समणुभूयं, मणुएसु वि दारुणं दुक्खं ॥५३॥ कुच्छियतवसंभूया, देवा दट्ठण परमसुरविहवं । पावन्ति ते वि दुक्खं, विसेसओ चवणकालंमि ॥५४॥ नरएसु वि उववन्ना, जीवा पावन्ति दारुणं दुक्खं । करवत्त-जन्त-सामलि-वेयरणीयाइयं विविहं ॥५५॥ चलितस्य मया समकं जिनगृहपरिवन्दनोत्सुकमनसः । दयितस्य तावद्वार्ता जनपरिवादी लघु प्राप्ता ॥४१॥ अपवादभीतेन ततः परिचिन्तितं मम प्रियेण । लोकः स्वभाववक्रो नान्यथा याति परितोषम् ॥४२॥ तस्माद्वरं खल्वेषा सीता नीता मुक्ताऽरण्ये । न च मम यशस इह भवतु क्षणमेकमपि व्याघातः ॥४३।। साऽहं तेन नराधिप ! जनपरिवादाद् भीतहृदयेन । परित्यक्तेहारण्ये दोषविमुक्ताऽकृतपुण्या ॥४४॥ उत्तमकुलस्य लोके न चैतत्क्षत्रियस्यानुसदृशम् । बहुशास्त्रपण्डितस्य च धर्मस्थिति ज्ञायमानस्य ॥४५॥ एतदेव वृत्तान्तं परिकथ्य ततो जनकदुहिता । मानसज्वलनोष्मापिता रोदिति करुणेन शब्देन ॥४६|| रुदन्ती जनकसुतां दृष्ट्वा नराधिपः कृपापन्नः । संस्थापनमतिकुशलो जल्पत्येतानि वचनानि ॥४७॥ मा रोदीस्त्वं सीते ! जिनशासनतीव्रभक्तिसंपन्ने!। किं वा दुःखादानमार्तध्यानं समारोहसि? ॥४८॥ किं वा त्वया न ज्ञाता लोकस्थितिरीदृशी नित्यमेव । अध्रुवत्वमशरणत्वं कर्माणां विचित्रतैव? ॥४९॥ किं त्वया साधुसकाशे न श्रुतं यथा निजकर्मप्रतिबद्धः । जीवो धर्मेण विना हिण्डते संसारकान्तारे? ॥५०|| संयोग-विप्रयोगौ-सुख-दुःखानि च बहुप्रकाराणि । प्राप्तानि दीर्घकालमनादिनिधनेन जीवेन ॥५१॥ खाद्यमानेन जलस्थलान्स्वकर्मविस्पन्दितेन जीवेन । तिर्यग्भवे दुःखानि क्षुधातृष्णादिनि भुक्तानि ॥५२॥ विरहभयतर्जनानि च निर्भत्सनरोगशोकादिकम् । जीवेन समनुभूतं मनुष्येष्वपि दारुणं दुःखम् ॥५३॥ कुत्सिततप:संभूता देवा दृष्ट्वा परमसुरविभवम् । प्राप्नुवन्ति तेऽपि दुःखं विशेषतश्च्यवनकाले ॥५४॥ नरकेष्वप्युत्पन्ना जीवाः प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम् । करपत्र-यन्त्र शाल्मलि-वैतरण्यादिकं विविधम् ॥५५॥ ३. ०त्ता लहु रण्णे-प्रत्य० । ४. संजुत्ते ! किं वा दुक्खाययणं-प्रत्य० । ३. विविहा०-प्रत्य० । ४.०ण मणुयजम्भे, अमुहूयं दारुणं-प्रत्य० । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० पउमचरियं तं नत्थि जणयधूए !, ठाणं ससुरासुरे वि तेलोक्के । जम्मं मच्चू य जरा, जत्थ न जीवेण संपत्ता ॥५६॥ इह संसारसमुद्दे, नियकम्माणिलहएण जीवेणं । लद्धे वि माणुसत्ते, एरिसियतणू तुमे पत्ता ॥५७॥ रामस्स हिययइट्ठा, अणुहविऊणं सुहं तु वइदेही । हरिया रक्खसवइणा, जिमिया एक्कारसे दिवसे ॥५८॥ तत्तो वि य पडिवक्खे, निहए पडिआणिया निययठाणं । पुणरवि य सुहं पत्ता, रामस्स पसायजोएणं ॥५९॥ असुहोदएण भद्दे !, गब्भादाणेण संजुया सि तुमं । परिवायजलणदड्डा, निच्छूढा एत्थ आरण्णे ॥६०॥ जो सुसमणआरामं, दुव्वयणग्गी ण डहइ अविसेसो । अयसाणलेण सो वि य, पुणरुत्तं डज्झइ अणाहो ॥६१॥ धन्ना तुमं कयत्था, सलाहणिज्जा य एत्थ पुहइयले । चेइहरनमोक्कार, दोहलयं जा समल्लीणा ६२॥ अज्ज वि य तुज्झ पुण्णं, अत्थि इहं सीलसालिणी बहुयं । दिट्ठा सि मए जं इह, गयबन्धत्थं पवितुणं ॥३॥ अह सोमवंसतणओ, राया गयवाहणो त्ति नामेणं । महिला तस्स सुबन्धू, तीए हं कुच्छिसंभूओ ॥६४॥ अहयं तु वज्जजो, पुण्डरियपुराहिवो जिणाणुरओ। धम्मविहाणेण तुमं, मह बहिणी होहि निक्खुत्तं ॥६५॥ उट्ठिहि मज्झ नयरं, वच्चसु तत्थेव चिट्ठमाणीए । तुह पच्छायवतविओ, गवेसणं काहिई रामो ॥६६॥ महुरवयणेहि एवं, सीया संथाविया नरवईणं । अह धम्मबन्धवत्तं, लभ्रूणं सा धिई पत्ता ॥६७॥ अहियगयतवसम्मादिट्ठिदाणेक्कचित्तं, समणमिव गुणढं सीलसंभारपुण्णं । परजणउवयारिं वच्छलं धम्मबन्धु, विमलजस निहाणं को ण सिरिहाइ वीरं ? ॥६८॥ ॥ इइ पउमचरिए सीयासमासासणं नाम पञ्चाणउयं पव्वं समत्तं ॥ तन्नास्ति जनकदुहित ! स्थानं ससुरासुरेऽपि त्रैलोक्ये । जन्म मृत्युश्च जरा यत्र न जीवेन संप्राप्ताः ॥५६।। इह संसारसमुद्रे निजकर्मानिलाहतेन जीवेन । लब्धेऽपि मानुष्यत्वे एतादृशतनूस्त्वया प्रप्तिा ॥५७।। रामस्य हृदयेष्टाऽनुभूय सुखं तु वैदेही । हृता राक्षसपतिना जिमितैकादशे दिवसे ॥५८॥ ततोऽपि च प्रतिपक्षे निहते प्रत्यानीता निजस्थानम् । पुनरपि च सुखं प्राप्ता रामस्य प्रसादयोगेन ॥५९।। अशुभोदयेन भद्रे ! गर्भादानेन संयुक्ताऽसि त्वम् । परिवादज्वलनदग्धा निष्कासितावारण्ये ॥६०॥ यः सुश्रमणारामं दुर्वचनाग्नि न दहत्यविशेषः । अयशानलेन सोऽपि च पुनरुक्तं दह्यतेऽनाथः ॥६१॥ धन्या त्वं कृतार्था श्लाघनीया चात्र पृथिवीतले । चैत्यगृहनमस्कार दोहदं या समालीना ॥६२॥ अद्यापि च तव पुण्यमस्तीह शीलशालिनि ! बहु । दृष्टाऽसि मया यदिह गजबन्धार्थं प्रविष्टेन ॥६३|| अथ सोमवंशतनयो राजा गजवाहन इति नाम्ना । महिला तस्य सुबन्धुस्तस्या अहं कुक्षिसंभूतः ॥६४॥ अहं तु वज्रजपः पुण्डरिकपुराधिपो जिनानुरतः । धर्मविधानेन त्वं मम भगिनी भव निश्चित्तम् ॥६५॥ उत्तिष्ठ मम नगरं गच्छ तत्रैव स्थीयमानायाः । तव पश्चात्तापतप्तो गवेषणं करिष्यति रामः ॥६६॥ . मधुरवचनैरेवं सीता संस्थापिता नरपतिना । अथ धर्मबन्धवत्वं लब्ध्वा सा धृति प्राप्ता ॥६७॥ अधिगततपःसम्यग्दृष्टिदा.कचित्तं श्रमणमिव गुणाढ्यं शीलसंभारपूर्णम् । परजनोपकारिं वत्सलं धर्मबन्धुं विमलयशोनिधानं को न श्लाघति ? वीरम् ।।६८॥ ॥इति पद्मचरिते सीतासमाश्वासनं नाम पञ्चनवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०उण य सुहं-प्रत्य० । २. दियहे-प्रत्य० । ३. पडियागया-मु० । ४. ०वाओरगट्ठा, नि०-मु० । ५. हं गब्भसं०-प्रत्य० । ६. ०थाविऊण नरवइणामु०। ७. ०सनिदाणं-मु०। ८. धीरं-प्रत्य० । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६. रामसोयपव्वं अह तक्खणंमि सिबिया, समाणिया वरविमाणसमसोहा । लम्बूस-चन्द-चामर-दप्पण-चित्तंसुयसणाहा ॥१॥ मयहरयपरिमिया सा, आरूढा जणय नन्दिणी सिवियं । वच्चइ परचिन्तेन्ती, कम्म्स विचित्तया एसा ॥२॥ दिवसेसु तीसु रण्णं, वोलेऊणं च पाविया विसयं । बहुगाम-नगर-पट्टण-समाउलं जण-धणाइण्णं ॥३॥ पोक्खरिणि-वावि-दीहिय-आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । देसं पसंसमाणी, पोण्डरियपुरं गया सीया ॥४॥ उवसोहिए समत्थे, पोण्डिरियपुरे वियड्डजणपउरे। पइसइ जणयस्स सुया, नायरलोएण दीसन्ती ॥५॥ पडुपडह-भेरि-झल्लरि-आइङ्ग-मुइङ्ग-सङ्घसद्देणं । मङ्गलगीयरवेण य, न सुणइ लोगो समुल्लावं ॥६॥ एवं सा जणयसुया, परियणपरिवारिया महिड्डीए । सुरवासहरसरिच्छं, नरवइभवणं अह पविठ्ठा ॥७॥ परितुटुमणा सीया, तत्थऽच्छड़ वज्जजङ्घनरवइणा । पुइज्जन्ती अहियं, बहिणी भामण्डलेणेव ॥८॥ जय जीव नन्द सुइरं, ईसाणे ! देवए ! महापुज्जे । कल्लाणी ! सुहकम्मे !, भण्णइ सीया परियणेणं ॥९॥ धम्मकहासत्तमणा धम्मई धम्मधारणुज्जुत्ता । धम्मं अहिलसमाणी, गमेइ दियहे तहिं सीया ॥१०॥ अह सो कयन्तवयणो, अहियं खिन्नेसु वस्तुरंगेसु । सणियं अइक्कमन्तो पउमसयासं समणुपत्तो ॥११॥ || ९६. रामशोकपर्वम् अथ तत्क्षणे शिबिका समानीता वरविमानसमशोभा । लम्बुसक-चन्द्र-चामर-दर्पणचित्रांशुकसनाथा ॥१॥ महतरकपरिमिता साऽऽरुढा जनकनन्दिनी शिबिकाम् । व्रजति परिचिन्तयन्ती कर्मणो विचित्रतैषा ॥२॥ दिवसैस्त्रिभिररण्यं व्यतीत्य च प्राप्ता विषयम् । बहुग्राम-नगर-पत्तन-समाकूलं जनधनाकीर्णम् ॥३॥ पुष्करिणि-वापि दीर्घिकाऽऽरामोद्यानकाननसमृद्धम् । देशं प्रशंस्यमानी पुण्डरिकपुरं गता सीता ॥४॥ उपशोभिते समस्ते पुण्डरिकपुरे विदग्धजनप्रचूरे । प्रविशति जनकस्य सुता नागेरलोकेन दृश्यमानी ॥५॥ पटु-पटह-भेरि-झल्लरि-आइग-मृदङ्ग-शङ्खशब्देन । मङ्गलगीतरवेण च न श्रुणोति लोकः समुल्लापम् ॥६॥ एवं सा जनकसुता परिजनपरिवारिता महर्द्धया । सुरवासगृहसदृशं नरपतिभवनमथ प्रविष्टा ॥७॥ परितुष्टमना सीता तत्रास्ते वज्रजयनरपतिना। पूज्यमन्यधिकं भगिनी भामण्डलेनेव ॥८॥ जय जीव नन्द सुचिरमीशाने ! देवते ! महापूज्ये ! । कल्याणी ! शुभकर्मे ! भण्यते सीता परिजनेन ॥९॥ धर्मकथाऽऽसक्तमना धर्मरति धर्मधारणोद्यता । धर्ममभिलषमाणी गमयति दीवसांस्तत्र सीता ॥१०॥ अथ स कृतान्तवदनोऽधिकं खिन्नैर्वरतुरङ्गमैः । शनैरतिक्रामन् पद्मसकाशं समनुप्राप्तः ॥११॥ १. ०यणंदणी-प्रत्य० । २. पविसइ-प्रत्य० । ३. पुज्जिज्जन्ती-मु० । ४. सुचिरं सरस्सई ! दे०-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ पउमचरियं काऊण सिरपणामं, जंपड़ सा देव ! तुज्झ वयणेणं । एगागी जणयसुया, गुरुभारा छड्डिया रणे ॥१२॥ सीह - ऽच्छभल्ल-चित्तय-गोमाऊरसियभीमसद्दाले । खर- फरुसचण्डवाए, अन्नोन्नालीढदुमगहणे ॥१३॥ जुज्झन्तवग्घ- महिसे, पञ्चमुहावडियमत्तमायङ्गे । नउलोरगसंगामे, सीहचवेडाहयवराहे ॥१४॥ सरभुत्तासियवणयर-कडमडभज्जन्तरुक्खसद्दाले । करयररडन्तबहुविह- करच्छडाझडियपक्खिले ॥१५॥ गिरिनइसलिलुद्धाइय-निज्झरझंझत्तिझत्तिनिग्घोसे । तिव्वछुहापरिगहिए, 'अन्नोन्नच्छिन्नसावज्जे ॥१६॥ एयारिसविणिओगे, भयंकरे विविहसावयसमिद्धे । तुज्झ वयणेण सीया, सामि ! मया छड्डिया रणे ॥१७॥ नणंसुदुद्दिणा, जं भणियं देव ! तुज्झ महिलाए। तं निसुणसु संदेसं, साहिज्जन्तं मए सव्वं ॥१८॥ पायप्पडणोवगया, सामि ! तुमे भणइ महिलिया वयणं । अहयं जइ परिचत्ता, तह जिण धम्मं न मुञ्चिहिसि ॥१९॥ नेहा रागवगो वि, जो ममं दुज्जणाण वयणेणं । छड्डेहि अमुणियगुणो, सो जिणधम्मं पि मुञ्चिइ ॥२०॥ निद्दोसाए वि महं, दोसं न तहा जणो पयासिहि । जह धम्मवज्जियस्स उ, नरवइ लज्जाविहीणस्स ॥२१॥ एवं चिय एक्कभवे, दुक्खं होहिइ मए मुयन्तस्स । सम्मत्त - णाण- दंसण- रहियस्स भवे भवे दुक्खं ॥ २२ ॥ लोए नरस्स सुलहं, जुवइ - निही - विविहवहणाईयं । सम्मद्दंसणरयणं, दुलहं पि य रज्जलाभाओ ॥२३॥ रज्जं भोत्तूण नरो, वच्चइ नरयं न एत्थ संदेहो । सम्मदंसणनिरओ, सिवसुहसोक्खं लहइ धीरो ॥ २४ ॥ कृत्वा शिरः प्रणामं जल्पति सा देव ! तव वचनेन । एकाकी जनकसुता गुरुभारा मुक्त्वारण्ये ॥१२॥ सिंहार्क्ष भालु - चित्रक -गोमायुरसित भीमशब्दवति । खरपरुषचण्डवाते ऽन्योन्यालीढद्रुमगहने ॥१३॥ युध्यमानव्याघ्रमहिषे पञ्चमुखापतितमत्तमातङ्गे । नकुलोरगसंग्रामे सिंहचपेटाहतवराहे ॥१४॥ शरभोत्रासितवनचरकडमडभज्जद्वृक्षशब्दवति । करकररटद्बहुविधकरच्छटाझटितपक्षिकुले ॥१५॥ गिरिनदीसलिलाद्रितनिर्झरझञ्झेतिझटिति निर्घोषे । तीव्रक्षुधापरिग्रहिते ऽन्योन्यच्छिन्नसावद्ये ॥१६॥ एतादृशविनियोगे भयंकरे विविधश्वापदसमृद्धे । तववचनेन सीता स्वमिन् ! मया मुक्ताऽरण्ये ||१७|| नयनाश्रुदुर्दिनया यद्भणितं देव ! तव महिलया । तन्निश्रुणु संदेशं कथ्यमानं मया सर्वम् ॥१८॥ पादपतनोपगता स्वामिन् ! त्वां भणति महिला वचनम् । अहं यथापरित्यक्ता तथा जिनधर्मं न मोक्ष्यषि ॥१९॥ स्नेहानुरागवशगोऽपि यो मां दुर्जनानां वचनेन । मुञ्चत्यमुणितगुणः स जिनधर्ममपि मोक्ष्यति ॥२०॥ निर्दोषाया अपि मम दोषं न तथा जनः प्रकाशिष्यति । यथा धर्मवर्जितस्य तु नरपते ! र्लज्जाविहीनस्य ॥२१॥ एतदेवैकभवे दुःखं भविष्यति मां मुञ्चतः । सम्यक्त्व - ज्ञान - दर्शन - रहितस्य भवे भवे दुःखम् ॥२२॥ लोके नरस्य सुलभं युवति-निधिविविधवाहनादिकम् । सम्यग्दर्शनरत्नं दुर्लभमपि च राज्यलाभात् ॥२३॥ राज्यं भुक्त्वा नरो गच्छति नरकं नात्र संदेहः । सम्यग्दर्शननिरतः शिवसुखसौख्यं लभते धीरः ॥ २४ ॥ १. अण्णोण्णाछित्तसा०-प्रत्य० । २. मए - प्रत्य० । ३. ०णभत्तिं न मु० । ४. मुच्चिहिसि - मु० । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ रामसोयपव्वं -९६/१२-३७ एवं चिय संदिटुं, सीयाए नेहनिब्भिरमणाए । संखेवेण नराहिव !, तुज्झ मए साहियं सव्वं ॥२५॥ सामिय ! सहावभीरू, अहिययरं दारुणे महारण्णे । बहुसत्तभीसणरवे, जणयसुया दुक्करं जियइ ॥२६॥ सेणावइस्स वयणं, सोऊणं राहवो गओ मोहं । पडियारेण विउद्धो, कुणइ पलावं पिययमाए ॥२७॥ चिन्तेऊण पवत्तो, हा ! कहें खलयणस्स वयणेणं । मूढेण मए सीया, निच्छूढा दारुणे रण्णे ॥२८॥ हा पउमपत्तनयणे !, हा पउममुही ! गुणाण उप्पत्ती । हा पउमगब्भगोरे !, कत्तो त्ति पिए ! विमग्गामि ॥२९॥ हा सोमचन्दवयणे!, वायं मे देहि देहि वइदेहि ! । जाणसि य मज्झ हिययं, तुह विरहे कायरं निच्चं ॥३०॥ निद्दोसा सि मयच्छी !, किवाविमुक्केण उज्झिया सि मए। रणे उत्तासणए, न य नज्जइ किं पि पाविहिसि ? ॥३१॥ हरिणि व्व जूहभट्ठा, असण-तिसावेयणापरिग्गहिया । वकिरणसोसियङ्गी, मरिहिसि कन्ते महारणे ॥३२॥ किं वा वग्घेण वणे, खद्धा सीहेण वाइघोरेणं ? । किं वा वि धरणिसइया, अक्कन्ता मत्तहत्थीणं? ॥३३॥ पायवखयंकरेणं, जलन्तजालासहस्सपउरेणं । किं वणदवेण दड़ा, सहायपरिवज्जिया कन्ता ॥३४॥ को रयणजडीण समो, होइ नरो सयलजीवलोयंमि ? । जो मज्झ पिययमाए, आणइ वत्ता वि विहलाए ॥३५॥ पुच्छइ पुणो पुणो च्चिय, पउमो सेणावई पयलियंसू । कह सा घोरारण्णे, धरिहिइ पाणा जणयधूया ? ॥३६॥ एव भणिओ कयन्तो, लज्जाभरपेल्लिओ समुल्लावं । न य देइ ताव रामो, कन्तं सरिउंगओ मोहं ॥३७॥ एवमेव संदिष्ट: सीतया स्नेहनिरभरमनसा । संक्षेपेण नराधिप ! तव मया कथितं सर्वम् ।।२५।। स्वामिन् ! स्वभावभीरुरधिकतरं दारुणे महारण्ये । बहुसत्त्वभीषणरवे जनकसुता दुष्करं जीवति ॥२६॥ सेनापतेर्वचनं श्रुत्वा राघवो गतो मोहम् । प्रतिचारेण विबुद्धः करोति प्रलापं प्रियतमायै ॥२७॥ चिन्तयितुं प्रवृत्तो हा ! कष्ट खलजनस्य वचनेन । मूढेन मा सीता निष्काषिता दारुणे ऽरण्ये ॥२८॥ हा पद्मपत्रनयने ! हा पद्ममुखि ! गुणानामुत्पत्तिः । हा पद्मगर्भगौरे ! कुत इति प्रिये ! विमार्गयामि ॥२९॥ हा सोमचन्द्रवदने ! वाचं मे देहि देहि वैदेहि ! । जानासि च मम हृदयं तव विरहे कातरं नित्यम् ॥३०॥ निर्दोषाऽसि मृगाक्षि ! कृपाविमुक्तेनोज्झिताऽसि मया । अरण्य उत्त्रासने न च ज्ञायते किमपि प्राप्स्यसि ? ॥३१॥ हरिणीव यूथभ्रष्टाऽशन-तृषावेदनापरिगृहीता । रविकिरणशोषिताङ्गी मरिष्यस्येकान्ते महारण्ये ॥३२॥ किं वा व्याघेण वने भक्षिता सिंहेन वातिघोरेण ? । किं वाऽपि धरणिशयिताऽऽक्रान्ता मत्तहस्तिना? ॥३३॥ पादपक्षयंकरेण ज्वलज्ज्वालासहस्रप्रचुरेण । किं वनदवेन दग्धा सहायपरिवर्जिता कान्ता ॥३४॥ को रत्नजटिना समो भवति नरः सकलजीवलोके ? । यो मम प्रियतमाया आनयति वार्तामपि विह्वलायाः ॥३५॥ पृच्छति पुनः पुनरेव पद्मः सेनापति प्रगलिताश्रुः । कथं सा घोरारण्ये धरिष्यति प्राणाञ्जनकदुहिता ? ॥३६॥ एवं भणितः कृतान्तो लज्जाभरपीडितः समुल्लापम् । न च ददाति तावद्रामः कान्तां स्मृत्वा गतो मोहम् ॥३७|| १. ०द्धो, विलवइ सोए पिय०-प्रत्य० । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ पउमचरियं एयन्तरम्मि पत्तो, सहसा लच्छीहरो पउमनाहं । आसासिऊण जंपइ, नाह ! निसामेहि मे वयणं ॥३८॥ धीरत्तणं पवज्जसु, सामिय ! मोत्तूण सोगसंबन्धं । उवणमइ पुव्वविहियं, लोयस्स सुहा-ऽसुहं कम्मं ॥३९॥ आयासे गिरिसिहरे, जले थले दारुणे महारण्णे । जीवो संकडपडिओ, रक्खिज्जइ, पुव्वसुकएणं ॥४०॥ अह पुण पावस्सुदए, रक्खिज्जन्तो वि धीरपुरिसेहिं । जन्तू मरइ निरुत्तं, संसारठिई इहं लोए ॥४१॥ एवं सो पउमाभो, पसाइओ लक्खणेण कुसलेणं । छड्डेइ किंचि सोयं, देइ मणं निययकरणिज्जे ॥४२॥ सीयाए गुणसमूह, सुमरन्तो जणवओ नयरवासी । रुयइ पयलन्तनेत्तो, अईव सीलं पसंसन्तो ॥४३॥ वीणा-मुइङ्ग-तिसरिय-वंसरवुग्गीयवज्जिया नयरी । जाया कन्दियमुहला, तद्दियहं सोयसंतत्ता ॥४४॥ रामेण भद्दकलसो, भणिओ सीयाए पेयकरणिज्जं । सिग्धं करेहि विउलं, दाणं च जहिच्छियं देहि ॥४५॥ जं आणवेसि सामिय !, भणिऊणं एव निग्गओ तुरियं । सव्वं पि भद्दकलसो, करेड़ दाणाइकरणिज्जं ॥४६॥ जुवईण सहस्सेहि, अट्ठहि अणुसंतयं पि परिकिण्णो । पउमो सीएक्कममणो, सिविणे वि पुणो पुणो सरह ॥४७॥ एवं सणियं सणियं, सीयासोए गए विरलभावं । सेसमहिलासु पउमो, कह कह वि धिई समणुपत्तो ॥४८॥ एवं हलहर-चक्कहरा महिड्डिजुत्ता नरिन्दचक्कहरा । भुञ्जन्ता विसयसुहं विमलजसादेंतसयलविसयसुहं ॥४९॥ ॥इइ पउमचरिए रामसोयविहाणं नाम छन्नउयं पव्वं समत्तं ॥ एतदन्तरे प्राप्तः सहसा लक्ष्मीधरः पद्मनाभम् । आश्वास्य जल्पति नाथ ! निशामय मे वचनम् ॥३८॥ धीरत्वं प्रपद्यस्व स्वामिन् ! मुक्त्वा शोकसम्बन्धम् । उपनमति पूर्वविहितं लोकस्य शुभाऽशुभं कर्म ॥३९॥ आकाशे गिरिशिखरे जले स्थले दारुणे महारण्ये । जीवः संकटपतितो रक्ष्यते पूर्वसुकृतेन ॥४०॥ अथ पुनः पापस्योदये रक्ष्यमाणोऽपि धीरपुरुषैः । जन्तुम्रियते निश्चित्तं संसारस्थितिरिहलोके ॥४१॥ एवं स पद्माभः प्रसादितो लक्ष्मणेन कुशलेन । मुञ्चति किंचिच्छोकं ददाति मनो निजकरणीये ॥४२॥ सीताया गुणसमुहं स्मरञ्जनपदो नगरवासी । रोदिति प्रगलन्नेत्रोऽतीव शीलं प्रशंसन् ॥४३॥ वीणा-मृदग-त्रिसरित-वंशरवोद्गीतवादिता नगरी । जाता क्रन्दितमुखरा तद्दिवसं शोकसंतप्ता ॥४४॥ रामेण भद्रकलशो भणित सीतायाः प्रेतकरणीयम् । शीघ्रं कुरु विपुलं दानं च यथेच्छितं देहि ॥४५।। यदाज्ञापयसि स्वामिन् ! भणित्वैवं निर्गतस्त्वरितम् । सर्वमपि भद्रकलश: करोति दानादिकरणीयम् ॥४६॥ युवतीनां सहस्रैरष्टाभिरनुसततमपि परिकीर्णः । पद्मः सीतैकमनाः स्वप्नेऽपि पुनः पुनः स्मरति ॥४७।। एवं शनैः शनैः सीताशोके गते विरलभावम् । शेषमहिलाभिः पद्मः कथं कथमपि धृति समनुप्राप्तः ॥४८॥ एवं हलधर-चक्रधरौ महद्धियुक्तौ नरेन्द्रचक्रधरौ । भुञ्जन्तो विषयसुखं विमलयशसावदास्यतां सकलविषयसुखम् ॥४९॥ ॥इति पद्मचरिते रामशोकविधानं नाम षण्नवतितमं पर्वं समाप्तम्॥ १. वीरत्त०-प्रत्य० । २. जलण जले दारु०-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ९७. लवण-ऽङ्कसुप्पत्तिपव्वं । एवं चिय ताव इमं, जायं अन्नं सुणेहि संबन्धं । लवण-ऽङ्कसाण सेणिय !, उप्पत्तिं राहवसुयाणं ॥१॥ अह पुण्डरीयनयरे, ठियाए सीयाए गब्भबीयाए । आपण्डुरङ्गलट्ठी, सामलवयणा थणा जाया ॥२॥ बहुमङ्गलसंपुण्णं, देहं, अइविब्भमा गई मन्दा । निद्धा य नयणदिट्ठी, मुहकमलं चेव सुपसन्नं ॥३॥ पेच्छइ निसासु सुविणे, कमलिणिदलपुडयविमलसलिलेणं । अभिसेयं कीरन्तं, गएसु अइचारुरूवेसु ॥४॥ मणिदप्पणे वि सन्ते, निययमुहं असिवरे पलोएइ । मोत्तूण य गन्धव्वं, सुणेइ नवरं धणुयसदं ॥५॥ चक्खं देइ अणिमिसं, सीहाणं पञ्जरोयरत्थाणं । एवं विहपरिणामा, गमेइ सीया तहिं दियहे ॥६॥ एवं नवमे मासे, संपूण्णे सवणसंगए चन्दे । सावणपञ्चदसीए, सुयाण जुयलं पसूया सा ॥७॥ अह ताण वज्जजङ्घो, करेइ जम्मूसवं महाविउलं । गन्धव्व-गीय-वाइय-पडुपडह-मुइङ्गसद्दालं ॥८॥ पढमस्स कयं नामं, अणङ्गलवणो अणङ्गसमरूवो । तस्स गुणेहि सरिच्छो, बीओ मयणसो नामं ॥९॥ अह ताण रक्खणटुं, जणणीए सरिसवा सिरे दिन्ना । दोण्ह वि कण्ठोलइया, ससुवण्णा वग्घनहमाला ॥१०॥ एवं कमेण दोण्णि वि, रिङ्खण-चंकमणयाइ कुणमाणा । वड्डन्ति बालया ते, पञ्चसु धाईसु संगिहिया ॥११॥ ९७. लवणाकुशोत्पत्तिपर्वम् एवमेव तावदिदं जातमन्यं श्रुणु सम्बन्धम् । लवणाकुशयोः श्रेणिक ! उत्पत्तिं राघवसुतयोः ॥१॥ अथ पुण्डरिकनगरे स्थितायाः सीताया गर्भद्वितीयायाः । आपाण्डुराङ्गयष्ठी श्यामलवदने स्तने जाते ॥२॥ बहुमङ्गलसंपूर्ण देहमतिविभ्रमा गतिर्मन्दा । स्निग्धा च नयनदृष्टि मुखकमलमेव सुप्रसन्नम् ॥३॥ पश्यति निशायां स्वप्ने कमलिनीदलपूटकविमलसलिलेन । अभिषेकं क्रियमाणं गजैरतिचारुरुपैः ॥४॥ मणिदर्पणेऽपि सति निजमुखमसिवरे प्रलोकते । मुक्त्वा च गान्धर्वं श्रुणोति नवरं धनुकशब्दम् ॥५॥ चक्षुर्ददात्यनिमेषं सिंहानां पञ्जरोदरस्थानाम् । एवंविधपरिणामा गमयति सीता तत्र दिवसान् ॥६॥ एवं नवमे मासे संपूर्णे श्रवणसंगते चन्द्रे । श्रावणपञ्चदश्यां सुतयो युगलं प्रसूता सा ॥७॥ अथ तयो र्वजड्यः करोति जन्मोत्सवं महाविपुलम् । गान्धर्व-गीत-वादित-पटुपटह-मृदङ्ग-शब्दवत् ॥८॥ प्रथमस्य कृतं नामाऽनङ्गलवणोऽनङ्गसमरूपः । तस्य गुणैः सदृशो द्वितीयो मदनाङ्कुशो नाम ॥९॥ अथ तयो रक्षणार्थं जनन्या सर्षपाः शिरसि दत्ताः । द्वयोरपि कण्ठावलगिता ससुवर्णा व्याघ्रनखमाला ॥१०॥ एवं क्रमेण द्वावपि रिडण-चक्रमणादि क्रियमाणौ । वर्धते बालकौ तौ पञ्चभि त्रिभिः सङ्ग्रहितौ ॥११॥ १. ०वा तहिं दि०-मु०। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ पत्ता सरीरविद्धि, विविहकलागहणधारणसमत्था । जाया जणस्स इट्ठा, अमरकुमारोवमसिरीया ॥१२॥ ताणं चिय पुण्णेणं, सिद्धत्थो नाम चेल्लओ सहसा । पत्तो पुण्डरियपुरं, विज्जाबलरिद्धिसंपन्नो ॥१३॥ विझाओ, गन्तूण वि मन्दरे जिणहराई । वन्दित्ता एइ पुणो, निययावासं खणद्धेणं ॥१४॥ वय-नियम- संजमधरो, लोयाकयमत्थओ विसुद्धप्पा । जिणसासणाणुरत्तो, सव्वकलाणं च पारगओ ॥१५॥ भिक्खटुं विहरन्तो, कमेण पत्तो घरं विदेहाए । दिट्ठो ससंभमाए, पणओ य विसुद्धभावाए ॥१६॥ दाऊण आसणवरं, सीया सव्वुत्तमन्नपाणेणं । पडिलाभेइ पहट्ठा, सिद्धत्थं सव्वभावेणं ॥१७॥ निव्वत्ताहारो सो, सुहासणत्थो तओ विदेहाए । परिपुच्छिओ य साहइ, निययं चिय हिण्डणाईयं ॥१८॥ सो तत्थ चेल्लसामी, दğ लवणङ्कुसे सुविम्हइओ । पुच्छ्इ ताव पउत्ति, सीया वि य से परिकहेइ ॥१९॥ परिमुणियकारणो सो, रुयमाणि जणयनन्दिणिं दद्धुं । अइदारुणं किवालू, सिद्धत्थो दुक्खिओ जाओ ॥२०॥ अङ्गनिमित्तधरो, सिद्धत्थो भणइ मा तुमं सोगं । कुणसु खणं एक्वं पि य, सुएहि एयारिसगुणेहिं ॥ २१ ॥ सिद्धत्थेण कुमारा, सिग्घं नाणाविहाइ सत्थाई । सिक्खा विया संपुण्णा, सव्वकलाणं च पारगया ॥२२॥ न हु कोइ गुरू खेवं, वच्चइ सीसेसु सत्तिस महेसु । जह दिणयरो पभासइ, सुहेण भावा सचक्खूणं ॥२३॥ देन्तो च्चिय उवएस, हवइ कयत्थो गुरू सुसीसाणं । विवरीयाण निरत्थो, दिणयरतेओ व्व उलुयाणं ॥ २४ ॥ पउमचरियं 1 प्राप्तौ शरीरवृद्धिं विविधकलाग्रहणधारणसमर्थौ । जातौ जनस्येष्टावमरकुमारोपमश्रियौ ॥१२॥ तयोरेव पुण्येन सिद्धार्थो नाम चेल्लकः सहसा । प्राप्तः पुण्डरिकपुरं विधाबलद्धिसंपन्नः ॥१३॥ यो त्रिण्यपि सन्ध्यायां गत्वाऽपि मन्दरे जिनगृहाणि । वन्दित्वैति पुन र्निजकावासं क्षणार्धेन ॥१४॥ व्रत- नियम-संयमधरो लोचकृतमस्तको विशुद्धात्मा । जिनशासनानुरक्तः सर्वकलानां च पारगतः ॥ १५ ॥ भिक्षार्थं विहरन् क्रमेण प्राप्तो गृहं विदेहायाः । दृष्टः ससंभ्रमया प्रणतश्च विशुद्धभावया ॥१६॥ दत्वाऽऽसनवरं सीता सर्वोत्तमान्नपानेन । प्रतिलाभयति प्रहृष्टा सिद्धार्थं सर्वभावेन ॥१७॥ निर्वृत्ताहारः स सुखासनस्थस्ततो विदेह्या । परिपृष्टश्च कथयति निजमेव हिण्डनादिकम् ॥१८॥ स तत्र चेलकस्वामी दृष्ट्वा लवणाङ्कुशौ सुविस्मितः । पृच्छति तावत् प्रवृत्तिं सीताऽपि च तस्य परिकथयति ॥१९॥ परिमुणितकारणः स रुदन्तीं जनकनन्दिनीं दृष्ट्वा । अतिदारुणं कृपालुः सिद्धार्थो दुःखितो जातः ॥२०॥ अष्टाङ्गनिमित्तधरः सिद्धार्थो भणति मा त्वं शोकम् । कुरु क्षणमेकमपि च सुताभ्यामेतादृशगुणाभ्याम् ॥२१॥ सिद्धार्थेन कुमारौ शीघ्रं नानाविधानि शस्त्राणि । शिक्षयितौ संपूर्णौ सर्वकलानां च पारगतौ ॥२२॥ न खलु कोऽपि गुरु क्षेपं गच्छति शिष्येषु शक्तिसमूहेसु । यथा दिनकरः प्रभाषते सुखेन भावात्सचक्षुषाम् ॥२३॥ ददन्नेवोपदेशं भवति कृतार्थो गुरुः सुशिष्याणाम् । विपरितानां निरर्थो दिनकरतेज इवोलुकानाम् ||२४|| १. सिक्खविया संपुण्णा - प्रत्य० । २ ० सुमुहेसु- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ लवणं- कुसुप्पत्तिपव्वं-९७/१२-२९ एवं सव्वकलागम-कुसला लवण-ऽङ्कसा कुमारवरा । अच्छन्ति कीलमाणा, जहिच्छियं पुण्डरीयपुरे ॥२५॥ सोमत्तणेण चन्दं, जिणिऊण ठिया रविं च तेएणं । वीरत्तणेण सक्कं, उदहिं गम्भीरयाए य ॥२६॥ 'थिरयाए य नगिन्द, जमं पयावेण मारुयं गइणा । परिणिज्जिणन्ति हत्थि, बलेण पुहइं च खन्तीए ॥२७॥ सम्तभावियमणा, नज्जइ सिरिविजय-अमियवरतेया । गुरुजणसुस्सूसपरा, वीरा जिणसासणुज्जुत्ता ॥२८॥ एवं ते गुणरयणपव्वयवरा विन्नाणनाणुत्तमा, लच्छीकित्तिनिवाससंगयतणू रज्जस्स भारावहा । कालं नेन्ति य पुण्डरीयनरे भव्वा य भावट्ठिया, जाया ते विमलंसुणिम्मलजसा सीयासुया विस्सुया ॥२९॥ ॥"इइ पउमचरिए लवणङ्कसभवविहाणं नाम सत्ताणउयं पव्वं समत्तं ॥ एवं सर्वकलागमकुशलौ लवणाऽङ्कुशौ कुमारवरौ । आसेतेः क्रीड्यमानौ यथेच्छं पुण्डरिकपुरे ॥२५॥ सौम्यत्वेन चन्द्र जित्वा स्थितौ रविं च तेजसा । वीरत्वेन शक्रमुधिं गम्भीरतया च ॥२६॥ स्थिरतया च नागेन्द्रं यमं प्रतापेन मारुतं गतिना । परिनिर्जयति हस्तिनं बलेन पृथिवीं च क्षान्त्या ॥२७॥ सम्यक्त्व-भावितमनसौ ज्ञायतः श्रीविजयामितवरतेजसौ । गुरुजनशुश्रूषापरौ वीरौ जिनशासनोद्यतौ ॥२८॥ एवं तौ गुणरत्नपर्वतवरौ विज्ञानज्ञानोत्तमौ लक्ष्मीकीर्तिनिवाससंगततनू राज्यस्य भारवाहौ । कालं नयतश्च पुण्डरिकनगरे भव्यौ च भावस्थितौ जातौ तौ विमलांशुनिर्मलयशसौ सीतासुतौ विश्रुतौ ॥२९॥ ॥इति पद्मचरिते लवणाकुशभवविधानं नाम सप्तनवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. थिरजोगेण णगि०-प्रत्य० । २. धीरा-प्रत्य० । ३. भारव्वहा-प्रत्य० । ४. भव्वा भवंते ठिया-प्रत्य० । ५. एवं-मु० । ६. ०सरूववि०-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ९८. लवणं-ऽकुसदेसविजयपव्वं एत्तो उदारकीलण-जोग्गा लवण-ऽङ्कसा पलोएउं । राया उ वज्जजङ्घो, कन्नाउ गवेसए ताणं ॥१॥ लच्छीमईए धूया, ससिचूला नाम सुन्दरा कन्ना । बत्तीसकुमारिजुया, पढमस्स निरूविया सा उ॥२॥ वीवाहमङ्गलं सो, दटुं दोण्हं पि इच्छइ नरिन्दो । रूवेण अणुसरिच्छं, बीयस्स गवेसए कन्नं ॥३॥ चिंतन्तेण सुमरिया, पुहइपुरे पिहुनरिन्दअङ्गहा । नामेण कणयमाला, अमयमईकुच्छिसंभूया ॥४॥ तीए कएण दूओ, सिग्घं संपेसिओ नरवइणं । संपत्तो पुहइपुरं, तत्थ पिहुं पेच्छइ नरिन्दं ॥५॥ जंपइ कयसम्माणो, दूओ हं वज्जजङ्घनरवइणा । संपेसिओ महाजस!, तुज्झ सुयामग्गणट्ठाए ॥६॥ मयणसस्स एयं, देहि सुयं देव ! वरकुमारस्स । नेहं च अवोच्छिन्नं, कुणसु समं वज्जजङ्घेणं ॥७॥ तो भणइ पिहुनरिन्दो, रे दूय ! वरस्स जस्स पढमगुणो। न य नज्जइ कुलवंसो, कह तस्स सुयं अहं देमि ? ॥८॥ एव भणन्तस्स तुमं, जुत्तं चिय दूय ! निगहं काउं। किं व परेण पउत्तं, जं तं न दुरावहं होइ ? ॥९॥ सो एव निट्टराए, गिराए निब्भच्छिओ नवरईणं । दूओ गन्तूण फुडं, कहेइ सिरिवज्जजङ्घस्स ॥१०॥ सुणिऊण दूयवयणं, सन्नद्धो वज्जजङ्घनरवसभो । सह साहणेण गन्तुं, विद्धंसइ पुहइपुरदेसं ॥११॥ ९८. लवणाकुशदेशविजयपर्वम् इत उदारक्रीडनयोग्यौ लवणाऽङ्कुशौ प्रलोक्य । राजा तु वज्रजड्यः कन्या गवेषति तयोः ॥१॥ लक्ष्मीमत्या दुहिता शशिचूला नाम सुन्दरा कन्या । द्वात्रिंशत्कुमारीयुक्ता प्रथमस्य निरुपिता सा तु ॥२॥ विवाहमङ्गलं स दृष्टुं द्वयोरपीच्छति नरेन्द्रः । रुपेणानुसदृशं द्वितीयस्य गवेषति कन्याम् ॥३॥ चिन्तयता स्मृता पृथिवीपुरे पृथुनरेन्द्राङ्गरुहा । नाम्ना कनकमालाऽमृतमतिकुक्षिसंभूता ॥४॥ तस्याः कृतेन दूतः शीघ्रं संप्रेषितो नरपतिना । संप्राप्तः पृथिवीपुरं, तत्र पृथु पश्यति नरेन्द्रम् ।।५।। जल्पति कृतसन्मानो दूतोऽहं वज्रजघनरपतिना। संप्रेषितो महायशः ! तव सुतामार्गणार्थे ॥६॥ मदनाङ्कुशायैनां देहि सुतां देव ! वरकुमाराय । स्नेहं चाव्युच्छिन्नं कुरु समं वज्रजयेन ॥७॥ तदा भणति पृथुनरेन्द्रो रे दूत ! वरस्य यस्य प्रथमगुणः । न च ज्ञायते कुलवंशः कथं तस्य सुतामहं दद्मि? ॥८॥ एवं भणतस्तव युक्तमेव दूत ! निग्रहं कर्तुम् । किं वा परेण प्रयुक्तं यत्तं न दुरावहं भवति ? ॥९॥ स एवं निष्ठुरया गिरा निर्भत्सितो नरपतिना । दूतो गत्वा स्फुटं कथयति श्रीवजजङ्यस्य ॥१०|| श्रुत्वा दूतवचनं सन्नद्धो वज्रजवनरवृषभः । सह साधनेन गत्वा विध्वंसति पृथिवीपुरदेशम् ॥११॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं-ऽकुसदेसविजयपव्वं -९८/१-२४ ६०९ पिहुदेसवहे रुट्ठो, वग्घरहो नाम पत्थिवो सूरो । जुज्झन्तो च्चिय गहिओ, संगामे वज्जजङ्घेणं ॥१२॥ नाऊण य वग्घरहं, बद्धं देसं च विहयविद्धत्थं । पिहुनरवई सलेहं, पुरिसं पेसेइ मित्तस्स ॥१३॥ नाऊण य लेहत्थं, समागओ पोयणाहिवो राया । बहुसाहणो महप्पा, मित्तस्स सहायकज्जेणं ॥१४॥ ताव य पुण्डरियपुरं, तूरन्त वज्जजङ्घनरवइणा । पुरिसो उ लेहवाहो, पवेसिओ निययपुत्ताणं ॥१५॥ अह ते कुमारसीहा, आणं पिउसन्तियं पडिच्छेउं । सन्नाहसमरभेरिं, दावेन्ति य अप्पणो नयरे ॥१६॥ एत्तो पुण्डरियपुरे, जाओ कोलाहलो अइमहन्तो । बहुसुहडतूरसद्दो, वित्थरिऊणं समाढत्तो ॥१७॥ सुणिऊण असुयपुव्वं, तं सदं समरभेरिसंजणियं । किं किं ? तिऽह पासत्थे, पुच्छन्ति लव-ऽङ्कसा तुरियं ॥१८॥ सुणिऊण य सनिमित्तं, वित्तन्तं ते तहिं कुमारवरा । सन्नज्झिउं पयत्ता, गन्तुमणा समरमज्जम्मि ॥१९॥ रुब्भन्ता वि कुमारा, अहियं चिय वज्जजङ्घपुत्तेहिं । गन्तूण समाढत्ता, भणइ विदेहा य ते पुत्ते ॥२०॥ तुब्भे हि पुत्त ! बाला, न खमा जुज्झस्स ताव निमिसं पि । न य जुप्पन्तिऽह वच्छा, महइमहारहधुराधारे ॥२१॥ तेहि वि सा पडिभणिया, अम्मो ! किं भणसि दीणयं वयणं । वीरपुरिसाण भोज्जा, वसुहा किं एत्थ विद्धेहिं? ॥२२॥ एवं ताण सहावं, नाऊणं जणय नन्दिणी भणइ । पावेह पत्थिवजसं, तुब्भे इह सुहडसंगामे ॥२३॥ अह ते मज्जियजिमिया, सव्वालंकारभूसियसरीरा । सिद्धाण नमोक्कारं, काऊणं चेव जणणीए ॥२४॥ पृथुदेशवधे रुष्टो व्याघ्ररथो नाम पार्थिवः शूरः । युध्यमाने गृहीतः संग्रामे वज्रजचेन ॥१२॥ ज्ञात्वा च व्याघ्ररथं, बद्धं हेसञ्च विहतविध्वस्तम् । पृथुनरपतिः सलेखं पुरुषं प्रषयति मित्रस्य ॥१३॥ ज्ञात्वा च लेखार्थं समागत: पोतनाधिपो राजा । बहुसाधनो महात्मा मित्रस्य सहायकार्येण ॥१४॥ तावच्च पुण्डरिकपुरं त्वरन्वज्रजघनरपतिना । पुरुषस्तु लेखवाहः प्रवेशितो निजपुत्राणाम् ॥१५।। अथ ते कुमारसिंहा आज्ञां पितृसत्कां प्रतीच्छ्य । सन्नाहसमरभेरिं दापयन्ति चात्मनो नगरे ॥१६॥ इतः पुण्डरिकपुरे जातः कोलाहलोऽतिमहान् । बहुसुभटतूर्यशब्दो विस्तर्तुं समारब्धः ।।१७।। श्रुत्वाश्रुतपूर्वं तं शब्दं समरभेरिसंजनितम् । किंकिमित्यथ पार्श्वस्थान् पृच्छतो लवणाङ्कुशौ त्वरितम् ॥१८॥ श्रुत्वा च स्वनिमित्तं वृत्तान्तं तौ तत्र कुमारवरौ । सन्नह्य प्रवृत्तौ गन्तुमनसौ समरमध्ये ॥१९॥ रुद्धन्तावपि कुमारावधिकं चैव वज्रजयपुत्रैः । गन्तुं समारब्धौ भणति विदेहा च तौ पुत्रौ ॥२०॥ युवां हि पुत्र ! बालौ न क्षमौ युद्धस्य तावन्निमेषमपि । न च युज्यन्तेऽथ वत्सा महति महारथधूराधारे ॥२१॥ ताभ्यामपि सा प्रतिभणिता अम्ब ! किं भणसि दीनं वचनम् । वीरपुरुषाणां भोग्या वसुधा किमत्र वृद्धैः ? ॥२२॥ एवं तयोः स्वभावं ज्ञात्वा जनकनन्दिनी भणति । प्राप्नुत पार्थिवयशः युवामिह सुभटसंग्रामे ॥२३॥ अथ तौ मज्जितजिमितौ सर्वालङ्कारभूषितशरीरौ । सिद्धेभ्यो नमस्कारं कृत्वैव जनन्याः ॥२४॥ १. ०हा तओ पु०-प्रत्य० । २. ०यणंदणी-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० पउमचरियं धय-चमर-कणय-किंकिणि-विहूसिएसुं रहेसु आरूढा । असि-कणय-चक्क-तोमर-करालकोन्तेसु साहीणा ॥२५॥ अड्डाइएसु पत्ता, दिणेसु ते वज्जजङ्घनरवसहं । सन्नद्धबद्धकवया, हयगयरहजोहपरिकिण्णा ॥२६॥ दट्ठण वज्जजङ्घ, समागयं पिहुनरिन्दसामन्ता । तुरिया जसाहिलासी, अब्भिट्ठा समर सोण्डीरा ॥२७॥ असि-परसु-चक्क-पट्टिस-सएसु पहरन्ति उभयबलजोहा । जुज्झन्ति सवडहुत्ता, अन्नोन्नं चेव घाएन्ता ॥२८॥ एवंविमहम्मि जुज्झे, वट्टन्ते सुहडमुक्कवुक्कारे। लवण-ऽङ्कसा पविट्ठा, चक्का-ऽसि-गयातमन्धारे ॥२९॥ अह ते तुरओज हु)दए, बहुभडमयरे सुसत्थकमलवणे । लीलायन्ति जहिच्छं, समरतलाए कुमारगया ॥३०॥ गेण्हन्ता संधेन्ता, परिमुञ्चन्ता य सरवरे बहुसो । न य दीसन्ति कुमारा, दीसन्ति य रिवुभडा भिन्ना ॥३१॥ निद्दयपहराभिहयं, सयलं लवणकसेहि रिउसेन्नं । भग्गं पिहूण समयं, नज्जइ सीहेहि मयजूहं ॥३२॥ अणुमग्गेण रहवरा, दाउं ते जंपिऊण आढत्ता । अमुणियकुलाण संपइ, मा भज्ज अहिमुहा होह ॥३३॥ हयविहयविप्परद्धं, निययबलं पेच्छिउं पलायन्तं । राया पहू नियत्तो, पडइ कुमाराण चलणेसु ॥३४॥ अह भणइ पिहुनरिन्दो, दुच्चरियं जं कयं पमाएणं । तं खमह मज्झ सव्वं, सोमसहावं मणं काउं ॥३५॥ पुहइपुरसामियं ते, संभासेऊण महुरवयणेहिं । जया पसन्नहियया, समयं चिय वज्जजङ्घणं ॥३६॥ लवणङ्कसेहि समयं, पिहुस्स पीई निरन्तरा जाया ।आणामिया य बहवे, तेहि महन्ता पुहइपाला ॥३७॥ ध्वज-चामर-कनक-किकिणि-विभूषितेषु रथेष्वारुढौ । असि-कनक-चक्र-तोमर-करालकौन्तेषु स्वाधीनौ ।।२५।। अर्धतृतीयैः प्राप्ता दिनैस्ते वज्रजयनरवृषभम् । सन्नद्धबद्धकवचा हयगजरथयोधपरिकीर्णाः ॥२६॥ दृष्ट्वा वज्रजचं समागतं पृथुनरेन्द्रसामन्ताः । त्वरिता यशोभिलाषिणः प्रवृत्ताः समरशौण्डिराः ॥२७।। असि-परशु-चक्र-पट्टिस-शतैः प्रहरन्त्युभयबलयोधाः । युध्यन्तेऽभिमुखा अन्योन्यमेव घातयन्तः ॥२८॥ एवंविधे युद्धे वर्तमाने सुभटमुक्तगर्जारावे । लवणाङ्कुशौ प्रविष्टौ चक्राऽसि-गदातमोऽन्धकारे ॥२९॥ अथ तौ तुरगोदके बहुभटमकरे सुशस्त्रकमलवने । लीलायतो यथेच्छं समरतडागे कुमारगजौ ॥३०॥ गृह्णन्तौ संघन्तौ परिमुञ्चन्तौ च शरवरान् बहुशः । न च दृश्यतः कुमारौ दृश्यन्ते च रिपुभटा भिन्नाः ॥३१॥ निर्दयप्रहाराभिहतं सकलं लवणाकुशाभ्यां रिपुसैन्यम् । भग्नं पृथुना समकं ज्ञायते सिंहै मंगयुथम् ।।३२॥ अनुमार्गेण रथवरौ दत्वा तौ जल्पितुमारब्धौ । अमुणितकुलानां संप्रति मा भञ्जताभिमुखा भवत ॥३३|| हतविहतविपीडितं निजबलं दृष्ट्वा पलायमानम् । राजा पृथु निवृत्तः पतति कुमाराणां चरणेषु ॥३४॥ अथ भणति पृथुनरेन्द्रो दुश्चरितं यत्कृतं प्रमादेन । तत्क्षध्वम् मम सर्वं सौम्यस्वभावं मनः कृत्वा ॥३५॥ पृथिवीपुरस्वामिनं तौ संभाष्य मधुरवचनैः । जातौ प्रसन्नह्रदयौ समकमेव वज्रजङ्येन ॥३६॥ लवणाकुशाभ्यां समकं पृथोः प्रीति निरन्तरा जाता । आनामिताश्च बहवस्ताभ्यां महान्तः पथिवीपालाः ॥३७॥ १. ०यखिखिणिविभूसि०-प्रत्य० । २. जयाहि०-प्रत्य० । ३. रसोडीरा-प्रत्य० । ४. तुरउट्टारे, व०-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं- कुसदेसविजयपव्वं - ९८/२५-५० २ आवासिएहि एवं, भडेहि तो वज्जजङ्घनरवइणा । भणिओ य नारयमुणी, कहेहि लवण - -ऽङ्कुसुप्पत्ती ॥३८॥ तो भणइ नारयमुणी, अत्थि इहं कोसलाए नरवसभो । इक्खागवंसतिलओ, विक्खाओ दसरहो नामं ॥३९॥ चत्तारि सायरा इव, तस्स सुया सत्ति- 'कन्ति- बलजुत्ता । विन्नाणनाणकुसला, ईसत्थकयस्समा वीरा॥४०॥ जेो य हवइ पमो अणुओ पुण लक्खणो तहा भरहो । सत्तुग्घो य कणिट्ठो, जो सत्तुं जिणइ संगामे ॥४१॥ पालेन्तो पिउवयणं, लक्खणसहिओ समं च घरिणीए । मोत्तूण य साएयं, डण्डारण्णं गओ पउमो ॥४२॥ लच्छीहरेण वहिओ, चन्दणहानन्दणो य सम्बुक्को सुयवेरिएण समयं करेइ खरदूसणो जुज्झं ॥४३॥ संगामम्मि सहाओ, जाव गओ लक्खणस्स पउमाभो । ताव य छलेण हरिया, जणयसुया रक्खसिन्देणं ॥४४॥ सुग्गीव- हणुव- जम्बव-विराहियाई बहू गयणगामी । रामस्स गुणासत्ता, मिलिया पुव्वं व सुकएणं ॥ ४५ ॥ रामेण रक्खसवई, जिणिऊणं आणिया तओ सीया । साएया वि य नयरी, सग्गसरिच्छा कया तेहिं ॥४६॥ परमिड्डिसंपउत्ता, हलहर- नारायणा तर्हि रज्जं । भुञ्जन्ति सुरवरा इव, सत्तसु रयणेसु साहीणा ॥४७॥ अह अन्नया कयाई, जणपरिवायाणुगेण पउमेणं । परपुरिसजणियदोसा, जणयसुया छड्डिया रणे ॥४८॥ कहिऊण य निस्सेसं, वत्तं तो नारओ सरिय सीयं । जंपइ समंसुनयणो, सव्वनरिन्दाण पच्चक्खं ॥४९॥ पउमस्स अग्गमहिसी, अट्ठण्हं महिलियासहस्साणं । रयणं व निरुवलेवा, उत्तमसम्मत्त चारित्ता ॥५०॥ आवासितैरेवं भटैस्तदावज्रजङ्घनरपतिना । भणितश्च नारदमुनिः कथय लवणाङ्कुशोत्पत्तिः ||३८|| तदा भणति नारदमुनिस्तीह कोशलायां नरवृषभः । इक्ष्वाकवंशतिलको विख्यातो दशरथो नाम ॥३९॥ चत्वारः सागरा इव तस्य सुताः शक्ति- कान्ति - बलयुक्ताः । विज्ञानज्ञानकुशला इष्वस्त्रकृतश्रमा वीराः ॥४०॥ ज्येष्ठश्च भवति पद्मोऽनुजः पुन र्लक्ष्मणस्तथा भरतः । शत्रुघ्नश्च कनिष्ठो यः शत्रुं जयति संग्रामे ॥४१॥ पालयन् पितृवचनं लक्ष्मणसहितः समं च गृहिण्या । मुक्त्वा च साकेतां दण्डारण्यं गतः पद्मः ॥४२॥ लक्ष्मीधरेण हतश्चन्द्रनखानन्दनश्च सम्बुकः । सुतवैरिणा समं करोति खरदूषणो युद्धम् ॥४३॥ संग्रामे सहायो यावद्गतो लक्ष्मणस्य पद्माभः । तावच्च च्छलेन हृता जनकसुता राक्षसेन्द्रेण ॥४४॥ सुग्रीव-हनुमज्जम्बवन्विराधितादयो बहवो गगनगामिनः । रामस्य गुणास्ता मिलिताः पूर्वं वा सुकृतेन ॥४५॥ रामेण राक्षसपतिं जित्वाऽऽनीता ततः सीता । साकेताऽपि च नगरी स्वर्गसदृशा कृता तैः ॥ ४६ ॥ परमर्द्धिसंप्रयुक्तौ हलधर-नारायणौस्तत्र राज्यम् । भुञ्जतः सुरवरा विव सप्तभी रत्नैः स्वाधीनौ ॥४७॥ अथान्यदा कदाचिज्जनपरिवादानुगेन पद्मेन । परपुरुषजनितदोषा जनकसुता त्यक्ताऽरण्ये ॥४८॥ कथयित्वा च निःशेषां वार्तां तदा नारदः स्मृत्वा सीताम् । जल्पति साश्रुनयनः सर्वनरेन्द्राणां प्रत्यक्षम् ॥४९॥ पद्मस्याग्रमहिष्यष्टानां महिलासहस्राणाम् । रत्नमिव निरुपलेपोत्तमसम्यक्त्वचारित्रा ॥५०॥ १. ० कन्तिसंजुत्ता - प्रत्य० । २. धीरा - प्रत्य० । ३. चंदपहा० मु० । ४. ०च्छा य तेहिं कया- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ६११ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ पउमचरियं नूणं चिय अन्नभवे, पावं समुवज्जियं विदेहाए । तेणेत्थ माणुसत्ते, अणुहूयं दारुणं दुक्खं ॥५१॥ परतत्तिरयस्स इहं, जणस्स अलियं पभासमाणस्स |वासीफलं व जीहा, कह व न पडिया धरणिवढे ? ॥५२॥ सुणिऊण वयणमेयं, अणङ्गलवणो मुणिं भणइ एत्तो । साहे हि इहन्ताओ, केदूरे कोसला नयरी ? ॥५३॥ सो भणइ जोयणाणं, सयं ससद्धं इमाउ ठाणाओ। साएया वरनयरी, जत्थ य परिवसइ पउमाभो ॥५४॥ सुणिऊण वयणमेयं, भणइ लवो वज्जजङ्घनरवसभं । मामय मेलेहि भडा, सएयं जेण वच्चामो ॥५५॥ एयन्तरम्मि पिहुणा, दिन्ना मयणङ्कसस्स निययसुया । वत्तं पाणिग्गहणं, तत्थ कुमारस्स तद्दियहं ॥५६॥ गमिऊण एगरत्ति, तत्तो वि विणिग्गया कुमारवरा । परदेसे य जिणन्ता, पत्ता आलोगनयरं ते ॥५७॥ तत्तो वि य निग्गन्तुं, अब्भण्णपुरं गया सह बलेणं । तत्थ वि कुबेरकन्तं, जिणन्ति समरे नरवरिन्दं ॥५८॥ गन्तूण य लम्पागं, देसं बहुगाम-नगरपरिपुण्णं । तत्थ वि य एगकण्णं, नराहिवं निज्जिणन्ति रणे ॥५९॥ तं पि य अइक्कमेउं, पत्ता विजयथलि महानयरिं । तत्थ वि जिणन्ति वीरा, भाइसमं नरवरिन्दाणं ॥६०॥ गङ्गं समुत्तरेउं, कइलासस्सुत्तरं दिसं पत्ता । जाया य सामिसाला, लव-ऽङ्कसा णेयदेसाणं ॥६१॥ झस-कंबु-कुंत-सीहल-पण-णंदण-सलहलंगला भीमा। भूया य वामणा वि य, जिया य बहुवाइया देसा ॥६२॥ उत्तरिऊण य सिन्धुं, अवरेण जिणन्ति ते बहू देसा । आरिय-अणारिया वि य, इमेहि नामेहि नायव्वा ॥६३॥ नूनमेवान्यभवे पापं समुपार्जितं विदेह्या । तेनात्र मनुष्यत्वे अनुभूतं दारुणं दुःखम् ॥५१॥ परचिंतारतस्येह जनस्यालिकं प्रभाषमाणस्य । वासीफलमिव जिव्हा कथं न पतिता धरणिपृष्टे ? ॥५२॥ श्रुत्वा वनचमेतदनङ्गलवणो मुनि भणतीतः । कथयात्रान्तात् के दूरे कोशला नगरी ? ॥५३॥ स भणति योजनानां शतं ससार्द्धमस्मात्स्थानात् । साकेतावनरनगरी यत्र च परिवसति पद्माभः ॥५४॥ श्रुत्वा वचनमेतद्भणति लवो वज्रजयनरवृषभम् । माम ! मेलय भटान् साकेतं येन गच्छामः ॥५५।। एतदन्तरे पृथुना दत्ता मदनाङ्कुशस्य निजसुता । वृत्तं पाणिग्रहणं तत्र कुमारस्य तद्दिवसम् ॥५६॥ गमयित्वैकरात्रिं ततोऽपि विनर्गतौ कुमारवरौ । परदेशांश्च जयन्तौ प्राप्तावालोकनगरं तौ ॥५७॥ ततोऽपि निर्गत्याभ्यर्णपुरं गतौ सह बलेन । तत्रापि कुबेरकान्तं जयतः समरे नरवरेन्द्रम् ॥५८॥ गत्वा च लम्पाकं देशं बहुग्राम-नगरपरिपूर्णम् । तत्रापि चैककर्णं नराधिपं निर्जयन्ति रणे ॥५९॥ तमपि चाक्राम्य प्राप्तौ विजयस्थलिं महानगरम् । तत्रापि जयन्तौ वीरौ भ्रातृसमं नरवरेन्द्राणाम् ॥६०॥ गगां समुत्तीर्य कैलासस्योत्तरां दिशां प्राप्तौ । जातौ च स्वामिनौ लवणाङ्कुशावनेकदेशानाम् ॥६१॥ झस-कंबु-कुंत-सिंहल-पण-नंदन-शलभ लाङ्गला भीमाः । भूताश्च वामना अपि च जिताश्च बहुवादिका देशाः ॥६२॥ उत्तीर्य च सिन्धुमपरेण जयतस्तौ बहू देशान् । आर्याऽनार्यानपि चेमै मिभि तिव्याः ॥६३॥ १. मेलेह-प्रत्य० । २. नरेंदवरं-प्रत्य० । ३. ०हमंगला-मु० । ४. वाहणा-प्रत्यः । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं-ऽकुसदेसविजयपव्वं -९८/५१-७३ ६१३ आहीर-वोय-जवणा, कच्छा सगकेरला य नेमाला' । वरुला य चारुवच्छा, वरावडा चेव सोपारा ॥६४॥ कसमीर-विसाणा वि य, विज्जातिसिरा हिडिंबयं-ऽबट्ठा । सूला बब्बर-साला, गोसाला सरमया सबरा ॥६५॥ आणंदा तिसिरा वि य, खसा तहा चेव होन्ति मेहलया। सुरसेणा वल्हीया, खंधारा कोल-उलुगा य ॥६६॥ पुरि-कोबेर कुहेडा, अण्णे य तहा कलिङ्गमाईया । एए अन्ने य बहू, लव-ऽसेहिं जिया देसा ॥६७॥ एवं लव-ऽङ्कसा ते, सेविज्जन्ता नरिन्दचक्केणं । पुणरवि पुण्डरियपुरं, समागया इन्दसमविहवा ॥६८॥ सोऊण कुमाराणं, आगमणं वज्जजङ्घसहियाणं । धय-छत्त-तोरणाई, लोएण कया नयरसोहा ॥६९॥ उवसोहिए समत्थे, पुण्डरियपुरे सुरिन्दपुरसरिसे । लवणङ्कुसा पविट्ठा, नायरलोएण दीसन्ता ॥७०॥ सीया दट्टण सुए, समागए निग्गया वरघराओ। लवण-ऽङ्सेहि पणया, जणणी सव्वायरतरेणं ॥७१॥ तीए वि ते कुमारा, अवगूढा हरिसनेहहिययाए । अङ्गेसु परामुट्ठा, सिरेसु परिचुम्बिया अहियं ॥७२॥ सपत्थिवा सगयतुरंगवाहणा, विसन्ति ते सियकमलायरे पुरे। मणोहरा पयलियचारुकुण्डला, लव-ऽङ्कसा विमलपयावपायडा ॥७३॥ ॥ इइ पउमचरिए लवकुसदेसविजयं नाम अट्ठाणउयं पव्वं समत्तं ॥ आहीर-वोक-यवनाः कच्छाः शककेरलाश्च नेपालाः । वरुलाश्च चारुवत्सा बरावट एव सोपाराः ॥६४॥ कश्मीरविषाणा अपि च विध्यत्रिशिरा हिडिम्बाम्बष्टाः । शूला बर्बरशाला: गोशाला: शर्मका: सबराः ॥६५॥ आनंदा स्त्रिशिरा अपि च खसारस्तथैव भवन्ति मेखलकाः । सुरसेना वल्हीका: गन्धाराः कोलोल्लुकाश्च ॥६६॥ पुरिकौबेरकुहेडा अन्येच तथा कलिङ्गादयः । एते ऽन्ये च बहवो लवाङ्कुशै जिता देशाः ॥६७।। एवं लवाङ्कुशौ तौ सेव्यमानौ नरेन्द्रचक्रेण । पुनरपि पुण्डरिकपुरं समागताविन्द्रसमविभवौ ॥६८॥ श्रुत्वा कुमाराणामागमनं वज्रजङ्वसहितानाम् । ध्वज-छत्र-तोरणानि लोकेन कृता नगरशोभा ॥६९।। उपशोभिते समस्ते पुण्डरिकपुरे सुरेन्द्रपुरसदृशे । लवणाङ्कुशौ प्रविष्टौ नागरलोकेन दृश्यन्तौ ॥७०॥ सीता दृष्ट्वा सुतौ समागतौ निर्गता वरगृहात् । लवणाकुशाभ्यां प्रणता जननी सर्वादरतरेण ॥७१।। तयापि तौ कुमारावालिङ्गितौ हर्षस्नेहहृदययाम् । अङ्गैः परामृष्टौ शिरसि परिचुम्बितावधिकम् ।।७२।। सपार्थिवौ सगजतुरङ्गवाहनौ विशतस्तौ श्रीकमलाकरे पुरे। मनोहरौ प्रचलितचारुकुण्डलौ लवाङ्कुशौ विमलप्रतापप्रकटौ ॥७३॥ ॥इति पद्मचरिते लवकुशदेशविजयं नामाष्टानवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १.०र-ओय०-प्रत्य० । २. ०गकीरला-प्रत्य० । ३. णेपाणा-प्रत्य० । ४. ०ला रसमया-प्रत्य० ।५. खिसा-प्रत्य० । ६.०णा वण्होया गंधारा कोसला लूया-प्रत्य० । ७. पल्हीया-मु०। ८. वसंति-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ९९. लवणं-ऽकुसजुज्झपव्वं । एवं ते परमगुणं, इस्सरियं पाविया वरकुमारा । बहुपत्थिवपरिकिण्णा, पुण्डरियपुरे परिवसन्ति ॥१॥ तत्तो कयन्तवयणं, परिपुच्छइ नारओ अडविमज्झे । विमणं गवेसमाणं, जणयसुयं उज्झिउद्देसे ॥२॥ सयले य समक्खाए, वित्तन्ते नारओ गओ तुरियं । पुण्डरियपुरं गन्तुं, पेच्छइ लवण-ऽङ्घसे भवणे ॥३॥ संपुज्जिओ पविट्ठो, भणइ तओ नारओ कुमारवरे ।जा राम-लक्खणसिरी, सा तुब्भं हवउ सविसेसा ॥४॥ काऊण समालावं, खणमेक्कं नारओ कुमाराणं । साहेइ य वित्तन्तं, कयन्तवयणाइयं सव्वं ॥५॥ तं नारयस्स वयणं, सुणिऊण लव-ऽङ्घसा परमरुट्ठा । जंपन्ति समरसज्जं, कुणह लहुं साहणं सव्वं ॥६॥ पउमस्सुवरि पयट्टे, पुत्ते दट्टण तत्थ वइदेही । रुवइ ससंभमहियया, दइयस्स गुणे अणुसरन्ती ॥७॥ सीयाए समीवत्थो, सिद्धत्थो भणइ नारयं एत्तो । एस कुडुम्बस्स तुमे, भेओ काउंसमाढत्तो ॥८॥ सिद्धत्थं देवरिसी, भणइ न जाणामि हं इमं कज्जं । नवरं पुण एत्थ गुणो, दीसइ सत्थो तुम होहि ॥९॥ सुणीऊण य रुयमाणिं, जणणि पुच्छन्ति दोण्णि वि कुमारा । ___ अम्मो ! साहेहि लहुं, केण तुमं एत्थ परिभूया ॥१०॥ सीया भणइ कुमारे, न य केणइ एत्थ रोसिया अहयं । नवरं रुयामि संपइ, तुम्ह पियं सरिय गुणनिलयं ॥११॥ ___ ९९. लवणाङ्कुशयुद्धपर्वम् एवं तौ परमगुणमैश्वर्यं प्राप्तौ कुमारवरौ । बहुपार्थिवपरिकीर्णौ पुण्डरिकपुरे परिवसतः ॥१॥ ततः कृतान्तवदनं परिपृच्छति नारदोऽटविमध्ये । विमनसं गवेषन्तं जनकसुतामुज्झितोद्देशे ॥२॥ सकले च समाख्याते वृतान्ते नारदो गतस्त्वरितम् । पुण्डरकपुरं गत्वा पश्यति लवणाङ्कुशौ भवने ॥३॥ संपूजितः प्रविष्टो भणति ततो नारदः कुमारवरौ । या राम-लक्ष्मणश्रीः सा युवां भवतु सविशेषेण ॥४॥ कृत्वा समालापं क्षणमेकं नारदः कुमाराणाम् । कथयति च वृत्तान्तं कृतान्तवदनादिकं सर्वम् ॥५॥ तन्नारदस्य वचनं श्रुत्वा लवणाङ्कुशौ परमरुष्टौ । जल्पतः समरसज्जं कुरुत लघु साधनं सर्वम् ॥६॥ पद्मस्योपरि प्रवृत्तौ पुत्रौ दृष्ट्वा तत्र वैदेही । रोदिति ससंभ्रमहृदया दयितस्य गुणान्ननुस्मरन्ती ।।७।। सीतायाः समीपस्थः सिद्धार्थो भणति नारदमितः । एष कुटुम्बस्य त्वं भेदः कर्तुं समारब्धः ॥८॥ सिद्धार्थं देवर्षि भणति न जानाम्यहमिदं कार्यम् । नवरं पुनरत्र गुणो दृश्यते स्वस्थस्त्वं भव ॥९॥ श्रुत्वा च रुदन्तीं जननीं पृच्छतो द्वावपि कुमारौ । अम्ब ! कथय लघु केन त्वमत्र परिभूता ? ॥१०॥ सीता भणति कुमारौ न च केनचिदत्र रोषिताऽहम् । नवरं रोदिमि संप्रति तव पितरं स्मृत्वा गुणनिलयम् ॥११॥ १. संपूइओ-मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ लवणं-ऽकुसजुज्झपव्वं -९९/१-२५ भणिया य कुमारेहि, को अम्ह पिया ? कहिं वि सो अम्मो ? । परिवसइ किं च नामं?, एयं साहेहि भूयत्थं ॥१२॥ जं एव पुच्छिया सा, निययं साहेइ उब्भवं सीय । रामस्स य उप्पत्ती, लक्खणसहियस्स निस्सेसं ॥१३॥ दण्डारण्णाईयं, नियहरणं रावणस्स वहणं च । साएयपुरिपवेसं, जणाववायं निरवसेसं ॥१४॥ पुणरवि कहेइ सीया, जणपरिवायाणुगुण रामेणं । नेऊण उज्झिया हं, अडवीए केसरिरवाए ॥१५॥ गयगहणपविटेणं, दिट्ठा हं वज्जजङ्घनरवइणा । काऊण धम्मबहिणी, भणिऊण इहाणिया नयरं ॥१६॥ एवं नवमे मासे, संपत्ते सवणसंगए चन्दे । एत्थेव पसूया हं, तुब्भेहिं राहवस्स सुया ॥१७॥ तेणेह लवणसायर-परियन्ता वसुमई रयणपुण्णा । विज्जाहरेहि समयं, दासि व्व वसीकया सव्वा ॥१८॥ आवडिए संगामे, संपइ किं तुम्ह किं व रामस्स । सुणिहामि असोभणयं, वत्तं तेणं मए रुण्णं ॥१९॥ सा तेहि वि पडिभणिया, अम्मो ! बल-केसवाण अइरेणं । सुणिहिसि माणविभङ्ग, समरे अम्हेहि कीरन्तं ॥२०॥ सीया भणइ कुमारे, न य जुत्तं एरिसं ववसिउंजे । नमियव्वो चेव गुरू, हवइह लोए ठिई एसा ॥२१॥ ते एवं जंपमाणिं, संथावेऊण अत्तणो जणणिं । दोण्णि वि मज्जियजिमिया, आहरणविभूसियसरीरा ॥२२॥ सिद्धाण नमोक्कार, काऊणं मत्तगयवरारूढा । तो निग्गया कुमारा, बलसहिया कोसलाभिमुहं ॥२३॥ दस जोहसहस्सा खलु, गहियकुहाडा बलस्स पुरहुत्ता । छिन्नन्ता तरुनिवहं, वच्चन्ति तओ तहिं सुहडा ॥२४॥ ताण अणुमग्गओ पुण, खर-करह-बइल्ल-महिस माईया।वच्चन्ति रयण-कञ्चण-चेलियबहुधन्नभरभरिया ॥२५॥ भणिता च कुमाराभ्यां कोऽस्मत्पिता? कुत्र वा सोऽम्ब? । परिवसति किं च नाम? एतत्कथय भूतार्थम् ॥१२॥ यदेवं पृष्टा सा निजं कथयत्युद्भवं सीता । रामस्य चोत्पत्ति र्लक्ष्मणसहितस्य नि:शेषम् ॥१३॥ दण्डारण्यादिकं निजहरणं रावणस्य वधनं च । साकेतपुरिप्रवेशं जनापवादं निरवशेषम् ॥१४॥ पुनरपि कथयति सीता जनपरिवादानुगुणेन रामेण । नीत्वोज्झिताऽहमटव्यां केसरीरवायाम् ॥१५॥ गजग्रहणप्रविष्टेन दृष्टाऽहं वज्रजवनरपतिना । कृत्वा धर्मभगिनी भणित्वेहानीता नगरम् ॥१६।। एवं नवमे मासे संप्राप्ते श्रवणसंगते चन्द्रे । अत्रैव प्रसूताऽहं युवां राघवस्य सुतौ ॥१७॥ तेनेह लवणसागरपर्यन्ता वसुमति रत्नपूर्णा । विद्याधरैः समं दासीव वशीकृता सर्वा ॥१८॥ आपतिते संग्रामे संप्रति किं युवयोः किं वा रामस्य । श्रुणोम्यशोभनां वार्तां तेन मया रुदितम् ॥१९॥ सा ताभ्यामपि प्रतिभणिताऽम्ब ! बलकेशवानामचिरेण । श्रोष्यषि मानविभङ्गं समरेऽस्माभिः क्रियमाणम् ॥२०॥ सीता भणति कुमारौ न युक्तमिदृशं व्यवसितुं ये । नन्तव्य एव गुरु र्भवतीह लोके स्थितिरेषा ॥२१॥ तावेवं जल्पन्ती संस्थाप्यात्मनो जननीम् । द्वावपि मज्जितजिमितावाभरणभूषितशरीरौ ।।२२।। सिद्धेभ्यो नमस्कारं कृत्वा मत्तगजरारुढौ । ततो निर्गतौ कुमारौ बलसहितौ कोशलाभिमुखम् ॥२३॥ दश योधनसहस्रा खलु गृहीतकुठारा बलस्य पुरोभूताः । छिन्दन्तस्तरुनिवहं गच्छन्ति तत स्तत्र सुभटाः ॥२४॥ तेषामनुमार्गतः पुनः खर-करभ-वृषभ-महीषादयः । व्रजन्ति रत्न-कञ्चन-चल बहुधान्यभारभृताः ॥२५॥ १. सा तह्यति प०-प्रत्य० । २. तरुगहणं, ब०-प्रत्य० । ३.०सयाईया-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ नाणाउहगहियकरा, नाणानेवत्थउज्जला जोहा । वच्चन्ति य दढदप्पा, चञ्चलच मरा वरतुरंगा ॥२६॥ ताणं अणुमग्गेणं, मत्तगया बहलधाउविच्छुरिया । वच्चन्ति रहवरा पुण, कयसोहा ऊसियधओहा ॥२७॥ तम्बोल - पुप्फ-चन्दण-कुङ्कुम- कप्पूर - चेलियाईयं । सव्वं पि सुप्पभूयं, अत्थि कुमारण खन्धारे ॥२८॥ एवं ते बलसहिया, संपत्ता कोसलापुरीविसयं । पुण्डुच्छु- सालिपउरं, काणण-वण- वप्परमणिज्जं ॥२९॥ जोयणमेत्तेसु पयाणएसु, एवं क्रमेण संपत्ता । कोसलपुरीए नियडे, नदीए आवासिया वीरा ॥३०॥ दट्ठूण तं कुमारा, पव्वयसिहरोहतुङ्ग पायारं । पुच्छन्ति वज्जजङ्घ, मामय ! किं दीसए एयं ? ॥३१॥ तो भइ वज्जजङ्घो, साएया पुरवरी हवइ एसा । जत्थऽच्छइ तुम्ह पिया, पउमो लच्छीहरसमग्गो ॥३२॥ सुणिऊण समासन्ने, हलहर - नारायणा पराणीयं । जंपन्ति कस्स लोए, संपइ मरणं समासन्नं ॥ ३३ ॥ अहवा वि किं न भण्णइ ?, सो अप्पाऊ न एत्थ संदेहो । जो एइ अम्ह पासं, कयन्तअवलोइओ पुरिसो ॥ ३४ ॥ एत्तोपासल्लीणं, विराहियं भणइ राहवो सहसा हरि-गरुड वाहण-धयं, रणपरिहत्थं कुणह सेन्नं ॥ ३५ ॥ भणिऊण वयणमेयं, चनदोयरनन्दणेण आहूया । सव्वे वि नरवरिन्दा, समागया कोसलानयरिं ॥ ३६ ॥ दट्ठूण राहवबलं, सिद्धत्थो भाइ नारयं भीओ । भामण्डलस्स, गन्तुं एवं साहेहि वित्तन्तं ॥३७॥ तो नारएण गन्तुं, वित्तन्ते साहिए अपरिसेसे । जाओ दुक्खियविमणो, सहसा भामण्डलो राया ॥३८॥ सो भाइज्जे, आसन्न रणबलेण महएणं । भामण्डलो पयट्टो, समयं पियरेण पुण्डरियं ॥ ३९ ॥ नानाऽऽयुधगृहीतकरा नानानेपथ्योज्वला योधाः । व्रजन्ति च दृढदर्पाश्चञ्चलचमरा वरतुरङ्गाः ॥२६॥ तेषामनुमार्गेण मत्तगजा बहलधातुविच्छूरिताः । व्रजन्ति रथवराः पुनः कृतशोभा उच्छ्रितध्वजौघाः ॥२७॥ ताम्बुल-पुष्प-चन्दन-कुङ्कुम- कर्पूर- चेलादिकम् । सर्वमपि सुप्रभूतमस्ति कुमारयोः स्कन्धावारे ॥२८॥ एवं तौ बलसहितौ संप्राप्तौ कोशलापुरीविषयम् । पुण्ड्रेक्षुशालिप्रचुरं कानन - वन-वप्ररमणीयम् ॥२९॥ योजनमात्रेषु प्रयाणेष्वेवं क्रमेण संप्राप्तौ । कोशलापुर्या निकटे नद्यामावासितौ वीरौ ॥३०॥ दृष्टवा तं कुमारौ पर्वतशिखरौघतुड्गप्राकारम् । पृच्छतो वज्रजड्वं मामक ! किं दृश्यत एतत् ? ॥३१॥ तदा भणति वज्रजङ्घः साकेतापुरवरी भवत्येषा । यत्रास्ते युवयोः पिता पद्म लक्ष्मीधरसमग्रः ॥३२॥ श्रुत्वा समासन्ने हलधर-नारायणौ परानीकम् । जल्पतिः कस्य लोके संप्रति मरणं समासन्नम् ॥३३॥ अथवाऽपि किं वा भण्यते ? सोऽल्पायुर्नात्र संदेहः । य एत्यस्माकं पार्श्वं कृतान्तावलोकितः पुरुषः ||३४|| इतः पार्श्वलीनं विरार्धित भणति राघवः सहसा । हरि-गरुड-वाहन-ध्वजं रणदक्षं कुरुत सैन्यम् ॥३५॥ भणित्वा वनचमेतच्चन्द्रोदरनन्दनेनाहूताः । सर्वेऽपि नरवरेन्द्राः समागताः कोशलानगरीम् ||३६|| दृष्ट्वा राघवबलं सिद्धार्थो भणति नारदं भीतः । भामण्डलस्य गत्वैतत्कथय वृत्तान्तम् ॥३७॥ तदा नारायणेन गत्वा वृत्तान्ते कथिते ऽपरिशेषे । जातो दुःखितविमनाः सहसा भामण्डलो राजा ||३८|| श्रुत्वा भागीनेयानासन्नान्रणबलेन महता । भामण्डलः प्रवृत्तः समकं पित्रा पुण्डरिकम् ॥३९॥ I पउमचरियं १. ० चवला व० मु० । २. कणपमया ऊ० - प्रत्य० । ३. धीरा प्रत्य० । ४ ०ङ्गसंघायं मु० । ५. ०ण एवमेयं प्रत्य० । ६. ०यमणसो, स०- प्रत्य०। ७. सुणिऊण- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं-ऽकुसजुज्झपव्वं -९९/२६-५३ ६१७ माया-वित्तेण समं, समायं भायरं पलोएउं । सीया भवणवराओ, विणिग्गया निब्भरसिणेहा ॥४०॥ सीया कुणइ पलावं, कलुणं पिउ-भाइ-माइसंजोए । निव्वासणाए दुक्खं, साहेन्ती जं जहावत्तं ॥४१॥ संथाविऊण बहिणिं, जंपइ भामण्डलो सुणसु देवी ! । रणसंसयं पवन्ना, तुज्झ सुया कोसलपुरीए ॥४२॥ नारायण-बलदेवा, न य जोहिज्जन्ति सुरवरेहि पि । लवण-ऽङ्कुसेहि खोहं, नीया ते तुज्झ पुत्तेहिं ॥४३॥ जाव न हवइ पमाओ, ताण कुमाराण देवि ! एत्ताहे । गन्तूण कोसला हं, करेमि परिक्खणोवायं ॥४४॥ सोऊण वयणमेयं, सीया भामण्डलेण समसहिया । दिव्वविमाणारूढा, पुत्ताण गया समीवम्मि ॥४५॥ अह ते कुमारसीहा, मायामहजुवलयं च जणणिं च । संभासन्ति य माम, सयणसिणेहेण परितुट्ठा ॥४६॥ को राम-लक्खणाणं, सेणिय ! वण्णेइ सयलबलरिद्धि ? । तह वि य सुणेहि संपइ, संखेवेणं भणिज्जन्तं ॥४७॥ केसरिरहे विलग्गो, पउमो लच्छीहरो य गरुडङ्के। सेसा वि पवरसुहडा, जाण-विमाणेसु आरूढा ॥४८॥ राया उतिसिरनामो. वण्हिसिहो सीहविक्कमो मेरू । एत्तो पलम्बबाह.सरहो तह वालिखिल्लो य॥४९॥ सूरो य रूद्दभूई, कुलिस्ससवणो य सीहउदरो य । पिहुमारिदत्तनामो, मिन्दवाहाइया बहवे ॥५०॥ एवं पञ्चसहस्सा, नरिन्दचन्दाण बद्धमउडाणं । विज्जाहराण सेणिय !, भडाण को लहइ परिसंखं ? ॥५१॥ आसेसु कुञ्जरेसु य, केइ भडा रहवरेसु आरूढा ।खर-करहकेसरीसु य, अन्ने गो-महिसविलग्गा ॥५२॥ एवं रामस्स बलं, विणिग्गयं पहयतूरनिग्धोसं । नाणाउहगहियकर, विमुक्तपाइक्कवोक्कारं ॥५३॥ माता-पित्रा समं समागतं भ्रातरं प्रलोक्य । सीता भवनवराद्विनिर्गता निर्भरस्नेहा ॥४०॥ सीता करोति प्रलापं करुणं पितृ-भ्रातृ-मातृसंयोगे। निर्वासनाया दु:खं कथयन्ती यद्यथावृत्तम् ॥४१॥ संस्थाप्य भगिनी जल्पति भामण्डलः श्रुणु देवि ! । रणसंशयं प्रपन्नौ तव सुतौ कोशलापूर्याम् ॥४२॥ नारयण-बलदेवौ न योत्स्येते सुरवरैरपि । लवणाङ्कुशाभ्यां क्षोभं नीतौ तौ तव पुत्राभ्याम् ॥४३।। यावन्न भवति प्रमादस्तयोः कुमारयो देवि ! इदानीम् । गत्वा कोशलामहं करोमि परिरक्षणोपायम् ॥४४|| श्रुत्वा वचनमेतत्सीता भामण्डलेन समसहिता । दिव्यविमानारुढा पुत्रयोर्गता समीपे ॥४५॥ अथ तौ कुमारसिंहौ मातामहयुगलं च जननीं च । संभाषतश्च मामं स्वजनस्नेहेन परितुष्टौ ॥४६॥ को रामलक्ष्मणयोः श्रेणिक ! वर्णयति सकलबलर्द्धिम् ? । तथापि च श्रुणु संप्रति संक्षेपेण भण्यमानाम् ॥४७॥ केसरिरथे विलग्न: पद्मो लक्ष्मीधरश्च गुरुडाके । शेषा अपि प्रवरसुभटा यानविमानेष्वारुढाः ॥४८॥ राजा तु त्रिशिरनामा वह्निसिंहः सिंहविक्रमो मेरुः । इतः प्रलम्बबाहुः शरभस्तथा वालिखिल्यश्च ॥४९॥ शूरश्च रुद्रभूतिः कुशल श्रवणश्च सिंहोदरश्च । पृथु-मारिदत्तनामानौ मृगेन्द्रवाहनादयो बहवः ॥५०॥ एवं पञ्चसहस्रा नरेन्द्रचन्द्राणां बद्धमुकुटानाम् । विद्याधराणां श्रेणिक ! भटानां को लभते परिसंख्यम् ? ॥५१॥ अश्वेषु कुञ्जरेषु च केऽपि भटा रथवरेष्वारुढाः । खर-करभ-केसरिषु चान्ये गो-महिषविलग्नाः ॥५२॥ एवं रामस्य बलं विनिर्गतं प्रहततूर्यनिर्घोषम् । नानाऽऽयुधगृहीतकरं विमुक्तपादातिगर्जारवम् ॥५३॥ १. माया पियरेण-प्रत्य० । २. राओ य-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ एत्तो परबलसद्दं, सुणिउं लवण -ऽङ्कुसानियं सव्वं । सन्नद्धं रणदच्छं, अणेयवरसुहडसंघायं ॥५४॥ कालाणलंसुचूडा, गवङ्गनेवालबब्बरा पुण्डा । मागहय- पारसउला, कालिङ्गा सीहला य तहा ॥५५॥ एक्काहिया सहस्सा, दसनरवसहाण पवरवीराणं । लवण -ऽङ्कुसाण सेणिय !, एसा कहिया मए संखा ॥५६॥ एवं परमबलं तं, राहवसेन्न स्स अभिमुहावडियं । पसरन्तगय- 'तुरंगं विसमाहयतूरसंघायं ॥५७॥ जहा जोहि समं, अभिट्टा गयवरा सह गएहिं । जुज्झन्ति रहारूढा, समयं रहिएसु रणसूरा ॥५८॥ खग्गेहि मोग्गरेहि य, अन्ने पहणन्ति सत्ति-कुन्तेहिं । सीसगहिएक्कमेक्का, कुणन्ति केई भुयाजुज्झं ॥५९॥ जाव य खणन्तरेक्कं, ताव य 'गयतुरयपवरजोहेहिं । अइरुहिरकद्दमेण य, रणभूमी दुग्गमा जाया ॥६०॥ बहुतूरनिणाएणं, गयगज्जियतुर यहिंसियरवेणं । न सुणेइ एक्क्मेक्कं, उल्लावं कण्णवडियं पि ॥६१॥ जड़ भूमिगोयराणं, वट्टइ जुज्झं पहारविच्छडुं । तह खेयराण गयणे, अब्भिट्टं संकुलं भीमं ॥६२॥ लवण-ऽ -साण पक्खे, ठिओ य भामण्डलो महाराया । विज्जुप्पभो मयङ्को, महाबलो पवणवेगो य ॥६३॥ सच्छन्द-मियङ्काई, एए विज्जाहरा महासुहडा । लवण-साण पक्खं, वहन्ति संगामसोडीरा ॥६४॥ लवण- ससंभू, सुणिऊणं खेरा रणमुहम्मि । सिढिलाइउमारद्धा, सव्वे, सुग्गीवमाईया ॥६५॥ दट्ठूण जणयतणयं, सुहडा सिरिलेसमाइया पणई । तीए कुणन्ति सव्वे, समरे य ठिया उदासीणा ॥६६॥ पउमचरियं इतः परबलशब्दं श्रुत्वा लवणाङ्कुशानीकं सर्वम् । सन्नद्धं रणदक्षमनेकवरसुभटसंघातम् ॥५४॥ कालानलांशुचूडगवाड्गनेपालबर्बराः पुण्ड्राः । मागध- पारसकूलाः कलिङ्गाः सिंहलाश्च तथा ॥५५॥ एकाधिकाः सहस्रा दशनरवृषभाणां प्रवरवीराणाम् । लवणाङ्कुशानां श्रेणिक ! एषा कथिता मया संख्याः ॥५६॥ एवं परमबलं तं राघवसैन्यस्याभिमुखापतितम् । प्रसरद्गजतुरंगं विषमाहततूर्यसंघातम् ॥५७॥ योधा योधैःसमं प्रवृत्ता गजवराः सह गजैः । युध्यन्ते रथारूढाः समकं रथिकै रणशूराः ॥५८॥ खड्गै र्मोद्गरैश्चान्ये प्रघ्नन्ति शक्ति- कुन्तैः । शीर्षगृहीतैकमेकाः कुर्वन्ति केऽपि भुजायुद्धम् ॥५९॥ यावच्च क्षणान्तरमेकं तावच्च गजतुरगप्रवरयोधैः । अतिरुधिरकर्दमेन च रणभूमि र्दुगमा जाता ॥६०॥ बहु तूर्यनिनादेन गजगर्जितुरगहिंसितरवेण । न श्रुणोत्येकमेकमुल्लापं कर्णपतितमपि ॥६१॥ यथा भूमिगोचराणां वर्तते युद्धं प्रहारनिवहम् । तथा खेचराणां गगने प्रवृत्तं संकुलं भीमम् ॥६२॥ लवणाङ्कुशानां पक्षेस्थितश्च भामण्डलो महाराजा । विद्युत्प्रभो मृगाको महाबलः पवनवेगश्च ॥६३॥ स्वच्छन्द - मृगाङ्कादय एते विद्याधरा महासुभटाः । लवणाङ्कुशयोः पक्षं वहन्ति संग्रामशौण्डिराः ॥ ६४ ॥ लवणाङ्कुशसंभूतिं श्रुत्वा खेचरा रणमुखे । शिथीलायितुमारब्धाः सर्वे सुग्रीवादयः ||६५ ॥ दृष्ट्वा जनकतनयां सुभटयःश्रीशैलादयः प्रणतिम् । तस्याः कुर्वन्ति समरे च स्थिता उदासीनाः ॥६६॥ १. सुणिऊण लवं- ऽङ्कुसा णिययसेण्णं । स० - प्रत्य० । २. ०ण धीरपुरिसाणं । ल० - प्रत्य० । ३. ०तुरंगमवळद्व० मु० । ४. सीसं गहिएक्कमणा, कु०प्रत्य० । ५. गयनिवहजोहणिवहेहिं प्रत्य० । ६. यहेसिय० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं-ऽकुसजुज्झपव्वं -९९/५४-७४ तं रिउबलं महन्तं, संवेट्टेऊण गयघडानिवहं । पविसन्ति वरकुमारा, हलहर-ऽनारायणंतेणं॥६७॥ केसरि-नागारिधए, दट्टण लव-ऽङ्कसा रणुच्छाहा । एक्कक्क माणदोण्णि वि, जेठ्ठ-कणिट्ठाण आवडिया ॥६८॥ उट्ठियमेत्तेण रणे, लवेण रामस्स सीहधयचावं । छिन्नं रहो य भग्गो, बलपरिहत्थेण वीरेणं ॥६९॥ अन्नं रहं विलग्गो, अन्नं धणुवं च राहवो घेत्तुं । संधेइ जाव बाणं, ताव लवेणं कओ विरहो ॥७॥ आरुहिऊण नियरहे, वज्जावत्तं गहाय धणुरयणं । रामो लवेण समयं, जुज्झइ पहरोहविच्छ९ ॥७१॥ पउमस्स लवस्स जहा, वट्टइ जुझं रणे महाघोरं । तह लक्खण-ऽङ्कसाणं, तेणेव कमेण नायव्वं ॥७२॥ अन्नाण वि जोहाणं, एवं अणुसरिसविक्कमबलाणं । जसमग्गयाण सेणिय!, आवडियं दारुणं जुझं ॥७३॥ __एवं महन्तदढसत्तिसुनिच्छयाणं, संमाणदाणकयसामियसंपयाणं । जुज्झं भडाण बहुसत्थपडन्तघोरं, जायं निरुद्धनिवयं विमलंसुमग्गं ॥७४॥ ॥ इइ पउमचरिए लवण-ऽङ्कसजुज्झविहाणं नाम नवनउयं पव्वं समत्तं ॥ तद्रिपुबलं महत् संवर्त्य गजघटनिवहम् । प्रविशन्ति वरकुमारौ हलधर-नारायणान्तेन ॥६७॥ केसरि-नागारिध्वजयो दृष्ट्वा लवणाङ्कुशौ रणोत्साहौ । एकैकयो विपि ज्येष्ठकनिष्ठयोरापतितौ ॥६८॥ उत्थितमात्रेण रणे लवेन रामस्य सिंहध्वजचापम् । छिन्नं रथश्चभग्नो बलदक्षेण वीरेण ॥६९॥ अन्यं रथं विलग्नोऽन्यं धनुश्चराघवो गृहीत्वा । संदघाति यावद्वाणं तावल्लवेण कृतो विरथः ॥७०॥ आरुह्य निजरथे वज्रावर्तं गृहीत्वा धनुरत्नम् । रामो लवेन समकं युध्यते प्रहरौघविच्छर्दम् ।।७१।। पद्मस्य लवस्य यथा वर्तते युद्धं रणे महाघोरम् । तथा लक्ष्मणाकुशायोस्तेनैव क्रमेण ज्ञातव्यम् ॥७२॥ अन्येषामपि योधानामेवमनुसदृशविक्रमबलानाम् । जय ! समग्रतानां श्रेणिक ! आपतितं दारुणं युद्धम् ॥७३॥ ___ एवं महदृढशक्तिसुनिश्चयानां सन्मानदानकृतस्वामिसंपदाम् । युद्धं भटानां बहुशस्त्रपतत्घोरं जातं निरुद्धनृपतिकं विमलांशुमार्गम् ॥७४॥ ॥इति पद्मचरिते लवणाकुशयुद्धविधानं नाम नवनवतितमं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०क्कमणा दो०-मु० । २. ०स्स सहधयं चावं-मु० । ३. धीरेण-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. लवणं -ऽ -ऽकुससमागमपव्वं एत्तो 'मगहनराहिव !, जुज्झ विसेसे परिप्फुडं ताणं । जुज्झं कहेमि संपइ, सुणेहि लव-रामपमुहाणं ॥१॥ सिग्धं लवस्स पासे, अवट्ठिओ वज्जजङ्घनरवसभो । भामण्डलो वि य कुसं, अणुगच्छइ बलसमाउत्तो ॥ २ ॥ रामस्स कयन्तमहो, अवट्ठिओ सारही रहारूढो । तह लक्खणस्स वि रणे, विराहिओ चेव साहीणो ॥ ३ ॥ एयन्तरम्मि पउमो, भाइ कयन्तं रहं सवडहुत्तं । ठावेहि वेरियाणं, करेमि जेणारिसंखोहं ॥४॥ जंपइ कयन्तवयणो, एए वि हु जज्जरीकया तुरया । सुणिसियबाणेहि पहू!, इमेण संगामदच्छेणं ॥ ५ ॥ निद्दामिव सं पत्ता, इमे हया पयलरुहिरविच्छड्डा । न वहन्ति चडुसएहि वि, न चेव करताडिया सामि ! ॥६॥ राहव ! मज्झ भुयाओ, इमाउ बाणेहि सुणिसियग्गेहिं । पेच्छसु अरीण संपड़, कयम्बकुसुमं पिय कयाओ ॥७॥ पउमो भणइकयन्तं वज्जावत्तं महं पि धणुयणं । सिढिलायइ अइदूरं, विहलपयावं व हलमुसलं ॥८ ॥ जक्खकयरक्खणाणं, परपक्खखयंकराण दिव्वाणं । अत्थाण संपइ महं, जाया एयारिसाऽवत्था ॥ ९ ॥ अत्थाण निरत्थत्तं, सेणिय ! जह राहवस्स संजायं । तह लक्खणस्स वि रणे, एव विसेसेण नायव्वं ॥१०॥ परिमुणियनाइबन्धा, सावेक्खा रणमुहे कुमारवरा । जुज्झन्ति तेहि समयं, हल-चक्कहरा निरावेक्खा ॥११॥ १००. लवणाङ्कुशसमागमम् इतो मगधनराधिप ! युद्धविशेषेण परिस्फुटं तेषाम् । युद्धं कथयामि सम्प्रति लवरामप्रमुखाणाम् ॥१॥ शीघ्रं लवस्य पार्श्वेऽवस्थितो वज्रजङ्घनरवृषभः । भामण्डलोऽपि च कुशमनुगच्छति बलसमायुतः ॥२॥ मस्कृतान्तमुखोऽवस्थितः सारथी रथारूढः । तथा लक्ष्मणस्यापि रणे विराधितश्चैव स्वाधीनः ॥३॥ एतदन्तरे पद्मो भणति कृतान्तं रथमभिमुखम् । स्थापय वैरिकाणां करोमि येनारिसंक्षोभम् ॥४॥ पति कृतान्तवदन तेऽपि हु जर्जरकृतास्तुरगाः । सुनिशितबाणैः प्रभो ! अनेन संग्रामदक्षेण ॥५॥ निद्रामिव सम्प्राप्ता इमे हयाः प्रगलद्रुधिरविच्छर्दाः । न वहन्ति चाटुशतैरपि न चैव करताडिताः स्वामिन् ॥६॥ राघव ! मम भुजा इमा बाणैः सुनिशिताग्रैः । पश्यारीणा सम्प्रति कदम्बकुसुममिव कृता ||७|| पद्मो भणति कृतान्तं वज्रावर्तं ममापि धनुरत्नम् । शिथिलायत्यतिदूरं विफलप्रतापमिव हलमूशलम् ॥८॥ यक्षकृतरक्षणानां परपक्षक्षयंकराणां दिव्यानाम् । अस्त्राणां संप्रति मम जातैतादृशावस्था ||९|| हस्तयो निरर्थकत्वं श्रेणिक ! यथा राघवस्य सञ्जातम् । तथा लक्ष्मणस्यापि रणे एवं विशेषेण ज्ञातव्यम् ॥१०॥ परिमुणितज्ञातिबन्धौ सापेक्षौ रणमुखे कुमारवरौ । युध्येते ताभ्यां समकं हलचक्रधरौ निरपेक्षौ ॥११॥ १. महाणरा० - प्रत्य० । २. विसेसेण परिफुडं ते णं- मु० । ३. वाहेहि प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ लवणंऽकुससमागमपव्वं-१००/१-२४ रामस्स करविमुक्वं, तं सरनिवहं लवो पडिसरेहिं । छिन्नइ बलपरिहत्थो, कुसो वि लच्छीहरस्सेवं ॥१२॥ ताव य कुसेण भिन्नो, सरेसु लच्छीहरो गओ मोहं । सिग्धं विराहिओ वि हु, देइ रहं कोसलाहुत्तं ॥१३॥ आसत्थो भणइ तओ, विराहियं लक्खणो पडिवहेणं ।मा देहि रहं सिग्धं, ठवेहि समुहं रिउभडाणं ॥१४॥ सरपूरियदेहस्स वि, संगामे अहिमुहस्स सुहडस्स । सूरस्स सलाहणियं, मरणं न य एरिसं जुत्तं ॥१५॥ सुर-मणुयमज्झयारे, परमपयपसंसिया महापुरिसा । कह पडिवज्जन्ति रणे, कायरभावं तु नरसीहा ? ॥१६॥ दसरहनिवस्स पुत्तो, भाया रामस्स लक्खणो अहयं । तिहुयणविक्खायजसो, तस्सेवं नेव अणुसरिसं ॥१७॥ एव भणिएण तेणं, नियत्तिओ रहवरो पवणवेगो । आलग्गो संगामो, पुणरवि जोहाण अइघोरो ॥१८॥ एयन्तरे अमोहं, चक्कं जालासहस्सपरिवारं । लच्छीहरेण मुक्वं, कुसस्स तेलोक्कभयजणयं ॥१९॥ गन्तूण कुससयासं, तं चक्कं वियलियप्पहं सिग्छ । पुणरवि य पडिनियत्तं, संपत्तं लक्खणस्स करं ॥२०॥ तं लक्खणेण चक्कं, खित्तं खित्तं कुसस्स रोसेणं । विहलं तु पडिनियत्तइ, पुणो पुणो पवणवेगेणं ॥२१॥ एयन्तरे कुसेणं, धणुं अप्फालिउं सहरिसेणं । ठा ठाहि सवडहुत्तो, भणिओ लच्छीहरो समरे ॥२२॥ दट्टण तहाभूयं, रणङ्गणे लक्खणं समत्थभडा ।जंपन्ति विम्हियमणा, किं एयं अन्नहा जायं ? ॥२३॥ किं कोडिसिलाईयं, अलियं चिय लक्खणे समणुजायं ! । कज्जं मुणिवरविहियं ?, चक्कं जेणऽन्नहाभूयं ॥२४॥ रामस्य करविमुक्तं तं शरनिवहं लवः प्रतिशरैः । छिन्दति बलदक्षः कुशोऽपि लक्ष्मीधरस्यैवम् ॥१२॥ तावच्च कुशेन भिन्नः शरै र्लक्ष्मीधरो गतो मोहम् । शीघ्रं विराधितोऽपि हु ददाति रथं कोशलाभिमुखम् ॥१३॥ आश्वास्तो भणति ततो विराधितं लक्ष्मणः प्रतिपथा । मा देहि रथं शीघ्र स्थापय सम्मुखं रिपुभटानाम् ॥१४॥ शरपूरितदेहस्यापि संग्रामेऽभिमुखस्य सुभटस्य । शूरस्य शलाघनीयं मरणं न चेदृशं युक्तम् ॥१५॥ सुरमनुजमध्ये परमपदप्रशंसिता महापुरुषाः । कथं प्रतिपद्यन्ते रणे कातरभावं तु नरसिंहाः ॥१६॥ दशरथनृपस्य पुत्रो भ्राता रामस्य लक्ष्मणोऽहम् । त्रिभुवनविख्यातयशास्तस्यैवं नैवानुसदृशम् ॥१७॥ एवं भणित्वा तेन निवतितो रथवरः पवनवेगः । आलग्नः संग्रामः पनरपि योधानामतिघोरः ॥१८॥ एतदन्तरे ऽमोधं चक्रं ज्वालासहस्रपरिवारम् । लक्ष्मीधरेण मुक्तं कुशस्य त्रैलोक्यभयजनकम् ॥१९॥ गत्वा कुशसकाशं तच्चक्रं विगलितप्रभं शीघ्रम् । पुनरपि च प्रतिनिवृत्तं संप्राप्तं लक्ष्मणस्य करम् ॥२०॥ तं लक्ष्मणेन चक्रं क्षिप्तं क्षिप्तं कुशस्य रोषेण । विफलं तु प्रतिनिवर्तते पुनः पुनः पवनवेगेन ॥२१॥ एतदन्तरे कुशेन धनुकमास्फाल्य सहर्षेण । ति-तिष्ठाभिमुखो भणितो लक्ष्मीधरः समरे ॥२२॥ दृष्ट्वा तथाभूतं रणागणे लक्ष्मणं समस्तभटाः । जल्पन्ति विस्मितमनसः किमेतदन्यथा जातम् ॥२३॥ किं कोटिशिलायितमलिकमेव लक्ष्मणे समनुजातम् ? । कार्यं मुनिवरविहितं ? चक्रं येनान्यथाभूतम् ॥२४॥ १. तस्सेयं-प्रत्य० । २. जणणं-प्रत्य० । ३. विहयमाणा-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ पउमचरियं अह भणइ लच्छिनिलओ, विसायपरिवज्जिओ धुवं एए । बलदेव-वासुदेवा, उप्पन्ना भरहवासम्मि ॥२५॥ लज्जाभरोत्थयमणं, सोमित्तिं पेच्छिण सिद्धत्थो । सह नारएण गन्तुं, जंपइ वयणं सुणसु अम्हं ॥२६॥ देव ! तुमं चक्कहरो, बलो य पउमो न एत्थ संदेहो । किं मुणिवराण वयणं, कयाइ अलियं हवइ लोए ? ॥२७॥ सीयाए सुया एए, लवं-ऽकुसा नाम दोण्णि वि कुमारा । गब्भट्ठिएसु जेसुं, वइदेही छड्डिया रण्णे ॥२८॥ सिद्धत्थ-नारएहि, तम्मि य सिढे कुमारवित्तन्ते । ताहे सअंसुनयणो, उज्झइ लच्छीहरो चक्कं ॥२९॥ रामो वि निसुणिऊणं, सुयसंबन्धं तओ वियलियच्छो । घणसोयपीडियतणू, मुच्छावसविम्भलो पडिओ ॥३०॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो, आसत्थो राहवो सुयसमीवं । वच्चइ लक्खणसहिओ, नेहाउलमाणसो सिग्धं ॥३१॥ लवणं-ऽकुसा वि एत्तो, ओयरिऊणं रहाउ दो वि जणा। तायस्स चलणजुयलं, पणमन्ति ससंभमसिणेहा ॥३२॥ अवगुहिऊण पुत्ते, कुणइ पलावं तओ पउमनाहो । अइनेहनिब्भरमणो, विमुक्कनयणंसुजलनिवहो ॥३३॥ हा हा! मयाऽइकट्ठ, पुत्ता ! गब्भट्ठिया अणज्जेणं । सीयाए समं चत्ता, भयजणणे दारुणे रण्णे ॥३४॥ हा ! विउलपुण्णया वि हु, सीयाए जं मए वि संभूया। उयरत्था अइघोरं, दुक्खं पत्ता उ अडवीए ॥३५॥ जइ एसो तत्थ वणे, न य होन्तो पुण्डरीयपुरसामी । तो तुम्ह पुत्तया हं, कह पेच्छन्तो वयणचन्दे ? ॥३६॥ एएहि अमोहेहि, जं न मए विनिहया महत्थेहिं । हा वच्छया सपुण्णा, तुब्भेऽत्थ जए निरवसेसं ॥३७॥ पुणरवि भणइ सुभणिओ, पउमो तुब्भेहि दिट्ठसंतेहिं । जाणामि जणयतणया, जीवइ नत्थेत्थ संदेहो ॥३८॥ अथ भणति लक्षमीनिलयो विषादपरिवर्जितो ध्रुवमेतौ । बलदेववासुदेवावुत्पन्नौ भरतवर्षे ॥२५।। लज्जाभारावसन्नमनसं सौमित्रिं दृष्ट्वा सिद्धार्थः । सहनारदेन गत्वा जल्पति वचनं श्रुण्वस्माकम् ॥२६॥ देव ! त्वं चक्रधरो बलश्च पद्मो नात्र संदेहः । किं मुनिवराणां वचनं कदाचिदलिकं भवति लोके ? ॥२७॥ सीतायाः सुतावेतौ लवाङ्कुशौ नामानौ द्वावपि कुमारौ । गर्भस्थितयो र्ययो वैदेहिस्मुक्ताऽरण्ये ॥२८॥ सिद्धार्थ-नारदाभ्यांस्तस्मिंश्च शिष्टे कुमारवृत्तान्ते । तदा साश्रुनयन उज्झ्यते लक्ष्मीधरश्चक्रम् ॥२९॥ रामोऽपि निश्रुत्य सुतसम्बन्धं ततो विगलिताक्षः । घनशोकपीडितनू मुच्छावशविह्वलः पतितः ॥३०॥ चन्दनजलाद्रिताङ्ग आश्वास्तो राघवः सुतसमीपम् । गच्छति लक्ष्मणसहितः स्नेहाकुलमानसः शीघ्रम् ॥३१॥ लवणाकशावपीतोऽवतीर्य रथादद्वावपि जनौ । तातस्य चरणयगलं प्रणमत: ससंभ्रमस्नेहौ ॥३२॥ आलिङ्ग्य पुत्रौ करोति प्रलापं ततः पद्मनाभः । अतिस्नेहनिर्भरमना विमुक्ताश्रुजलनिवहः ॥३३॥ हा हा ! मयाऽतिकष्टं पुत्रौ ! गर्भस्थितावनार्येण । सीतायाः समं त्यक्तौ भयजनने दारुणे ऽरण्ये ॥३४॥ हा ! विपुलपुण्ययापि खलु सीतया यन्मयापि संभूतौ । उदरस्थावतिघोरं दुःखं प्राप्तौ त्वटव्याम् ॥३५॥ यद्येष तत्रवने न चाभविष्यत्पुण्डरिकपुरस्वामी । तदा युवां पुत्रावहं कथमपश्यं वदनचन्द्रौ ? ॥३६॥ एतैरमोधै र्यन्नमया विनिहतौ महास्त्रैः । हा वत्सौसतपुण्यौ युवामत्र जगति निरवशेषम् ॥३७॥ पुनरपि भणति सुभणितः पद्मो युवयोः पश्यतोः सतोः । जानामि जनकतनया जीवति नात्र संदेहः ॥३८॥ १. ०सु जेसु य व०-प्रत्य० ।। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ लवणंऽकुससमागमपव्वं-१००/२५-५२ लच्छीहरो वि एत्तो, सयंसुनयणो विओगदुक्खत्तो ।आलिङ्गइ दो वि जणे, गाढं लवणं-ऽकुसकुमारे ॥३९॥ सत्तुग्घाइनरिन्दा, मुणिऊणं एरिसं तु वित्तन्तं । तं चेव समुद्देसं, संपत्ता उत्तमा पीई ॥४०॥ जाओ उभयबलाणं, समागमोऽणेयसुहडपमुहाणं । घणपीइसंगयाणं, रणतत्तिनियत्तचित्ताणं ॥४१॥ एत्तो हरिसवसगओ, पुत्ताण समागमे पउमनाहो । खेयर-नरपरिकिण्णो, मण्णइ तेलोक्कलम्भं व ॥४३॥ अह तत्थ राहवेणं,पुत्ताण कओ समागमाणन्दो । बहुतूरमङ्गलरवो, नच्चन्तविलासिणीपउरो ॥४४॥ अह भणइ वज्जजङ्घ, पउमो भामण्डलं च परितुट्ठो । तुब्भेहि मज्झ बन्धू, जेहि कुमारा इहाणीया ॥४५॥ एत्तो साएयपुरी, सग्गसरिच्छा कया खणद्धेणं । बहुतूरमङ्गलरवा, नडनट्टपणच्चिउग्गीया ॥४६॥ पुत्तेहि समं रामो, पुष्फविमाणं तओ समारूढो । तत्थ विलग्गो रेहइ, सोमित्ती विरड्याभरणो ॥४७॥ पायारगोउराई, जिणभवणाईच केउनिवहाई । पेच्छन्ता नरवसभा, साएयपरि पविसरन्ति ॥४८॥ गय-तुरय-जोह-रहवर-समाउला जणियतूरजयसद्दा । हल-चक्कहर-कुमारा, वच्चन्ति जणेण दीसन्ता ॥४९॥ नारीहि तओ सिग्धं, लवणं-ऽकुसदरिसणुस्सुयमणाहिं । पडिपूरिया गवक्खा, निरन्तरं पङ्कयमुहीहिं ॥५०॥ अइरूवजोव्वणधरे, अहियं लवणं-ऽकुसे नियन्तीहिं । जुवईहि हारकडयं, विवडियपडियं न विन्नायं ॥५१॥ एयं कुसुमाउण्णं, सीसं नामेहि वियडधम्मिल्लं । मग्गेण इमेण हले !, पेच्छामि लवं-ऽकुसे जेणं ॥५२॥ लक्ष्मीधरोऽपीतः साश्रुनयनो वियोगदुःखार्त्तः । आलिगति द्वावपि जनौ गाढं लवणाकुशकुमारौ ॥३९॥ शत्रुघ्नादिनरेन्द्रा ज्ञात्वेदृशं तु वृत्तान्तम् । तदेव समुद्देशं संप्राप्ता उत्तमा प्रीतिः ॥४०॥ जात उभयबलानां समागमोऽनेकसुभटप्रमुखानाम् । घनप्रीतिसंगतानां रणकांक्षानिवृत्तचित्तानाम् ॥४१॥ पुत्रयो र्दयितस्य च समागमं दृष्ट्वा जनकसुता । दिव्यविमानारुढा पुण्डरिकपुरं गता शीघ्रम् ॥४२॥ इतो हर्षवशगतः पुत्रयोः समागमे पद्मनाभः । खेचर नरपरिकीर्णो मन्यते त्रैलोक्यलाभमिव ॥४३॥ अथ तत्र राघवेन पुत्रयोः कृतः समागमानन्दः । बहुतूर्यमङ्गलरवो नृत्यद्विलासिनिप्रचुरः ॥४४॥ अथ भणति वज्रजड्यं पद्मो भामण्डलं च परितुष्टः । युवां मम बन्धू युवाभ्यां कुमाराविहानीतौ ॥४५॥ इत: साकेतपुरि स्वर्गसदृशा कृता क्षणार्द्धन । बहुतूर्यमङ्गलरवा नटनाट्यप्रतितोद्गीता ॥४६॥ पुत्रैः समं रामः पुष्पविमानं ततः समारुढः । तत्र विलग्नः शोभते सौमित्रि विरचिताभरणः ॥४७॥ प्राकारगोपूराणि जिनभवनानि च केतुनिवहानि । पश्यन्तो नरवृषभाः साकेतपुरिं प्रविशन्ति ॥४८॥ गज-तुरग-योध-रथवर-समाकुला जनिततूर्यजयशब्दाः । हल-चक्रधर-कुमारा गच्छन्ति जनेन दृश्यन्तः ॥४९॥ नारिभिस्ततः शीघ्रं लवणाङ्कुशदर्शनोत्सुकमनाभिः । प्रतिपूरिता गवाक्षा निरतरं पङ्कजमुखीभिः ॥५०॥ अतिरुपयौवनधरावधिकं लवणाङ्कुशौ पश्यन्तीभिः । युवतिभि रिकटकं विपतितपतितं न विज्ञातम् ॥५१॥ एतत्कुसुमापूर्णं शीर्ष नामय विकटधम्मिलम् । मार्गेणानेन हले ! पश्यामि लवणाङ्कुशौ येन ॥५२॥ १. एत्तो विओगदुक्खेण दुक्खियसरीरो । आ०-प्रत्य० । २. सुणिऊणं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पउमचरियं तीए वि य सा भणिया, अन्नमणे ! चवलचञ्चलसहावे ! विउलं पि अन्तरमिणं, एयं न वि पेच्छसि हयासे ! ॥५३॥ मा थणहरेण पेल्लसु, जोव्वणमयगव्विए ! विगयलज्जे!। कि मे रूससि बहिणे !?, सव्वस्स वि कोउयं सरिसं ॥५४॥ अन्ना अन्नं पेल्लइ, अन्ना अन्नाए नामए सीसं । अपसारिऊण अन्नं, रियइ गवक्खन्तरे अन्ना ॥५५॥ नायरवहूहि एवं, लवणं-ऽकुसरूवकोउयमणाहिं । हलबोलाउलमुहला, भवणगवक्खा कया सव्वे ॥५६॥ चन्दद्धसमनिडाला, एए लवणं-ऽकुसा वरकुमारा । आहरणभूसियङ्गा, रामस्स अवट्ठिया पासे ॥५७॥ सिन्दूरसन्निहेर्हि, वत्थेहि इमो लवो न संदेहो । दिव्वम्बरेसु य पुणो, सुगपिच्छसमप्पभेसु कुसो ॥५८॥ धन्ना सा जणयसुया, जीए पुत्ता इमे गुणविसाला । दूरेण सुकयपुण्णा, जाए होहिन्ति वरणीया ॥५९॥ केई नियन्ति एन्तं, सत्तुग्धं केइ वाणराहिवई । अन्ने पुण हणुमन्तं, भामण्डलखेयरं अन्ने ॥६०॥ केई तिकूडसामी, अन्ने य विराहियं नलं नीलं । अङ्ग अङ्गयमाई, नायरलोया पलोएन्ति ॥६१॥ नायरजणेण एवं, कयजयआलोयमङ्गलसणाहा । वच्चन्ति रायमग्गे, हलहर-नारायणा मुइया ॥६२॥ ___ एवं कमेण हल-चक्कहरा सपुत्ता, उद्धृयचारुचमरा बहुकेउचिन्धा । नारीजणेण कयमङ्गलगीयसद्दा, गेहं नियं विमलकन्तिधरा पविट्ठा ॥३॥ ॥ इड पउमचरिए लवणं-कससमागमविहाणं नाम सययमं पव्वं समत्तं ॥ तयापि च सा भणिताऽन्यमने ! चपलचञ्चलस्वभावे ! । विपुलमप्यन्तरमिदमेतन्नापि पश्यसि हताशे ! ॥५३॥ मा स्तनभारेन पीड्य यौवनमदगविते ! विगतलज्जे ! । किं मे रुष्य भगिने ! सर्वस्यापि कौतूकं सदृशम् ॥५४॥ अन्यान्यां पीडत्यन्याऽन्यस्या नामयति शीर्षम् । अपसार्यान्यां गच्छति गवाक्षान्तरे ऽन्या ॥५५॥ नागरवधुभिरेवं लवणांकुशरुपकौतुकमनाभिः । हलबोलाकुलमुखरा भवनगवाक्षाः कृताः सर्वे ॥५६॥ चन्द्रार्धसमनिडालावेतौ लवणाङ्कुशौ वरकुमारौ । आभरणभूषिताङ्गौ रामस्यावस्थितौ पार्श्वे ॥५७॥ सिन्दुरसन्निभै र्वस्त्रैरयं लवणो न संदेहः । दिव्याम्बरैश्च पुनः शुकपक्षसमप्रभैः कुशः ॥५८॥ धन्या सा जनकसुता यस्याः पुत्राविमौ गुणविशालौ । दूरेण सुकृतपुण्या यस्या भविष्यतो वरणीयौ ॥५९।। केऽपि पश्यन्त्यायान्तं शत्रुघ्नं केऽपि वानराधिपतिम् । अन्ये पुन हनुमन्तं भामण्डलखेचरमन्ये ॥६०॥ केऽपि त्रिकूटस्वामिनमन्ये च विराधितं नलं नीलम् । अङ्गमङ्गदादीन्नागरलोकाः प्रलोकयन्ति ॥६१॥ नागरजनेनैवं कृतजयालोकमगलसनाथौ । व्रजतो राजमार्गे हलधर-नारायणौ मुदितौ ॥६२॥ एवं क्रमेण हल-चक्रधरौ सपुत्रौ उद्धृतचारुचामरौ बहुकेतुचिह्नौ । नारीजनेन कृतमङ्गलगीतशब्दौ गृहं निजं विमलकान्तिधरौ प्रविष्टौ ॥६३॥ ॥इति पद्मचरिते लवणाकुशसमागमं विधानं नाम शतमं पर्वं समाप्तम् ॥ Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १०१. देवागमविहाणपव्वं ॥ अह अन्नया कयाई, विन्नविओ राहवो नरिन्देहिं । किक्किन्धिवइ-मरुस्सुय-बिहीसणाईहि बहुएहिं ॥१॥ सामिय ! परविसए सा, दुक्खं परिवसइ जणयनिवतणया । तीए पसन्नमणसो, होऊणं देहि आएसं ॥२॥ परचिन्तूिण एत्तो, पउमाभो भणइ जणपरीवायं । पत्ताए विदेहीए, कह तीए मुहं नियच्छे हं ॥३॥ जइ पुहइजणं सव्वं, एयं सवहेण पत्तियावेइ । तो तीए समं वासो, होहिइ न य अन्नभेएणं ॥४॥ भणिऊण एवमेयं, खेयरवसहेहि तुरियवेगेणं । आहूओ पुहइजणो, समागओ नरवइसमग्गो ॥५॥ विज्जाहरा वि सिग्धं, समागया सयलपरियणाउण्णा । आवासिया य सव्वे, नयरीए बाहिरुद्देसे ॥६॥ मञ्चा कया विसाला, पेच्छागिहमण्डवा मणभिरामा । तेसु य जणो निविट्ठो, सवहेक्खणकडिओ सव्वो ॥७॥ तम्बोल-फुल्ल-चन्दण-सयणा-ऽऽसण-खाण-पाणमाईयं । सव्वं पि सुपरिउत्तं, मन्तीहि कयं जणवयस्स ॥८॥ तो रामसमाइट्ठा, सुग्गीव-बिहसणा सरयणजडी । भामण्डलह णुमन्ता, विराहियाई अह पयट्टा ॥९॥ एए अन्ने य भडा, पुण्डरियपुरं गया खणद्धेणं । पइसन्ति रायभवणं, जत्थ उ परिवसइ वइदेही ॥१०॥ काऊण य जयसई, सीयं, पणमन्ति खेयरा सव्वे । ते वि य ससंभमाए, अहियं संभासिया तीए ॥११॥ || १०१. देवागमविधानपर्वम् ॥ अथान्यदा कदाचिद्विज्ञापितो राघवो नरेन्द्रैः । किष्किन्धिपति-मरुत्सुत-बिभीषणादिभि बहुभिः ॥१॥ स्वामिन् ! परविषये सा दुःखं परिवसति जनकनृपतनया । तस्याः प्रसन्नमनसो भूत्वा देह्यादेशम् ॥२॥ परिचिन्त्येतः पद्मनाभो भणति जनपरिवादम् । प्राप्ताया वैदेह्याः कथं तस्या मुखं पश्याम्यहम् ॥३॥ यदि पृथिवीजनं सर्वमेवं शपथेन प्रत्यापयति । तदा तस्याः समं वासो भविष्यति न चान्यभेदेन ॥४॥ भणित्वैवमेतत्खेचरवृषभैस्त्वरितवेगेन । आहूतः पृथिवीजन: समागतो नरपतिसमग्रः ।।५।। विद्याधरा अपि शीघ्रं समागताः सकलपरपरिजनापूर्णाः । आवासिताश्च सर्वे नगर्या बहिरोद्देशे ॥६॥ मञ्चाः कृता विशालाः प्रेक्षागृहमण्डपा मनोभिरामाः । तेषु च जनो निविष्टः शपथेक्षणकाक्षितः सर्वः ॥७॥ ताम्बुल-फुल-चन्दन-शयनाऽऽसनाऽसनपानादिकम् । सर्वमपि सुप्रयुक्तं मन्त्रिभिः कृतं जनपदस्य ।।८।। तदा रामसमादिष्टौ सुग्रीवबिभीषणौ सरत्नजटी । भामण्डलहनुमन्तौ विराधितादयोऽथ प्रवृत्ताः ॥९॥ एतेऽन्ये च भटाः पुण्डरिकपुरं गताः क्षणार्धेन । प्रविशन्ति राजभवनं यत्र तु परिवसति वैदेही ॥१०॥ कृत्वा च जयशब्दं सीतां प्रणमन्ति खेचराः सर्वे । तेऽपि च ससंभ्रमेणाऽधिकं संभाषितास्तया ॥११॥ १. एवं-प्रत्य० । २. होही ण य-प्रत्य० । ३. सुपडिउत्तं-मु०। ४. सुरयण०-मु०। ५. हणुवंता-प्रत्य० । ६. पविसंति-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ पउमचरियं अह ताण निविद्वाणं, जंपइ सीया सनिन्दणं वयणं । एवं मज्झ सरीरं, कयं च दुक्खासयं विहिणा ॥ १२ ॥ अङ्गाई इमाइं महं, दुज्जणवयणाणलेण दड्ढाई । खीरोयसायरस्स वि, जलेण न य नेव्वुई जन्ति ॥१३॥ अह ते भणन्ति सामिणि !, एयं मेल्लेहि दारुणं सोयं । सो पावाण वि पावो, जो तुज्झ लएइ अववायं ॥१४॥ को उक्खिवइ वसुमई, को पियइ फुलिङ्गपिङ्गलं जलणं । को लेहड़ जीहाए, ससि - सूरतणू वि मूढप्पा ॥१५॥ जो गेहइ अववायं, एत्थ जए तुज्झ सुद्धसीलाए । सो मा पावउ सोक्खं, कयाइ लोए अलियवाई ॥१६॥ एयं पुप्फविमाणं, विसज्जियं तुज्झ पउमनाहेणं । आरुहसु देवि ! सिग्घं, वच्चामो कोसलानयरिं ॥१७॥ मो देसो य पुरी, न य सोहं देन्ति विरहियाणि तुमे । जह तरुभवणागासं, विवज्जियं चन्दमुत्तीए ॥१८॥ सा एव भणियमेत्ता, सीया अववायविहुणणट्ठाए । आरुहिय वरविमाणं, साएयपुरिं गया सभडा ॥१९॥ तत्थ उ महिन्दउदए, ठियस्स रामस्स वरविमाणाओ । अवइण्णा जणयसुया, तत्थ य रयणि गमइ एक्वं ॥२०॥ अह उग्गयम्मि सूरे, उत्तमनारीहि परिमिया सीया । ललियकरेणु वलग्गा, पउमसयासं समणुपत्ता ॥२१॥ जंपइ जणो समत्थो, रूवं सत्तं महाणुभावत्तं । सीयाए उत्तमं चिय, सीलं सयले वि तेलोक्के ॥२२॥ गयणे खेयरलोओ, धरणियले वसुमईटिओ सव्वो । साहुक्कारमुहरवो, अहियं सीयं पलोएइ ॥२३॥ केई नियन्ति रामं, अन्ने पुण लक्खणं महाबाहुं । ससि-सूरसमच्छाए, पेच्छन्ति लवं -ऽङ्कुसे अन्ने ॥२४॥ अथ तेषां निविष्टानां जल्पति सीता सनिन्दनं वचनम् । एतन्ममशरीरं कृतं च दुःखाश्रयं विधिना ॥ १२ ॥ अङ्गानीमानि मम दुर्जनवचनानलेन दग्धानि । खीरोदसागरस्यापि जलेन न च निर्वृतिं यान्ति ॥१३॥ अथ ते भणन्ति स्वामिनि ! एतन्मुञ्च दारुणं शोकम् । सः पापानामपि पापो यस्तव लात्यपवादम् ॥१४॥ क उत्क्षिपति वसुमति कः पीबति स्फुलिंगपिङ्गलं ज्वलनम् । को लेढि जीह्वया शशि - सूर्यतनूरपि मूढात्मा ॥ १५ ॥ यो गृहणात्यपवादमत्र जगति तव शुद्धशीलायाः । स मा प्राप्नोतु सुखं कदाचिल्लोकेऽलिकवादी ॥१६॥ एतत्पुष्पविमानं विसर्जितं तव पद्मनाथेन । आरोह देवि ! शीघ्रं व्रजामः कोशलानगरिम् ॥१७॥ पद्मो देशश्च पुरी न च शोभां ददति विरहितास्त्वया । यथा तरुभवनाकाशं विवर्जितं चन्द्रमूर्त्या ॥१८॥ सैवं भणितमात्रा सीताऽपवादविधुननार्थे । आरुह्य वरविमानं साकेतपुरिं गता सुभाः ॥ १९ ॥ तत्र तु महेन्द्रोदये स्थितस्य रामस्य वरविमानाद् | अवतीर्णा जनकसुता तत्र च रजनीं गमयत्येकाम् ॥२०॥ अथोद्गते सूर्ये उत्तमनारिभिः परिमिता सीता । ललितकरेण्ववलग्ना पद्मसकाशं समनुप्राप्ता ॥२१॥ जल्पति जनः समस्तो रुपं सत्त्वं महानुभावत्वम् । सीताया उत्तममेव शीलं सकलेऽपि त्रैलोक्ये ॥२२॥ गगने खेचरलोको धरणितले वसुमतिस्थितः सर्वः । साधुकारमुखरवोऽधिकं सीतां प्रलोकयति ॥२३॥ कोऽपि पश्यन्ति राममन्ये पुन र्लक्ष्मणं महाबाहुम् । शशि- सूर्यसमच्छायौ पश्यन्ति लवाङ्कुशावन्ये ॥२४॥ १. मिल्हेहि प्रत्य० । २. लोओ प्रत्य० । ३. ०णुविलग्गा - प्रत्य० । ४. तइलोक्के - प्रत्य० । 1 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ देवागमविहाणपव्वं -१०१/१२-३८ सुग्गीवं जणयसुयं, बिहीसणं केइ तत्थ हणुवन्तं । पेच्छन्ति विम्हियमणा, चन्दोयरनन्दणं अन्ने ॥२५॥ रामस्स सन्नियासं, तत्थरियन्तीए जणयधूयाए । सह पत्थिवेहिं अग्धं, विहेइ लच्छीहरो विहिणा ॥२६॥ दट्ठण आवयंति, सीयं चिन्तेइ राहवो एत्तो । कह उज्झिया वि न मया, एसा सत्ताउले रण्णे ? ॥२७॥ काऊण अञ्जलिउडं, पणिवइया राहवस्स चलणेसु । सीया बहुप्पयारं, परिचिन्तन्ती ठिया पुरओ ॥२८॥ तं भणइ पउमनाहो, मा पुरओ ठाहि मज्झ वइदेहि ! ।अवसरसु पेच्छिउंजे, न य हं तीरामि गयलज्जो ॥२९॥ लङ्काहिवस्स भवणे, अन्तेउरपरिमिया बहू दिवसे । तत्थ तुमं परिवसिया, न य हं जाणामि ते हिययं ॥३०॥ सीया पई पवुरुत्ता, तुह सरिसो नत्थि निट्टरो अन्नो । पाययपुरिसो व्व जहा, ववससि अइदारुणं कम्मं ॥३१॥ दोहलछम्मेण अहं, जंसि तुमे छड्डिया महारणे । तं राहव ! अणुसरिसं, किं ते अइनिट्ठरं कम्मं ? ॥३२॥ जइ हं असमाहीए, तत्थ मरन्ती महावणे घोरे। तो तुब्भ किं व सिद्धं, होन्तं महदोग्गइकरस्स ? ॥३३॥ थेवो वि य सब्भावो, मझुवरिं तुज्झ जइ पहू ! होतो तो किं न अज्जियाए, गेहे हं छड्डिया तइया ? ॥३४॥ अपहूणमणाहाणं, दुक्खत्ताणं दरिद्दभूयाणं । विसमग्गयाण सामिय !, हवइह जिणसासणं सरणं ॥३५॥ जइ वहसि सामि ! नेहं, एव गए वि य पयच्छ मे आणं । होऊण सोमहियओ, किं कायव्वं मए एत्थं ? ॥३६॥ रामो भणइ तुह पिए ! अहयं जाणामि निम्मलं सीलं । नवरं जणाववायं, विगयमलं कुणसु दिव्वेणं ॥३७॥ सुणिऊण वयणमेयं, जंपइ सीया सुणेहि मह वयणं । पञ्चसु दिव्वेसु पहू !, लोगमहं पत्तियावेमि ॥३८॥ सुग्रीवं जनकसुतां बिभीषणं केऽपि तत्र हनुमन्तम् । पश्यन्ति विस्मितमनसश्चन्द्रोदरनन्दनमन्ये ॥२५॥ रामस्य सन्निकाशं तत्र गच्छन्त्या जनकदुहितुः । सह पार्थिवैरर्घ्यं विदधाति लक्ष्मीधरो विधिना ॥२६॥ दृष्टवाऽऽगच्छन्ती सीतां चिन्तयति राघव इतः । कथमुज्झिताऽपि न मृतैषा सत्त्वाकुलारण्ये ? ॥२७॥ कृत्वाऽञ्जलिपुटं प्रणिपतिता राघवस्य चरणयोः । सीता बहुप्रकारं परिचिन्तयन्ती स्थिता पुरतः ॥२८॥ तां भणति पद्मनाभो मा पुरतस्तिष्ठ मम वैदेहि ! । अपसर दृष्टुं ये न चाहं तरामि गतलज्जः ॥२९॥ लकाधिपस्य भवनेऽन्तःपुरपरिमिता बहून दिवसान् । त्वं तत्र परिवसिता न चाहं जानामि ते हृदयम् ॥३०॥ सीता पति प्रोक्ता तव सदृशो नास्ति निष्ठुरोऽन्यः । प्राकृतपुरुष इव यथा व्यवसस्यतिदारुणं कर्म ॥३१॥ दोहदछद्मनाहं यदसि त्वया मुक्ता महारण्ये । तं राघव ! अनुसदृशं किं ते ऽतिनिष्ठुरं कर्म ? ॥३२॥ यद्यहमसमाधिना तत्रामरिष्यं महावने घोरे । तदा तव किं वा सिद्धमभविष्ये ममदुर्गतिकरस्य ? ॥३३।। स्तोकोऽपि च सद्भावो ममोपरि तव यदि प्रभो ! । अभविष्यत् तदा किं नार्जिकाया गृहेऽहं मुक्ता तदा? ॥३४|| अप्रभुणामनाथानां दुःखार्तानां दारिद्रभूतानाम् । विषमगतानां स्वामिन् ! भवतीह जिनशासनं शरणम् ॥३५॥ यदि वहसि स्वामिन् ! स्नेहमेवं गतेऽपि च प्रयच्छ मे आज्ञाम् । भूत्वा सौम्यहृदयः किं कर्तव्यं मयात्र ? ॥३६॥ रामो भणति तव प्रिये ! ऽहं जानामि निर्मलं शीलम् । नवरं जनापवादं विगतमलं कुरु दिव्येन ॥३७॥ श्रुत्वा वनचमेतज्जल्पति सीता श्रुणु मम वचनम् । पञ्चभि दिव्यैः प्रभो ! लोकमहं प्रत्यापयामि ॥३८॥ १. ०या न वि मुया-मु० । २. चलणेहि-मु० । ३. ०सरह पे०-प्रत्य० । ४. गयलज्जे-प्रत्य० । ५. अब्बंधु-मणा०-प्रत्य० । ६. मे व०-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ पउमचरियं आरोहामि तुलमहं, जलणं पविसामि धरिमि फालं च । उग्गं च पियामि विसं, अन्नं पि करेमि भण समयं ॥३९॥ परिचिन्तिऊण रामो, जंपइ पविसरसु पावगं सीए ! । तीए वि य सो भणिओ, एवमिणं नत्थि संदेहो ॥४०॥ पडिवन्नम्मि य समयं, तं चिय सीयाए जणवओ सोउं। पयलन्तअंसुनयणो, जाओ अइदुक्खिओ विमणो ॥४१॥ एयन्तरे पवुत्तो, सिद्धत्थो सुणसु देव ! मह वयणं । न सुरेहि वि सीलगुणा, वणिज्जन्ती विदेहाए ॥४२॥ पविसेज्ज व पायालं, मेरू लवणोदहि व्व सूसेज्जा । न हु सीलस्स विवत्ती, होज्ज पहू ! जणयतणयाए ॥४३॥ विज्जा-मन्तेण मए, पञ्चसु मेरूसु चेइयहराई । अहिवन्दियाइं राहव !, तवो य चिण्णो सुइरकालं ॥४४॥ तं मे हवउ महाजस!, विहलं जं तत्थ पुण्णमाहप्पं । जइ सीलस्स विणासो, मणसा वि य अस्थि सीयाए ॥४५॥ पुणरवि भणइ सुभणिओ, सिद्धत्थो जइ अखण्डियचरित्ता। ___ सीया तो अणलाओ, उत्तरिही कणयलट्ठि व्व ॥४६॥ गयणे खेयरलोओ, जंपइ धरणीचरो महियलत्थो । साहु त्ति साहु भणियं, सिद्धत्थ ! तुमेरिसं वयणं ॥४७॥ सीया सई सई चिय, भणइ जणो तत्थ उच्चकण्ठेणं । न य होइ विगारत्तं, पउम! महापुरिसमिलाणं ॥४८॥ एवं सव्वो वि जणो, रोवन्तो भणइ गग्गरसरेणं । राहव ! अइनिक्कलुणं, मा ववससु एरिसं कम्मं ॥४९॥ पउमो भणइ जइ किवा, तुब्भं चिय अत्थि एत्थ तणुया वि।मा जंपह अइचवला, सीयापरिवायसंबन्धं ॥५०॥ रामेण तओ भणिया, पासत्था किंकरा खणह वाविं । तिण्णेव उ हत्थसया, समचउरंसाऽवगाढा य ॥५१॥ आरोहामि तुलामहं ज्वलनं प्रविशामि धरामि फालं च । उग्रं च पिबामि विषमन्यदपि करोमि भण स्वमतम् ॥३९॥ परिचिन्त्य रामो जल्पति प्रविश पावकं सीते ! । तयापि स भणित एवमिदं नास्ति संदेहः ॥४०॥ प्रतिपन्ने च शपथं तदेव सीतया जनपदः श्रुत्वा । प्रगलदश्रुनयनो जातोऽतिदुःखितो विमनाः ॥४१॥ एतदन्तरे प्रोक्तः सिद्धार्थः श्रुणु देव ! मम वचनम् । न सुरैरपि शीलगुणा वर्ण्यन्ते विदेहायाः ॥४२॥ प्रविशेद् वा पातालं मेरु लवणोदधि र्वा शुष्येत् । न हु शीलस्य विपत्ती भवेत्प्रभो ! जनकतनयायाः ।।४३।। विद्यामन्तरेण मया पञ्चसु मेरुषु चैत्यगृहाणि । अभिवन्दितानि राघव ! तपश्चचीर्णः सुचिरकालम् ॥४४॥ तन्मे भवतु महायशः ! विफलं यत्तत्र पुण्यमाहात्म्यम् । यदि शीलस्य विनाशो मनसापि चास्ति सीतायाः ॥४५॥ पुनरपि भणति सुभणितः सिद्धार्थो यद्यखण्डचरित्रा । सीता तदानलादुत्तरिष्यति कनकयष्ठीव ॥४६।। गगने खेचरलोको जल्पति धरणीचरो महीतलस्थः । साध्विति साधु भणितं सिद्धार्थ ! त्वयेदृशं वचनम् ॥४७॥ सीता सती सत्येव भणति जनस्तत्रोच्चकण्ठेन । न च भवति विकारत्वं पद्म ! महापुरुषमहिलानाम्॥४८॥ एवं सर्वोऽपि जनो रुदन् भणति गद्गद्स्वरेण । राघव ! अतिनिष्करुणं मा व्यवसयेदृशं कर्म ॥४९॥ पद्मो भणति यदि कृपा युस्माकमेवास्त्यत्र तनुकापि । मा जल्पतातिचपलाः सीतापरिवादसम्बन्धम् ॥५०॥ रामेण ततो भणिता पार्श्वस्थाः किंकराः खनत वापिम् । त्रिण्येव हस्तशता समचतुरस्रावगाढा च ॥५१॥ १. ०ण पउमो,-प्रत्य० । २. समए-प्रत्य० । ३. धरणीधरो-प्रत्य० । ४. विगारत्थं मु०-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ देवागमविहाणपव्वं -१०१/३९-६४ पूरेह इन्धणेहिं, कालागुरु-चन्दणाई चूलेहं । चण्डं जालेह लहुं, वावीए सव्वओ अग्गि ॥५२॥ जं आणवेसि सामिय!, भणिऊणं एव किंकरगणेहिं । तं चेव वाविमाई, कम्मं अणुचिट्ठियं सव्वं ॥५३॥ एयन्तरम्मि सेणिय !, तं रत्तिं सयलभूसणमुणिस्स । जणिओ च्चिय उवसग्गो, परभववेरीण उज्जाणे ॥५४॥ विज्जुवयणाववाए, पावाए रक्खसीए घोराए । जह तीए तस्स जणियं, दुक्खं तं सुणसु एगमणो ॥५५॥ गुञ्जाविहाणनयरं, उत्तरसेढीए अस्थि वेयड्डे। तं सीहविक्कमनिवो, भुञ्जइ विज्जाहरो सूरो ॥५६॥ तस्स सिरी वरमहिला, पुत्तो वि सयलभूसणो नामं । परिणेइ सो कुमारो, अट्ठ सयाई वरतणूणं ॥५७॥ अह तस्स अग्गमहिसी, गुणकलिया किरणमण्डला नामं । निययं मेहुणयं सा, अहियं अहिलसइ हेमसिहं ॥५८॥ तं पेच्छिऊण सहसा, रुट्ठो च्चिय सयलभूसणो अहियं । महुरक्ख रहिं सो पुण, उवसमिओ सेसमहिलासु ॥५९॥ अह अन्नया कयाई, तेण समं किरणमण्डला सइया । नाया य धाडिया पुण, रुटेणं नरवरिन्देणं ॥६०॥ संवेयसमावन्नो, पव्वइओ सयलभूसणो राया। मरिऊण सा वि जाया, विज्जुमुही रक्खसी घोरा ॥६१॥ भिक्खर्टी विहरन्तस्स तस्स सा रक्खसी महापावा । छेत्तूण आलणाओ, हत्थि तो कुणइ उवसग्गं ॥१२॥ गिहदाहं रयवरिसं, पहे य हुकण्टयाण पक्खिवणं । पडिमागयस्स उ तहा, गिहसंधिं छिन्दिउं तस्स ॥६३॥ चोरो काऊण तओ, बद्धो साहू पुणो य परिमुक्को । मज्झण्हदेसयाले, पविसइ नयरंच भिक्खटुं ॥४॥ पूरयतेन्धनैः कालागुरुचन्दनादिचूलैः । चण्डं ज्वालयत लघु वाप्यां सर्वतोऽग्निम् ॥५२॥ यदाज्ञापयसि स्वामिन् । भणित्वैवं किंकरगणैः । तदेव वाप्यादयः कर्ममनुचेष्टितं सर्वम् ।।५३।। एतदन्तरे श्रेणिक ! तां रात्रि सकलभूषणमुनेः । जनित एवोपसर्गः परमवैरिणोद्याने ॥५४॥ विद्यद्वदनानामया पापया राक्षस्या घोरया । यथा तया तस्य जनितं दुःखं तच्छृण्वेकानमनाः ॥५५॥ गुञ्जाभिधाननगरमुत्तरश्रेण्यामस्ति वैताढ्ये । तं सिंहविक्रमनृपो भुनक्ति विद्याधरः शूरः ॥५६॥ तस्य श्री वरमहिला पुत्रोऽपि च सकलभूषणो नाम । परिणेति स कुमारोऽष्ट शतानि वरतनूनाम् ॥५७।। अथ तस्याग्रमहिषी गुणकलिता किरणमण्डला नाम । निजकं मैथुनकं साधिकमभिलषति हेमसिंहम् ॥५८॥ तं दृष्ट्वा सहसा रुष्ट एव सकलभूषणोऽधिकम् । मधुराक्षरैः स पुनरुपशामितः शेषमहिलाभिः ॥५९॥ अथान्यदा कदाचित्तेन समं किरणमण्डला सुप्ता । ज्ञाता च घाटिता पुना रुष्टेन नरवरेन्द्रेण ॥६०॥ संवेगसमापन्नः प्रव्रजितः सकलभूषणो राजा । मृत्वा साऽपि जाता विद्युन्मुखी राक्षसी घोरा ॥६१॥ भिक्षार्थं विहरतस्तस्य सा राक्षसी महापापा । छित्वाऽऽलानाद्धस्तिनं तदा करोत्युपसर्गम् ।।६२॥ गृहदाहं रजोवर्षं पथे च बहुकण्टकानां प्रक्षेपणम् । प्रतिमागतस्य तु तथा गृहसंधि छित्वा तस्य ॥६३॥ चौरः कृत्वा ततो बद्धः साधुःपुनश्च परिमुक्तः । मध्याह्नदेशकाले प्रविशति नगरं च भिक्षार्थम् ॥६४|| १. ०इपूलेहि-प्रत्य० । २. कम्मं च अणुट्ठियं-मु० । ३. ०णाविवाए-प्रत्य० । ४. जह तस्स तीए दुक्खं जणियं तं सुणह एयमणो-प्रत्य० । ५. ०हरो वलिओ-प्रत्य० । ६. भूसणो तीसे । प०-प्रत्य० । ७. ०क्खरेसु सो-मु०। ८. मुइया-प्रत्य० । ९. पम्मुक्को-प्रत्य० । १०. फईनो दिकरो। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० पउमचरियं महिलारूवेण तओ, भिक्खं घेत्तूण निग्गया हारं । सा बन्धइ तस्स गले, भणइ य समणो इमो चोरो ॥६५॥ एए अन्ने य बहू, उवसग्गे, कुणइ तस्स सा पावा । पुणरवि महिन्दउदयट्ठियस्स समणस्स संपत्ता ॥६६॥ वेयालेसु गएसु य, सीहेसु य भीसणोरगसएसु । महिलासु य उवसग्गं, सा तस्स करे अइचण्डा ॥६७॥ एएसु य अन्नेसु य, बहुदुक्खुप्पायणेसु रूवेसु । न य खुहियं तस्स मणं, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥६८॥ केवलनाणुप्पत्ती, नाऊण सुरा अखण्डलाईया । गय-तुरय-रहारूढा, साहुसयासं गया सिग्धं ॥६९॥ दट्टण हरिणकेसी, जणयसुयासन्तियं तु वित्तन्तं । साहेइ अमरवइणो, पेच्छ पहू ! दुक्करं एयं ॥७०॥ देवाण वि दुप्फरिसो, हुयासणो सव्वसत्तभयजणणो । कह सीयाए महाजस !, पवत्तिओ घोरउवसग्गो ॥७१॥ जिणधम्मभावियाए', सुसावियाए विसुद्धसीलाए । एवंविहाए सुरवइ !, कह होइ इमो उ उवसग्गो ? ॥७२॥ सो सुरवईण भणिओ, अहयं वच्चामि वन्दओ साहुं । तं पुण वेयावच्चं, करेहि सीयाए गन्तूणं ।।७३॥ एव भणिऊण इन्दो, पायब्भासं मुणिस्स संपत्तो । हरिणेगवेसी वि तओ, गओ य सीयासमीवं सो ॥७४॥ ___ एवं किरीडवरहारविभूसियङ्ग, सामन्तणेयपरिचुम्बियपायपीढं । सेणाणिओ अमरनाहनिउत्तचित्तो, रामं निएइ विमलम्बरमग्गसत्थो ॥५॥ ॥ इइ पउमचरिए देवागमविहाणं नाम एक्कोत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ महिलारुपेण ततो भिक्षां गृहीत्वा निर्गता हारम् । सा बध्नाति तस्य गले भणति च श्रमणोऽयं चौरः ॥६५।। एतानन्यांश्च बहूनुपसर्गान् करोति तस्य सा पापा । पुनरपि महेन्द्रोदयस्थितस्य श्रमणस्य संप्राप्ता ॥६६॥ वैतालै र्गजैश्च सिंहैश्च भीषणोरगशतैः । महिलाभिश्चोपसर्ग सा तस्य करोत्यतिचण्डा ॥६७॥ एतेषु चान्येषु च बहुदु:खोत्पादनेषु रुपेषु । न च क्षुभितं तस्य मन उत्पन्नं केवलं ज्ञानम् ।।६८॥ केवलज्ञानोत्पत्ति त्विा सुरा अखण्डलादयः । गज-तुरग-रथारुढाः साधुसकाशं गताः शीघ्रम् ॥६९॥ दृष्ट्वा हरिणगमैषी जनकसुतासत्कं तु वृत्तान्तम् । कथयत्यमरपतेः पश्य प्रभो ! दुष्करमेतत् ॥७०॥ देवानामपि दुरस्पर्शो हुताशनः सर्वसत्त्वभयजनकः । कथं सीतायाः महायशः ! प्रवर्तितः घोरोपसर्गः ।।७१।। जिनधर्मभावितायाः सुश्राविकाया विशुद्धशीलायाः । एवंविधायाः सुरपते ! कथं भवत्ययं तूपसर्गः ? ॥७२॥ स सुरपतिना भणितोऽहं व्रजामि वन्दक: साधुम् । त्वं पुन वैयावृत्यं कुरु सीताया गत्वा ॥७३॥ एवं भणित्वेन्द्रः पादाभ्यास मुनेः संप्राप्तः । हरिणैगमेष्यपि ततो गतश्च सीतासमीपं सः ॥७४।। एवं किरीटवरहारविभूषिताङ्गं सामन्तानेकपरिचुम्बितपादपीठम् । सेनानीकोऽमरनाथनियुक्तचितो रामं पश्यति विमलाम्बरमार्गस्थः ॥७५।। ॥इति पद्मचरिते देवागमनविधानं नामैकोत्तरशतं पर्व समाप्तम् ॥ १. ०यासु य, सु०-प्रत्य० । २. वंदिउं सा०-प्रत्य० । ३. तुह पुण-मु०। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. रामधम्मसवणविहाणपव्वं तं पेच्छिऊण वाविं, तणकट्ठसुपूरियं अइमहन्ती । पउमो समाउलमणो, चिन्तेइ बहुप्पयाराई ॥१॥ कत्तो हं वइदेहि, पेच्छिस्सं विविहगुणसमाइण्णं । नियमेण एत्थ मरणं, पाविहिइ हुयासणे दित्ते ॥२॥ जंपिहिइ जणो सव्वो, जह एसा जयणंदणा सीया । अववायजणियदुक्खा, मया य जलणं पविसिऊणं ॥३॥ तइया हीरन्तीए, नेच्छन्तीए य सीलकलियाए । लङ्काहिवेण सीसं, किं न लुय मण्डलग्गेणं ? ॥४॥ एवंविहाए मरणं, जइ होन्तं तत्थ जणयतणयाए । निव्वडिओ सीलगुणो, होन्तो य जसो तिहुयणम्मि ॥५॥ अहवा जं जेण जहा, मरणं समुवज्जियं सयललोए । तं तेण पावियव्वं, नियमेण न अन्नहा होइ ॥६॥ एयाणि य अन्नाणि य, चिंतन्तो जाव तत्थ पउमाभो । चिट्ठइ ताव हुयवहो, पज्जलिऊणं समाढत्तो ॥७॥ चण्डाणिलाहएणं, धूमेणं बहलकज्जलनिभेणं । छन्नं चिय गयणयलं, पाउसकाले व्व मेहेहिं ॥८॥ असमत्थो च्चिय दटुं, तहाविहं मेहिलीए उवसग्गं । सिग्घं कियालुयमणो, दिवायरो कत्थवि पलाणो ॥९॥ धगधगधगेन्तसद्दो, पज्जलिओ हुयवहो कणयवण्णो । गाउयपरिमाणासु य ,जालासु नहं पदीवेन्तो ॥१०॥ किं होज्ज दिणयरसयं, समुग्गय ? किं व महियलं भेत्तुं । उप्पायनगवरिन्दो, विणिग्गओ दुस्सहपयावो ॥११॥ || १०२. रामधर्मश्रवणविधानपर्वम् । तां दृष्ट्वा वापिं तृणकाष्टसुपूरितामतिमहतीम् । पद्मः समाकुलमनाश्चिन्तयति बहुप्रकाराणि ॥१॥ कुतोऽहं वैदेहीं द्रक्ष्यामि विविधगुणसमाकीर्णाम् । नियमेनात्र मरणं प्राप्स्यति हुताशने दीप्ते ॥२॥ जल्पिस्यति जनः सर्वो यथैषा जनकनन्दना सीता । अपवादजनितदुःखा मृता च ज्वलनं प्रविश्य ॥३॥ तदा ह्रीयमाण्या नेच्छन्त्याश्च शीलकलितायाः । लङ्काधिपेन शीर्ष किं न लुतं मण्डलाग्रेण ? ॥४॥ एवंविधाया मरणं यद्यभविष्यत्तत्र जनकतनयायाः । निवर्तितः शीलगुणोऽभविष्यच्च यशस्त्रिभुवने ॥५॥ अथवा यद्येन यथा मरणं समुपार्जितं सकललोके । तत्तेन प्राप्तव्यं नियमेन नान्यथा भवति ॥६॥ एतानि चान्यानि च चिन्तयन् यावत्तत्र पद्माभः । तिष्ठति तावद्धतवह: प्रज्वलितुं समारब्धः ॥७॥ चण्डानिलाहतेन धूम्रण बहलकज्जलनिभेन । छनमेव गगनतलं प्रावृट्काले इव मेघैः ॥८॥ असमर्थ एव दृष्टुं तथाविधं मैथिल्या उपसर्गम् । शीघ्रं कृपालुमना दिवाकरः कुत्रापि पलायनः ॥९॥ धगधगधगच्छब्दः प्रज्वलितो हुतवह: कनकवर्णः । गव्यूतपरिमाणाभिश्च ज्वालाभिर्नभः प्रदीपयन् ॥१०॥ किं भवेद्दिनकरशतं समुद्गतं ? किं वा महितलं भित्वा । उत्पातनगवरेन्द्रो विनिर्गतो दुःषहप्रतापः ॥११॥ १. ०महन्तं-प्रत्य० । २. व्यनंदिणी-मु० । ३. मत्थो इव दटुं तहाविहं महिलियाए उ०-मु०। ४. सिग्धं दयालुय०म० । For Personal & Private Use Only Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ पउमचरियं अइचवलचञ्चलाओ, सव्वत्तो विप्फुरन्ति जालाओ। सोयामणीउ नज्जइ, गयणयले उग्गतेयाओ ॥१२॥ एवंविहम्मि जलणे, पज्जलिए उट्ठिया जणयधूया। काऊण काउसग्गं, थुणइ जिणे उसभमाईए ॥१३॥ सिद्धा य तहायरिया, साहू जगविस्सुए उवज्झाए । पणमइ विसुद्धहियया, पुणो य मुणिसुव्वयं सिरसा ॥१४॥ एए नमिऊण महापुरिसा तो भणइ जणयनिवतणया । निसुणन्तु लोगवाला, सच्चेणं साविया सव्वे ॥१५॥ जइ मण-वयण-तणूणं, रामं मोत्तूण परनरो अन्नो । सिविणे वि य अहिलसिओ, तो डहउ ममं इमो अग्गी ॥१६॥ अह पुण मोत्तूण पई, निययं अन्नो न आसि मे हियए । तो मा डहउ हुयवहो, जइ सीलगुणस्स माहप्पं ॥१७॥ सा एव जंपिऊणं, तओ पविट्ठाऽलणं जणयधूया । जायं जलं सुविमलं, सुद्धा दढसीलसंपत्ता ॥१८॥ न य दारुयाणि न तणं, न य हुयवहसन्तिया उइङ्गाला। नवरं आलोइज्जइ, वावी सच्छच्छजलभरिया ॥१९॥ भेत्तूण धरणिवटुं, उच्छलियं तं जलं गुलुगुलेन्तं । वियडगभीरावत्तं, संघट्टद्वेन्तफेणोहं ॥२०॥ झगझगझगत्ति कत्थइ, अन्नत्तोदिलिदिलिन्तसद्दालं । पवहइ जलं सुभीमं, उम्मग्गप यट्टकल्लोलं ॥२१॥ जाव य खणन्तरेक्वं, ताव च्चिय खुहियसागरसमाणं । सलिलं कडिप्पमाणं, जायं च तओ थणाणुवरि ॥२२॥ सलिलेण तओ लोगो, सिग्धं चिय वुब्भिउं समाढत्तो । विज्जाहरा वि सव्वे, उप्पइया नहयलं तुरिया ॥२३॥ वरसिप्पिएसु वि कया, संखुभिया तत्थ मञ्चसंघाया। ताहे जणो निरासो, वुब्भंतो विलविउं पत्तो ॥२४॥ अतिचपलचञ्चलाः सर्वतो विस्फुरन्ति ज्वालाः । सौदामिन्यो ज्ञायते गगनतल उग्रतेजसः ॥१२॥ एवंविधे ज्वलने प्रज्वलिते उत्थिता जनकदुहिता । कृत्वा कायोत्सर्गं स्तौति जिनान् ऋषभादीन् ॥१३॥ सिद्धांश्च तथाचार्यान् साधून् जगद्विश्रुतानुपाध्यायान् । प्रणमति विशुद्धहृदया पुनश्च मुनिसुव्रतं शिरसा ॥१४॥ एतान्नत्वा महापुरुषांस्तदा भणति जनकनृपतनया। निश्रुण्वन्तु लोकपाला: ! सत्येन शापिताः सर्वे ॥१५॥ यदि मनोवचन-तनूभी रामं मुक्त्वा परनरोऽन्यः । स्वप्नेऽपि चाभिलषितस्तदा दहतु ममायमग्निः ॥१६।। अथ पुन र्मुक्त्वा पतिं निजकमन्यो नासीन्मे हृदये । तदा मा दहतु हुतवहो यदि शीलगुणस्य माहात्म्यम् ॥१७॥ सैवं जल्पित्वा ततः प्रविष्टाऽनलं जनकदुहिता । जातं जलं सुविमलं शुद्धा दृढशीलसंप्राप्ता ॥१८॥ न च दारुकाणि न तृणं न च हुतवहसत्कास्त्वङ्गाराः । नवरमालोक्यते वापी स्वच्छजलभृता ॥१९॥ भित्वा धरणीपृष्टमुच्छलितं तज्जलं गुडगुडन्तम् । विकटगम्भीरावर्त संघटोत्तिष्ठत्फणौघम् ॥२०॥ झगझगझगेति कुत्रचिनदन्यतो दिलिदिलिच्छब्दवत् । प्रवहति जलं सुभीममुन्मार्गप्रवृत्तकल्लोलम् ॥२१॥ यावच्च क्षणान्तरमेकं तावदेव क्षुभितसागरसमानम् । सलिलं कटिप्रमाणं जातं च ततः स्तनोपरि ॥२२॥ सलिलेन ततो लोक: शीघ्रमेव ब्रूडितुं समारब्धः । विद्याधरा अपि सर्वे उत्पतिता नभस्तलं त्वरिताः ॥२३॥ वरशिल्पिभिरपि कृताः संक्षुभितास्तत्र मञ्चसंघाताः । तदा जनो निराशो ब्रूडन् विलपितुं प्राप्तः ॥२४॥ १. दाऊण-प्रत्य० । २. ०संपन्ना-प्रत्य० । ३. ०पलोट्ट०-प्रत्य० । ४. ०तो लविउमाढत्तो-मु० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामधम्मसवणविहाणपव्वं - १०२ / १२- ३७ हा देवि ! हा सरस्सइ !, परितायसु धम्मवच्छले ! लोगं । उदएण वुब्भमाणं, सबालवुड्ढाउलं दीणं ॥२५॥ दट्ठूण हीरमाणं, लोयं ताहे करेसु जणयसुया । सलिलं फुसइ पसन्नं, जायं वावीसमं सहसा ॥२६॥ ववगयसलिलभओ सो, सव्व जणो सुमाणस्त्रो तओ वाविं । पेच्छइ विमलजलोहं, णीलुप्पलभरियकूलयलं ॥२७॥ १. सुरहिसयवत्तकेसर- निलीणगुञ्जन्तमहुयरुग्गीयं । चक्काय-हंस - सारस-नाणाविहसउणगणकलियं ॥ २८ ॥ मणिकञ्चणसोवाणं, तीए वावीए मज्झयारत्थं । पउमं सहस्सवत्तं, तस्स वि सीहासणं उवरिं ॥२९॥ दिव्वंसुयपरिछन्ने, तत्थ उ सीहासणे सुहनिविट्ठा | रेहइ जणयनिवसुया, पउमद्दहवासिणि व्व सिरी ॥३०॥ देवेह तक्खणं चिय, विज्जिज्जइ चामरेहिं दिव्वेहिं । गयणाउ कुसुमवुट्ठी, मुक्का य सुरेहिं तुट्ठेहिं ॥३१॥ सीयाए सीलनिहसं, पसंसमाणा सुरा नहयलत्था । नच्चन्ति य गायन्ति य, साहुक्कारं विमुञ्चन्ता ॥३२॥ गणे समहयाई, तूराइं सुरगणेहिं विविहारं । सद्देण सयललोयं, नज्जइ आवूरयन्ताई ॥३३॥ विज्जाहरा य मणुया, नच्चन्ता उल्लवन्ति परितुट्ठा । सिरिजणयरायधूया, सुद्धा दित्ताणले सीया ॥३४॥ एयन्तरे कुमारा, लवं-कुसा नेहनिब्भराऽऽगन्तुं । पणमन्ति निययजणणि, ते वि सिरे तीए अग्घाया ॥३५॥ रामो वि पेच्छिऊणं, कमलसिरिं चेव अत्तणो महिलं । जंपइ समीवसंथो, मज्झ पिए ! सुणसु वयणमिणं ॥ ३६ ॥ एयारिसं अकज्जं, न पुणो काहामि तुज्झ ससिवयणे ! । सुन्दरि ! पसन्नहियया, होहि महं खमसु दुच्चरियं ॥३७॥ हा देवि ! हा सरस्वति ! परित्रायस्व धर्मवत्सले ! लोकम् । उदकेन ब्रूड्यमानं सबालवृद्धाकूलं दीनम् ॥२५॥ दृष्ट्वा ह्रियमानं लोकं तदा कराभ्यां जनकसुता । सलिलं स्पृशति प्रसन्नं जातं वापीसमं सहसा ॥२६॥ व्यपगतसलिलभयः स सर्वो जनः सुमन स्ततो वापिम् । पश्यति विमलजलौघां नीलोत्पलभृतकुलतलाम् ॥२७॥ सुरभिशतपत्रकेसरनिलीनगुञ्जन्मधुकरोद्गीताम् । चक्रवाकहंससारसनानाविधशकुनगणकलिताम् ॥२८॥ मणिकञ्चनसोपानां तस्या वाप्या मध्यस्थम् । पद्मं सहस्रपत्रं तस्यापि सिंहासनमुपरि ॥ २९ ॥ दिव्याशुंकपरिछन्ने तत्र तु सिंहासने सुखनिविष्य । शोभते जनकनृपसुता पद्मद्रहवासिनीव श्रीः ॥३०॥ देवैस्तत्क्षणमेव वीज्यते चामरै दिव्यैः । गगनात्कुसुमवृष्टि र्मुक्ताश्च सुरैस्तुष्टैः ॥३१॥ सीतायाः शीलनिकसं प्रशंसमानाः सुरा नभस्तलस्थाः । नृत्यन्ति च गायन्ति च साधुकारं विमुञ्चन्तः ||३२|| गगने समाहतानि तूर्याणि सुरगणै विविधानि । शब्देन सकललोकं ज्ञायत आपूरयन्तानि ॥३३॥ विद्याधराश्च मनुष्या नृत्यन्त उल्लपन्ति परितुष्टाः । श्रीजनकराजदुहिता शुद्धा दीप्तानले सीता ||३४|| एतदन्तरे कुमारा लवणाङ्कुशौ स्नेहनिर्भरावागत्य । प्रणमतो निजजननीं तावपि शिरसि तयाऽऽघ्रातौ ॥३५॥ रामोऽपि दृष्ट्वा कमलश्रीमेवात्मनो समहिलाम् । जल्पति समीपस्थो मम प्रिये ! श्रुणु वचनमिदम् ||३६|| एतादृशमकार्यं न पुनः करिष्यामि तव शशिवदने ! । सुन्दरि ! प्रसन्नहृदया भव मम क्षमस्व दुश्चरितम् ||३७|| १. ०हं कमलुप्पल० मु० । २. देवीहिं- मु० । For Personal & Private Use Only ६३३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ पउमचरियं महिलाए सहस्साइं, अट्ठ ममं ताण उत्तमा भद्दे ! । अणुहवसु विसयसोक्खं, मज्झ वि आणं तुम देन्ती ॥३८॥ पुप्फविमाणारूढा, खेयरजुवतीसु परिमिया कन्ते ! । वन्दसु जिणभवणाई, मए समं मन्दरादीणि ॥३९॥ बहुदोसस्स मह पिए !, कोवं मोत्तूण खमसुदुच्चरियं । अणुहवसु सलाहणियं, सुरलोयसमं विसयसोक्खं ॥४०॥ तो भणइ पई सीय, नरवइ ! मा होहि एव उव्विग्गो। न य कस्सइ रुट्ठा हं, एरिसयं अज्जियं पुव्वं ॥४१॥ न य देव ! तुज्झ रुट्ठा, न चेव लोयस्स अलियवाइस्स । पुव्वज्जियस्स राहव !, रुट्ठा हं निययकम्मस्स ॥४२॥ तुझ पसाएण पहू, भुत्ता भोया सुरोवमा विविहा । संपइ करेमि कम्म, तं जेण न होमि पुण महिला ॥४३॥ इनदधणु-फेणबुब्बुयसमेसु भोएसु दुरभिगन्धेसु । किं एएसु महाजस, कीरइ बहुदुक्खजणएसु ॥४४॥ बहुजोणिसयसहस्सा, परिहिण्डन्ती अहं सुपरिसन्ता । इच्छामि दुक्खमोक्खं, संपइ जिणदेसियं दिक्खं ॥४५॥ एव भणिऊण सीया, अहिण वसोहा करेण वरकेसे । उप्याड निययसिरे, परिचत्तपरिग्गहारम्भा ॥४६॥ मरगयभिङ्गङ्गनिभे, केसे ते पेच्छिऊण पउमाभो । मुच्छानिमीलियच्छो, पडिओ धरणीयले सहसा ॥४७॥ जाव य आसासिज्जइ, पउमाभो चन्दणाइदव्वेहिं । ताव मुणिसव्वगुत्तो, दिक्खिय अज्जाणमप्पेइ ॥४८॥ जाया महव्वयधरी, चत्तेक्कपरिग्गहा समियपावा । मयहरियाए समाणं, गया य मुणिपायमूलम्मि ॥४९॥ गोसीसचन्दणाइसु, आसत्थो राहवो निरिक्खेइ । सीयं अपेच्छमाणो, रुट्ठो आरुहइ मत्तगयं ॥५०॥ ऊसियसियायवत्तो, सललियधुव्वन्तचामराजुयलो । परिवारिओ भडेहिं, नज्जइ इन्दो व्व देवेहिं ॥५१॥ महिलानां सहस्राण्यष्टौमम तासामुत्तमा भद्रे ! । अनुभव विषयसुखं ममाप्याज्ञां त्वं ददन्ती ॥३८॥ पुष्पकविमानारुढा खेचरयुवतिभिः परिवृता कान्ते ! । वन्दस्व जिनभवनानि मया समं मन्दरादीनि ॥३९।। बहुदोषा मह्यं प्रिये ! कोपं मुक्त्वा क्षमस्व दुश्चरितम् । अनुभव श्लाघनीयं सुरलोकसमं विषयसुखम् ॥४०॥ तदा भणति पति सीता नरपते ! मा भव एवमुद्विग्नः । न च कस्यचिद्रुष्टाऽहमेतादृशमर्जितं पूर्वम् ॥४१॥ न च देवा तव रुष्टा न चैव लोकस्यालिकवादिनः । पूर्वार्जितस्य राघव ! रुष्टाहं निजकर्मणः ॥४२॥ तव प्रसादेन प्रभो ! भुक्ता भोगा:सुरोपमा विविधाः । संप्रति करोमि कर्म तद्येन न भवामि पुन महिला ॥४३॥ इन्द्रधनुफेनबुबुदसमै भॊगै र्दुरभिगन्धैः । किमेतै महायश ! क्रियते बहुदु:खजनकैः ॥४४॥ बहुयोनिशतसहस्राः परिहिण्डन्त्यहं सुपरिश्रान्ता । इच्छामि दुःखमोक्षां संप्रति जिनदेशितां दिक्षाम् ॥४५॥ एवं भणित्वा सीताऽभिनवशोभान करेण वरकेशान् । उत्पातयति निजशिरस परित्यक्तपरिग्रहाऽऽरम्भा ॥४६॥ मरकतभृङ्गाङ्गनिभान्केशांस्तान् दृष्ट्वा पद्माभः । मू»निमिलाक्षः पतितो धरणीतले सहसा ॥४७॥ यावच्चाश्वास्यते पद्माभश्चन्दनादिद्रव्यैः । तावन्मुनिसर्वगुप्तो दिक्षित्वार्याणामर्पयति ॥४८॥ जाता महाव्रतधरी त्यक्तैकपरिग्रहा शमितपापा । महत्तरया समानं गताश्च मुनिपादमूले ॥४९॥ गोशीर्षचन्दनादिभिराश्वास्तो राघवो निरीक्षते । सीतामपश्यन् रुष्ट आरोहति मत्तगजम् ।।५०॥ उच्छ्रितश्वेतातपत्रः सललितधुर्णच्चामरयुगलः । परिवारितो भटै आयते इन्द्र इव देवैः ॥५१॥ १.०वसोया क०-प्रत्य० । २. आस(सि)त्तो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ रामधम्मसवणविहाणपव्वं -१०२/३८-६४ अह भाणिउं पयत्तो, मह घरिणी विमलसुद्धचारित्ता । देवेहि पाडिहेरं, किं व कयं एत्थ वि सढेहिं ? ॥५२॥ सीयं विलुत्तकेसि, जइ देवा मह लहुं न अप्पेन्ति । देवाण अदेवत्तं, करेमि सिग्धं न संदेहो ॥५३॥ को इच्छइ मरिउंजे ? कस्स कयन्तेण सुमरियं अज्जं? । जो मज्झ हिययइटुं, धरेइ पुरिसो तिहुयणम्मि ॥५४॥ जइ वि य विलुत्तकेसी, अज्जाणं तत्थ मज्झयारत्था । तह वि य आणेमि लहुं, वइदेहिं संगयसरीरं ॥५५॥ एयाणि य अन्नाणि य, जंपन्तो लक्खणेण उवसमिओ । पउमो नरवइसहिओ, साहुसयासं समणुपत्तो ॥५६॥ सरयरविसरिसतेयं, दट्टणं सयलभूसणं रामो । ओयरिय गयवराओ, पणमइ तं चेव तिविहेणं ॥५७॥ पउमो पुत्तेहिं समं, उवविट्ठो, मुणिवरस्स पासंमि । चन्दा-ऽऽइच्चसमग्गो, सुराण ईसो इव जिणस्स ॥५८॥ अन्ने वि नरवरिन्दा, लच्छीहरमाइया जिणं नमिउं । उवविट्ठा धरणियले, पुव्वनिविडेसु देवेसु ॥५९॥ आहरणवज्जिया वि य, सियवत्थनियंसणी जणयधूया। अज्जाहि समं रेहइ, तारासु व सयलससिलेहा ॥६०॥ सुर-मणुय-खेयरेहिं, उवविढेहिं तओ सयलनाणी । सिस्सेण पुच्छिओ सो, जिणधम्मं अभयसेणेणं ॥६१॥ विउलं निउणं च तहा, तच्चत्थं सुहनिबोहणं धम्मं । साहेइ मुणिवरिन्दो, जलहरगम्भीरनिग्योसो ॥६२॥ एत्थ अणन्ताणन्ते, आगासे सासओ सहावत्थो । लोगो तिभेयभिन्नो, हवइ च्चिय तालसंठाणो ॥६३॥ वेत्तासणयसरिच्छो, अहलोगो चेव होइ नायव्यो । झल्लरिनिहो य मज्झे, उवरिं पुण मुरवसंठाणो ॥६४॥ अथ भणितुं प्रवृत्तो मम गृहिणी विमलशुद्धचारित्रा । देवैः प्रातिहार्यं किं वा कृतमत्रापि शठैः ? ॥५२॥ सीतां विलुप्तकेशी यदि देवा मम लघु नार्पयन्ति । देवानामदेवत्वं करोमि शीघ्रं न संदेहः ॥५३॥ क इच्छति मर्तुं ये ? कस्य कृतान्तेन स्मारितमद्य । यो मम हृदयेष्टयं धारयति पुरुषस्त्रिभुवने ॥५४॥ यद्यपि च विलुप्तकेश्यार्याणां तत्र मध्यस्था । तथापि चानयामि लघु वैदेहिं संयतशरीराम् ।।५५।। एतानि चान्यानि च जल्पन् लक्ष्मणेनोपशामितः । पद्मो नरपतिसहितः साधुसकाशं समनुप्राप्तः ॥५६।। शरदरविसदृशतेजसं दृष्ट्वा सकलभूषणं रामः । अवतीर्य गजवरात्प्रणमति तमेव त्रिविधेन ॥५७|| पद्मः पुत्रैः सममुपविष्टो मुनिवरस्यपार्श्वे । चन्द्रादित्यसमग्रः सुराणामीश इव जिनस्य ॥५८॥ अन्येऽपि नरवेन्द्रा लक्ष्मीधरादयो जिनं नत्वा । उपविष्टा धरणीतले पूर्वनिविष्टेषु देवेषु ॥५९॥ आभरणवर्जिताऽपि च श्वेतवस्त्रनिवसना जनकदुहिता । आर्याभिः समं शोभते ताराभिरिव सकलशशिलेखा ॥६०॥ सुर-मनुष्य-खेचरैरुपविष्टैस्ततः सकलज्ञानी । शिष्येण पृष्टः स जिनधर्ममभयसेनेन ॥६१॥ विपुलं निपुणं च तथा तथ्यार्थं सुखनिबोधनं धर्मम् । कथयति मुनिवरेन्द्रो जलधरगम्भीरनिर्घोषः ॥६२॥ अत्राननन्तानन्ते आकाशे शाश्वतः स्वभावस्यः । लोकस्त्रिभेदभिन्नो भवत्येव तालसंस्थानः ॥६३।। वेत्रासनसदृशोऽधोलोक एव भवति ज्ञातव्यः । झल्लरीनिभश्च मध्य उपरि पुनर्मुरजसंस्थानः ॥६४॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ मेरुरिस्स अहत्था, सत्तेव हवन्ति नरयपुहवीओ । रयणप्पहाइयाओ, जीवाणं दुक्खजणणीओ ॥६५॥ रयणप्पभा य सक्कर-वालुय - पङ्कप्पभा य धूमपभा । तत्तो तमा तमतमा, सत्तमिया हवइ अघोरा ॥६६॥ तीसा य पन्नवीसा पणरस दस चेव होन्ति लक्खाओ । तिण्णेक्कं पञ्चणं, पञ्चेव अणुत्तरा नरया ॥६७॥ एए चउरासीई, लक्खा सीमन्तयाइया घोरा । खर- फरुस - चण्डवाया, ससि - सूरविवज्जिया भीमा ॥६८॥ दसतिगअहिया एक्काहिया य नव सत्त पञ्च तिण्णेक्का । नरइंदए कमो खलु, ओसरमाणो उ रयणाए ॥ ६९ ॥ अउणावन्नं नरया, सेढी सीमन्तयस्स पुव्वेणं । चउसु वि दिसासु एवं, अट्ठद्वं चेव परिहाणी ॥७०॥ चत्तालीसट्ठहिया, सत्त य छप्पञ्च तह य चत्तारि । अवसरमाणा य पुणो, जाव च्चिय अप्पइट्ठाणो ॥७१॥ तंत्तायससमफरिसा, दुग्गन्धा वज्जसूइ अइदुगमा । सीउण्हवेयणा वि य, करवत्त - सिवत्तजन्ता य ॥७२॥ रस-फरिसवसगया जे, पावपरा विगयधम्मसब्भावा । ते च्चिय पडन्ति नरए, आयसपिण्डं पिव जलोहे ॥७३॥ हिंसा - ऽलिय- चोरिक्काइएसु परजुवइसेवणाईसु । पावं कुणन्ति जे वि हु, भीमं वच्चन्ति ते नरयं ॥७४॥ सयमेव पावकारी, परं च कारेन्ति अणुमयन्ती य । तिव्वकसायपरिगया, पडन्ति जीवा धुवं नरए ॥७५॥ ते तत्थ समुववन्ना, नरए दित्तग्गिवेयणा पावा । डज्झन्ति आरसन्ता, वलवलणं चेव कुणमाणा ॥७६॥ तत्तो य अग्गिभीया, वेयरणि जन्ति अइतिसाभूया । पाइज्जन्ति रंडन्ता, तत्तं खारोदयं दुरहिं ॥७७॥ मेरुगिरेरधःस्थाः सप्तैव भवन्ति नरकपृथ्व्यः । रत्नप्रभादिका जीवानां दुःखजनन्यः ||६५ ॥ रत्नप्रभा च शर्करा - वालुका - पङ्कप्रभाश्च धूम्रप्रभा । ततस्तमा तमस्तमा सप्तमी भवत्यतिघोरा ॥६६॥ त्रिंशच्च पञ्चविंशतिः पञ्चदश दश एव भवन्ति लक्षाः । त्रिण्येकं पञ्चोनं पञ्चैवानुत्तरा नरकाः ||६७|| एते चतुरशीति र्लक्षा: सीमन्तकादयः घोराः । खर- परुष - चण्डवाताः शशिसूर्यविवर्जिता भीमाः ॥ ६८ ॥ दशत्रिकाधिकैकाधिकारच नव सप्त पञ्च त्रिण्येकाः । नरकेन्द्रस्य क्रमः खल्ववसर्प्यमाणास्तु रत्नायाः ॥६९॥ एकोनपञ्चासन्नरकाः श्रेणी सीमन्तस्य पूर्वेण । चतुर्ष्वपि दिक्षु एवमष्टाष्टमेव परिहाणि ॥७०॥ चत्वारिंशदष्टाधिका सप्त च षट्पञ्च च चत्वारि । अवसर्प्यमाणाश्च पुन र्यावदेवाप्रतिष्ठानः ॥ ७१ ॥ तप्तायः समस्पर्शा दुर्गन्धा वज्रसूच्यतिदुर्गमाः । शीतोष्णवेदना अपि च करपत्राऽसिपत्रयन्त्राश्च ॥७२॥ रसस्पर्शवशगता ये पापपरा विगतधर्मसद्भावाः । त एव पतन्ति नरक आयसपिण्डमिव जलौघे ॥७३॥ हिंसाऽलिकचोरिकादिभिः परयुवतिसेवनादिभिः । पापं कुर्वन्ति येऽपि हु भीमं व्रजन्ति ते नरकम् ॥७४॥ स्वयमेव पापकारिणः परं च कारयन्त्यनुमन्यन्ते च । तीव्रकषायपरिगताः पतन्ति जीवा ध्रुवं नरके ॥७५॥ ते तत्र समुपपन्ना नरके दिप्ताग्नि वेदनाः पापाः । दहयन्त आरसन्तो वलवलनमेव क्रियमाणाः ॥७६॥ ततश्चाग्निभीता वैतरणिं यान्त्यतितृषीभूता । पाय्यन्ते रटन्तस्तप्तं क्षारोदकं दुरभिम् ॥७७॥ १. ०स्स व ट्ठिा स० - प्रत्य० । २. ०न्ति नरकाउ । ति० मु० । ३. ०परिणया-मु० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ रामधम्मसवणविहाणपव्वं -१०२/६५-९० मुच्छागया विउद्धा, असिपत्तवणं तओ य संपत्ता । छिज्जन्ति आउहेहिं, उवरोवरि आवयन्तेहिं ॥७॥ छिन्नकर-चरण-जङ्घा, छिन्नभुया छिन्नकण्ण-नासोट्ठा । छिन्नसिर-तालु-नेत्ता, विभिन्नहियया महिं पडिया ॥७९॥ रज्जूहिं गलनिबद्धा, वलएऊणं च सामलिं पाव । कड्डिज्जन्ते य पुणो, कण्टयसंछिन्नभिन्नङ्गा ॥८०॥ केइत्थ कुम्भिपाए, पच्चन्ति अहोसिरा धगधगेन्ता । जन्तकरवत्तछिन्ना, अन्ने अन्नेसु खज्जन्ति ॥८१॥ असि-सत्ति-कणय-तोमर -सूल-मुसुंढीहिं भिन्नसव्वङ्गा । विलवन्ति धरणिपडिया, सीहसियालेहि खज्जन्ता ॥८२॥ एक्कं च तिण्णि सत्त य, दस सत्तरसं तहेव बावीसा । तेत्तीस उयहिनामा, आउं रयणप्पभादीसुं ॥८३॥ एवं अणुक्कमेणं, कालं पुढवीसु नरयमज्झगया । अणुहोन्ति महादुक्खं, निमिसं पि अलद्धसुहसाया ॥४४॥ सीउण्हछुहातण्हाइयाइं दुक्खाइं जाइ तेलोक्के । सव्वाइं ताई पावइ, जीवो नरए गरुयकम्मो ॥५॥ तम्हा इमं सुणेउं, फलं अधम्मस्स तिव्वदुक्खयरं । होह सुपसन्नहियया, जिणवरधम्मुज्जया निच्चं ॥८६॥ रयणप्पभाए भागे, उवरिल्ले भवणवासिया देवा । असुरा नाग सुवण्णा, वाउसमुद्दा दिसिकुमारा ॥८७॥ दीवा विज्जू थणिया, अग्गिकुमारा य होन्ति नायव्वा । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, एए देवीण मज्झगया ॥८८॥ चउसट्ठी चुलसीई, बावत्तरि तह य हवइ छन्नउई । छावत्तरि मो लक्खा , सेसाणं हवइ छण्हं पि ॥८९॥ एएसु य भवणेसु य, देवा संगीयवाइयरवेणं । निच्चं सुहियपमुइया, गयं पि कालं न याणन्ति ॥१०॥ मूगिता विबुद्धा असिपत्रवनं ततश्च संप्राप्ताः । छिद्यन्त आयुधैरुपरोपर्यापततद्भिः ॥७८।। छिन्नकरचरणजङ्वाच्छिन्नभुजाच्छिन्नकर्णनाशौष्ठाः । छिनशिरस्तालुनेत्रा विभिन्नहृदया महीं पतिताः ॥७९॥ रज्जुभिर्गलनिबद्धा वालयित्वा च शाल्मलीं पापा: । कृष्यन्ते च पुनः कण्टकसंच्छिन्नभिन्नाङ्गाः ।।८०॥ केऽत्र कुम्भिपाके पचन्त्यधोशिरसो धगधग्न्तः । यन्त्रकरपत्रच्छिन्ना अन्योन्यैः खाद्यन्ते ॥८१।। असि-शक्ति-कनक-तोमर-शूल-मुसुंढिभिभिन्नसर्वाङ्गाः । विलपन्ति धरणिपतिताः सिंहशृगालैः खाद्यमानाः ॥८२॥ एकं च त्रिणि सप्त च दश सप्तदशं तथैव द्वाविंशाति: । त्रयस्त्रिंशदुदधिनामाऽऽयू रत्नप्रभादिषु ॥८३॥ एवमनुक्रमेण कालं पृथिविषु नरकमध्यगता । अनुभवन्ति महादुःखं निमेषमप्यलब्धसुखाशयाः ॥८४|| शीतोष्णक्षुधातृष्णादीनि दुःखानि यानि त्रैलोक्ये । सर्वणि तानि प्राप्नोति जीवो नरके गुरुककर्मा ॥८५।। तस्मादिदं श्रुत्वा फलमधर्मस्य तीव्रदु:खकरम् । भवत सुप्रसन्नहृदया जिनवरधर्मोद्यता नित्यम् ॥८६॥ रत्नप्रभाया भाग उपरि भवनवासिनो देवाः । असुरा नागः सुवर्णा वायुसमुद्रा दिक्कुमाराः ॥८७|| द्वीपा विद्युत्स्तनिता अग्निकुमाराश्च भवन्ति ज्ञातव्याः । भुञ्जन्ति विषयसुखमेते देवीनां मध्यगताः ॥८८|| चतुषष्ठि श्चतुरशीति द्विसप्ततिस्तथा च भवति षण्नवति । षट्सप्तति लक्षा:शेषाणां भवति षण्णामपि ॥८९।। एतेषु च भवनेषु च देवाः संगीतवादितरवेण । नित्यं सुखितप्रमुदिता गतमपि कालं न जानन्ति ॥९०॥ १. रज्जूहि गलयबद्धा-मु० । २. ०र-मोग्गर-मुसुढीहि भि०-मु० । ३. ०यालेसु ख०-प्रत्य० । ४. निययं-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ पउमचरियं ताणं अणन्तरोवरि, दीवसमुद्दा भवे असंखेज्जा । जम्बुद्दीवादया, एते उसयंभुरमणन्ता ॥११॥ एएसु वसन्ति सुरा, किन्नर-किंपुरिस-गरुड-गन्धव्वा । जक्खा भूयपिसाया, कीलन्ति य रक्खसा मुइया ॥१२॥ पुढवि-जल-जलण-मारुय-वणस्सई चेव थावरा एए । काया एक्को य पुणो, हवइ तओ पञ्चभेयजुओ ॥१३॥ एगिन्दियाउ जाव उ, जीवा पञ्चिन्दिया मुणेयव्वा । फरिस-रस-गन्ध-चक्खू-सोउवओगा बहुवियप्पा ॥१४॥ दुविहा थावरकाय, सुहुमा तह बायरा य नायव्वा । उभओ वि होन्ति दुविहा पज्जत्ता तह अपज्जत्ता ॥१५॥ जीवाणं उवओगो, नाणं तह दंसणं जिणक्खायं । नामं अट्ठवियप्पं, चउव्विहं दंसणं भणियं ॥१६॥ अण्डाउय-पोयाउय-जराउया गब्भजा इमे भणिया। सुर-णारओववाइय, सेसा संमुच्छिमा जीवा ॥१७॥ ओरालियं विउव्वं, आहारं तेजसं च कम्मइयं । सुहुमं परंपराए, गुणेहि संपज्जइ सरीरं ॥१८॥ धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगासं, कालो जीवो य पोग्गलेण समं । एयं तु हवइ दव्वं, छब्भेयं सत्तभङ्गजुयं ॥१९॥ एयं दव्वविसेसो, नरवइ ! कहिओ मए समासेणं । निसुणेहि भणिज्जन्तं, दीवसमुद्दाण संखेवं ॥१०॥ जम्बुद्दीवाईया, दीवा लवणाइया य सलिलनिही । एगन्तरिया ते पुण, दुगुणा दुगुणा असंखेज्जा ॥१०१॥ अन्ते संयभुरमणो, जम्बुद्दीवो उ होइ मज्झम्मि । सो जोयणाण लक्खं, पमाणओ मण्डलायारो ॥१०२॥ तस्स वि य हवइ मझे, नाहिगिरी मन्दरो सयसहस्सं । सव्वपमाणेणुच्चो, वित्थिण्णो दससहस्साई ॥१०३॥ तेषामनन्तरोपरि दीवसमुद्रा भवन्त्यसंख्येयाः । जम्बूद्वीपादय एते तु स्वयंभूरमणान्ताः ॥९१॥ एतेषु वसन्ति सुराः किन्नर-किम्पुरुष-गरुड-गान्धर्वाः । यक्षा भूतपिशाचाः क्रीडन्ति च राक्षसा मुदिताः ।।९२॥ पृथिवी-जल-ज्वलन-मरुद्वनस्पतय एव स्थावरा एते । काया एकश्च पुन भवति ततः पञ्चभेदयुतः ॥१३॥ एकेन्द्रिया यावत्तु जीवाः पञ्चेन्द्रिया मुणितव्याः । स्पर्श-रस-गन्ध-चक्षुः श्रोत्रोपयोगा बहुविकल्पाः ॥६४॥ द्विविधाः स्थावरकायाः सूक्ष्मास्तथा बादराश्च ज्ञातव्याः । उभयोऽपि भवतो द्विविधाः पर्याप्तास्तथापर्याप्ताः ॥९५।। जीवानामुपयोगो ज्ञानं तथा दर्शनं जिनाख्यातम् । ज्ञानमष्टविकल्पं चतुर्विधं दर्शनं भणितम् ॥१६॥ अण्डज-पोतज-जरायुजा गर्भजा इमे भणिताः । सुर-नारका औपपातिकाः शेषाः समुच्छिमा जीवाः ॥९७॥ औदारिकं वैक्रियमाहारं तैजसं च कार्मिकम् । सूक्ष्म परंपरया गुणैः संपद्यते शरीरम् ॥९८।। धर्माऽधर्माऽकाशं कालो जीवश्च पुद्गलेन समम् । एतत्तु भवति द्रव्यं षड्भेदं सप्तभङ्गयुतम् ॥९९॥ एतद्रव्यंविशेषो नरपते ! कथितो मया समासेन । निश्रुणु भण्यमानं द्वीप-समुद्राणां संक्षेपम् ॥१००॥ जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणादयश्च सलिलनिधयः । एकान्तरितास्ते पुन द्विगुणा असङ्ख्येयाः ॥१०१।। अन्ते स्वयंभूरमणो जम्बुद्वीपस्तु भवति मध्ये । स योजनानां लक्षं प्रमाणतो मण्डलाकारः ॥१०२॥ तस्यापि च भवति मध्ये नाभिगिरि मन्दर: शतसहस्रम् । सर्वप्रमाणेनोच्चो विस्तीर्णो दश सहस्राणि ॥१०३॥ १. उ-प्रत्य० । २. सुर-नारय उववाया, इमे य सम्मु०-मु० । ३. ०ज्जन्ता दीव-समुद्दा उ सं०-मु० । ४. हवइ-मु० । Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३९ रामधम्मसवणविहाणपव्वं -१०२/९१-११६ दाहिणउत्तरभागे, तस्स उ कुलपव्वया लवणतोयं । उभओ फुसन्ति सव्वे, कञ्चणवररयणपरिणामा ॥१०४॥ हिमवो य महाहिमवो, निसढो नीलो य रुप्पि सिहरी य । एएहिं विहत्ताइं, सत्तेव हवन्ति वासाइं ॥१०५॥ भरहं हेमवयं पुण, हरिवासं तह महाविदेहं च । रम्मय हेरण्णवयं, उत्तरओ हवइ एरवयं ॥१०६॥ गङ्गा य पढमसरिया, सिन्धू पुण रोहयिा मुणेयव्वा । तह चेव रोहियंसा, हरी नदी चेव हरिकन्ता ॥१०७॥ सीया वि य सीओया, नारी य तहेव होइ नरकन्ता । रुप्पयसुवण्णकूला, रत्ता रत्तावई भणिया ॥१०८॥ वीसं वक्खारगिरी, चोत्तीस हवन्ति रायहाणीओ । उत्तरदेवकुरूओ, सामलिजम्बूसणाहाओ ॥१०९॥ जम्बुद्दीवस्स ठिओ, चउग्गुणो तस्स धायई सण्डो । तस्स वि दुगुणपमाणं, पुक्खरदीवे हवइ अद्धं ॥११०॥ पञ्चसु पञ्चसु पञ्चसु, भरहेरवएसु तह विदेहेसु । भणियाउ कम्मभूमी, तीसं पुण भोगभूमीओ ॥१११॥ हेमवयं हरिवासं, उत्तरकुरु तह य हवइ देवकुरू । रम्मय हेरण्णवयं, एयाओ भोगभूमी ओ ॥११२॥ आउ-ठिईपरिमाणं, भोगो मिहुणाण जारिसो होइ । तं सव्वं संखेवं, भणामि निसुणेहि एगमणो ॥११३॥ नाणाविहरयणमई, भूमी कप्पहुमेसु य समिद्धा । मिहुणयकयाहिवासा, निच्चुज्जोया मणभिरामा ॥११४॥ गिह-जोइ-भूसणङ्गा, भोयण भायण तहेव वत्थना । चित्तरसा तुडियङ्गा, कुसुमङ्गा दीवियना य ॥११५॥ बहुरयणविणिम्माया, भवणदुमा अट्ठभूमिया दिव्वा । सयणासणसन्निहिया, तेएण निदाहरविसरिसा ॥११६॥ दक्षिणोत्तरभागे तस्य तु कुलपर्वता लवणतोयम् । उभयतः स्पृशन्ति सर्वे कञ्चनवररत्नपरिणामाः ॥१०४।। हिमवांश्च महाहिमवान्निषधो नीलश्च रुक्मि:शिखरी च । एतै विभक्तानि सप्तैव भवन्ति वर्षाणि ॥१०५।। भरतं हेमवन्तं पुन र्हरिवर्षं तथा महाविदेहं च । रम्यक् हिरण्यवन्तमुत्तरतो भवत्यैरवतम् ॥१०६॥ गडगा च प्रथमसरिता सिन्धः पना रोहिता मणितव्या । तथैव रोहितांशा हरी नद्येव हरिकान्ता ॥१०७॥ सीताऽपि च सीतोदा नारी च तथैव भवति नरकान्ता । रुप्य-सुवर्णकूला रक्ता रक्तावती भणिता ॥१०८॥ विंशति र्वक्ष्स्कार गिरय श्चतुस्त्रिंशद्भवन्ति राजधानयः । उत्तरदेवकुरवः शाल्मलीजम्बूसनाथाः ॥१०९।। जम्बूद्वीपस्य स्थितश्चतुर्गुणस्तस्य धातकीखण्ड: । तस्यापि द्विगुणप्रमाणं पुष्करद्वीपे भवत्यर्द्धम् ॥११०॥ पञ्चसु पञ्चसु पञ्चसु भरतैरवतेषु तथा विदेहेषु । भणिताः कर्मभूमयस्त्रिंशत्पुन भॊगभूमयः ॥१११॥ हेमवन्तं हरिवर्षमुत्तरकुरुस्तथा च भवति देवकुरुः । रम्यक् हेरण्यवतमेता भोगभूमयः ॥११२।। आयुस्थितिप्रमाणे भोगो मिथुनानां यादृशो भवति । तत्सर्वं संक्षेपं भणामि निश्रुग्वेकाग्रमनाः ॥११३॥ नानाविधरत्नमयी भूमिः कल्पद्रुमैश्च समृद्धा । मिथुनककृताधिवासा नित्योद्यता मनोभिरामा ॥११४॥ गृहिणॆति-भूषणाङ्गाः भोजनं भाजनं तथैव वस्त्राङ्गाः । चित्ररसास्त्रुटिताङ्गाः कुसुमाङ्गदिव्याङ्गाश्च ॥११५।। बहुरत्नविनिर्माता भवनद्रुमा अष्टभूमिका दिव्याः । शयनाऽऽसनसन्निहितास्तेजसा निदाघरविसदृशाः ॥११६।। १. हरी णई हवइ हरि-प्रत्य० । २. निसुणेह एगमणा-मु०। . For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० पउमचरियं जोमा वरं, ससि - सूरा जत्थ वच्चमाणा वि । ताण पहावोवहया, निययं पि छविं विमुञ्चन्ति ॥११७॥ वरहार-कडय-कुण्डल-मउडालंकार - नेउराईणि । निययं पि भूसणाई, आहरणदुमेसु जायन्ति ॥ ११८ ॥ अट्ठसयक्खज्जयजुओ, चउसट्ठी तह य वञ्जणवियप्पो । उप्पज्जइ आहारो, भोयणरुक्खेसु रसकलिओ ॥ ११९ ॥ भिङ्गार-थाल-वट्टय-कच्चोलय-वद्धमाण माईणि । कञ्चण- रयणमयाई, जायन्ति य भायणङ्गेसु ॥ १२० ॥ खोमय- दुगुल्ल-वालय- चीणंसुयपट्टमाई याइं च । वत्थाइं बहुविहाइं, वत्थङ्गदुमा पणामेन्ति ॥१२१॥ कायम्बरी पसन्ना, आसवजोगा तहव णेगविहा । चित्तंगरसेसु सया, पाणयजोगा उ जायन्ति ॥ १२२ ॥ वीणा-तिसरिय-वेणू-सच्चीसयमाइया सरा विविहा । निययं सवणसुहयरा, तुडियङ्गदुमेसु जायन्ति ॥ १२३॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोय - पुन्नाय नायमाईणि । कुसुमाइं बहुविहाई, कुसुमङ्गदुमा पणामेन्ति ॥ १२४॥ ससि-सूरसरिसतेया, निच्चं जगजगजगेन्तबहुविडवा । विविहा य दीवियङ्गा, नासन्ति तमन्धयारं ते ॥१२५॥ एयारिसेसु भोगं, दुमेसु भुञ्जन्ति तत्थ मिहुणाई । सव्वङ्गसुन्दराई, वड्डियनेहाणुरायाई ॥ १२६ ॥ आउठिई हेमवए, पल्लं दो चेव होन्ति हरिवासे । देवकुरुम्मि य तिण्णि य, एस कमो हवइ उत्तरओ ॥१२७॥ दो चेव धणुसहस्सा, होइ पमाणं तु हेमवयवासे । चत्तारि य हरिवासे छच्चेव हवन्ति कुरुवा ॥ १२८ ॥ न य पत्थिवा न भिच्चा, न य खुज्जा नेय वामणा पङ्गू । न य मूया बहिरन्धा, न दुक्खिया नेव य दरिद्दा ॥१२९॥ समचउरससंठाणा, वलि-पलियविवज्जिया' य नीरोगा । चउसट्ठिलक्खणधरा, मणुया देवा इव सुरूवा ॥१३०॥ ज्योतिषद्रुमाणामुपरि शशि-सूर्या यत्र व्रज तोऽपि । तेषां प्रभावोपहता निजकमपि छविं विमुञ्चन्ति ॥११७॥ वरहार-कटक-कुण्डल- मुकुटालङ्कार - नूपुरादिनि । निजकमपि भूषणान्याभरणद्रुमेषु जायन्ते ॥ ११८ ॥ अष्टशतखाद्यकयुतश्चतुषष्ठिस्तथा च व्यञ्जनविकल्पः । उत्पद्यत आहारो भोजनवृक्षै रसकलितः ॥ ११९॥ भृड्गार-स्थाल-वर्तक-कच्चोलक - वर्धमानकादीनि । कञ्चनरत्नमयानि जायन्ते च भाजनाङ्गेषु ॥१२०॥ क्षोम - दुकुल - वालक- चीनांशुकपट्टादीनि च । वस्त्राणि बहुविधानि वस्त्राङ्गद्रुमा अर्पयन्ति ॥ १२१ ॥ कादम्बरी प्रसन्नाऽऽश्रवयोगास्तथैवानेकविधाः । चित्राङ्गरसेषु सदा पानकयोग्यास्तु जायन्ते ॥१२२॥ वीणा-त्रिसरिक-वेणू-सच्चीसकादयः स्वरा विविधाः । निजकं श्रवणसुखकरास्त्रुटिताङ्गद्द्रुमेषु जायन्ते ॥१२३॥ वरबकुल-तिलक-चम्पकाशोकपुन्नागनागादीनि । कुसुमानि बहुविधानि कुसुमाङ्गद्द्रुमा अर्पयन्ति ॥१२४॥ शशि - सूर्यसदृशतेजसो नित्यं जगजगजगद्बहुविटपाः । विविधाश्च दीव्याङ्गा नाशयन्ति तमोऽन्धकारं ते ॥१२५॥ एतादृशेषु भोगं द्रुमेषु भुञ्जन्ति तत्र मिथुनानि । सर्वाङ्गसुन्दराणि वर्धितस्नेहानुरागाणि ॥ १२६॥ आयुःस्थिति र्हेमवति पल्यं द्व एव भवतो हरिवर्षे । देवकुरौ च त्रिणि चैष क्रमो भवत्युत्तरतः ॥१२७॥ द्वावेव धनुः सहस्रौ भवतः प्रमाणं तु हेमवन्तवर्षे । चत्वारि च हरिवर्षे षडेव भवन्ति कुर्वोः ॥१२८॥ न च पार्थिवा न भृत्या न च कुब्जा नैव वामना: पङ्ग्वः । न च मूका बधिरान्धा न दुःखिता नैव दरिद्राः ॥ १२९॥ समचतुरस्रसंस्थाना वलिपलितविवर्जिताश्च निरोगाः । चतुषष्ठिर्लक्षणधरा मनुष्या देवा इव सुरुपाः ॥ १३०॥ १. ०णयाईया - क० - मु० | २. ०इयाणं च मु० । ३. ० रागेणं - प्रत्य० । ४. ०व य विबुहकुरुवाए प्रत्य० । ५. ०या णिरोगा य । च० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ रामधम्मसवणविहाणपव्वं -१०२/११७-१४४ ताणं चिय महिलाओ, वियसियवरकमलपत्तनेत्ताओ । सव्वङ्गसुन्दरीओ, कोमुइससिवयणसोहाओ ॥१३१॥ भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, जं पुरिसा तत्थ भोगभूमीसु । कालं चिय अइदीहं, तं दाणफलं मुणेयव्वं ॥१३२॥ दाणं पुण दुवियप्पं, सुपत्तदाणं अपत्तदाणं च । नायव्वं हवइ सया, नरेण इह बुद्धिमन्तेणं ॥१३३॥ पञ्चमहव्वयकलिया, निच्चं सज्झाय-झाण-तवनिरया।धण-सयणविगयसङ्गा, ते पत्तं साहवो भणिया ॥१३४॥ सद्धा-सत्ती-भत्ती-विन्नाणेणं हवेज्ज जं दिन्नं । साहूण गुणधराणं, तं दाणं बहुफलं भणियं ॥१३५॥ तस्स पभावेण नरा, हेमवयाईसु चेव उववन्ना । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, वरतरुणीमज्झयारत्था ॥१३६॥ संजमरहियाण पुणो, जं दिज्जइ राग-दोसकलुसाणं । तं न हु फलं पयच्छइ, धणियं विउज्जमन्ताणं ॥१३७॥ एवं तु भोगभूमी, तुझं कहिया मए समासेणं । तह उज्जमेह संपइ, जेण निरुत्तेण पावेह ॥१३८॥ अन्तरदीवा मणुया, अट्ठावीसाविहा उसीहमुहा । उक्कोसेणं आउं, ताण य पलियट्ठमं भागं ॥१३९॥ वन्तरसुराण उवरिं, पञ्चविहा जोइसा तओ देवा । चन्दा सूरा य गहा, नक्खत्ता तारया नेया ॥१४०॥ एए भमन्ति मेलं, पयाहिणंता सहावतेयंसी । रइसागरोवगाढा, गयं पि कालं न याणन्ति ॥१४१॥ जोइसियसुराणुवरिं, कप्पो नामेण हवइ सोहम्मो । तह य पुणो ईसाणो, सणंकुमारो य माहिन्दो ॥१४२॥ बंभो कप्पो य तहा, लन्तयकप्पो य होइ नायव्वो। तह य महासुक्को वि य, तह अट्ठमओ सहस्सारो ॥१४३॥ तत्तो य आणओ पाणओ य तह आरणो मुणेयव्वो । कप्पो अच्चुयनामो, उत्तमदेवाण आवासो ॥१४४॥ तेषामेव महिला विकसितवरकमलपत्रनेत्राः । सर्वाङ्गसुन्दर्यः कौमुदीशशिवदनशोभाः ॥१३१।। भुञ्जन्ति विषयसुखं यत्पुरुषास्तत्र भोगभूमिषु । कालमेवातिदीर्घ तद्दानफलं मुणितव्यम् ॥१३२।। दानं पुन डैिविकल्पं सुपात्रदानमपात्रदानं च । ज्ञातव्यं भवति सदा नरेणेह बुद्धिमता ॥१३३।। पञ्चमहाव्रतकलिता नित्यं स्वाध्याय-ध्यान-तपोनिरताः । धनस्वजनविगतसङ्गास्ते पात्रं साधवो भणिताः ॥१३४॥ श्रद्धा-शक्ति-भक्ति विज्ञानेन भवेद्यदत्तम् । साधुभ्यो गुणधरेभ्यस्तद्दानं बहुफलं भणितम् ॥१३५॥ तस्य प्रभावेण नरा हेमवदादिष्वेवोत्पन्नाः । भुञ्जन्ति विषयसुखं वरतरुणीमध्यस्थाः ॥१३६।। संयमरहितेभ्यः पुन र्यद्दीयते राग-दोषकालुश्येभ्यः । तन्न खलु फलं प्रयच्छति गाढमप्युद्यमताम् ॥१३७॥ एवं तु भोगभूमिस्तव कथिता मया समासेन । तथोद्यच्छ संप्रति येन निश्चयेन प्राप्नुत ॥१३८॥ अन्तर्वीपा मनुष्या अष्टाविंशतिविद्यास्तु सिंहमुखाः । उत्कृष्टेनायुस्तेषां च पल्याष्टमं भागम् ॥१३९।। व्यन्तरसुराणामुपरि पञ्चविधा ज्योतिषस्ततो देवाः । चन्द्राः सूर्याश्च ग्रहा नक्षत्रास्तारका ज्ञेयाः ॥१४०॥ एते भ्रमन्ति मेरुं प्रदक्षिणयन्तः स्वभावतेजसः । रतिसागरावगाढा गतमपि कालं न जानन्ति ।।१४१।। ज्योतिषसुराणामुपरि कल्पो नाम्ना भवति सौधर्मः । तथा च पुनरीशानः सनत्कुमारश्च माहेन्द्रः ॥१४२॥ बह्मः कल्पश्च तथा लान्तककल्पश्च भवति ज्ञातव्यः । तथा च महाशुक्रोऽपि च तथाष्टमः सहस्रारः ॥१४३।। ततश्चानतः प्राणतश्च तथारणो मुणितव्यः । कल्पोऽच्युतनामोत्तमदेवानामावासः ॥१४४॥ १. ०यं पि विउज्ज०-मु० । २. य अह-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ कप्पाणं पुण उवरिं, नव गेवेज्जाई मणभिरामाई । ताण वि अणुद्दिसाई, पुरओ आइच्चपमुहाई ॥१४५॥ विजयं च वेजयन्तं, जयन्तमवराइयं मणभिरामं । अहमिन्दवरविमाणं, सव्वट्टं चेव नायव्वं ॥१४६॥ तस्स वि य जोयणाई, बारस गन्तूण उवरिमे भागे । इसिपब्भारा पुढवी, चिट्ठन्ति जहिं ठिया सिद्धा ॥ १४७॥ पणयालीसं लक्खा, जोयणसंखाए हवइ वित्थिण्णा । अट्ठेव य बाहल्ला, उत्ताणयछत्तसंठाणा ॥१४८॥ एत्तो विमाणसंखा, कहेमि बत्तीससयसहस्साइं । सोहम्मे ईसाणे, अट्ठावीसं तु भणियाई ॥१४९॥ बारस सणकुमारे, माहिन्दे चेव अट्ठ लक्खाई । चत्तारि पुणो बम्भे, विमाणलक्खा तहिं होन्ति ॥ १५०॥ पन्नाससहस्साइं, संखाए लन्तए विमाणाणं । तत्तो य महासुक्के, चत्तालीसं सहस्साइं ॥ १५१ ॥ छच्चेव सहस्सा खलु, हवन्ति कप्पे तहा सहस्सारे । आणय-पाणयकप्पेसु होन्ति चत्तारि उ सयाई ॥१५२॥ तिण्णेव सया भणिया, आरणकप्पे तहाच्चुए चेव । तिण्णि सया अट्ठारस, उवरिमगेवेज्जमाईसु ॥१५३॥ पाइक्क - तुरय-रह-गय-गोविस - गन्धव्व-नट्टियन्ताइं । अणियाइं होन्ति एयाइं सत्त सक्कस्स दिव्वाइं ॥१५४॥ वाउ हरि मायली वि य, तहेव एरावणो यदामिड्डी । रिट्ठञ्जस णीलंजस, एए अणियाण महरा ॥ १५५ ॥ तत्थ सुधम्मविमाणे, एरावणवाहणो उ वज्जधरो । इन्दो महाणुभावो, जुइमन्तो रिद्धिसंपन्नो ॥१५६॥ चत्तारि लोगपाला, जम-वरुण- - कुबेर-सोममाईया । सामाणियदेवाण वि, चउरासीइं सहस्साइं ॥१५७॥ पउमचरियं कल्पानां पुनरुपरि नव ग्रैवेयकानि मनोभिरामाणि । तेषामप्यनुदिशानि पुरत आदित्यप्रमुखानि ॥१४५॥ विजयं च वैजयन्तं जयन्तमपराजितं मनोभिरामम् । अहमिन्द्रवरविमानं सर्वार्थमेव ज्ञातव्यम् ॥१४६॥ तस्यापि च योजनानि द्वादश गत्वोपरिमे भागे । इषत्प्राग्भारा पृथिवी तिष्ठति यत्र स्थिताः सिद्धाः ||१४७|| पञ्चचत्वारिंशल्लक्षा योजनसंख्याया भवति विस्तीर्णा । अष्टैव च बाहल्योत्तानछत्रसंस्थाना ॥१४८॥ इतो विमानसंख्या कथयामि द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि । सौधर्म ईशानेऽष्टाविंशतिस्तु भणितानि ॥ १४९ ॥ द्वादश सनत्कुमारे माहेन्द्र एवाष्टौ लक्षाणि । चत्वारि पुन ब्रह्मे विमानलक्षास्तत्र भवन्ति ॥१५०॥ पञ्चाशत्सहस्राणि संख्या लान्तके विमानानाम् । ततश्च महाशुक्रे चत्वारिंशत्सहस्राणि ॥१५१॥ षडेव सहस्राः खलु भवन्ति कल्पे तथा सहस्रारे । आनतप्राणतकल्पयोर्भवन्तिचत्वारि तु शतानि ॥१५२॥ त्रिण्येव शता भणिता आरणकल्पे तथाऽच्युत एव । त्रिणि शता अष्टादशोपरिमग्रैवयेकादिषु ॥१५३॥ पादाति-तुरग-रथ- गज-गोवृष - गान्धर्व - नर्तकान्तानि । अनीकानि भवन्त्येतानि सप्त शक्रस्य दिव्यानि ॥ १५४ ॥ वायुर्हरिर्मातलिरपि च तथैवैरावणश्च दामधिः । रिष्टंयशा नीलंयशा एतेऽनिकानां महत्तराः ॥ १५५ ॥ तत्र सौधर्मविमाने ऐरावणवाहनस्तु वज्रधरः । इन्द्रो महानुभावो द्युतिमान् ऋद्धिसंपन्नः ॥ १५६ ॥ चत्वारि लोकपाला यम- वरुण - कुबेर-सोमादयः । सामानिकदेवानामपि चतुरशीतिः सहस्राणि ॥१५७॥ १. दामिट्ठी - मु० । For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामधम्मसवणविहाणपव्वं-१०२/१४५-१६९ ६४३ तत्थ सुधम्मसहाए, परिसाओ तिण्णि होन्ति देवाणं । समिया चन्दा जउणा, मणाभिरामा रयणचित्ता ॥१५८॥ पउमा सिवा य सुलसा, अञ्जू सामा तहा विहा अयला। कालिन्दी भाण विय, सक्कस्स य अग्गमहिसीओ ॥१५९॥ एक्कक्का वरजुवई, सोलसदेवीसहस्सपरिवारा । उत्तमरूवसिरीया, सक्कं रामेन्ति गुणनिलया ॥१६०॥ सो ताहि समं इन्दो, भुञ्जन्तो उत्तमं विसयसोक्खं । कालं गमेइ बहुयं, विसुद्धलेसो तिनाणीओ ॥१६१॥ सो तस्स विउलतवपुण्णसंचओ संजमेण निप्फन्नो ।न चइज्जइ वण्णेलं, अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥१६२॥ एवं अन्ने वि सुरा, जहाणुरूवं सुहं अणुहवन्ता । अच्छन्ति विमाणगया, देविसहस्सेहिं परिकिण्णा ॥१६३॥ एवं जह सोहम्मे, तह ईसाणाइएसु वि कमेणं । कप्पेसु होन्ति इन्दा, सलोगपाला सदेवीया ॥१६४॥ दो सत्त दस य चोद्दस, सतरस अट्ठार वीस बावीसा । एक्कोत्तरपरिवड्डी, अहमिन्दाणं तु तेत्तीसं ॥१६५॥ एयाइं सागराइं, कप्पाईणं सुराण परमाउं। अहमिन्दाणं निययं, हवइ इमं मोहरहियाणं ॥१६६॥ एयन्तरम्मि रामो, परिपुच्छइ साहवं कयपणामो । कम्मरहियाणं भयवं !, सिद्धाणं केरिसं सोक्खं ? ॥१६७॥ तो भणइ मुणिवरिन्दो, सुणेहि को ताण वण्णिउं सोक्खं । तीरइ नरो नराहिव, तह वि य संखेवओ सुणसु ॥१६८॥ मणुयाण जंतु सोक्खं, तं अहियं हवइ नरवरिन्दाणं । चक्कीण वि अहिययरं, नराण तह भोगभूमाणं ॥१६९॥ तत्र सौधर्मसभायाः पर्षदस्त्रिणि भवन्ति देवानाम् । समिता चण्डा यमुना मनोभिरामा रत्नचित्राः ॥१५८॥ पद्मा शिवा च सुलसाजुः श्यामा तथा विभाऽचला । कालिन्दी भानुरपि च शक्रस्य चाग्रमहिष्यः ॥१५९॥ एकैका वरयुवतिः षोडशदेवीसहस्रपरिवारा । उत्तमरुपश्रियाः शक्रं रामयन्ति गुणनिलयाः ॥१६०।। स ताभिः सममिन्द्रो भुञ्जन्नुत्तमं विषय सुखम् । कालं गमयति बहुकं विशुद्धलेश्यस्त्रिज्ञानी ॥१६१।। स तस्य विपुलतप:पुण्यसंचयः संयमेन निष्पन्नः । न शक्यते वर्णयितुमपि वर्षसहस्रकोटिभिः ।।१६२॥ एवमन्येऽपि सुरा यथानुरुपं सुखमनुभवन्तः । आसन्ते विमानगता देवीसहस्रैः परिकीर्णाः ॥१६३।। एवं यथा सौधर्मे तथेशानादिकेष्वपि क्रमेण । कल्पेषु भवन्तीन्द्राः सलोकपालाः सदेवीकाः ॥१६४|| द्वौ सप्त दश च चतुर्दश सप्तदश अष्टादश विंशतिविंशतिः । एकोत्तरपरिवृद्धिरहमिन्द्राणां तु त्रयस्त्रिंशत् ॥१६५।। एतानि सागराणि कल्पादीनां सुराणां परमायुः । अहमिन्द्राणां नियतं भवतीदं मोहरहितानाम् ॥१६६।। एतदन्तरे रामः परिपृच्छति साधुं कृतप्रणामः । कर्मरहितानां भगवन् ! सिद्धानां कीदृशं सुखम् ? ॥१६७।। तदा भणति मुनिवरेन्द्रः श्रुणु कस्तेषां वर्णयितुं सुखम् । शक्यते नरो नराधिप ! तथापि च संक्षेपतः श्रुणु ॥१६८॥ मनुष्यानां यत्तु सुखं तदधिकं भवति नरवरेन्द्राणाम् । चक्रीणोरप्यधिकतरं नराणां तथा भोगभूमीनाम् ॥१६९॥ १. सक्का रामेइ-मु० । २. गुणकिलया-प्रत्य० । ३. न वि नज्जइ व०-मु० । ४. तेत्तीसा-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ वन्तरदेवाण तओ, अहियं जोइसाण देवाणं । तह भवणवासियाणं, गुणन्तरं कप्पवासीणं ॥ १७० ॥ गेवेज्जगाण तत्तो, अहियं तु अणुत्तराण देवाणं । सोक्खं अणन्तगुणियं पुण, सिद्धाण सिवालयत्थाणं ॥ १७१॥ तिहुणे समत्थे, सोक्खं सव्वाण सुरवरिन्दाणं । तं सिद्धाण न अग्घइ, कोडिसयसहस्सभागंपि ॥ १७२ ॥ ते तत्थ अणन्तबला, अणन्तनाणी अणन्तदरिसी य। सिद्धा अणन्तसोक्खं, अणन्तकालं समणुहोन्ति ॥ १७३ ॥ संसारिणस्स जं पुण, जीवस्स सुहं तु फरिसमा दीणं । तं मोहहेउगं निययमेव दुक्खस्स आमूलं ॥१७४॥ जीवा अभव्वरासी, धम्मधम्मेसु जइ वि तवचरणं । घोरं कुणन्ति मूढा, तह वि य सिद्धिं न पावेन्ति ॥ १७५ ॥ जिणसासणं पमोत्तुं, राहव ! इह अन्नसासणरयाणं । कम्मक्खओ न विज्जइ, धणियं पि समुज्जमन्ताणं ॥ १७६॥ जं अन्नाणतवस्सी, खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं । कम्मं तं तिहि गुत्तो, खवेइ नाणी मुहुत्तेणं ॥१७७॥ भविया जिणधम्मरया, जे नाण- चरित्त - दंसणसमग्गा । सुक्कज्झाणेनिरथा, ते सिद्धि जन्ति धुयकम्मा ॥ १७८॥ एवं सुणिऊण तओ, रहुत्तमो साहवं भणइ भयवं ! । साहेहि जेण भव्वा, संसाराओ पमुच्चन्ति ॥१७९॥ एयन्तरे पवुत्तो, जिणधम्मं सयलभूसणो साहू । सम्मद्दंसणमूलं, अणेयतवनियमसंजुत्तं ॥१८०॥ जो कुण सहाणं, जीवाईयाण नवपयत्थाणं । लोइयसुरेस रहिओ, सम्मद्दिट्ठी उसो भणिओ ॥ १८९ ॥ संकाइदोसरैहिओ, कुणइ तवं सम्मदंसणोवायं । इन्दियनिरुद्धपस े, तं हवइ सया सुचारितं ॥१८२॥ पउमचरियं व्यन्तरदेवानां ततोऽधिकं तज्ज्योतिषां देवानाम् । तथा भवनवासीनां गुणान्तरं कल्पवासीनाम् ॥१७०॥ ग्रैवेयकानां ततोऽधिकन्त्वनुत्तराणां देवानाम् । सुखमनन्तगुणितं सिद्धानां शिवालयस्थानाम् ॥१७१॥ यत्त्रिभुवने समस्ते सुखं सर्वेषां सुरवरेन्द्राणाम् । तत्सिद्धानां नार्ध्यति कोटिशतसहस्रभागमपि ॥१७२॥ ते तत्रानन्तबला अनन्तज्ञानिनोऽनन्तदर्शिनश्च । सिद्धा अनन्तसुखमनन्तकालं समनुभवन्ति ॥१७३॥ संसारिणो यत्पुनर्जीवस्य सुखं तु स्पर्शादिना । तन्मोहहेतूकं नियमैव दुःखस्यामूलम् ॥१७४॥ जीवा अभव्यराशयः कुधर्मधर्मेषु यद्यपि तपश्चरणम् । घोरं कुर्वन्ति मूढास्तथापि च सिद्धिं न प्राप्नुवन्ति ॥१७५॥ जिनशासनं प्रमुच्य राघव ! इहान्यशासनरतानाम् । कर्मक्षयो न विद्यते गाढमपि समुद्यमताम् ॥१७६॥ यदज्ञानतपस्वी क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः । कर्म तत्त्रिभि र्गुप्तः क्षपति ज्ञानी मुर्हतेन ॥ १७७॥ भविका जिनधर्मरता ये ज्ञान - चारित्र - दर्शनमार्गाः । शुक्लध्यानेनिरचतास्ते सिद्धिं यान्ति धुतकर्माणः ॥१७८॥ एवं श्रुत्वा ततो रघूत्तमः साधुं भणति भगवन् ! । कथय येन भव्याः संसारात्प्रमुञ्चन्ति ॥ १७९॥ एतदन्तरे प्रोक्तो जिनधर्मं सकलभूषणः साधुः । सम्यग्दर्शनमूलमनेकतपोनियमसंयुक्तम् ॥१८०॥ यः करोति श्रद्धानं जीवादीनां नवपदार्थानाम् । लौकिकश्रुतिभी रहितः सम्यग्दृष्टिस्तु स भणितः ॥१८१॥ शङ्कादिदोषरहितः करोति तपः सम्यग्दर्शनोपायम् । इन्द्रियनिरुद्धप्रसरं तद्भवति सदा सुचारित्रम् ॥१८२॥ १. ०मादीयं । तं-प्रत्य० । २. ० सुईसु र० - मु० । ३. ०रहियं कु० - प्रत्य० । ४. ०सणो बीओ । इ० मु० । ५. ०सरं तह ह० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामधम्मसवणविहाणपव्वं - १०२/१७०-१९५ जत्थ अहिंसा सच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बब्भं च । दुविहपरिग्गहविरई, तं हवइ सया सुचारित्तं ॥ १८३॥ विणओ दया य दाणं, सीलं नाणं दमो तहा झाणं । कीरइ जं मोक्खट्टे, तं हवइ सया सुचारित्तं ॥ १८४॥ जं एवगुणं राहव !, तं चारित्तं जिणेहिं परिकहियं । विवरीयं पुण लोए, तं अचरित्तं मुणेयव्वं ॥१८५॥ चारित्तेण इमेणं, संजुत्तो दढधिई अणन्नमणो । पुरिसो दुक्खविमोक्खं, करेइ नत्थेत्थ संदेहो ॥१८६॥ न दया दमो न सच्चं न य इन्दियसंवरो न य समाही । न य नाणं न य झाणं, तत्थ उधम्मो कओ हवइ ? ॥ १८७॥ हिंसालियचोरिक्का, इत्थिरई परिगहो जहिं धम्मो । न य सो हवइ पसत्थो, न य दुक्खविमोक्खणं कुणइ ॥१८८॥ हिंसालियचोरिक्का, इत्थिरई परिगहो अविरई य । कीरइ धम्मनिमित्तं, नियमेण न होइ सो धम्मो ॥ १८९॥ दिक्खं घेत्तूण पुणो, छज्जीवनिकायमद्दणं कुणइ । धम्मच्छलेण मूढो, न य सो सिवसोग्गइं लहइ ॥ १९०॥ वह-बन्ध-वेह-तालण-दाहण - छेयाई कम्मनिरयस्स । कय- विक्कयकारिस्स उ, रन्धण - पयणाइसत्तस्स ॥१९१॥ हाणुव्वट्टण-चन्दण-मल्ला -ऽऽभरणाइभोगतिसियस्स । एवंविहस्स मोक्खो न कयाइ वि हवइ लिंगिस्स ॥१९२॥ मिच्छादंसणनिरओ, अन्नाणी कुणइ जइ वि तवचरणं । तह वि य किंकरदेवो, हवइ विसुद्धप्पओगेणं ॥१९३॥ जो पुण सम्मद्दिट्ठी, मन्दुच्छाहो वि जिणमयाभिरओ । सत्तट्ठ भवे गन्तुं, सिज्झइ सो नत्थि संदेहो ॥ १९४ ॥ उच्छाहदढमतीओ, जो निययं सीलसंजमाउत्तो । दो तिण्णि भवे गन्तुं, सो लहइ सुहेण परलोयं ॥ १९५॥ यत्राहिंसा सत्यमदत्तपरिवर्जनं च बह्म च । द्विविधपरिग्रहविरतिस्तद्भवति सदा सुचारित्रम् ॥१८३॥ विनयो दया च दानं शीलं ज्ञानं दमस्तथा ध्यानम् । क्रियते च मोक्षार्थे तद्भवति सदा सुचारित्रम् ॥१८४॥ यदेवगुणं राघव ! तच्चारित्रं जिनैः परिकथितम् । विपरितं पुन र्लोके तदचारित्रं मुणितव्यम् ॥१८५॥ चारित्रेणानेन संयुक्तो दृढधृतिरनन्यमनाः । पुरुषो दुःखविमोक्षं करोति नास्त्यत्र संदेहः ॥१८६॥ न दया दमो न सत्यं न चेन्द्रियसंवरो न च समाधिः । न च ज्ञानं न ध्यानं तत्र तु धर्मः कुतो भवति ? ॥१८७|| हिंसाऽलिकचौरिकाः स्त्रीरतिः परिग्रहो यत्र धर्मः । न च स भवति प्रशस्तो न च दुःखविमोक्षणं करोति ॥१८८॥ हिंसाऽलिकचौरिका: स्त्रीरतिः परिग्रहोऽविरतिश्च । क्रियते धर्मनिमित्तं नियमेन न भवति स धर्मः ॥ १८९ ॥ दीक्षां गृहीत्वा पुनश्च्छड्जीवनिकायमर्दनं करोति । धर्मच्छलेन मूढो न च स शिवसुगतिं लभते ॥१९०॥ वध-बन्ध-वेध-ताडन-दाहन-छेदादिकर्मनिरतस्य । क्रय-विक्रयकारिणस्तु रन्धन - पचनादिसक्तस्य ॥१९१॥ स्नानोद्वर्वतन-चन्दन-मालाऽऽभरणभोगतृषितस्य । एवं विधस्य मोक्षो न कदाचिदपि भवति लिंगिनः ॥ १९२॥ मिथ्यादर्शननिरतोऽज्ञानी करोति यद्यपि तपश्चरणम् । तथापि च किंकरदेवो भवति विशुद्धप्रयोगेण ॥१९३॥ यः पुनः सम्यग्दृष्टी मन्दोत्साहोऽपि जिनमताभिरतः । सप्ताष्टौ भवान्गत्वा सिध्यति स नास्ति संदेहः ॥ १९४॥ उत्साहदृढमतिकः यो नित्यं शीलसंयमायुक्तः । द्वौ त्रीन् भवान्गत्वा स लभते सुखेन परलोकम् ॥ १९५॥ १. ० इकामनि० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ६४५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ पउमचरियं कोइ पुण भवियसीहो एक्कभवे भाविऊण सम्मत्तं । धीरो कम्मविसोहिं, काऊण य लहइ निव्वाणं ॥१९६॥ लभ्रूण वि जिणधम्मे, बोहिं स कुडुम्बकद्दमनिहत्तो । इन्दियसुहसाउलओ, परिहिण्डइ सो वि संसारे ॥१९७॥ एत्तो कयञ्जलिउडो, परिपुच्छइ राहवो मुणिवरं तं । भयवं ! किंभविओ हं ? केण उवाएण मुच्चिस्सं ? ॥१९८॥ अन्तेउरेण समयं, पुहइं मुञ्चामि उदहिपरियन्तं । लच्छीहरस्स नेहं, एक्कं न य उज्झिउं सत्तो ॥१९९॥ अइघणनेहजलाए, दुक्खावत्ताए विसयसरियाए । वुज्झन्तस्स महामुणि ! हत्थालम्बं महं देहि ॥२०॥ भणिओ य मुणिवरेणं, राम ! इमं मुयसु सोयसंबन्धं । अवसेण भुञ्जियव्वा, बलदेवसिरी तुमे विउला ॥२०१॥ भोत्तूण उत्तमसुहं, इह मणुयभवे सुरिन्दसमसरिसं । सामण्णसुद्धकरणो, केवलनाणं पि पाविहिसि ॥२०२॥ एयं केवलिभणियं, सोउं हरिसाइओ य रोमञ्चइओ। जाओ सुविमलहियओ, वियसियसयवत्तलोयणो य पउमाभो ॥२०३॥ ॥ इइ पउमचिए रामधम्मसवणविहाणं नाम दुस्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ कोऽपि पुन भव्यसिंह एकभवे भावयित्वा सम्यक्त्वम् । धीरः कर्मविशुद्धिं कृत्वा च लभते निर्वाणम् ॥१९६।। लब्ध्वापि जिनधर्मे बोधि स कुटुम्बकर्दमनिमग्नः । इन्द्रियसुखसङ्कलः परिहिण्डते सोऽपि संसारे ॥१९७|| इतः कृताञ्जलिपुटः परिपृच्छति राघवो मुनिवरं तम् । भगवन् ! किं भविकोऽहं ? केनोपायेन मोक्ष्यामि ॥१९८॥ अन्तःपुरेणसमकं पृथिवीं मुञ्चाम्युदधिपर्यन्ताम् । लक्ष्मीधरस्य स्नेहमेकं न चोज्झितुं शक्तः ॥१९९॥ अतिघनस्नेहजलायां दु:खावर्तायां विषयसरिति । ब्रुडतो महामुने ! हस्तालम्बनं मह्यं देहि ॥२००।। भणितश्च मुनिवरेण राम ! इदं मुञ्च शोक सम्बन्धम् । अवशेन भोक्तव्या बलदेवश्रीस्त्वया विपुला ॥२०१॥ भुक्त्वोत्तमसुखमिह मनुष्यभवे सुरेन्द्रसमसदृशम् । श्रामण्यशुद्धकरणः केवलज्ञानमपि प्राप्स्यसि ॥२०२।। एतत्केवलिभणितं श्रुत्वा हर्षायितश्च रोमाञ्चितः । जातः सुविमलहृदयो विकसितशतपत्रलोचनश्च पद्मः ॥२०३।। ॥इति पद्मचरिते रामधर्मश्रवणविधानं नाम द्वयुत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. वीरो-प्रत्य० । २. त्ताए नेहसरि०-मु० । ३. मोत्तूण-मु०। ४. एवं-प्रत्य० । ५. सुणिउं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वज्जाविहाणपव्वं | विज्जाहराण राया, बिभीसणो सयलभूसणं नमिउं । पुच्छइ विम्हियहियओ, माहप्पं रामदेवस्स ॥१॥ किं राहवेण सुकयं, भयवं ! समुवज्जियं परभवम्मि ? । जेणेह महारिद्धी, संपत्तो लक्खणसमग्गो ॥२॥ एयस्स पिया सीया, दण्डारण्णे ठियस्स छिद्देणं । लङ्काहिवेण हरिया, केण व अणुबन्धजोगेणं? ॥३॥ सव्वकलागमकुसलो वि राहवो कह पुणो गओ मोहं ? । परजुवइसिहिपयङ्गो, कह जाओ रक्खसाहिवई ? ॥४॥ विज्जाहराहिराया, दसाणणो अइबलो वि संगामे । कह लक्खणेण वहिओ?, एयं साहेहि मे भयवं? ॥५॥ अह भणिउं आढत्तो, केवलनाणी इमाण अन्नभवे । वेरं आसि विहीसण!, रावण-लच्छीहराणं तु ॥६॥ इह जम्बुद्दीववरे, दाहिणभरहे तहेव खेमपुरे । नयदत्त णाम सिट्ठी, तस्स सुणन्दा हवइ भज्जा ॥७॥ पुत्तो से धणदत्तो, बीओ पुण तस्स हवइ वसुदत्तो। विप्पो उ जन्नवक्को, ताण कुमाराण मित्तो सो ॥८॥ तत्थेव पुरे वणिओ, सायरदत्तो पिया य रयणाभा । तस्स सुओ गुणनामो, धूया पुण गुणमई नामं ॥९॥ सा अन्नया कयाई, सायरदत्तेण गुणमई कन्ना । जोव्वण-गुणाणुरूवा, दिन्ना धणदत्तनामस्स ॥१०॥ तत्थेव पुरे सेट्टी, सिरिकन्तो नाम विस्सुओ लोए । सो मग्गइ तं कन्नं, जोव्वण-लायण्णपरिपुण्णं ॥११॥ १०३. रामपूर्वभव-सीताप्रव्रज्याविधानपर्वम् विधाधराणां राजा बिभीषणः सकलभूषणं नत्वा । पृच्छति विस्मितहृदयो माहात्म्यं रामदेवस्य ॥१॥ किं राघवेन सुकृतं भगवन् ! समुपार्जितं परभवे ? । येनेह महद्धि संप्राप्तो लक्ष्मणसमग्रः ॥२॥ एतस्य प्रिया सीता दण्डारण्ये स्थितस्य छिद्रेण । लङ्काधिपेन हृता केन वानुबन्धयोगेन ? ॥३॥ सर्वकलाऽऽगमकुशलोऽपि राघवः कथं पुन र्गतो मोहम् ? । परयुवतिशिखिपतङ्गः कथं जातो राक्षसाधिपतिः ? ॥४॥ विद्याधराधिराजा दशाननोऽतिबलोऽपि संग्रामे । कथं लक्ष्मणेन हतः ? एतत्कथय मे भगवन् ! ॥५॥ अथ भणितुमारब्धः केवलज्ञान्येतयोरन्यभवे । वैरमासीबिभीषण ! रावण-लक्ष्मीधरयोस्तु ॥६॥ इह जम्बूद्वीपवरे दक्षिणभरते तथैव क्षेमपुरे । नयदत्तनाम श्रेष्ठी तस्य सुनन्दा भवति भार्या ॥७॥ पुत्रस्तस्य धनदत्तो द्वितीयः पुनस्तस्य भवति वसुदत्तः । विप्रस्तु याज्ञवल्क्यस्तयोः कुमारयो मित्रः सः ॥८॥ तत्रैव पुरे वणिक् सागरदत्तः प्रिया च रत्नाभा । तस्य सुतो गुणनामा दुहिता पुन र्गुणमती नामा ॥९॥ साऽन्यदा कदाचित्सागरदत्तेन गुणमती कन्या । यौवन-गुणानुरुपा दत्ता धनदत्तनाम्ने ॥१०॥ तत्रैव पुरे श्रेष्ठी: श्रीकान्तो नाम विश्रुतो लोके । स मार्गयति तां कन्यां यौवनलावण्यपरिपूर्णाम् ॥११॥ १. साहेसि-प्रत्य० । २. अह भाणिउं पयत्तो-मु० । ३. ०दत्तो नाम धणी, त०-मु० । ४. विप्पो य जण्णवक्को होइ कु०-प्रत्य० । ५. अह अन्नया प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ पउमचरियं धणदत्तस्सऽवहरिउं, सा कन्ना तीए अत्थलुद्धाए । रयणप्पभाए दिन्ना, गूढं सिरिकन्तसेट्ठिस्स ॥१२॥ नऊण जन्नवक्को, त गुणमइसन्तियं तुोत्तिन्तं । साहेइ अपरिसेसं, सिग्धं वसुदत्तमित्तस्स ॥१३॥ तं सोऊणं रुट्ठो, वसुदत्तो नीलवत्थपरिहाणो । वच्चइ असिवरहत्थो, रत्तिं जत्थऽच्छए सेट्टी ॥१४॥ दिवो उज्जाणत्थो, सेट्टी आयारिओ ठिओ समुहो । पहओ य असिवरेणं, तेण विसो मारिओ सत्तू ॥१५॥ एवं ते दो वि जणा, अन्नोन्नं पहणिऊण कालगया । जाया उ विज्झापाए, कुरङ्गया पुव्वदुकएणं ॥१६॥ भाइमरणाऽइदुहिओ, धणदत्तो दुज्जणेहिं तं कन्नं । पडिसिद्धो य घराओ, विणिग्गओ भमइ परदेसं ॥१७॥ मिच्छत्तमोहियमई, सा कन्ना विहिवसेण मरिऊणं । तत्थुप्पन्ना हरिणी, जत्थ मया ते परिवसन्ति ॥१८॥ तीए कएण ते पुण, कुरङ्गया घाइऊण अन्नोन्नं । घोराडवीए जाया, दाढी कम्माणुभावेणं ॥१९॥ हत्थी य महिस-वसहा, पवङ्गमा दीविया पुणो हरिणा । घायन्ता अन्नोन्नं, दो वि रुरू चेव उप्पन्ना ॥२०॥ सलिले थले य पुणरवि, पुव्वं दढबद्धवेरसंपण्णा । उप्पज्जन्ति मरन्ति य, घायन्ता चेव अन्नोन्नं ॥२१॥ अह सो भाइविओगे, धणदत्तो वसुमइं परिभमन्तो । तण्हाकिलामियङ्गो, रत्तिं समणासमं पत्तो ॥२२॥ सो भणइ मुणिवरेते, देह महं पाणियं सुतिसियस्स । सयलजगज्जीवहिया, अहियं धम्मप्पिया तुब्भे ॥२३॥ तं एक्को भणइ मुणी, संथाविन्तो य मुहरवयणेहिं । अमयं पि न पायव्वं, भद्द ! तुमे किं पुणो सलिलं ॥२४॥ धनदत्तस्यापहत्य सा कन्या तयाऽर्थलुब्धया । रत्नप्रभा दत्ता गुप्तं श्रीकान्तश्रेष्ठिने ॥१२॥ ज्ञात्वा याज्ञवल्क्यस्तद्गुणमतीसत्कं तु वृत्तान्तम् । कथयत्यपरिशेषं शीघ्रं वसुदत्तमित्रस्य ॥१३।। तच्छुत्वा रुष्टो वसुदत्तो नीलवस्त्रपरिधानः । व्रजत्यसिवरहस्तो रात्रिं यत्रास्ते श्रेष्ठी ॥१४॥ दृष्ट उद्यानस्थ: श्रेष्ठ्याकारितः स्थितः संमुखः । प्रहतश्चासिवरेण तेनापि स मारितः शत्रुः ॥१५॥ एवं तौ द्वावपि जनावन्योन्यं प्रहत्य कालगतौ । जातौतु विंध्यापादे कुरगौ पूर्वदुष्कृतेन ॥१६॥ भ्रातृमरणाःखितो धनदत्तो दुर्जनैस्तां कन्याम् । प्रतिषिद्धश्च गृहाद्विनिर्गतो भ्रमति परदेशम् ॥१७॥ मिथ्यात्वमोहितमती सा कन्या विधिवशेन मृत्वा । तत्रोत्पन्ना हरिणी यत्र मृगौ तौ परिवसतः ॥१८॥ तस्याः कृतेन तौ पुनः कुरङ्गौ घातयित्वान्योन्यम् । घोराटव्यां जातौ दाढी कर्मानुभावेन ॥१९॥ हस्ती च महिष-वृषभौ प्लवङ्गमौ दीपिको पुन र्हरिणौ । घातयन्तावन्योन्यं द्वावपि रुर्वेवोत्पन्नौ ॥२०॥ सलिले स्थले च पुनरपि पूर्वं दृढबद्धवैरसंपन्नौ । उत्पद्येते म्रियेते च घातयन्तावेवान्योन्यम् ॥२१॥ अथ स भ्रातृवियोगे धनदत्तो वसुमती परिभ्रमन् । तृषाक्लान्ताङ्गो रात्रिं श्रमणाश्रमं प्राप्तः ॥२२॥ स भणति मुनिवरांस्तान् देहि मम पानीयं सुतृषितस्य । सकलजगज्जीवहिता अधिकं धर्मप्रिया यूयम् ॥२३॥ तमेको भणति मुनिः संस्थापयंश्च मधुरवचनैः । अमृतमपि न पातव्यं भद्र ! त्वां किं पुनः सलिलम् ॥२४॥ १. ०या । उप्पइया विंझाए-प्रत्य० । २. ०रसंबद्धा । उ०-मु० । ३. ०गजीवहियया-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुव्वभव-सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं - १०३ / १२-३८ मच्छी-कीड-पयङ्गा, केसा अन्नं पि जं असुज्झं तं । भुञ्जन्तएण रति, तं सव्वं भक्खियं नवरं ॥ २५ ॥ अत्थमि दिवसयरे, जो भुञ्जइ मूढभावदोसेणं । सो चउगइवित्थिण्णं, संसारं भइ पुणरुत्तं ॥२६॥ लिङ्गी व अलिङ्गी वा जो भुञ्जइ सव्वरीसु रसगिद्धो । सो न य सोग्गइगमणं, पावइ अचरित्तदोसेणं ॥२७॥ जे सव्वरी पुरिसा, भुञ्जन्तिह सीलसंजमविहूणा । महु-मज्ज-मंसनिरया, ते जन्ति मया महानरयं ॥ २८ ॥ हीणकुलसंभवा वि हु, पुरिसा उच्छन्नदार - धण-सयणा । परपेसणाणुकारी, भुंतंत्ता स्यणिसमयम्मि ॥२९॥ करचरणफुट्टकेसा, बीभच्छा दूहवा दरिद्दा य । तण-दारुजीविया ते, जेहि य भुत्तं वियालम्मि ॥३०॥ जे पुण जिणवरधम्मं, घेत्तुं महु-मंस-मज्जविरइं च । न कुणन्ति राइभत्तं, ते हुन्ति सुरा महिड्डीया ॥३१॥ ते तत्थ वरविमाणे, देवीसयपरिमिया विसयसोक्खं । भुंजन्ति दीहकालं, अच्छरसुग्गीयमाहप्पा ॥३२॥ चइऊण इहायाया, नरवइवंसेसु खायकित्तीस । उवभूञ्जिऊण सोक्खं पुणरवि पावन्ति सुरसरिसं ॥३३॥ पुणरवि जिणवरधम्मे, बोहिं लहिऊण गहियवय - नियमा । काऊण तवमुयारं, पाविति सिवालयं वीरा ॥३४॥ अइआउरेण वि तुमे, भद्द ! वियाले न चेव भोत्तव्वं । मंसं पि वज्जियव्वं, आमूलं सव्वदुक्खाणं ॥ ३५ ॥ तं साहवस्स वयणं, सुणिऊणं सावओ तओ जाओ । कालगओ उववन्नो, सोहम्मे सिरिधरो देवो ॥३६॥ सो हार-कय-कुण्डल- मउडालंकारभूसियसरीरो । सुरगणियामज्झगओ, भुञ्जइ भोगे सुरिन्दो व्व ॥ ३७॥ अह सो चुओ समाणो, महापुरे धारिणीए मेरूणं । 'सेट्टीण तओ जाओ, जियपउमरुइ त्ति नामेणं ॥३८॥ मक्षी - कीड - पतङ्गाः केशा अन्यदपि यदशुद्धं तम् । भुञ्जमानेन रात्रिं तत्सर्वं भक्षितं नवरम् ॥ २५॥ अस्तमिते दिवसकरे यो भुङ्क्ते मूढभावदोषेण । स चतुर्गतिविस्तीर्ण संसारं भ्रमति पुनरुक्तम् ॥२६॥ लिड्गी वाऽलिड्गी वा यो भुङ्क्ते शर्वरीषु रसगृद्धः । स न च सुगतिगमनं प्राप्नोत्यचारित्रदोषेण ॥२७॥ ये शर्वरीषु पुरुषा भुञ्जन्ते इह शीलसंयमविहीनाः । मधु-मद्य मांसनिरतास्ते यान्ति मृता महानरकम् ॥२८॥ नकुलसंभवा अपि खलु पुरुषा उच्छन्नदारधनस्वजनाः । परप्रेषणानुकारिणो भुज्जमाना रजनीसमये ॥ २९॥ कर-चरणस्फुटकेशा बीभत्सा दूरूपा दारिद्राश्च । तृणदारुजीवितास्ते यैश्च भुक्तं विकाले ||३०|| ये पुन जिनवरधर्मं गृहीत्वा मधुमांसमद्यविरतिं च । न कुर्वन्ति रात्रिभक्तं ते भवन्ति सुरा महर्द्धिकाः ॥३१॥ ते तत्र वरविमाने देवीशतपरिमिता विषयसुखम् । भुञ्जन्ति दीर्घकालमप्सरः सूद्गीतमाहात्म्याः ||३२|| त्यक्त्वेहाऽऽयाता नरपतिवंशेषु ख्यातकीर्तिषु । उपभुज्य सुखं पुनरपि प्राप्नुवन्ति सुरसदृशम् ॥३३॥ पुनरपि जनवरधर्मे बोधि लब्ध्वा गृहीत - व्रतनियमाः । कृत्वा तप उदारं प्राप्नुवन्ति शिवालयं वीराः ||३४|| अत्यातुरेणापि त्वया भद्र ! विकाले न भोक्तव्यम् । मांसमपि वर्जितव्यमामूलं सर्वदुःखानाम् ||३५|| तत्साधोर्वचनं श्रुत्वा श्रावकस्ततो जातः । कालगत उत्पन्न: सौधर्मे श्रीधरो देवः ||३६|| स हार-कटक - कुण्डल- मुकुटालङ्कारभूषितशरीरः । सुरगणिकामध्यगतो भुनक्ति भोगान् सुरेन्द्र इव ||३७|| अथ स च्युतः सन् महापुरे धारिण्यां मेरुणा । श्रेष्ठिना ततो जातो जितपद्मरुचिरिति नाम्ना ||३८|| १. इहं आया - प्रत्य० । २. धीरा - प्रत्य० । ३. सिट्ठीतणओ जाओ - प्रत्य० । ६४९ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० पउमचरियं तस्स पुरस्साहिवई, छत्तच्छाउ त्ति नाम नरवसभो । भज्जा से सिरिकन्ता, सिरि व्व सा रूवसारेणं ॥३९॥ अह अन्नया कयाई, गोटुं गच्छन्तएण जरवसभो । दिट्ठो पउमरुईणं, निच्चेट्ठो महियलत्थो सो ॥४०॥ अह सो तुरङ्गमाओ, ओयरिउं तस्स देइ कारुणिओ। पञ्चनमोक्कारमिणं, मुयइ सरीरं तओ जीवो ॥४१॥ सो तस्स पहावेणं, सिरिकन्ताए य कुच्छिसंभूओ। छत्तच्छायस्स सुओ, वसहो वसहद्धओ नामं ॥४२॥ अह सो कुमारलीलं, अणुहवमाणो गओ तमुद्देसं । जत्थ मओ जरवसभो, जाओ जाईसरो ताहे ॥४३॥ सी-उण्ह-छूहा-तण्ह-बन्धण-वहणाइयं वसहदुक्खं । सुमरड् तं च कुमारो, पञ्चनमोक्कारदायारं ॥४४॥ उप्पन्नबोहिलाभो, कारावेऊण जिणहरं तुझं । ठावेइ तत्थ बालो, णियअणुहुयचित्तियं पडयं ॥४५॥ भणइ य निययमणुस्सा, इमस्स चित्तस्स जो उ परमत्थं । जाणिहिइ निच्छएणं, तं मज्झ कहिज्जह तुरन्ता ॥४६॥ अह वन्दणाहिलासी, पउमरुई तं जिणालयं पत्तो ।अभिवन्दिऊण पेच्छइ, तं चित्तपडं विविहवण्णं ॥४७॥ जाव य निबद्धदिट्ठी, तं पउमरुई निएइ चित्तपडं । ताव पुरिसेहि गन्तुं, सिटुंचिय रायपुत्तस्स ॥४८॥ सो मत्तगयारूढो, तं जिणभवणं गओ महिड्डीओ।ओयरिय गयवराओ, पउमरुइं पणमइ पइट्ठो ॥४९॥ चलणेसु निवडमाणं, रायसुयं वारिऊण पउमरुई । साहेइ निरवसेसं, तं गोदुक्खं बहुकिलेसं ॥५०॥ तो भणइ रायपुत्तो, सो हं वसहो तुह प्पसाएणं । जाओ नरवइपुत्तो, पत्तो य महागुणं रज्जं ॥५१॥ तस्य पुरस्याधिपतिश्च्छत्रच्छाय इति नाम नरवृषभः । भार्या तस्य श्रीकान्ता श्रीरिव सा रुपसारेण ॥३९।। अथान्यदा कदाचिद्गोष्टं गच्छता जरवृषभः । दृष्ट: पद्मरुचिणा निश्चेष्टो महितलस्थः सः ॥४०॥ अथ स तुरङ्गमादवतीर्य तस्मै ददाति कारुणिकः । पञ्चनमस्कारमिदं मुञ्चति शरीरं ततो जीवः ॥४१।। स तस्य प्रभावेण श्रीकान्तायाश्च कुक्षिसंभूतः । छत्रच्छायस्य सुतो वृषभो वृषभध्वजो नाम ॥४२॥ अथ स कुमारलीलामनुभूयमानो गतस्तमुद्देशम् । यत्र मृतो जरवृषभो जातो जातिस्मरस्तदा ॥४३॥ शीतोष्णक्षुधातृषाबन्धनवधनादिकं वृषभदुःखम् । स्मरति तच्च कुमार: पञ्चनमस्कारदातारम् ॥४४॥ उत्पन्न बोधिलाभः रचयित्वा जिनगृहं तुङ्गम् । स्थापयति तत्र बालो निजानुभूतचित्रितं पटम् ॥४५॥ भणति च निजमनुष्यानेतस्य चित्रस्य यस्तु परमार्थम् । ज्ञास्यति निश्चयेन तन्मम कथयत त्वमाणः ॥४६॥ अथ वन्दनाभिलाषी पद्मरुचिस्तं जिनालयं प्राप्तः । अभिवन्द्य पश्यति तं चित्रपटं विविधवर्णम् ॥४७॥ यावच्च निबद्धदृष्टी तं पद्मरुचि:पश्यति चित्रपटम् । तावत्पुरुषै गत्वा शिष्टमेव राजपुत्रस्य ॥४८॥ स मत्तगजारुढस्तं जिनभवनं गतो महर्धिकः । अवतीर्य गजवरात्पद्मरुचिं प्रणमति प्रहष्टः ॥४९॥ चरणयो निपतन्तं राजसुतं वारयित्वा पद्मरुचिः । कथयति निरवशेषं तद्गोदुःखं बहुक्लेशम् ॥५०॥ ततो भणति राजपुत्रः सोऽहं वृषभस्तवप्रसादेन । जातो नरपितपुत्रः प्राप्तश्च महागुणं राज्यम् ॥५१॥ १. ओयरियं त०-प्रत्य० । २. निययभवचित्तियं-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुव्वभव-सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं -१०३/३९-६४ ६५१ तं चिय न कुणइ माया, नेय पिया नेव बन्धवा सव्वे । जं कुणइ सप्पसन्नो, समाहिमरणस्स दायारो ॥५२॥ अह भणइ तं कुमारो, भुञ्जसु रज्जं इमं निरवसेसं । पउमरुइ ! निच्छएणं, मज्झ वि आणं तुमं देन्तो ॥५३॥ एवं ते दो वि जणा, परमिड्डिजुया सुसावया जाया । देवगुरुपूयणरया, उत्तमसम्मत्तदढभावा ॥५४॥ वसहद्धओ कयाई, समाहिबहुलं च पाविउं मरणं । उववन्नो ईसाणे, देवो दिव्वेण रूवेणं ॥५५॥ पउमरुई वि समाहीमरणं लभ्रूण सुचरियगुणेणं । तत्थेव य ईसाणे, महिड्डिओ सुरवरो जाओ ॥५६॥ तं अमरपवरसोक्खं, भोत्तूण चिरं तओ चुयसमाणो । मेरुस्स अवरभाए, वेयड्डे पव्वए रम्मे ॥५७॥ नयरे नन्दावत्ते, कणयाभाकुच्छिसंभवो जाओ । नन्दीसरस्स पुत्तो, नयणाणन्दो त्ति नामेणं ॥५८॥ भोत्तूण खयररिद्धिं, पव्वज्जमुवागओ य निग्गन्थो । चरिय तवं कालगओ, माहिन्दे सुरवरो जाओ ॥५९॥ पञ्चिन्दियाभिरामे, तत्थ वि भोगे कमेण भोत्तूणं । चइओ खेमपुरीए, पुव्वविदेहे सुरम्माए ॥६०॥ सो विउलवाहणसुओ, जाओ पउमावईए देवीए । सिरिचन्दो त्ति कुमारो, जोव्वण-लायण्ण -गुणपुण्णो ॥१॥ कन्ताहिं परिमिओ सो, भुञ्जन्तो उत्तमं विसयसोक्खं । न य जाणइ वच्चन्तं, कालं दोगुन्दुओ चेव ॥६२॥ अह अन्नया मुणिन्दो, समाहिगुत्तो ससङ्घपरिवारो । पुहइं च विहरमाणो, तं चेव पुरिं समणुपत्तो ॥३॥ सोऊण मुणिवरं तं, उज्जाणे आगयं पुहइपालो । वच्चइ तस्स सयासं, नरवइचक्केण समसहिओ ॥६४॥ तदेव न करोति माता नैव पिता नैव बान्धवाः सर्वे । यत्करोति सुप्रसन्नः समाधिमरणस्य दाता ॥५२॥ अथ भणति तं कुमारो भुग्धि राज्यमिदं निरवशेषम् । पद्मरुचे ! निश्चयेन मह्यमाप्याज्ञां त्वं ददन् ॥५३॥ एवं तौ द्वावपि जनौ परमर्द्धियुक्तौ सुश्रावको जातौ । देवगुरुपूजनरतावुत्तमसम्यक्त्वदृढभावौ ॥५४॥ वृषभध्वजः कदाचित्समाधिबहुलं च प्राप्य मरणम् । उत्पन्न ईशाने देवो दिव्येन रुपेण ॥५५॥ पद्मरुचिरपि समाधिमरणं लब्ध्वा सुचरितगुणेन । तत्रैव चेशाने महर्द्धिकः सुरवरो जातः ॥५६॥ तदमरप्रवरसुखं भुक्त्वा चिरं ततश्च्युतः सन् । मेरोरपरभागे वैताढये पर्वते रम्ये ॥५७॥ नगरे नन्दावर्ते कनकाभाकुक्षिसंभवो जातः । नन्दीश्वरस्य पुत्रो नयनानन्द इति नाम्ना ॥५८|| भुक्त्वा खेचरद्धिं प्रव्रज्यामुपागतश्च निर्ग्रन्थः । चरित्वा तपः कालगतो माहेन्द्रे सुरवरो जातः ।।५९।। पञ्चेन्द्रियाभिरामांस्तत्रापि भोगान्क्रमेण भुक्त्वा । च्युतः क्षेमपुर्यां पूर्वविदेहे सुरम्यायाम् ॥६०॥ स विपुलवाहन सुतो जातः पद्मावत्या देव्याः । श्रीचन्द्र इति कुमारो यौवनलावण्यगुणपूर्णः ॥६१।। कान्ताभिः परिवृतः स भुञ्जन्नुत्तमं विषयसुखम् । न च जानाति व्रजन्तं कालं दोगुन्दुक इव ॥६२।। अथान्यदा मुनीन्द्रः समाधिगुप्तः ससङ्घपरिवारः । पृथिवीं च विहरमाणस्तामेव पुरिं समनुप्राप्तः ॥६३|| श्रुत्वा मुनिवरं तमुद्यान आगतं पृथिवीपालः । व्रजति तस्य सकाशं नरपतिश्चक्रेण समसहितः ॥६४|| १. नेय व०-प्रत्य० । २. व उ ई०-मु० । ३. ०ण खयरसिद्धि-मु०। ४. ०यन्नपडिपुन्नो-प्रत्य० । ५. पुरं स०-मु० । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ पउमचरियं दट्ठण साहवं तं, अवइण्णो गयवराओ सिरिचन्दो । पणमइ पहट्ठमणसो, समाहिगुत्तं सपरिवारो ॥६५॥ कयसंथवो निविट्ठो, दिनासीसो समं नरिन्देहि । राया पुच्छइ धम्मं, कहेइ साहू वि संखेवं ॥६६॥ जीवो अणाइकालं, हिण्डन्तो बहुविहासु जोणीसु । दुक्खेहि माणुसत्तं, पावइ कम्माणुभावेणं ॥६७॥ पत्तो वि माणुसत्तं, विसयसुहासायलोलुओ मूढो । सकलत्तनेहनडिओ, न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥६८॥ इन्दधणु-फेण-बुब्बुय-संझासरिसोवमे मणुयजम्मे । जो न कुणइ जिणधम्मं, सो हुमओ वच्चए नरयं ॥६९॥ होइ महावेयणियं, नरए हण-दहण-छिन्दणाईयं । जीवस्स सुइरकालं, निमिसं पि अलद्धसुहसायं ॥७०॥ तरियाण दमण-बन्धण-ताडण-तण्हा-छुहाइयं दुक्खं । उप्पज्जइ मणुयाण वि, बहुरोगविओगसोगकयं ॥७१॥ भोत्तूण वि सुरलोए, विसयसुहं उत्तमं चवणकाले । अणुहवइ महादुक्खं, जीवो संसारवासत्थो ॥७२॥ जह इन्धणेसु अग्गी, न य तिप्पइ नइजलेसु वि समुद्दो । तह जीवो न य तिप्पइ, विउलेसु वि कामभोगेसु ॥७३॥ जो पवरसुहेसु वि, न य तित्तिं उवगओ खलो जीवो । सो कह तिप्पइ इण्हि, माणुसभोगेसु तुच्छेसु ॥७४॥ तम्हा नाऊण इमं, सुमिणसमं अद्भुवं चलं जीयं । नरवइ ! करेहि धम्मं, जिणविहियं दुक्खमोक्खट्टे ॥५॥ सायार-निरायारं, धम्मं जिणदेसियं विउपसत्थं । सायारं गिहवासी, कुणन्ति साहू निरायारं ॥६॥ हिंसा-ऽलिय-चोरिक्का-परदार-परिग्गहस्स य नियत्ती । एयाइं सावयाणं, अणुव्वयाइं तु भणियाइं ॥७७॥ दृष्ट्वा साधुं तमवतीर्णो गजवराच्छ्रीचन्द्रः । प्रणमति पहष्टमनाः समाधिगुप्तं सपरिवारः ॥६५॥ कृतसंस्तवो निविष्टो दत्ताशीषः समं नरेन्द्रैः । राजा पृच्छति धर्मं कथयति साधुरपि संक्षेपम् ॥६६॥ जीवोऽनादिकालं हिण्डमानोबहुविधासु योनिषु । दुःखैः मानुष्यत्वं प्राप्नोति कर्माणुभावेन ॥६७।। प्राप्तोऽपि मानुष्यत्वं विषयसुखाशातलोलुपो मूढः । सकलत्रस्नेहनटितो न करोति जिनदेशितं धर्मम् ॥६८॥ इन्द्रधनु-फेन-बुद्द-संध्यासदृशोपमे मनुष्यजन्मनि । यो न करोति जिनधर्म स खलु मृतो व्रजेन्नरकम् ॥६९॥ भवति महावेदनीयं नरके हन-दहन-छिन्दनादीकम् । जीवस्य सुचिरकालं निमेषमप्यलब्धसुखशातम् ।।७०॥ तिरश्चां दमन बन्धन-ताडन-तृष्णा-क्षुधादिकं दुःखम् । उत्पद्यते मनुष्याणामपि बहुरोगवियोगशोककृतम् ॥७१।। भुक्त्वापि सुरलोके विषयसुखमुत्तमं च्यवनकाले । अनुभवति महादुःखं जीवः संसारवासस्थः ॥७२॥ यथैन्धनैरग्नि न च तृप्यति नदीजलैरपि समुद्रः । तथा जीवो न च तृप्यति विपुलैरपि कामभोगैः ॥७३।। यः प्रवरसुरसुखैरपि न च तृप्तिमुपगतः खलो जीवः । स कथं तृप्यतीदानीं मनुष्यभोगैस्तुच्छैः ॥७४।। तस्माज्ज्ञात्वेदं स्वप्नसममध्रुवं चलं जीवितम् । नरपते ! कुरु धर्मं जिनविहितं दुःखमोक्षर्थे ।।७५॥ साकार-निराकारं धर्मं जिनदेशितं विदुप्रशस्तम् । साकारं गृहवासिनः कुर्वन्ति साधवो निराकारम् ॥७६।। हिंसाऽलिकचोरिकापरदारपरिग्रहस्य च निवृत्तिः । एतानि श्रावकानामणुव्रतानि तु भणितानि ॥७॥ १. सुविण०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ रामपुव्वभव-सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं -१०३/६५-९० एयाई चेव पुणो, महव्वयाई हवन्ति समणाणं । बहुपज्जयाई नरवइ !, संसारसमुद्दतरणाइं ॥७८॥ सावयधम्मं काऊण निच्छिओ लहइ सुरवरमहिड्डिं। समणो पुण घोरतवो, पावइ सिद्धि न संदेहो ॥७९॥ दुविहो वि तुज्झ सिट्ठो, धम्मो अणुओ तहेव उक्कोसो । एयाणं एक्कयर, गेण्हसु य ससत्तिजोगेणं ॥८०॥ तं मुणिवरस्स वयणं, सिरिचन्दो निसुणिऊण पडिबुद्धो । तो देइ निययरज्जं, सुयस्स धिइकन्तनामस्स ॥८१॥ मोत्तूण पणइणिजणं, रुयमाणं महुरमञ्जुलपलावं । सिरिचन्दो पव्वइओ, पासम्मि समाहिगुत्तस्स ॥८२॥ उत्तमवयसंजुत्तो, तिजोगधारी विसुद्धसम्मत्तो । चारित्त-नाण-दंसण-तव-नियमविभूसियसरीरो ॥८३॥ सज्झाय-झाणनिरओ, जिइन्दिओ समिइ-गुत्तिसंजुत्तो । सत्तभयविप्पमुक्को, सए वि देहे निरावेक्खो ॥८४॥ छट्ठ-ऽट्ठमाइएहिं, जेमन्तो मासखमणजोगेहिं । विहरड़ मुणी महप्पा, कुणमाणो जज्जरं कम्मं ॥८५॥ एवं भावियकरणो, सिरिचन्दो दढसमाहिसंजुत्तो । कालगओ उववन्नो, इन्दो सो बम्भलोगम्मि ॥८६॥ तत्थ विमाणे परमे, चूडामणिमउडकुण्डलाभरणो। 'सिरि-कित्तिलच्छिनिलओ, निदाहरविसन्निभसरीरो ॥८७॥ मणनयणहारिणीहिं, देवीहिं परिमिओ महिड्डीओ । भुञ्जइ विसयसुहं सो, सुराहिवो बम्भलोगत्थो ॥८८॥ एवं सो धणदत्तो, तुज्झ बिहीसण' ! कमेण परिकहिओ। संपइ साहेमि फुडं, घगयं वसुदत्तसेट्ठीणं ॥८९॥ नयरे मिणालकुण्डे, परिवसइ नराहिवो विजयसेणो । नामेण रयणचूला, तस्स गुणालंकिया भज्जा ॥१०॥ एतान्येव पुन महाव्रतानि भवन्ति श्रमणानाम् । बहुपर्यायाणि नरपते ! संसारसमुद्रतरणानि ॥७८॥ श्रावकधर्मं कृत्वा निश्चितो लभते सुरवरमहद्धिम् । श्रमणः पुनः घोरतपाः प्राप्नोति सिद्धि न संदेहः ॥७९॥ द्विविधोऽपि तव शिष्टो धर्मो ऽनुकस्तथैवोत्कृष्टः । एतयोरेकतरं गृहाण च स्वशक्तियोगेन ॥८०॥ तन्मुनिवरस्य वचनं श्रीचन्द्रो निश्रुत्य प्रतिबुद्धः । तदा ददाति निजराज्यं सुताय धृतिकान्तनाम्नः ॥८१॥ मुक्त्वा प्रणयिनिजनं रुदन्तं मधुरमञ्जुलप्रलापम् । श्रीचन्द्रः प्रव्रजितः पार्श्वे समाधिगुप्तस्य ॥८२॥ उत्तमव्रतसंयुक्तस्त्रियोगधारी विशुद्धसम्यक्त्वः । चारित्र-ज्ञान-दर्शन-तपोनियमविभूषित शरीरः ॥८३॥ स्वाध्यायध्याननिरतो जितेन्द्रियः समिति-गुप्तिसंयुक्तः । सप्तभयविप्रमुक्तः स्वेऽपि देहे निरपेक्षः ॥८४।। षष्टाष्टमादिभि जिनम्माणो मासक्षपणयोगैः । विहरति मुनि महात्मा क्रियमाणो जर्जरं कर्म ॥८५।। एवं भावितकरणः श्रीचन्द्रो दृढसमाधिसंयुक्तः । कालगत उत्पन्न इन्द्रः स ब्रह्मलोके ॥८६॥ तत्र विमाने परमे चूडामणिमुकुटकुण्डलाभरणः । श्री-कीर्ति-लक्ष्मीनिलयो निदाघरविसंनिभशरीरः ॥८७॥ मनोनयनहारिणिभि देविभिः परिवृतो महर्द्धिकः । भुनक्ति विषयसुखं सः सुराधिपो ब्रह्मलोकस्थः ॥८८॥ एवं स धनदत्तस्तव बिभीषण ! क्रमेण परिकथितः । संप्रति कथयामि स्फुटं प्रकटं वसुदत्तश्रेष्ठिनम् ॥८९॥ नगरे मृणालकुण्डे परिवसति नराधिपो विजयसेनः । नाम्ना रत्नचूला तस्य गुणालकिता भार्या ॥१०॥ १. सिरि-कन्तिल०-मु० । २.०ण मए वि परि०-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ पउमचरियं पुत्तो य यवज्जकंचू, तस्स वि महिला पिया उ हेमवई । तीए सो सिरिकन्तो, जाओ पुत्तो अह संयभू ॥ ९१ ॥ जिणसासणाणुरत्तो, पुरोहिओ' तस्स होइ सिरिभूई । तस्स वि गुणाणुरूवा, सरस्सई नाम वरमहिला ॥९२॥ आसि गुणमई सा, भमिउं नाणाविहासु जोणीसु । इत्थीयकम्मनडिया, उत्पन्ना गयवहू रण्णे ॥९३॥ मन्दाइणीए पङ्के, तीए निमग्गाए जीयसेसाए । अह देइ कण्णजावं, तरङ्गवेगो गयणगामी ॥९४॥ तत्तोसा कालगया, सरस्सईकुच्छिसंभवा जाया । वेगवई वरकन्ना, दुहिया सिरिभूङ्गविप्पस्स ॥ ९५ ॥ असा या गेहे, साहुं भिक्खगयं उवहसन्ती । पियरेण वारिया निच्छएण तो साविया जाया ॥९६॥ अइरूविणीए तीए, कएण उक्कण्ठिया पुहइपाला । जाया मयणावत्था, सव्वे वि सयंभुमादीया ॥ ९७ ॥ जइ वि य कुवेरसरिसो, मिच्छादिट्ठी नरो हवइ लोए। तह वि य तस्स कुमारी, न देमि तो भणइ सिरिभूई ॥ ९८ ॥ रुट्ठो सयंभुराया, सिरिभूइं मारिऊण वेगवई । आयड्डइ रयणीए, पुणो वि अवगूहइ रुयन्ती ॥९९॥ कलुणाई विलवाणी, नेच्छन्ती चेव सबलकारेणं । रमिया वेगवई सा, सयंभुणा मयणमूढेणं ॥१००॥ ट्ठा भइ ओ सा, पियरं वहिऊण जं तुमे रमिया । उप्पज्जेज्ज वहत्थे, पुरिसाहम ! तुज्झ परलोए ॥१०१॥ अरिकन्ताए सयासे, वेगवई दिक्खिया समियपावा । जाया संवेगमणा, कुणइ तवं बारसवियप्पं ॥ १०२ ॥ घोरं तवोविहाणं, काऊण मया समाहिणा तत्तो । बम्भविमाणे, देवी जाया अइललियरूवा सा ॥ १०३ ॥ पुत्रश्च वज्रकंचूकस्तस्यापि महिला प्रिया तु हेमवती । तस्याः स श्रीकान्तो जातः पुत्रोऽथ स्वयंभूः ॥९१॥ जिनशासनानुरक्तः पुरोहितस्तस्य भवति श्रीभूतिः । तस्यापि गुणानुरुपा सरस्वती नाम वरमहिला ॥९२॥ याssसीद्गुणमती सा भ्रान्त्वा नानाविधासु योनिषु । स्त्रीकर्मनटितोत्पन्ना गजवधुररण्ये ॥९३॥ मन्दाकिन्याः पड्के तस्यै निमग्नायै जीवशेषायै । अथ ददाति कर्णजापं तरङ्गवेगो गगनगामी ॥९४॥ ततः सा कालगता सरस्वती कुक्षिसंभवा जाता । वेगवती वरकन्या दुहिता श्रीभूतिविप्रस्य ॥ ९५ ॥ अथ सा कदाचिद्गृहे साधुं भिक्षागतमुपहसन्ती । पित्रा वारिता निश्चयेन तदा श्राविका जाता ॥९६॥ अतिरुपस्विन्यास्तस्याः कृतेनोत्कण्ठिता पृथिवीपालाः । जाता मदनावस्थाः सर्वेऽपि स्वयंभ्वादयः ॥९७॥ यद्यपि च कुबेरसदृशो मिथ्यादृष्टी नरो भवति लोके । तथापि च तस्मै कुमारी न दद्मि तदा भणति श्रीभूतिः ||१८|| रुष्टः स्वयंभूराजा श्रीभूतिं मारयित्वा वेगवतीम् । आकृषति रजन्यां पुनरप्यालिड्गति रुदन्तीम् ॥९९॥ करुणानि विलपन्तीं नेच्छन्तीमेव सबलात्कारेण । रमिता वेगवती सा स्वयंभूवा मदनमूढेन ॥१००॥ रुष्टा भणति ततः सा पितरं हत्वा यत्त्वया रमिता । उत्पद्ये वधार्थे पुरुषाधम ! तव परलोके ॥ १०१ ॥ अरिकान्तायाः सकाशे वेगवती दिक्षिता समितपापा । जाता संवेगमना करोति तपोद्वादशविकल्पम् ॥१०२॥ घोरं तपोविधानं कृत्वा मृता समाधिना ततः । ब्रह्मविमाने देवी जाताऽतिललितरुपा सा ॥१०३॥ १. ०ओ हवइ तस्स सिरि- प्रत्य० । २. ०न्ती तेण सव - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुव्वभव-सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं -१०३/९१-११६ ६५५ मिच्छाभावियकरणो, तत्थ सयंभू वि कालधम्मेणं । संजुत्तो परिहिण्डइ, नरय-तिरिक्खासु जोणीसु ॥१०४॥ कम्मस्स उवसमेणं, जाओ उ कुसद्धयस्स विप्पस्स । पुत्तो सावित्तीए, पभासकुन्दो त्ति नामेणं ॥१०५॥ अह सो पभासकुन्दो, मुणिस्स पासम्मि विजयसेणस्स । निग्गन्थो पव्वइओ, परिचत्तपरिग्गहारम्भो ॥१०६॥ रागरोसरहिओ, बहुगुणधारी जिइन्दिओ धीरो । छट्ठ-ऽटुम-दसमाइसु, भुञ्जन्तो कुणइ तवकम्मं ॥१०७॥ एवं तवोधरो सो, सम्मेयं वन्दणाए वच्चन्तो । कणगप्पहस्स इड्डी, पेच्छइ विज्जाहरिन्दस्स ॥१०८॥ अह सो कुणइ नियाणं, होउ महं ताव सिद्धिसोक्खेणं । भुञ्जामि खेयरिद्धि, तवस्स जइ अत्थि माहप्पं ॥१०९॥ पेच्छह भो ! मूढत्तं, मुणीण सनियाणदूसियतवेणं । रयणं तु पुहइमोल्लं, दिन्नं चिय सागमुट्ठीए ॥११०॥ छेत्तूण य कपूर, कुणइ वइं कोहवस्स सो मूढो । आचुण्णिऊण रयणं, अविसेसो गेहए दोरं ॥१११॥ दहिऊण य गोसीसं, गेण्हइ छारं तु सो अबुद्धीओ।जो चरिय तवं घोरं, मड़ य सनियाणमरणेणं ॥११२॥ अह सो नियाणदूसियहियओ महयं पि करिय तवचरणं । कालगओ उववन्नो, देवो उसणंकुमारम्मि ॥११३॥ तत्तो चुओ समाणो, जाओ च्चिय केक्कसीए गब्भम्मि । रयणासवस्स पुत्तो, विक्खाओ रावणो नामं ॥११४॥ जं एरिसी अवस्था, हवइ मुणीणं पि दूमियमणाणं । सेसाण किं च भण्णइ, वय-गुण-तव-सीलरहियाणं? ॥११५॥ बम्भिन्दो वि य चविउं, जाओ अवराइयाए देवीए । दसरहनिवस्स पुत्तो, रामो तेलोक्कविक्खाओ ॥११६॥ मिथ्याभावितकरणस्तत्र स्वयंभूरपि कालधर्मेण । संयुक्तः परिहिण्डते नरक-तिर्यक्षुयोनिषु ॥१०४।। कर्मण उपशमेन जातस्तु कुशध्वजस्य विप्रस्य । पुत्रः सावित्र्याः प्रभासकुन्द इति नाम्ना ॥१०५।। अथ स प्रभासकुन्दो मुनेः पार्श्वे विजयसेनस्य । निर्ग्रन्थः प्रव्रजितः परित्यक्तपरिग्रहारम्भः ॥१०६॥ रतिरागरोषरहितो बहुगुणधारी जितेन्द्रियो धीरः । षष्टाष्टमदशमादिभि (जमानः करोति तप:कर्म ॥१०७॥ एवं तपोधरः स सम्मेतं वन्दनाय गच्छन् । कनकप्रभस्यद्धिं पश्यति विद्याधरनरेन्द्रस्य ॥१०८॥ अथ स करोति निदानं भवतु मम तावत्सिद्धिसुखेन । भुनञ्मि खेचरद्धिं तपसो यद्यस्ति माहात्म्यम् ।।१०९|| पश्यत भो ! मूढत्वं मुनिना सनिदानदुषिततपसा । रत्नं तु पृथिवीमूल्यं दत्तमेव सागमुष्ट्या ॥११०॥ छित्वा च कर्पूरं करोति वृत्ति कोद्रवस्य स मूढः । आचूर्ण्य रत्नमविशेषो गृह्णाति दवरकम् ॥१११॥ दग्ध्वा च गोशीर्षं गृह्णाति क्षारं तु सोऽबुद्धिकः । यश्चरित्वा तप: घोरं म्रियते च सनिदानमरणेन ॥११२।। अथ स निदानदुषितहृदयो महदपि कृत्वा तपश्चरणम् । कालगत उत्पन्नो देवस्तु सनत्कुमारे ॥११३॥ ततश्च्युतः सञ्जात एव कैकश्या गर्भे । रत्नश्रवसः पुत्रो विख्यातो रावणो नाम ॥११४॥ यदेदृशी अवस्था भवति मुनीनामपि दवितमनसाम् । शेषाणां किं च भण्यते व्रत-गुण-तपः शीलरहितानाम् ॥११५।। ब्रह्मेन्द्रोऽपि च च्युत्वा जातोऽपराजिताया देव्याः । दशरथ नृपस्य पुत्रो रामस्त्रैलोक्यविख्यातः ॥११६।। १. संपत्तो-प्रत्य० । २. ०गइ-दोस०-मु० । ३. केकसीए-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ पउमचरियं जो सो नयदत्तसुओ, धणदत्तो आसि बम्भलोगवई । सो हुइमो पउमाभो, बलदेवसिरिं समणुपत्तो ॥११७॥ वसुदत्तो वि य जो सो, सिरिभूई आसि बम्भणो तइया । सो लक्खणो य जाओ, संपइ णारायणो एसो ॥११८॥ सिरिकन्तो य सयम्भू, कमेण जाओ पहासकुन्दो सो । विज्जाहराण राया, जाओ लङ्काहिवो सूरो ॥११९॥ सा गुणमई कमेणं, सिरिभूइपुरोहियस्स वेगवई । दुहिया बम्भविमाणे, देवी इह वट्टए सीया ॥१२०॥ जो आसि गुणमईए, सहोयरो गुणधरो त्ति नामेणं । सो जणयरायपुत्तो, जाओ भामण्डलो एसो ॥१२१॥ जो जन्नवक्कविप्पो, सो हु बिहीसण ! तुमं समुप्पन्नो । वसहद्धओ वि जाओ, सुग्गीवो वाणराहिवई ॥१२२॥ एए सव्वे वि पुरा, आसि निरन्तरसिणेहसंबन्धा । रामस्स तेण नेहं, वहन्ति निययं च अणुकूला ॥१२३॥ एत्तो बिहीसणो पुण, परिपुच्छइ सयल भूसणं नमिउं । वालिस्स पुव्वजणियं, कहेहि भयवं ! भवसमूहं ॥१२४॥ निसुणसु बिहीसण ! तुमं, एक्को परिहिण्डिऊण संसारं । जीवो कम्मवसेणं, दण्डारण्णे मओ जाओ ॥१२५॥ साहुं सज्झायंतं, सुणिऊणं कालधम्मसंजुत्तो । उप्पन्नो एरवए, मघदत्तो नाम धणवन्तो ॥१२६॥ तस्स पिया विहियक्खो, सुसावओ सिव मई हवइ माया। मघदत्तस्स वि जाया, जिणवरधम्मे मई विउला ॥१२७॥ पञ्चाणुव्वयधारी, मओ य सो सुरवरो समुप्पन्नो । वरहार-कुण्डलधरो, निदाघरविसन्निहसरीरो ॥१२८॥ चइओ पुव्वविदेहे, गामे विजयावइए आसन्ने । जह मत्तकोइलरवे, कंतासोगो तहिं राया ॥१२९॥ यःस नयदत्तसुतो धनदत्त आसीद्ब्रह्मलोकपतिः । स खल्वयं पद्माभो बलदेवश्रीं समनुप्राप्तः ॥११७।। वसुदत्तोऽपि च यः स श्रीभूतिरासीबाह्मणस्तदा । स लक्ष्मणश्च जातः संप्रति नारायण एषः ॥११८।। श्रीकान्तश्च स्वयंभः क्रमेण जातः प्रभासकन्दः सः । विद्याधराणां राजा जातो लड़काधिपः शरः ॥११९।। सा गुणमती क्रमेण श्रीभूतिपुरोहितस्य वेगवती । दुहिता ब्रह्मविमाने देवीह वर्तते सीता ॥१२०॥ य आसीद्गुणमत्याः सहोदरो गुणधर इति नाम्ना । स जनकराजपुत्रो जातो भामण्डल एषः ॥१२१।। यो याज्ञवल्क्यविप्रः स खलु बिभीषण ! त्वं समुत्पन्नः । वृषभध्वजोऽपि जातः सुग्रीवो वानराधिपतिः ॥१२२।। एते सर्वेऽपि पुराऽऽसन्निरन्तरस्नेहसम्बन्धाः । रामस्य तेन स्नेहं वहन्ति नित्यं चानुकूलाः ॥१२३॥ इतो बिभीषणः पन:परिपृच्छति सकलभषणं नत्वा । वाले: पूर्वजनितं कथय भगवन ! भवसमहम ॥१२४।। निश्रुणु बिभीषण ! त्वमेक: परिहिण्ड्य संसारम् । जीवः कर्मवशेन दण्डारण्ये मृगो जातः ॥१२५।। साधुं स्वाध्यायन्तं श्रुत्वा कालधर्मसंयुक्तः । उत्पन्न ऐरवते मघदत्तो नाम धनवान् ॥१२६।। तस्य पिता विदिताक्षः सुश्रावकः शिवमती भवति माता । मघदत्तस्यापि जाता जिनवरधर्मे मति विपुला ॥१२७|| पञ्चानुव्रतधारी मृतश्च सः सुरवरः समुत्पन्नः । वरहारकुण्डलधरो निदाधरविसन्निभशरीरः ॥१२८|| च्युतः पूर्वविदेहे ग्रामे विजयावत्या आसन्ने । अथ मत्तकोकिलरवे कांताशोकस्तत्र राजा ॥१२९।। १. ०णो पहाणो, संपइ नारा०-मु० । २. ०सणं समणं । वा०-मु० । ३. सिरिमई-मु० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुव्वभव - सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं - १०३ / ११७-१४२ तस्स रयणावईए, भज्जाए कुच्छिसंभवो जाओ । नामेण सुप्पभो सो, रज्जं भोत्तूण पव्वइओ ॥१३०॥ चरिय तवं कालगओ, सव्वट्ठे सुरवरो समुप्पन्नो । तत्तो चुओ वि जाओ, वाली आइच्चरयपुत्तो ॥१३१॥ काऊ विरोहं जो, तया सह रावणेण संविग्गो । पव्वइओ कइलासे, कुणइ तवं धीरगम्भीरो ॥१३२॥ सव्वायरेण तइया, उद्धरिओ रावणेण कलासो । अङ्गुट्ठएण सो पुण, नीओ वाली ण संखोहं ॥१३३॥ झाणाणलेण डहिउं, निस्सेसं कम्म कयवरं वाली । संपत्तो परमपयं, अजरामरनीरयं ठाणं ॥१३४॥ एवं अन्नोन्नवहं, कुणमाणा पुव्वबद्धदढवेरा । संसारे परिभमिया, दोण्णि वि वसुदत्त - सिरिकन्ता ॥१३५॥ सा वेगवई, आस सयंभुस्स वल्लहा तेणं । अणुबन्धेणऽवहरिया, सीया वि हु रक्खसिन्देणं ॥१३६॥ सरभू, वेगवईए कए सयंभूणा । वहिओ धम्मफलेणं, देवो जाओ विमाणम्मि ॥१३७॥ चइओ पट्ठनयरे, पुणव्वसू खेयराहिवो जाओ । महिलाहेडं सोयं, करिय नियाणं च पव्वइओ ॥ १३८ ॥ काऊण तवं घोरं, सणकुमारे सुरो समुप्पन्नो । चइओ सोमित्तिसुओ, जाओ वि हु लक्खणो एसो ॥१३९॥ सत्तू जेण सयंभू, सिरिभूइपुरोहियस्स आसि पुरा । तेण इह मारिओ सो, दहवयणो लच्छिनिलएणं ॥ १४० ॥ जो जे हओ पुव्वं, सो तेण वहिज्जए न संदेहो । एसा ठिई बिहीसण, संसारत्थाण जीवाणं ॥ १४१ ॥ एवं सोऊण इमं, जीवाणं पुव्ववेरसंबन्धं । तम्हा परिहरह सया, वेरं सव्वे वि दूरेणं ॥ १४२ ॥ I तस्य रत्नावत्या भार्यायाः कुक्षिसंभवो जातः । नाम्ना सुप्रभः स राज्यं भुक्त्वा प्रव्रजितः ॥ १३० ॥ चरित्वा तपः कालगतः सर्वार्थे सुरवरः समुत्पन्नः । ततश्च्युतोऽपि जातो बाल्यादित्यरजसः पुत्रः || १३१ ॥ कृत्वा विरोधं यस्तदा सह रावणेन संविग्नः । प्रव्रजितः कैलाशे करोति तपो धीरगम्भीरः ॥१३२॥ सर्वादरेण तदोद्धरितो रावणेन कैलाशः । अड्गुष्ठेन स पुन र्नीतोबाली न संक्षोभम् ॥१३३॥ ध्यानानलेन दग्ध्वा निःशेषं कर्मकचवरं बाली । संप्राप्तः परमपदमजरामरनीरजंस्थानम् ॥१३४॥ एवमन्योन्यवधं कुर्वाणौ: पूर्वबद्धदृढवैरौः । संसारे परिभ्रान्तौ द्वावपि वसुदत्त - श्रीकान्तौ ॥१३५॥ येन सा वेगवत्यासीत्स्वयंभूवो वल्लभा तेन । अनुबन्धेनापहृता सीतापि खलु राक्षसेन्द्रेण ॥१३६॥ योऽपि च स श्रीभूति र्वेगवत्याः कृते स्वयंभूवा । हतो धर्मफलेन देवो जातो विमाने ॥१३७॥ च्युतः प्रतिष्ठनगरे पुनर्वसुः खेचराधिपो जातः । महिलाहेतुं शोकं कृत्वा निदानं च प्रव्रजितः ॥१३८॥ कृत्वा तपः घोरं सनत्कुमारे सुरः समुत्पन्नः । च्युतः सोमित्रिसुतो जातोऽपि खलु लक्ष्मण एषः ॥१३९॥ र्येन स्वयंभूः श्रीभूतिपुरोहितस्यासीत्पुरा । तेनेह मारितः स दशवदनो लक्ष्मीनिलयेन ॥१४०॥ शत्रु यो येन हतः पूर्वं स तेन हन्यते न संदेहः । एषा स्थिति बिभीषण ! संसारस्थानां जीवानाम् ॥१४१॥ एवं श्रुत्वेदं जीवानां पूर्ववेरसम्बन्धम् । तस्मात्परिहरत सदा वैरं सर्वेऽपि दूरेण ॥१४२॥ १. कयलासे - प्रत्य० । २. ०म्मरयमलं वा० मु० । ३. पुव्ववेरपडिबद्धा । सं० प्रत्य० । ४. वि हु सो प्रत्य० । ५. ० वइकएण संभुणा वहिओ । धम्मफलेणं देवो जाओ अह वरविमाणम्मि- मु० । ६५७ For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ पउमचरियं वयणेण वि' उव्वेओ, न य कायव्वो परस्स पीडयरो। सीयाए जहऽणुभूओ, महाववाओ वयणहेऊ ॥१४३॥ मण्डलियाउज्जाणे, सुदरिसणो आगओ मुणिवरिन्दो । दिट्ठो य वन्दिओ सो, सम्मद्दिट्ठीण लोएणं ॥१४४॥ साहुं पलोइउं सा वेगवई कहेइ सयललोयस्स । एसो उज्जाणत्थो, महिलाए समं मए दिट्ठो ॥१४५॥ तत्तो गामजणेणं, अणायरो मुणिवरस्स आढत्तो । तेण वि य कओ सिग्धं, अभिग्गहो धीरपुरिसेणं ॥१४६॥ जइ मज्झ इमो दोसो, फिट्टिहिइ असण्णिदुज्जणनिउत्तो । तो होही आहारो, भणियं चिय एव साहूणं ॥१४७॥ तो वेगईए मुहं, सूणं चिय देवयानिओगेणं । भणइ तओ सा अलियं, तुम्हाण मए समक्खायं ॥१४८॥ तत्तो सो गामजणो, परितुट्ठो मुणिवरस्स अहिययरं । सम्माणपीइपमुहो, जाओ गुणगहणतत्तिल्लो ॥१४९॥ जं दाऊणऽववाओ, विसोहिओ मुणिवरस्स कन्नाए । तेण इमाए विसोही, जाया वि हु जणयतणयाए ॥१५०॥ दिट्ठो सुओ व दोसो, परस्स न कयाइ सो कहेयव्वो । जिणधम्माहिरएणं, पुरिसेणं महिलियाए वा ॥१५१॥ रागेण व दोसेण व, जो दोसंजणवयस्स भासेइ । सो हिण्डइ संसारे, दुक्खसहस्साइं अणुहुन्तो ॥१५२॥ तं मुणिवरस्स वयणं, सोऊण णरा-ऽमरा सुविम्हइया । संवेगसमावन्ना, विमुक्कवेरा तओ जाया ॥१५३॥ बहवो सम्मद्दिट्टी, जाया पुण सवाया तहिं अन्ने । भोगेसु विरत्तमणा, समणत्तं कइ पडिवन्ना ॥१५४॥ एत्तो कयन्तवयणो, सुणिऊणं भवसहस्सदुक्खोहं । दिक्खाभिमुहो पउमं, भणइ पहू सुणसु मह वयणं ॥१५५॥ वचनेनाप्युद्वेगो न च कर्त्तव्यः परस्य पीडाकरः । सीतया यथानुभूतो महापवादो वचनहेतुः ॥१४३।। मण्डलिकोद्याने सुदर्शन आगतो मुनिवरेन्द्रः । दष्टश्च वन्दितः स सम्यग्दृष्टिना लोकेन ॥१४४॥ साधुं प्रलोक्य सा वेगवती कथयति सकललोकस्य । एष उद्यानस्थो महिलया समं मया दृष्टः ॥१४५॥ ततो ग्रामजनेनानाचारो मुनिवरस्यारब्धः । तेनापि च कृतः शीघ्रमभिग्रहो धीरपुरुषेण ॥१४६॥ यदि ममायं दोषः स्फेट्यते ऽसंजीदुर्जननियुक्तः । तदा भविष्यत्याहारो भणितमेव साधुना ॥१४७॥ तदा वेगवत्या मुखं शूनं चैव देवतानियोगेन । भणति ततः साऽलिकं युस्मद्भ्यो मया समाख्यातम् ॥१४८॥ ततः सो ग्रामजनः परितुष्टो मुनिवरस्याधिकतरम् । सन्मानप्रीतिप्रमुखो जातो गुणग्रहणतत्परः ॥१४९॥ यद्दत्वाऽपवादो विशोधितो मुनिवरस्य कन्यया । तेनास्या विशोधि र्जाताऽपि खलु जनकतनयायाः ॥१५०॥ दृष्टः श्रुतो वा दोषः परस्य न कदाचित्स कथयितव्यः । जिनधर्माभिरतेन पुरुषेण महिलया वा ॥१५१॥ रागेण वा दोषेण वा यो दोषं जनपदस्य भाषते । स हिण्डते संसारे दु:खसहस्राण्यनुभवन् ॥१५२॥ तन्मुनिवरस्य वचनं श्रुत्वा नरामराः सुविस्मिताः । संवेगसमापन्ना विमुक्तवैरास्ततो जाताः ॥१५३॥ बहव सम्यग्दृष्टयो जाता पुनः श्रावकास्तत्रान्ये । भोगेषु विरक्तमनसः श्रमणत्वं केऽपि प्रतिपन्ना ॥१५४।। इतः कृतान्तवदनः श्रुत्वा भवसहस्रदुःखौधम् । दिक्षाभिमुखः पद्म भणति प्रभो ! श्रुणु मम वचनम् ॥१५५॥ १. वि दुव्वाओ-मु० । २. सीयाए जह अणुओ, म०-प्रत्य० । ३. सव्वलो०-प्रत्य० । ४. स्स ण य सो कयाइ कहियव्वो-प्रत्य० । ५. संसारप्रत्य० । ६. ०यणं सुणिऊण णरा मणेसु विम्ह०-मु०। ७. सुजेलुं । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुव्वभव-सीतापव्वज्जाविहाणपव्वं - १०३/१४३-१६७ संसारम्मि अणन्ते, परिहिण्डन्तो चिरं सुपरितन्तो । दुक्खविमोक्खट्टे हं, राहव ! गेण्हामि पव्वज्जं ॥१५६॥ तो भइ पनाहो, कहसि तुमं उज्झिउं महं नेहं । गेण्हसि दुद्धरचरियं, असिधारं जिणमयाणुगयं ॥१५७॥ कह चेव छुहाईया, विसहिस्सिसि परिसहे महाघोरे । कण्टयतुल्लाणि पुणो, वयणाणि य खलमणुस्साणं ? ॥ १५८ ॥ उब्भडसिराकवोलो, अट्ठियचम्मावसेसतणुयङ्गो । गेण्हिहिसि परागारे, कह भिक्खादाणमेत्ताहे ? ॥१५९॥ जंप कयन्तवयणो, सामिय ! जो तुज्झ दारुणं नेहं । छड्डेमि अहं सो कह, अन्नं कज्जं न साहेमि ? ॥ १६०॥ एवं निच्छियभावो, कयन्तवयणो वियाणिओ जाहे । ताहे च्चिय अणुणाओ, लक्खणसहिएण रामेणं ॥१६१॥ पुच्छि मं, सोमित्तिसुयं च सव्वसुहदायं । गेण्हइ कयन्तवयणो, मुणिस्स पासम्मि पव्वज्जं ॥१६२॥ अह सयलभूसणन्ते, सुरासुरा पणमिऊण भावेणं । निययपरिवारसहिया, जहागया पडिगया सव्वे ॥ १६३॥ रामो वि केवलिं तं अभिवन्देऊण सेसया य मुणी । सीयाए सन्नयासं, संपत्तो अप्पबीओ सो ॥१६४॥ रामेण तओ सीया, दिट्ठा अज्जाण मज्झयारत्था । सेयम्बरपरिहाणा, तारासहिय व्व ससिलेहा ॥ १६५ ॥ एवंविहं निए, संजमगुणधारिणि पउमनाहो । चिन्तेइ कह पवन्ना, दुक्करचरियं इमा सीया ? ॥१६६॥ एसा मज्झ भुओयरमल्लीणा निययमेव सुहललिया । कह दुव्वयणचडयरं, सहिही मिच्छत्तमहिलाणं ? ॥१६७॥ ६५९ संसारे ऽनन्ते परिहिण्डमानश्चिरं सुपरित्रान्तः । दुःखविमोक्षार्थेऽहं राघव ! गृह्णामि प्रव्रज्याम् ॥१५६॥ तदा भणति पद्मनाभः कथयसि त्वमुज्झित्वा मम स्नेहम् । गृह्णासि दुर्धरचरित्रमसिधारं जिनमतानुगतम् ॥१५७॥ कथमेव क्षुधादिकान् विसहिष्यसे परिषहान् महाघोरान् । कण्टकतुल्यानि पुन र्वचनानि च खलमनुष्याणाम् ? ॥१५८|| उद्भटशिराकपोलोऽस्थिचर्मावशेषतन्वङ्गः । ग्रहिष्यषि पराकारे कथं भिक्षादानमीदानीम् ? ॥१५९॥ जल्पति कृतान्तवदनः स्वामिन् ! यस्तव दारुणं स्नेहम् । त्यजाम्यहं स कथमन्यत्कार्यं न साधयामि ? || १६०|| एवं निश्चितभावः कृतान्तवदनो विजानितो यदा । तदैवानुज्ञातो लक्ष्मणसहितेन रामेण ॥ १६९ ॥ आपृच्छ्य पद्मं सोमित्रिसुतं च सर्वसुखदाताम् । गृह्णाति कृतान्तवदनो मुनेः पार्श्वे प्रव्रज्याम् ॥१६२॥ अथ सकलभूषणान्ते सुरासुराः प्रणम्य भावेन । निजपरिवारसहिता यथागताः प्रतिगताः सर्वे ॥ १६३ ॥ रामोऽपि केवलिनं तमभिवन्द्य शेषांश्च मुनीन् । सीतायाः समीपं संप्राप्त आत्मद्वितीयः सः ॥ १६४ ॥ रामेण ततः सीता दृष्टाऽऽर्याणां मध्यस्था । श्वेताम्बरपरिधाना तारासहितैव शशिलेखा ॥ १६५ ॥ एवंविधां दृष्ट्वा संयमगुणधारिणि पद्मनाभः । चिन्तयति कथं प्रपन्ना दुष्करचरितमिमा सीता ? ॥ १६६॥ एषा मम भुजोदरमालीना नित्यमेव सुखलालिता । कथं दुर्वचनसमूहं सोढा मिथ्यात्वमहिलानाम् ? ॥१६७॥ । १. ०हाईया विसहिहिसि परीसहा महाघोरा । क० मु० । २. ०ण रामं प्रत्य० । ३. भुओवरिम० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० पउमचरियं जाए बहुप्पयारं, भुत्तं चिय भोयणं रससमिद्धं । सा कह लद्धमलद्धं, भिक्खं भुंजिही परदिन्नं ? ॥१६८॥ वीणावंसरवेणं, उवगिज्जन्ती य जा सुहं सइया । कह सा लहिही निइं, संपइ फरुसे धरणिवढे ? ॥१६९॥ एसा बहुगुणनिलया, सीलमई निययमेव अणुकूला । परपरिवाएण मए, मूढेणं हारिया सीया ॥१७०॥ एयाणि य अन्नाणि य, परिचिन्तेऊण तत्थ पउमाभो । परमत्थमुणियकरणो, पणमइ ताहे जणयतणयं ॥१७१॥ तो भणइ रामदेवो, एक्कट्ठ चेव परिवसन्तेणं । जं चिय तुह दुच्चरियं, कयं मए तं खमेज्जासु ॥१७२॥ एवं सा जणयसुया, लक्खणपमुहेहि नरवरिन्देहिं । अहिवन्दिया सुसमणी, अहियं परितुट्ठहियएहिं ॥१७३॥ अहिणन्दइ वइदेही, एवं भणिऊण राहवो चलिओ। भडचक्केण परिवुडो, संपत्तो अत्तणो भवणं ॥१७४॥ एयं राहवचरियं, पुरिसो जो पढइ सुणइ भावियकरणो। ___ सो लहइ बोहिलाभं , हवइ य लोयम्मि उत्तमो विमलजसो ॥१७५॥ ॥ इइ पउमचरिए रामपुव्वभवसीयापव्वज्जाविहाणं नाम तिउत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ यया बहुप्रकारं भुक्तमेव भोजनं रससमृद्धम् । सा कथं लब्धामलब्धां भिक्षां भुक्ष्यते परदत्ताम् ? ॥१६८॥ वीणावंशरवेणोपनीयमानी च या सुखं शयिता । कथं सा लप्स्यते निद्रां संप्रति परुषे धरणीपृष्टे ? ॥१६९।। एषा बहुगुणनिलया शीलमती नित्यमेवानुकूला । परपरिवादेन मया मूढेन हारिता सीता ॥१७०।। एतानि चान्यानि च परिचिन्त्य तत्र पद्माभः । परमार्थमुणितकरणः प्रणमति तदा जनकतनयाम् ॥१७१॥ तदा भणति रामदेव एकार्थमेव परिवसता । यदेव तव दुश्चरितं कृतं मया तत्क्षमस्व ॥१७२॥ एवं सा जनकसुता लक्ष्मणप्रमुखै नरवरेन्द्रैः । अभिवन्दिता सुश्रमण्यधिकं परितुष्टहदयैः ॥१७३।। अभिनन्दति वैदेविं भणित्वा राघव श्चलितः । भटचक्रेण परिवृत्तः संप्राप्त आत्मनो भवनम् ॥१७४॥ एतद्राघवचरितं पुरुषो यः पठति श्रुणोति भावितकरणः । स लभते बोधिलाभं भवति च लोक उत्तमो विमलयशाः ॥१७५।। ॥इति पद्मचरिते रामपूर्वभवसीताप्रव्रज्याविधानं नाम त्रिस्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०पउमेहिं-मु० । २. परिमिओ संपत्तो सो सयं भवणं-मु० । ३. एवं रा०-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४. लवणं-ऽङ्कुसपुव्वभवाणुकित्तणपव्वं तो बिहीसो पुण, परिपुच्छइ सयलभूसणं साहुं । भयवं परभवजणियं, कहेहि लवणं- कुसचरियं ॥१॥ तो भइ मुणी निसुणसु, कायन्दिपुराहिवस्स सूरस्स । रइवद्धणस्स महिला, सुदरिसणा नाम विक्खाया ॥२॥ ती गप्पन्ना, दोणि सुया पियहियंकरा धीरा । मन्ती उ सव्वगुत्तो, तत्थ नरिन्दस्स पडिकूलो ॥३॥ विजय, धरिणी मन्तिस्स सा निसासमए । गन्तूण नरवरिन्दं, भणइ पहू ! सुणसु मह वयणं ॥४॥ तुज्झाणुरायरत्ता, कन्तं मोत्तूण आगया इहई । इच्छसु मए नराहिव ! मा वक्खेवं कुणसु एत्तो ॥ ५ ॥ भणिया य नरवईणं, विजयावलि ! नेव एरिसं जुत्तं । 'परणारिफरिसणं विय, उत्तमपुरिसाण लज्जणयं ॥६॥ जं एव नरवईणं, भणिया विजयावली गया सगिहं । परपुरिसदिन्नहियया, मुणिया सा तत्थ मन्तीणं ॥७॥ अइकोहवसगएणं, तं नरवइसन्तियं महाभवणं । मन्तीण रयणिसमए, सहसा आलीवियं सव्वं ॥८ ॥ तो गूढसुरङ्गाए, विणिग्गओ नरवई सह सुएहिं । महिलाय ठविय पुरओ, गओ य वाणारसीदेसं ॥ ९ ॥ मन्ती वि सव्वगुत्तो, अक्कमिऊणं च सयलरज्जं सो । पेसेइ निययदूयं, कासिनरिन्दस्स कासिपुरं ॥१०॥ गन्तूण तओ दूओ, साहइ कसिवस्स सामियादिट्टं । तेणावि उवालद्धो, दूओ अइनिङ्कुरगिराए ॥११॥ I १०४. लवणाङ्कुशपूर्वभवानुत्कीर्तनपर्वम् इतो बिभीषणः पुनः परिपृच्छति सकलभूषणं साधुम् । भगवन् ! परभवजनितं कथय लवणाङ्कुशचरित्रम् ॥१॥ तदा भणति मुनि र्निश्रुणु काकन्दिपुराधिपस्य शूरस्य । रतिवर्धनस्य महिला सुदर्शना नाम विख्याता ||२|| तस्या गर्भोत्पन्नौ द्वौ सुतौ प्रिय - हितंकरौ धीरौ । मन्त्री तु सर्वगुप्तस्तत्र नरेन्द्रस्य प्रतिकूलः ||३|| विजयावलीति नाम गृहिणी मन्त्रिणः सा निशासमये । गत्वा नरवरेन्द्रं भणति प्रभो ! श्रुणु मम वचनम् ॥४॥ तवानुरागरक्ता कान्तं मुक्त्वाऽऽगतेह । इच्छ मां नराधिप ! मा व्याक्षेपं कुर्वितः ॥५॥ भणिता च नरपतिना विजयावलि ! नैवेदृशं युक्तम् । परनारीस्पर्शनमप्युत्तमपुरुषाणां लज्जनकम् ॥६॥ यदेवं नरपतिना भणिता विजयावली गता स्वगृहम् । परपुरुषदत्तहृदया मुणिता सा तत्र मन्त्रिणा ||७|| अतिक्रोधवशगतेन तन्नरपतिसत्कं महाभवनम् । मन्त्रिणा रजनीसमये सहसाऽऽदीपितं सर्वम् ||८|| तदा गुप्तसुरड्गया विनिर्गतो नरपति: सह सुतैः । महिलां स्थापयित्वा पुरतो गतश्च वाणारसीदेशम् ॥९॥ मन्त्र्यपि सर्वगुप्त आक्राम्य च सकलराज्यं सः । प्रेषति निजदूतं काशीनरेन्द्रस्य काशीपुरम् ॥१०॥ गत्वा ततो दूतः कथयति कशिपस्य स्वाम्यादिष्टम् । तेनाप्युपालब्धो दूतोऽतिनिष्ठुरगिरा ॥११॥ १. त्ति णामा घ०-प्रत्य० । २. परनारिसेवणं चिय, उ० मु० । ३. तेण वि य उ०- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ पउमचरियं को तुज्झ सामिघायय, गेण्हइ नाम पि उत्तमो पुरिसो । जाणन्तो च्चिय दोसे, पडिवज्जइ नेव भिच्चत्तं ॥१२॥ सह पुत्तेहिं सुसामी, जं ते वहिओ तुमे अणज्जेणं । तं ते दावेमि लहुं, रइवद्धणसन्तियं मग्गं ॥१३॥ कसिवेण निट्टराए, गिराए निब्भच्छिओ गओ दूओ । सव्वं सवित्थरं तं, कहेइ निययस्स सामिस्स ॥१४॥ सुणिऊण दूयवयणं, अह सो भडचडयरेण महएणं । निप्फिडइ सव्वगुत्तो, कसिवस्सुवरि अइतुरन्तो ॥१५॥ पइसरइ सव्वगुतो, कासीपुरिसन्तियं तओ देसं । कसिवो वि निययसेन्नं, तुरियं मेलेइ दढसत्तो ॥१६॥ रड्वद्धणेण पुरिसो, कसिवस्स पवेसिओ निसि पसे । पत्तो साहेइ फुडं, देव ! तुम आगओ सामी ॥१७॥ सुणिऊण अपरिसेसं, वत्तं कसिवो गओ अइतुरन्तो । पेच्छइ उज्जाणत्थं, सपुत्त-महिलं निययसामि ॥१८॥ अन्तेउरेण समयं, पणमइ सामि तओ सुपरितुट्ठो । कसिवो कुणइ महन्तं, निययपुरे संगमाणन्दं ॥१९॥ रड्वद्धणेण समरे, कसिवसमग्गेण सव्वगुत्तो सो। भग्गो पइसइ रण्णं, पुलिन्दसरिसो तओ जाओ ॥२०॥ पुणरवि कायन्दीए, राया रड्वद्धणो कुणइ रज्जं । कसिवो वि भयविमुक्को, भुञ्जइ वाणारसिं मुइओ ॥२१॥ काऊण सडरकालं.रज्जं डवद्धणो ससंविग्गो। समणस्स सन्नियासे.सभाणनामस्स पव्वडओ ॥२२॥ विजयावली वि पढम, चत्ता मन्तीण सोगिणी मरिठं । नियकम्मपभावेणं, उप्पन्ना रक्खसी घोरा ॥२३॥ तइया तस्सुवसग्गे, कीरन्ते रक्खसीए पावाए । रवद्धणस्स सहसा, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥२४॥ कस्तव स्वामिघातक ! गृह्णाति नाममप्युत्तमः पुरुषः । जानन्नेव दोषान्प्रतिपद्यते नैव भृत्यत्वम् ॥१२॥ सह पुत्रैः सुस्वामी यत्ते हतस्त्वयाऽनार्येण । तत्ते दर्शयामि लघुरतिवर्धनसत्कं मार्गम् ॥१३॥ कशिपेन निष्ठुरया गिरा निर्भत्सितो गतो दूतः । सर्वं सविस्तरं तत्कथयति निजस्य स्वामिनः ॥१४|| श्रुत्वा दूतवचमथ स भटसमूहेन महता। निष्फिटति सर्वगुप्तः कशिपस्योपर्यतित्वरमाणः ॥१५॥ प्रविशति सर्वगुप्तः काशीपुरिसत्कं ततो देशम् । कशिपोऽपि निजसैन्यं त्वरितं मेलयति दृढसत्त्वः ॥१६॥ रतिवर्धनेन पुरुषः कशिपस्य प्रवेशितो निशिप्रदोषे । प्राप्तः कथयति स्फुटं देव ! तवागतः स्वामी ॥१७॥ श्रुत्वाऽपरिशेषां वार्ता कशिपो गतोऽतित्वरमाणः । पश्यत्युद्यानस्थं सपुत्रमहिलं निजस्वामिनम् ॥१८॥ अन्तः पुरेण समकं प्रणमति स्वामिनं ततः सुपरितुष्टः । कशिपः करोति महान्तं निजपुरे संगमानन्दम् ॥१९॥ रतिवर्धनेन समरे कशिपसमग्रेण सर्वगुप्तः सः । भग्नः प्रविशत्यरण्यं पुलिन्द्रसदृशस्ततो जातः ॥२०॥ पुनरपि काकन्द्यां राजा रतिवर्धनः करोति राज्यम् । कशिपोऽपि भयविमुक्तो भुनक्ति वाणारसीं मुदितः ॥२१॥ कृत्वा सुचिरकालं राज्यं रतिवर्धनः सुसंविग्नः । श्रमणस्य संनिकाशे सुभानुनाम्नः प्रव्रजितः ॥२२॥ विजयावल्यपि प्रथमं त्यक्ता मन्त्रिणा शोकिनी मृत्वा । निजकर्मप्रभावेणोत्पन्ना राक्षसीघोरा ॥२३॥ तदा तस्योपसर्गे कुर्वति राक्ष्स्या पापाया । रतिवर्धनस्य सहसा केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥२४॥ १. अकज्जेणं-प्रत्य० । २. लहुँ, सिरिवद्ध०-प्रत्य० । ३. कासीपुरस०-मु०। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणं-ऽङ्कसपुव्वभवाणुकित्तणपव्वं -१०४/१२-३४ ६६३ काऊण य पव्वज्जं, दो वि जणा पियहियंकरा समणा । पत्ता गेवेज्जिढि, चउत्थभवलद्धसम्मत्ता ॥२५॥ सेणिय ! चउत्थजम्मे, सामलिनयरीए वामदेवसुया । वसुनन्द-सुनन्दभिहा, आसि च्चिय बम्भणा पुव्वं ॥२६॥ अह ताण महिलियाओ, विस्सावसु तह पियंगुनामाओ।विप्पकुलजाइयाओ, जोव्वण-लायण्णकलियाओ ॥२७॥ दाऊण य सिरितिलए, दाणं साहुस्स भावसंजुत्तं । आउक्खए सभज्जा, उत्तरकुरवे समुप्पन्ना ॥२८॥ भोगं भोत्तूण तओ, ईसाणे सुरवरा समुप्पन्ना । चइया बोहिसमग्गा, पियंकर-हियंकरा जाया ॥२९॥ तं कम्ममहारण्णं, सयलं झाणाणलेण डहिऊणं । ईवद्धणो महप्पा, पत्तो सिवसासयं मोक्खं ॥३०॥ कहिया जे तुज्झ मए, एत्तो पियंकर-हियंकरा भव्वा । गेवेज्जचुया सेणिय !, जाया लवणं-उँकुसा धीरा ॥३१॥ देवी सुदरिसणा वि य, सणियाणा हिण्डिऊण संसारे । निज्जरिय जुवइकम्म, सिद्धत्थो खुड्डुओ जाओ ॥३२॥ पुव्वसिणेहेण तओ, कया य लवण-उँकुसा अईकुसला । सिद्धत्थेण नराहिव !, रणे य अवराइया धीरा ॥३३॥ एवं सुणेऊण भवोहदुक्खं, जीवाण संसारपहे ठियाणं। 'तुब्भे य सव्वे वि सयाऽपमत्ता, करेह धम्मं विमलं समत्था ॥३४॥ ॥इइ पउमचरिए लवणं-उँकुसपुव्वभवाणुकित्तणं नाम चउस्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ कृत्वा च प्रव्रज्यां द्वावपि जनौ प्रियहितंकरौ श्रमणौ । प्राप्तौ ग्रैवेयकद्धि चतुर्थभवलब्धसम्यक्त्वौ ॥२५।। श्रेणिक ! चतुर्थजन्मे शामलीनगर्यां वामदेव सुतौ । वसुनन्द-सुनन्दाभिधावास्तामेव ब्राह्मणौ पूर्वम् ॥२६॥ अथ तयो महिले विश्वावसुस्तथा प्रियंगुनामा । विप्रकुलजाते यौवनलावण्यकलिते ॥२७॥ दत्वा च श्रीतिलकाय दानं साधवे भावसंयुक्तम् । आयुःक्षये सभार्याको उत्तरकुरौ समुत्पन्नौ ॥२८॥ भोगं भुक्त्वा तत ईशाने सुरवरौ समुत्पन्नौ । च्युतौ बोधिसमग्रौ प्रियंकर-हितंकरौ जातौ ॥२९॥ तत्कर्ममहारण्यं सकलं ध्यानानलेन दग्ध्वा । रतिवर्धनो महात्मा प्राप्तः शिवशाश्वतं मोक्षम् ॥३०॥ कथितौ यौ तव मयेतः प्रियंकर-हितंकरौ भव्यौ । ग्रैवेयकच्युतौ श्रेणिक ! जातौ लवणाङ्कुशौ धीरौ॥३१॥ देवी सुदर्शनाऽपि च सनिदाना हिण्डयित्वा संसारे । निर्जरितयुवतिकर्म सिद्धार्थः क्षुल्लको जातः ॥३२॥ पूर्वस्नेहेन ततः कृतौ च लवणाङ्कुशावतिकुशलौ । सिद्धार्थेन नराधिप ! रणे चापराजितौ धीरौ ॥३३॥ एवं श्रुत्वा भवौघदुःखं जीवानां संसारपथे स्थितानाम् । यूयं च सर्वेऽपि सदाऽप्रमत्ताः कुरुत धर्मं विमलं समर्थाः ॥३४|| ॥इति पद्मचरिते लवणाकुशपूर्वभवानुकीर्तनं नाम चतुरुतरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. गेवेज्जठिई, च०-मु० । २. वामदेविसुया । वसुदेवसुया जाया, आसि-प्रत्य० । ३. ऊणं । सिरिवद्धo-मुणि० । ४. सयं ठाणं-प्रत्य० ।५.०द्धत्थो चेल्लओ जा०-प्रत्य० । ६. एयं-प्रत्य० । ७. तुब्भेहि सव्वे-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. महु-केढवउवक्खाणपव्वं चइऊण य पइ-पुत्ते, निक्खन्ता तिव्वजायसंवेगा ।जं कुणइ तवं सीया, तं तुज्झ कहेमि मगहवई ! ॥१॥ तइया पुण सव्वजणो, उवसमिओ सयलभूसणमुणीणं । जाओ जिणधम्मरओ, भिक्खादाणुज्जओ अहियं ॥२॥ जा आसि सुरवणं, सरिसी लायण्ण-जोव्वणगुणेहिं । सा तवसोसियदेहा, सीया दड़ा लया चेव ॥३॥ पञ्चमहव्वयधारी, दुब्भावविवज्जिया पयइसोमा । निन्दन्ती महिलत्तं, कुणइ तवं बारसवियप्पं ॥४॥ लोयकयउत्तमङ्गी, मलकञ्चयधारिणी तणुसरीरा । छ?-ऽटुम-मासाइसु, सुत्तविहीणं कयाहारा ॥५॥ ड्-अरविप्पमुक्का, निययं सज्झाय-झाणकयभावा । समिईसु य गुत्तीसु य, अविरहिया संजमुज्जुत्ता ॥६॥ परिगलियमंस-सोणिय-प्रहारु-छिरा पायडऽट्ठियकवोला । सहवड्डिएण वि तया, जणेण नो लक्खिया सीया ॥७॥ एवंविहं तवं सा वि सट्ठिवरिसाणि सुमहयं काउं । तेत्तीसं पुण दियहा', विहिणा संलेहणाउत्ता ॥८॥ विहिणाऽऽराहियचरणा', कालं काऊण तत्थ वइदेही । बावीससायरठिई, पडिइन्दो अच्चुए जाओ ॥९॥ मगहाहिव ! माहप्पं, पेच्छसु जिणसासणस्स जं जीवो। मोत्तूण जुवइभावं, पुरिसो जाओ सुरवरिन्दो ॥१०॥ सो तत्थ वरविमाणे, सुमेरुसिहरोवमे रयणचित्ते । सुरजुवईहिं परिवुडो, सीइन्दो रमइ सुहपउरो ॥११॥ || १०५. मधुकैटभोपाख्यान पर्वम् । त्यक्त्वा च पति-पुत्रान्निष्क्रान्ता तीव्रजातसंवेगा। यत्करोति तपः सीता तत्तव कथयामि मगधपते ! ॥१॥ तदा पुनः सर्वजन उपशमितः सकलभूषणमुनिना । जातो जिनधर्मरतो भिक्षादानोद्यतोऽधिकम् ।।२।। याऽऽसीत्सुरवधुना सदृशी लावण्ययौवन गुणैः । सा तपः शोषितदेहा सीता दग्धा लतैव ॥३॥ पञ्चमहाव्रतधारी दुर्भावविवर्जिता प्रकृतिसौम्या । निन्दन्ती महिलात्वं करोति तपोद्वादशविकल्पम् ॥४॥ लोचकृतोत्तमागी मलकञ्चकधारिणी तनुशरीरा । षष्टाष्टममासादिषु सूत्रविधिना कृताहारा ॥५॥ रत्यरतिविप्रमुक्ता नित्यं स्वाध्याय-ध्यानकृतभावा । समितिषु च गुप्तिषु चाविरहिता संयमोद्यता ॥६॥ परिगलितमंसशोणितस्नायुशिरा प्रकटस्थिकपोला । सहवर्धितेनापि तदा जनेन नो लक्षिता सीता ॥७॥ एवंविधं तपः साऽपि षष्ठिवर्षाणि समहत्कत्वा । त्रयस्त्रिंशत्पून दिवसा विधिना संलेखना युक्ता ॥८॥ विधिनाऽऽराधितचरणा कालं कृत्वा तत्र वैदेहि । द्वाविंशतिसागरस्थितिः प्रतीन्द्रोऽच्युते जातः ॥९॥ मगधाधिप ! माहात्म्यं पश्य जिनशासनस्य यज्जीवः । मुक्त्वा युवतिभावं पुरुषो जातः सुरवरेन्द्रः ॥१०॥ स तत्र वरविमाने सुमेरुशिखरोपमे रत्नचित्रे । सुरयुवतिभिः परिवृत्तः सीतेन्द्रो रमते सुखप्रचूरः ॥११॥ १. सा तिस४ि०-प्रत्य० । २. दिवसा वि०-प्रत्य० । ३. ०यचरिया, कालं-मु० । ४. ०वुडा, इन्दो सो रमइ-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महु-केढवउवक्खाणपव्वं - १०५/१-२४ ६६५ याणि अन्नाणिय, जीवाणं परभवाणुचरियाई । निसुणिज्जन्ति नराहिव !, मुणिवरकहियाइं बहुयाई ॥ १२ ॥ तो भइ मगहराया, भयवं कह तेहिं अच्चुए कप्पे । बावीससागरठिई, भुत्ता महु-केढवेहिं पि ॥१३॥ भाइ तओ गणनाहो, वरिससहस्साणि चेव चउसट्ठी । काऊण तवं विउलं, जाया ते अच्चुए देवा ॥ १४ ॥ काले यसमाणा, अह ते महु - केढवा इहं भरहे । कण्हस्स दो वि पुत्ता, उप्पन्ना सम्ब-पज्जुण्णा ॥ १५ ॥ 'छस्समहिया उ लक्खा,' वरिसाणं अन्तरं समक्खायं । तित्थयरेहिं महायस !, भारह-रामायणाणं तु ॥ १६ ॥ पुणरवि य भणइ राया, भयवं ! कह तेहिं दुल्लहा बोही । लद्धा तवो य चिण्णो ?, एवं साहेहि मे सव्वं ॥१७॥ तो भइ इन्दभूई, सेणिय ! महु-केढवेहिं अन्नभवे । जह जिणमयम्मि बोही, लद्धा तं सुणसु एगमणो ॥ १८ ॥ इह खलु मगहाविसए, सालिग्गामो त्ति नाम विक्खाओ । सो भुञ्जइ तं कालं, राया निस्सन्दिओ नामं ॥ १९ ॥ विप्पो उ सोमदेवो, तत्थ उ परिवसइ सालिवरगामे । तस्सऽग्गिलाए पुत्ता, सिहिभूई वाउभूई य ॥२०॥ अह ते पण्डियमाणी, छक्कम्मरया तिभोगसम्मूढा । सम्मद्दंसणरहिया, जिणवरधम्मस्स पडणीया ॥२१॥ कस्सइ कालस्स तओ, विहरन्तो समणसङ्घपरिकिण्णो । अह नन्दिवद्धणमुणी, सालिग्गामं समणुपत्तो ॥२२॥ तं चेव महासमणं, उज्जाणत्थं जणो निसुणिऊणं । सालिग्गामाउ तओ, वन्दणहेडं विणिप्फिडिओ ॥२३॥ तं अग्गि-वाउभूई, दट्टु पुच्छन्ति कत्थ अइपउरो । एसो जाइ जणवओ, सबाल - वुड्ढो अइतुरन्तो ? ॥२४॥ एतानि चान्यानि च जीवानां परभवानुचरितानि । निश्रूयन्ते नराधिप ! मुनिवरकथितानि बहूनि ॥१२॥ तदा भणति मगधराजा भगवन्कथं तैरच्युते कल्पे । द्वाविंशतिसागरस्थिति र्भुक्ता मधु-कैटभ्यामपि ॥१३॥ भणति ततो गणनाथो वर्षसहस्राण्येव चतुषष्ठिः । कृत्वा तपो विपुलं जातौ तावच्युते देवौ ॥१४॥ कालेन च्युतौ सन्तावथ तौ मधुकैटभाविह भरते । कृष्णस्य द्वावपि पुत्रावुत्पन्नौ शाम्ब - प्रद्युम्नौ ॥१५॥ षट्समधिका तु लक्षा वर्षाणामन्तरं समाख्यातम् । तीर्थकरै र्महायशः ! भारत - रामायणयोस्तु ॥१६॥ पुनरपि च भणति राजा भगवन् ! कथं ताभ्यां दुर्लभा बोधिः । र्लब्धा तपश्च चीर्णम् ? एतत्कथय मे सर्वम् ॥१७॥ तदा भणतीन्द्रभूतिः श्रेणिक ! मधुकेटभाभ्यामन्यभवे । यथा जिनमते बोधि र्लब्धा तच्छुण्वेकाग्रमनाः ॥१८॥ इह खलु मगधाविषये शालिग्राम इति नाम विख्यातः । स भुनक्ति तत्कालं राजा निस्यन्दितो नाम ॥ १९॥ विप्रस्तु सोमदेवस्तत्र तु परिवसति शालिवरग्रामे । तस्याग्निलायाः पुत्रौ शिखिभूति र्वायुभूतिश्च ॥२०॥ अथ तौ पण्डितमानिनौ षट्कर्मरतौ (स्त्री) त्रिभोगसंमूढौ । सम्यग्दर्शनरहितौ जिनवरधर्मस्य प्रत्यनीकौ ॥२१॥ कस्यचित्कालस्य ततो विहरन्श्रमणसङ्घपरिकीर्णः । अथ नन्दिवर्धनमुनिः शालिग्रामं समनुप्राप्तः ॥२२॥ तमेव महाश्रमणमुद्यानस्थं जनो निश्रुत्य । शालिग्रामात्ततो वन्दनहेतुं विनिस्फिटितः ||२३|| तमग्न- वायुभूती दृष्ट्वापृच्छतः कुत्रातिप्रचूरः । एष याति जनपद: सबालवृद्धोऽतित्वरमानः ? ||२४|| १. चउसठ्ठि सहस्साई, वरिं० मु० । २. एवं मु० । ३. पडिणीया - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ पउमचरियं अन्नेण ताण सिटुं, उज्जाणे आगयस्स समणस्स । वन्दणनिमित्तहेउं, तस्स इमो जाइ गामजणो ॥२५॥ अह ते जेठ्ठ-कणिट्ठा, वायत्थी उवगया मुणिसयासं । जंपन्ति दोण्णि वि जणा, मुणीण पडिकुट्टवयणाई ॥२६॥ भो भो तुब्भे त्थमुणी!, जइ जाणह किंचि सत्थसंबन्धं । तो भणह लोगमज्झे, अइरा मा कुणह वक्खेवं ॥२७॥ एक्केण मुणिवरेणं, भणिया तुब्भेहि आगया कत्तो ? ।जंपन्ति आगया वि हु, सालिग्गामाओ अम्हेहिं ॥२८॥ पुणरवि मुणीण भणिया, कवणाओ भवाओ आगया तुब्भे। ___ एवं माणुसजम्मं ?, कहेह जइ अत्थि पण्डिच्चं ॥२९॥ तं ते अयाणमाणा, अहोमुहा लज्जिया ठिया विप्पा । ताहे ताण परभवं, कहिऊण मुणी समाढत्तो ॥३०॥ गामस्स वणथलीए, इमस्स तुब्भे हि दोण्णि वि सियाला।आसि च्चिय परलोए, मंसाहारा बहुकिलेसा ॥३१॥ एत्थेव अत्थि गामे, पामरओ करिसओ गओ छेत्तं । मोत्तूण य उवगरणं, तत्थ पुणो आगओसगिहं ॥३२॥ ते दो वि सियाला तं, उवगरणं खाइऊण कालगया । कम्मवसेणुप्पन्ना, पुत्ता वि हु सोमदेवस्स ॥३३॥ अह सो पभायसमए, पामरओ पत्थिओ नियं खित्तं । पेच्छइ दोण्णि सियाले, उवगरणं खाइऊण मए ॥३४॥ दिविए काऊण तओ, दोण्णि वि ते पत्थिओ निययगेहं । पामरओ कालगओ, जाओ गब्भम्मि सुहाए ॥३५॥ सरिऊण पुव्वजाइं, मूगत्तं कुणइ तत्थ सो बालो । कह वाहरामि पुत्तं, तायं सुण्हं च जणणी हं? ॥३६॥ जइ नत्थि पच्चओ भे, तो तं वाहरह एत्थ पामरयं । एयं चिय वित्तन्तं, जेण असेसं परिक हेमि ॥३७॥ अन्येन तयोः शिष्टमुद्याने आगतस्य श्रमणस्य । वन्दननिमित्तहेतुं तस्यायं याति ग्रामजनः ॥२५॥ अथ तौ ज्येष्ठ-कनिष्ठौ वादार्थिना उपगतौ मुनिसकाशम् । जल्पतो द्वावपि जनौ मुनिना प्रतिकूलवचनानि ॥२६॥ भो भो यूयमत्र मुनयः ! यदि जानत किंचिच्छास्त्रसम्बन्धम् । तदा भणत लोकमध्येऽचिरान्मा कुरुत व्याक्षेपम् ॥२७॥ एकेन मुनिवरेण भणितौ यूवामागतौ कुतः ? । जल्पत आगतावपि खलु शालिग्रामादावाम् ॥२८॥ पुनरपि मुनिना भणितौ कस्माद्भवादागतौ युवाम् । एतन्मनुष्यजन्म कथयथो यद्यस्ति पाण्डित्यम् ॥२९॥ तत्तावज्ञायमानावधोमुखौ लज्जितौ स्थितौ विप्रौ । तदा तयोः परभवं कथयितुं मुनिः समारब्धः ॥३०॥ ग्रामस्य वनस्थल्यामस्य युवां हि द्वावपि शृगालौ । आस्तामेव परलोके मांसाहारी बहुक्लेशौ ॥३१॥ अत्रैवास्ति ग्रामे पामरः कृषको गतः क्षेत्रम् । मुक्त्वा चोपकरणं तत्र पुनरागतः स्वगृहम् ॥३२॥ तौ द्वावपि शृगालौ तमुपकरणं खादित्वा कालगतौ । कर्मवशेनोत्पन्नौ पुत्रावपि हु सोमदेवस्य ॥३३॥ अथ स प्रभातसमये पामरः प्रस्थितो निजक्षेत्रम् । पश्यति द्वौ शृगालावुपगरणं खादित्वा मृतौ ॥३५॥ दीपितौ कृत्वा ततो द्वावपि तौ प्रथितो निजगृहम् । पामर: कालगतो जातो गर्भे श्नुषायाः ॥३५॥ स्मृत्वा पूर्वजाति मुकत्वं करोति तत्र स बालः । कथं व्याहरामि पुत्रं तातं श्नुषां च जननीमहम् ? ॥३६।। यदि नास्ति प्रत्ययो मे तास्तं व्याहरतमत्र पामरकम् । एतदेव वृत्तान्तं येनाशेष परिकथयामि ॥३७॥ १. चि अत्थ०-प्रत्य० । २. गओ खित्तं-प्रत्य० । ३. तो दो-मु० । ४. जणणीयं-प्रत्य० । ५. ०कहेइ-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महु-केढवउवक्खाणपव्वं -१०५/२५-५१ ६६७ वाहरिओ य मुणीणं, भणिओ जो आसि वच्छ पामरओ । सो हु तुमं दुकएणं, जाओ गब्भम्मि सुण्हाए ॥३८॥ राया जायइ भिच्चो, भिच्चो रायत्तणं पुण उवेइ । माया वि हवइ धूया, पिया वि पुत्तो समुब्भवइ ॥३९॥ एवं अरहट्टघडीजन्तसमे इह समत्थसंसारे । हिण्डन्ति सव्वजीवा, सकम्म विष्फंदिया सुइरं ॥४०॥ एवं संसारठिइं, वच्छ ! तुमं जाणिऊण मूगत्तं । मुञ्चसु फुडक्खरवयं, जंपसु इह लोयमज्झम्मि ॥४१॥ सो एव भणियमेत्तो, परितुट्ठो पणमिऊण मुणिवसहं । सव्वं जणस्स साहइ, वित्तन्तं कोल्हुयाईयं ॥४२॥ संवेयजणियभावो, पामरओ दिक्खिओ मुणिसयासे । सुणिऊण तं अणेगा, जाया समणा य समणी य । ॥४३॥ ते जणवएण विप्पा, उवहसिया कलकलं करेन्तेणं । एए ते मंसासी उ कोल्हुया बम्भणा जाया ॥४४॥ वय-सीलवज्जिएहिं, इमेहिं पसुएहिं पावबुद्धीहिं । मुसिया सव्वेह पया, धम्मत्थी भोगतिसिएहिं ॥४५॥ सव्वारम्भपवित्ता अबम्भयारी य इन्दियपसत्ता । भण्णन्ति चरणहीणा, अबम्भणा बम्भणा लोए ॥४६॥ एए तव-चरणठिया, सुद्धा समणा य बम्भणा लोए । वयबन्धसिहाडोवा, खन्तिखमाबम्भजुत्ता य ॥४७॥ झाणग्गिहोत्तनिरया, डहन्ति निययं कसायसमिहाओ । साहेन्ति मत्तिमग्गं.समणा डह बम्भणा धीरा ॥४८॥ जइ केइ नरा लोए, हवन्ति खन्दिन्द-रुद्दनामा उ। तह एए वयरहिया, अबम्भणा बम्भणा भणिया ॥४९॥ एवं साहूण थुई, जंपन्तं जणवयं निसुणिऊणं । मरुभू-अग्गिभूई, लज्जियविलिया गया सगिहं ॥५०॥ नाऊण य उवसग्गं, एज्जन्तं अत्तणो मुणिवरिन्दो। पडिमाइ पिउभवणे, सो ठाइ तओ धीरगम्भीरो ॥५१॥ व्याहृतश्च मुनिना भणितो य आसीद् वत्स ! पामरकः । स खलु त्वं दुष्कृतेन जातो गर्भे श्नुषायाः ॥३८॥ राजा जायते भृत्यो भृत्यो राजत्वं पुनरपैति । माताऽपि भवति दुहिता, पिताऽपि पुत्रः समुद्भवति ॥३९॥ एवमरघट्टघटीयन्त्रसम इह समस्तसंसारे। हिण्डन्ते सर्वजीवाः स्वकर्मविस्पन्दिताः सुचिरम् ॥४०॥ एवं संसारस्थितिं वत्स ! त्वं ज्ञात्वा मूकत्वम् । मुञ्च स्फुटाक्षरवचं जल्पेह लोकमध्ये ॥४१॥ स एवं भणितमात्रः परितुष्टः प्रणम्य मुनिवृषभम् । सर्वं जनस्य कथयति वृत्तान्तं शृगालादिकम् ॥४३।। संवेगजनितभावः पामरको दिक्षितो मुनिसकाशे । श्रुत्वा तमनेके जाता श्रमणाश्च श्रमण्यश्च ॥४३॥ तौ जनपदेन विप्रावुपहसितौ कलकलं कुर्वता । एतौ तौ मांसाशिनौ तु शृगालौ ब्राह्मणौ जातौ ॥४४|| व्रत-शीलवर्जिताभ्यामेताभ्यां पशुभ्यां पापबुद्धिभ्याम् । मुषिता सर्वेह प्रजा धर्मार्थी भोगतृषिताभ्याम् ॥४५॥ सर्वारम्भप्रवृत्ता अब्रह्मचारिणश्चेन्द्रियप्रसक्ताः । भणन्ति चरणहीना अब्राह्मणा ब्राह्मणा लोके ॥४६।। एते तपश्चरणस्थिताः शुद्धाः श्रमणाश्च ब्राह्मणा लोके । व्रतबन्धशिखाटोपाः क्षान्तिक्षमाब्रह्मयुक्ताश्च ॥४७॥ ध्यानाग्निहोत्रनिरता दहन्ति नित्यं कषायसमिधः । साध्यन्ते मुक्तिमार्ग श्रमणा इह ब्राह्मणा धीराः ॥४८॥ यदि केडपि नरा लोके भवन्ति स्कन्देन्द्ररुद्रनामानस्तु । तथैते व्रतरहिता अब्राह्मणा ब्राह्मणा भणिताः ॥४९॥ एवं साधुनां स्तुतिं जल्पन्तं जनपदं निश्रुत्य । मरुभूत्यग्निभूती लज्जितविलितौ गतौ स्वगृहम् ॥५०॥ ज्ञात्वा चोपसर्गमायान्तमात्मनो मुनिवरेन्द्रः । प्रतिमायाः पितृवने स तिष्ठति ततो धीरगम्भीरः ॥५१॥ १. ०प्फंडियं सु०-मु० । २. उ-प्रत्य० । ३. ०माउ पिउवणे सो, ठाइ-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं रोसाणलपज्जलिया, निसासु ते बम्भणा मुणिवहत्थे । पविसन्ति पिउवणं ते, असिवरहत्था महाघोरा ॥५२॥ बहुविहचिया पत्नीविय, जलन्तडज्झन्तमडयसंघायं । गह भूय- बम्भरक्खस-डाइणि वेयालभीसणयं ॥ ५३ ॥ किलिकिलिकिलन्तरक्खस- सिवामुहुज्जलियपेयसंघायं । कव्वायसत्तपरं, मडयसमोत्थइयमहिवीढं ॥ ५४ ॥ पच्चन्तमडर्यपुप्फससिमिसिमियगलन्तरुहिरविच्छड्डुं । डाइणिकबन्धकड्डियभीमं रुण्टन्तभूयगणं ॥५५॥ कडपूयणगहियरडन्तडिम्भयं कयतिगिच्छमन्तरवं । मण्डलरयपवणुद्धयइन्दाउहजणियनहमग्गं ॥५६॥ विज्जासाहणसुट्ठियजंगूलियतारजणियमन्तरवं । वायसअवहियमंसं उद्धमुहुन्नइयजम्बुगणं ॥५७॥ कत्थइ पेयायड्डियमडयविकीरन्तं कलहसद्दालं । कत्थइ वेयालाहयतरुणियरभमन्तभूयगणं ॥५८॥ कत्थइ रडन्तरिट्ठ, अन्नत्तो भुगुभुगेन्तजम्बुगणं । घुघुघुघुघुएन्तधूयं, कत्थइ कयपिङ्गलालोयं ॥५९॥ कत्थइ कठोरहुयवहतडतडफुट्टन्तअट्ठिसद्दालं । कत्थइ साणायड्डिय-मडयामिसंलग्गजुद्धधणि ॥६०॥ कत्थइ कवालधवलं, कत्थइ मसिधूमधूलिधूसरियं । किंसुयवणं व कत्थइ, जालामालाउलं दित्तं ॥ ६१ ॥ एयारिसे मसाणे, झाणत्थं मुणिवरं पलोएडं । विप्पा बहुज्जयमई, सविऊण मुणि समाढत्ता ॥६२॥ रे समण ! इह मसाणे, मारिज्जन्तं तुमं धरउ लोओ। पच्चक्खदेवए वि हु, जं निन्दसि बम्भणे अम्हे ॥ ६३ ॥ अम्हेहिं भाससि तुमं, जह एए जम्बुगा परभवम्मि । आसि किर दोण्णि वि जणा, एए विप्पा समुप्पन्ना ॥६४॥ 1 ६६८ रोषानलप्रज्वलितौ निशायां तौ ब्राह्मणौ मुनिवधार्थे । प्रविशतः पितृवनं ता असिवरहस्तौ महाघोरौ ॥५२॥ बहुविधाचिता प्रदीपिता ज्वलद्दहन्मृतकसंघातम् । ग्रहभूतबह्मराक्षसडाकिनिवैतालभीषणम् ॥५३॥ किलकिलकिलद्राक्षसशिवामुखोज्वालितप्रेतसंघातम् । क्रव्यद्शस्त्रप्रचुरं मृतकसमवस्तृतमहीपीठम् ॥५४॥ पच्यमानमृतककुक्कुससिमिसिमितगलद्रुधिरनिवहम् । डाकिनिकबन्धाकर्षित भीमं रौद्रभूतगणम् ॥५५॥ कटपूतनागृहीतरटडिम्भकं कृतचिकित्सकमन्त्ररवम् । मण्डलरजः पवनोद्धृतेन्द्रायुधजनितनभोमार्गम् ॥५६॥ विद्यासाधनसुस्थितजाङ्गुलिकतारजनितमन्त्ररवम् । वायसापहृतमांसमुर्ध्वमुखोन्नदितजम्बुकगणम् ॥५७॥ कुत्रचित्प्रेताकर्षितमृतकविकीरत्कलहशब्दवत् । कुत्रचिद्वैतालाहततरुनिकरभ्रमद्भूतगणम् ॥५८॥ कुत्रचिद्रटद्रिष्टमन्यतो भुगभुगज्जंबुकगणम्। घुघुघुघुघुवत्घुकं कुत्रचित्कृतपिङ्गलालोचम् ॥५९॥ कुत्रचित्कठोरहुतवहतडतडस्फुटदस्थिशब्दवत् । कुत्रचिच्छ्वानाकर्षितमृतकामिषलग्नयुद्धध्वनिम् ॥६०॥ कुत्रचित्कपालधवलं कुत्रचिन्मषिधूम्रधूलिधूसरितम् । किंशुकवनमिव कुत्रचिज्ज्वालामालाकूलं दीप्तम् ॥६१॥ एतादृशे स्मशाने ध्यानस्थं मुनिवरं प्रलोक्य । विप्रौ वद्योद्यतमती शपितुं मुनिं समारब्धौ ॥६२॥ रे श्रमण ! इह स्मशाने मार्यमाणं त्वां धरतु लोकः । प्रत्यक्षदेवता अपि खलु यन्निन्दसि ब्राह्मणानस्मान् ॥६३॥ अस्मान्भाषषे त्वं यथेतौ जम्बुकौ परभवे । आस्तां किलद्वावपि जनावेतौ विप्रौ समुत्पन्नौ ॥६४॥ १. ०यफुप्फुसमिसिमिसियग० - प्रत्य० । २. ०न्तपेयसद्दालं - मु० । ३. यालहयं, रुणुरुणिय भम० मु० । ४. ०सळद्धणियसुहं - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महु-केढवउवक्खाणपव्वं -१०५/५२-७७ ते एव भाणिऊणं, दट्ठोट्ठा असिवराई कड्डेउं । पहणन्ता मुणिवसहं तु थम्भिया ताव जक्खेणं ॥६५॥ एवं कमेण रयणी, विप्पाणं थम्भियाण वोलीणा । उइओ य दियसणाहो, साहूण समाणिओ जोगो ॥६६॥ तावागओ समत्थो, सङ्घो सह जणवएण मुणिवसभं । वन्दइ विम्हियहियओ, पेच्छन्तो थम्भिए विप्पे ॥१७॥ भणिया य जणवएणं, एए विप्पा पराइया वाए । समणेण गुणवरेणं, जाया वि हु तेण पडिकुट्ठा ॥६८॥ चिन्तेन्ति तओ विप्पा, एस पहावो मुणिस्स निक्खुत्तं । बलविरियसमत्था वि य, तेणऽम्हे थम्भिया इहइं ॥६९॥ एयाए अवत्थाए, जइ अम्हे कह वि निष्फिडीहामो । तो मुणिवरस्स वयणं, निस्सन्देहं करीहामो ॥७०॥ एयन्तरम्मि पत्तो, समयं चिय अग्गिलाए तूरेन्तो । विप्पो उ सोमदेवो, पणमइ साहुं पसाएन्तो ॥७१॥ पणमिय पुणो पुणो च्चिय, समणं तो बम्भणो भणइ एवं । जीवन्तु देव एए, दप्पुत्ता तुज्झ वयणेणं ॥७२॥ समसत्तु-मित्तभावा, समसुह-दुक्खा पसंस-निन्दसमा । समणा पसत्थचित्ता, हवन्ति पावाण वि अपावा ॥७३॥ ताव च्चिय संपत्तो, जक्खो तं बम्भणं भणइ रुट्ठो ।मा देसि संपइ तुमं, अब्भक्खाणं मुणिवरस्स ॥७४॥ पावा य कलुसचित्ता, मिच्छादिट्ठी मुणी दुगुंछन्ता । रे विप्प ! तुज्झ पुत्ता, इमे मए थम्भिया दुट्ठा ॥५॥ मारेन्तो लहइ वहं, सम्माणेन्तो य लहइ सम्माणं । जो जं करेइ कम्मं, सो तस्स फलं तु अणुहवइ ॥७६॥ तं एव जंपमाणं, अइचण्डं दारुणं महाजदुक्खं । विन्नवइ पायवडिओ, साहुं च पुणो पुणो विप्पो ॥७७॥ तावेवं भणित्वा दृष्टौष्ठावसिवराणि कृष्ट्वा । प्रघ्नन्तौ मुनिवृषभं तु स्तम्भितौ तावद्यक्षेण ॥६५॥ एवं क्रमेण रजनीं विप्रयोः स्तम्भितयो र्व्यतीता । उदितश्च दिवसनाथः साधुना समानितो योगः ॥६६॥ तावदागतः समस्तः सङ्यः सह जनपदेन मुनिवृषभम् । वन्दते विस्मितहृदयः पश्यन् स्तम्मितौ विप्रौ ॥६७।। भणितौ च जनपदेनैतौ विप्रौ पराजितौ वादे । श्रमणेन गुणवरेण जातावपि खलु तेन प्रतिकृष्टौ ॥६८॥ चिन्तयतस्ततो विप्रावेष प्रभावो मुने निश्चितम् । बलवीर्यसमर्थावपि च तेनावां स्तम्भिताविह ॥६९॥ एतस्या अवस्थाया यद्यावां कथमपि निस्फेटिस्यावः । तदा मुनिवरस्य वचनं निःसंदेहं करिष्यावः ॥७०॥ एतदन्तरे प्राप्तः समकमेवाग्निलया त्वरमाणः । विप्रस्तु सोमदेवः प्रणमति साधु प्रसादनम् ॥७१।। प्रणम्यः पुनः पुनरेव श्रमणं तदा ब्राह्मणो भणत्येवम् । जीवतां देव एतौ दुष्पुत्रौ तव वचनेन ॥७२॥ समशत्रुमित्रभावाः समसुखदुःखाः प्रशंसानिन्दासमाः । श्रमणाः प्रशस्तचित्ता भवन्ति पापानामप्यपापाः ॥७३॥ तावदेव संप्राप्तो यक्षस्तं ब्राह्मणं भणति रुष्टः । मा ददस्व संप्रति त्वमभ्याख्यानं मुनिवरस्य ॥७४॥ पापौ च कलुषचित्तौ मिथ्यादृष्टी मुनि जुगुप्सन्तौ । रे विप्र ! तव पुत्राविमौ मया स्तम्भितौ दुष्टौ ।।७५।। मारयल्लभते वधं सन्मानयंश्च लभते सन्मानम् । यो यत्करोति कर्म स तस्य फलं त्वनुभवति ॥७६।। तमेवं जल्पन्तमतिचण्डं दारुणं महायक्षम् । विज्ञापयति पादपतितः साधुं च पुनः पुन विप्रः ॥७॥ १. गुणधरेणं-प्रत्य० । २. समणं तं ब०-प्रत्य० । ३. एए पुत्ता मे तुज्झ-प्रत्य० । ४. फलं समणुहोइ-मु०।। For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ६७० तो भइ मुणी जक्खं, मरिससु दोसं इमाण विप्पाणं । मा कुणसु जीवघायं, मज्झ कए भद्द ! दीणाणं ॥७८॥ आवेसि मुवि !, एवं भणिऊण तत्थ जक्खेणं । ते बम्भणा विमुक्का, आसत्था साहवं पणया ॥ ७९ ॥ ते अग्गि- वाउभूई, वेयसुइं उज्झिऊण उवसन्ता । साहुस्स सन्नियासे, दो वि जणा सावया जाया ॥८०॥ जिणसासणाणुरत्ता, `गिहिधम्मं पालिऊण कालगया । सोहम्मकप्पवासी, दोण्णि यौं देवा समुप्पन्ना ॥८१॥ तत्तो चुया समाणा, साएयाए समुद्ददत्तस्स । सेट्ठिस्स धारिणीए, पियाए पुत्ता समुप्पन्ना ॥८२॥ नन्दण-नयणाणन्दा, पुणरवि सायारधम्मजोएणं । मरिऊण तओ जाया, देवा सोहम्मकप्पम्मि ॥८३॥ तत्थ वरविमाणे, तुडिय -ऽङ्गय-कडय - कुण्डलाहरणा । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, सुरवहुपरिवारिया सुइरं ॥ ८४ ॥ चइया अमरवईए, देवीए कुच्छिसंभवा जाया । ते हेमणाहपुत्ता, विणियाए सुरकुमारसमा ॥८५॥ महु-केढवा नरिन्दा, जाया तेलोक्कपायडपयावा । भुञ्जन्ति निरवसेसं, पुहई जियसत्तुसामन्ता ॥८६॥ नवरं ताण न पणमइ, भीमो गिरिसिहरदुग्गमावत्थो । उव्वासेइ य देसं, उण्णसेन्नो कयन्तसमो ॥८७॥ वडनयरसामिएणं, भीमस्स भएण वीरसेणेणं । संपेसिया य लेहा, तूरन्ता महुनरिन्दस्स ॥८८॥ सुणिऊणय हत्थं, देसविणासं तओ परमरुट्ठो । निप्फिडइ य महुराया, तस्सुवरिं साहणसमग्गो ॥ ८९ ॥ अह सो कमेण पत्तो, वडनयरं पविसिउं कयाहारो । तं वीरसेणभज्जं, चन्दाभं पेच्छइ नरिन्दो ॥९०॥ ततो भणति मुनिर्यक्षं माक्षि दोषमनयो विप्रयोः । मा कुरु जीवघातं मम कृते भद्र ! दीनयोः ॥७८॥ यदाज्ञापयसि मुनिवर ! एवं भणित्वा तत्र यक्षेण । तौ ब्राह्मणौ विमुक्तावाश्वास्तौ साधुं प्रणतौ ॥७९॥ तावग्निभूतिवायुभूती वेदश्रुतमुज्झित्वोपशान्तौ । साधोः सन्निकाशे द्वावपि जनौ श्रावकौ जातौ ॥८०॥ जिनशासनानुरक्तौ गृहस्थधर्मं पालयित्वा कालगतौ । सौधर्मकल्पवासिनौ द्वावपि च देवौ समुत्पन्नौ ॥८१॥ ततश्च्युतौ सन्तौ साकेतायां समुद्रदत्तस्य । श्रेष्ठिनो धारिण्याः प्रियायाः पुत्रौ समुत्पन्नौ ॥८२॥ नन्दन - नयनानन्दौ पुनरपि साकारधर्मयोगेन । मृत्वा ततो जातौ देवौ सौधर्मकल्पे ॥८३॥ I तौ तत्र वरविमाने त्रुटिताङ्गदकटककुण्डलाभरणौ । भुञ्जतो विषयसुखं सुरवधुपरिवारितौ सुचिरम् ॥८४॥ च्युतावमरवत्या देव्याः कुक्षिसंभवौ जातौ । तौ हेमनाथपुत्रौ विनितायां सुरकुमारसमौ ॥८५॥ मधु-कैटभौ नरेन्द्रौ जातौ त्रैलोक्यप्रकटप्रतापौ । भुञ्जतो निरवशेषां पृथिवीं जितशत्रुसामन्तौ ॥८६॥ नवरं तयो र्न प्रणमति भीमो गिरिशिखरदुर्गमावस्थः । उद्वासयति च देशमुदीर्णसैन्यः कृतान्तसमः ||८७|| वडनगरस्वामिना भीमस्य भयेन वीरसेनेन । संप्रेषिताश्च लेखास्त्वरमाण: मधुनरेन्द्रस्य ॥८८॥ श्रुत्वा च लेखार्थं देशविनाशं ततः परमरुष्टः । निस्फिटति च मधुराजा तस्योपरि साधनसमग्रः ॥८९॥ अथ स क्रमेण प्राप्तो वडनगरं प्रविश्य कृताहारः । तां वीरसेनभार्यां चन्द्राभां पश्यति नरेन्द्रः ॥९०॥ १. हि धम्मं - प्रत्य० । २ वि प्रत्य० । ३. ०सामन्तं मु० । For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ महु-केढवउवक्खाणपव्वं -१०५/७८-१०३ चिन्तेइ तो मणेणं, इमाए सह जा न भुञ्जिमो भोगे । तो मज्झ इमं रज्जं, निस्सारं निष्फलं जीयं ॥११॥ कज्जा-ऽकज्जवियन्नू, पडिसत्तुं निज्जिऊण संगामे । पुणरवि साएयपुरिं, कमेण संपत्थिओ राया ॥१२॥ काऊण य मन्तणयं, राया पूएइ सव्वसामन्ते । वाहरड़ वीरसेणं, ताहे अन्तेउरसमग्गं ॥१३॥ सम्माणिओ य सो वि य, विसज्जिओ सव्वनरवइसमग्गो । नवरं चिय चन्दाभा, महुणा अन्तेउरे छूढा ॥९४॥ अभिसेयपट्टबन्धं, चन्दाभा पाविया नरिन्देणं । जाया य महादेवी, सव्वाण वि चेव महिलाणं ॥१५॥ अह सो महू नरिन्दो, चन्दाभासहगओ तहिं भवणे । रइसागरोवगाढो, गयं पि कालं न लक्खेइ ॥१६॥ सो य पुण वीरसेणो, हरियं नाऊण अत्तणो कन्तं । घणसोगसल्लियङ्गो, सहसा उम्मत्तओ जाओ ॥१७॥ एवं अणुहविय चिरं, कन्ताविरहम्मि दुस्सहं दुक्खं । मण्डवसाहुसयासे, पव्वइओ वीरसेणो सो ॥१८॥ सो वीरसेणसाहू, तवचरणं अज्जिऊण कालगओ। दिव्वङ्गयमउडधरो, देवो वेमाणिओ जाओ ॥१९॥ अह सो महू नरिन्दो, चिट्ठइ धम्मासणे सुहनिविट्ठो । मन्तीहिं सहालावं, ववहारवियारणं कुणइ ॥१००॥ तं चेव उ ववहारं, राया मोत्तूण पत्थिओ सगिहं । भणिओ चन्दाभाए, किं अज्ज चिरावियं सामि ? ॥१०१॥ तेण वि सा पडिभणिया, ववहारो पारदारियस्स पिए ! । आसि न तीड़ छेत्तुं, चिरावियं तेण अज्ज मए ॥१०२॥ तो भणइ विहसिऊणं, चन्दाभा पारदारियं सामि ! । पूएहि पयत्तेणं, न तस्स दोसो हवइ लोए ॥१०३॥ चिन्तयति ततो मनसाऽनया सह यदि न भुनग्मि भोगान् । तदा ममेदं राज्यं नि:सारं निष्फलं जीवित ॥९१॥ कार्याऽकार्यविज्ञः प्रतिशत्रु निर्जित्य संग्रामे । पुनरपि साकेतपुरिं क्रमेण संप्रस्थितो राजा ॥१२॥ कृत्वा च मन्त्रणकं राजा पूजयति सर्व सामन्तान् । व्याहरति वीरसेनं तदाऽन्तःपुरसमग्रम् ॥१३॥ सन्मानितः सोऽपि च विसर्जितः सर्वनरपतिसमग्रः । नवरमेव चन्द्राभा मधुनाऽन्तःपुरे क्षिप्ता ॥१४॥ अभिषेकपट्टबन्धं चन्द्राभा प्राप्ता नरेन्द्रेण । जाता च महादेवी सर्वासामपि एव महिलानाम् ॥१५॥ अथ स मधुनरेन्द्रश्चन्द्राभासहगतस्तत्र भवने । रतिसागरावगाढो गतमपि कालं न लक्ष्यति ॥१६॥ स च पुनो वीरसेनो हृतां ज्ञात्वाऽऽत्मन:कान्ताम् । घनशोकशल्यिताङ्गः सहसोन्मत्तो जातः ॥९७॥ एवमनुभूय चीरं कान्ताविरहे दुःसहं दुःखम् । मण्डपसाधुसकाशे प्रव्रजितो वीरसेनः सः ॥९८॥ स वीरसेनसाधुस्तपश्चरणमर्जयित्वा कालगतः । दिव्याङ्गदमुकुटधरो देवो वैमानिको जातः ॥९९|| अथ स मधुनरेन्द्रस्तिष्ठति धर्मासने सुखनिविष्टः । मन्त्रिभिः सहालापं व्यवहारविचारणं करोति ॥१००। तमेव तु व्यवहारं राजा मुक्त्वा प्रस्थितः स्वगृहम् । भणितश्चन्द्राभया किमद्य चिरायितं स्वामिन् ! ॥१०१॥ तेनाऽपि सा प्रतिभणिता व्यवहारः पारदारिकस्य प्रिये ! । आसीन्न शक्यते छेत्तुं चिरायितं तेनाद्य मया ॥१०२।। तदा भणति विहस्य चन्द्राभा पारदारिकं स्वामिन् ! । पूजय प्रयत्नेन न तस्य दोषो भवति लोके ॥१०३॥ १. जायं-मु० । २. ०ण समरमुहे। पु०-प्रत्य० । ३. वूढा-मु० । ४. ०णो य-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ पउमचरियं सुणिऊण तीए वयणं, रुट्ठो महुपस्थिवो भणइ एवं । जो निग्गहस्स भागी, सो कह पूइज्जए दुट्ठो ? ॥१०४॥ जइ निग्गहं नराहिव , कुणसि तुमं पारदारियनरस्स । घोरं तु महादण्डं , किं न हुतं अत्तणो कुणसि ? ॥१०५॥ पढमपरदारसेवी, सामि ! तुम सयलवसुमईनाहो । पच्छा हवइ य लोओ, जह राया तह पया सव्वा ॥१०६॥ सयमेव नरवरिन्दो, जत्थ उ परदारिओ हवइ दुट्ठो । तत्थ उकिं ववहारो, कीरइ लोगस्स मज्झम्मि ? ॥१०७॥ सुणिऊण वयणमेयं, पडिबुद्धो तक्खणं महू राया। निन्दइ पुणो पुणो च्चिय, अप्पाणं जायसंवेगो ॥१०८॥ कुलवद्धणस्स रज्जं, दाउं सह केढवेण महुराया। निक्खमइ दढधिईओ, पासे मुणिसीहसेणस्स ॥१०९॥ चन्दाभा वि महाकुलसंभूया उज्झिऊण रायसिरिं। तस्सेव पायमूले, मुणिस्स दिक्खं चिय पवन्ना ॥११०॥ घोरं काऊण तवं, कालगया आरणच्चुए कप्पे । महु-केढवाऽणुजाया, दोण्णि वि ते इन्दपडिइन्दा ॥१११॥ समणी वि य चन्दाभा, संजम-तव-नियम-जोगजुत्तमणा । कालगया उववन्ना, देवी दिव्वेण रूवेणं ॥११२॥ बावीससागराइं, जह तेहि सुहं मणोहरं भुत्तं । सेणिय ! अच्चुयकप्पे, सीया इन्दो वि य तहेव ॥११३॥ इमं महू-केढवरायचेट्ठियं, समासओ तुज्झ मए निवेइयं । नरिन्द ! धीरटुकुमारसंगयं, सुणेहि एत्तो विमलाणुकित्तणं ॥११४॥ ॥ इइ पउमचरिए महु-केढवउवक्खाणं नाम पञ्चुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ श्रुत्वा तस्या वचनं रुष्टो मधुपार्थिवो भणत्येवम् । यो निग्रहस्य भागी स कथं पूज्यते दुष्ट: ? ॥१०४॥ यदि निग्रहं नराधिप ! करोषि त्वं पारदारिकनरस्य । घोरं तु महादण्डं किन्न खलु तदात्मनः कुरुषे ? ॥१०५।। प्रथमपरदारसेवी स्वामिंस्त्वं सकलवसुमतिनाथः । पश्चाद्भवति च लोको यथा राजा तथा प्रजाः सर्वाः ॥१०६॥ स्वयमेव नरवरेन्द्रो यत्र तु परदारिको भवति दुष्टः । तत्र तु किं व्यवहारः क्रियते लोकस्य मध्ये ? ॥१०७।। श्रुत्वा वचनमेतत्प्रतिबुद्धस्तत्क्षणं मधुराजा । निन्दति पुनः पुनरेवात्मानं जातसंवेगः ॥१०८॥ कुलवधनाय राज्यं दत्वा सह कैटभेन मधुराजा । निष्कामति दृढधृतिकः पार्वे मुनिसिंहसेनस्य ॥१०९।। चन्द्राभाऽपि महाकुलसंभूतोज्झित्वा राज्यश्रीम् । तस्यैव पादमूले मुनेदिक्षामेव प्रपन्ना ॥११०॥ घोरं कृत्वा तपः कालगतौ आरणाच्युते कल्पे । मधुकैटभावनुजातौ द्वावपि ताविन्द्रप्रतीन्द्रौ ॥१११॥ श्रमण्यपि चन्द्राभा संयम-तपो-नियमयोगयुक्तमना । कालगतोत्पन्ना देवी दिव्येन रुपेण ॥११२॥ द्वाविंशतिसागराणि यथा ताभ्यां सुखं मनोहरं भुक्तम् । श्रेणिक ! अच्युतकल्पे सीतेन्द्रोऽपि च तथैव ॥११३।। इदं मधु-कैटभराजचेष्टितं समासतस्तव मया निवेदितम् । नरेन्द्र ! धीराष्टकुमारसंगतं श्रुण्वितो विमलानुकीर्तनम् ॥११४॥ ॥इति पद्मचरिते मधु-कैटभोपाख्यानं नाम पञ्चोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०ण्डं तो किं ण हु अ०-प्रत्य० । २. अत्ताणं-प्रत्य० । ३. ०न्दो च्चिय-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. लक्खणकुमारनिक्खमणपव्वं कञ्चणनयराहिवई, कणगरहो णाम खेयरो सूरो । महिला तस्स सयहुया, दोण्णि य धूयाउ कन्नाओ ॥१॥ ताणं सयंवरटे, सव्वे वि य खेयरा समाहूया । कणयरहेण तुरन्तो, रामस्स वि पेसिओ लेहो ॥२॥ सुणिऊण य लेहत्थं, हलहर-नारायणा सुयसमग्गा । विज्जाहरपरिकिण्णा', तं कणयपुरं समणुपत्ता ॥३॥ ताव सहासु निविट्ठा, सव्वे वि य उभयसेढिसामन्ता । आहरणभूसियङ्गा, देवा व महिड्डिसंजुत्ता ॥४॥ रामो लक्खणसहिओ, कुमारपरिवारिओ विमाणाओ । अवयरिऊण निविट्ठो, तत्थेव सहाए सुरसरिसो ॥५॥ ताव य दिणे पसत्थे, कन्नाओ दो वि कयविभूसाओ । तं चेव रायउदहि, जणकल्लोलं पविट्ठाओ ॥६॥ ताणं चिय मयहरओ, दावेइ नराहिवे बहुवियप्पे । हरि-वसह-सिहि-पवंगम-गरुड-महानागचिन्धाले ॥७॥ मयहरयदाविए ते, जहक्कमं नरवई पलोएउं। कन्नाहि कया दिट्ठी, लवं-उँकुसाणं घणसिणेहा ॥८॥ मन्दाइणीए गहिओ, अणङ्गलवणो अणङ्गसमरूवो । चन्दमुहीए वि तओ, गन्तुं मयणंकुसो वरिओ ॥९॥ अह तत्थ जणसमूहे, जाओ च्चिय हलहलारवो गहिरो । जय-हसिय-गीय-वाइय-विमुक्कहंकारवक्कारो ॥१०॥ साहुत्ति साहु लोगो, जंपइ सीसङ्गलिं भमाडेन्तो ।अणुसरिसो संजोगो, अम्हेहि सयंवरे दिट्ठो ॥११॥ १०६. लक्ष्मणकुमारनिष्क्रमणपर्वम् कञ्चननगराधिपति:कनकरथो नाम खेचरः शूरः । महिला तस्य शतहुता द्वे च दुहितरौ कन्ये ॥१॥ तयोः स्वयंवरार्थे सर्वेऽपि च खेचराः समाहूताः । कनकरथेन त्वरमाणः रामस्यापि प्रेषितो लेखः ॥२॥ श्रुत्वा च लेखार्थं हलधर-नारायणौ सुतसमग्रौ । विद्याधरपरिकीर्णौ तं कनकपुरं समनुप्राप्तौ ॥३॥ तावत्सभायां निविष्टाः सर्वेऽपि चोभयश्रेणिसामन्ताः । आभरणभूषिताङ्गा देवा इव महद्धिसंयुक्ताः ॥४॥ रामो लक्ष्मणसहितः कुमार परिवारितो विमानाद् । अवतीर्य निविष्टस्तथैव सभायां सुरसदृशः ॥५॥ तावच्च दिने प्रशस्ते कन्ये द्यपि कृतविभूषे । तदेव राजोदधि जनकल्लोलं प्रविष्टे ॥६॥ तयोरेव महत्तरको दर्शयति नराधिपान् बहुविकल्पान् । हरि-वृषभ-शिखि-प्लवङ्ग-गरुड-महानागचिह्नान् ॥७॥ महत्तरदर्शितांस्तान् यथाक्रमं नरपतीन् दृष्ट्वा । कन्याभिः कृता दृष्टि लवणाङ्कुशयोः घनस्नेहा ॥८॥ मन्दाकिन्या गृहीतोऽनङ्गलवणोऽनङ्गसमरुपः । चन्द्रमुख्यापि ततो गत्वा मदनांकुशो वृत्तः ॥९॥ अथ तत्र जनसमूहे जात एव हलहलारवो गम्भीरः । जय-हसित-गीत-वादित-विमुक्तहुंकारगर्जारवः ॥१०॥ साध्विति साधु लोको जल्पति शीर्षाङ्गुलिं भ्रामयन् । अनुसदृशः संयोगोऽस्माभिः स्वयंवरे दृष्टः ॥११॥ १. सयंहुय, दो०-प्रत्य० । २. ०ण्णा कणयपुरं चेवमणु०-प्रत्य० । ३. य-मु०। ४. कण्णाहिं दिन्नं दिट्ठी-प्रत्य० ।५.०यपमुक्क०-प्रत्य० । ६. सयंवरो प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ पउमचरियं गम्भीरधीरगरुयं, एसा मन्दाइणी गया लवणं । मयणंकुसं सुरूवं, चन्दमुही पाविया धीरं ॥१२॥ साहुक्कारमुहरवं, लोगं सुणिऊण लक्खणस्स सुया । लवणं-इंकुसाण रुट्ठा, सन्नज्झेउं समाढत्ता ॥१३॥ देवीए विसल्लाईण नन्दणा अट्ठ वरकुमारा ते । पन्नासूणेहिं तिहिं, सएहि भाईण परिकिण्णा ॥१४॥ लवणं-उँकुसाण कुद्धं, भाइबलं तेहिं अट्ठहिं जणेहिं । मन्तेहि व उवसमियं, भुयंगमाणं समूहं व ॥१५॥ ताहे लवणं-उंकुसाणं, पाणिग्गहणं कमेण निव्वत्तं । बहुतूर-सङ्खपउरं, नच्चन्तविलासिणिजणोहं ॥१६॥ ते लक्खणस्स पुत्ता, दट्टण सयंवरिं महारिद्धि । अह भाणिउं पयत्ता, सामरिसा दुट्ठवयणाइं ॥१७॥ अम्हे किं केण हीणा, गुणेहिं एयाण जाणइसुयाणं ? । जेणं चियपरिहरिया, कन्नाहिं विवेगरहियाहिं ॥१८॥ एयाणि य अन्नाणि य, सोयन्ता तत्थ वरकुमारा ते । भणिया रूवमईए, सुएण अइबुद्धिमन्तेणं ॥१९॥ महिलाए कए कम्हा, सोयह तुब्भेत्थ दारुणं सव्वे । होहह उवहसणिज्जा, इमाए चेट्टाए लोगस्स ? ॥२०॥ जंजेण कयं कम्म, सुहं व असुहं व एत्थ संसारे। तं तेण पावियव्वं, तुब्भे मा कुणह परितावं ॥२१॥ एयाण अद्धवाणं, कयलीथम्भ व्व साररहियाणं । भोगाण विससमाणं, कएण मा दुक्खिया होह ॥२२॥ तायस्स मए अङ्गे, ठिएण बालेण पोत्थयम्मि सुयं । वयणं जह मणुयभवो, भवाण सव्वुत्तमो एसो ॥२३॥ तं एव इमं लद्धं, माणुसजम्मं जयम्मि अइदुलहं । कुणह परलोयहिययं, जिणवरधम्मं पयत्तेणं ॥२४॥ गम्भीरधीरगुरुकमेषा मन्दाकिनी गता लवणम् । मदनांकुशं सुरुपं चन्द्रमुखी प्राप्ता धीरम् ।।१२।। साधुकारमुखरवं लोकं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य सुताः । लवणाङ्कुशयो रुष्टाः सन्निहितुं समारब्धाः ॥१३॥ देवीनां विशल्यादीनां नन्दना अष्टौ वरकुमारास्ते । पञ्चाशतोनैस्त्रिभिः शतै मा॑तॄणां परिकीर्णाः ॥१४॥ लवणाङ्कुशयोः क्रुद्ध भातृबलं तैरष्टाभिः जनैः । मन्त्रैरिवोपशमितं भुजङ्गमानां समूहमिव ॥१५॥ तदा लवणाकुशयोः पाणिग्रहणं क्रमेण निवृत्तम् । बहुतूर्यशङ्खप्रचूरं नृत्यद्विलासिनिजनौघम् ॥१६।। ते लक्ष्मणस्य पुत्रा दृष्ट्वा स्वयंवरिं महद्धिम् । अथ भणितुं प्रयताः सामर्षा दुष्टवचनानि ॥१७॥ वयं किं केन हीनाः गुणैरेतयो जानकीसुतयोः । येनैव परिहताः कन्याभ्यां विवेकरहिताभ्याम् ।।१८।। एतानि चान्यानि च शोचमानास्तत्र वरकुमारास्ते । भणिता रुपमत्याः सुतेनातिबुद्धिमता ॥१९॥ महिलायाः कृते कस्माच्छोचध्वं यूयमत्र दारुणं सर्वे । भवतोपहसनीया ऽनया चेष्टया लोकस्य ? ॥२०॥ यद् येन कृतं कर्म शुभं वाऽशुभं वात्र संसारे । तत्तेन प्राप्तव्यं युस्माभि ा कुरुत परितापम् ॥२१॥ एतेषामध्रुवाणां कदलीस्तम्भसाररहितानाम् । भोगानां विषसमानां कृतेन मा दुःखिता भवत ॥२२॥ तातस्य मयाड्के स्थितेन बालेन पुस्तके श्रुतम् । वचनं यथा मनुष्यभवो भव्यानां सर्वोत्तम एषः ॥२३।। तदेवमयं लब्ध्वा मनुष्यजन्म जगत्यतिदुर्लभम् । कुरुत परलोकहितं जिनवरधर्म प्रयत्नेन ॥२४॥ १. धीरा-मु० । २. मन्तीहि य उव०-मु० । ३. अम्हेहिं केण-प्रत्य० । ४. रूववईए-प्रत्य० । ५. होह उवहासणिज्जा-मु० । ६. ब दुक्खं वप्रत्य० । ७. ०ह य परलोयहियं-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ कुमारनिक्खमणपव्वं -१०६/१२-३७ दाणेण साहवाणं, भोगो लब्भइ तवेण देवत्तं । नाणेण सिद्धिसोक्खं, पाविज्जइ सीलसहिएणं ॥२५॥ जायस्स धुवं मरणं, दोग्गइगमणं च होइ परलोगे । तं एव जाणमाणा, सव्वे वि य कुणह जिणधम्मं ॥२६॥ सुणिऊण वयणमेयं, पडिबुद्धा ते तहिं कुमारवरा । पियरं कयञ्जलिउडा, भणन्ति निसुणेहि विन्नप्पं ॥२७॥ जइ ताय ! इच्छसि हियं, अम्हाणं वल्लभाण पुत्ताणं । तो मा काहिसि विग्धं, दिक्खाभिमुहाण अम्हाणं ॥२८॥ संसारम्मि अणन्ते, परिभमिया विसयलोलुया अम्हे । दुक्खाणि अणुहवन्ता, संपइ इच्छामि पव्वइउं ॥२९॥ तो भणइ लच्छिनिलओ, वयणं अग्घाइउंसिरे पुत्ता । कइलाससिहरसरिसा, एए च्चिय तुम्ह पासाया ॥३०॥ वरकञ्चणभित्तीया, सव्वुवगरणेहिं संजुया रम्मा । वीणा-वंसरवेण य, महुरसरुग्गीयनिग्घोसा ॥३१॥ वरजुवईहिं मणहरे, विवुहावासे व्व रयणपज्जलिए । कह पुत्त मुञ्चह इमे, पासाए निच्चरमणिज्जे ॥३२॥ आहार-पाण-चन्दण-मल्ला-ऽऽहरणेसु लालिया तुब्भे । विसहिस्सह कह एयं, दुक्करचरियं मुणिवराणं ॥३३॥ कह नेहनिब्भराओ, मुञ्चह जणणीउ विलवमाणीओ।। न य जीवन्ति खणं पि हु, तुज्झ विओगम्मि एयाओ ॥३४॥ सो तेहिं वि पडिभणिओ, ताय ! भमन्ताण अम्ह संसारे।जणणीण सयसहस्सा, पियराण य वोलियाऽणन्ता ॥३५॥ न पिया न चेव माया, न य भाया नेय अत्थसंबन्धा । कुव्वन्ति परित्ताणं, जीवस्स उधम्मरहियस्स ॥३६॥ जं भणसि ताय ! भुञ्जह, इस्सरियं एत्थ माणुसे जम्मे । तं खिवसि अन्धकूवे, जाणन्तो दुत्तरे अम्हे ॥३७॥ दानेन साधूनां भोगो लभ्यते तपसा देवत्वम् । ज्ञानेन सिद्धिसुखं प्राप्यते शीलसहितेन ॥२५॥ जातस्य ध्रुवं मरणं दुर्गतिगमनं च भवति परलोके । तदेवं ज्ञायमानाः सर्वेऽपि च कुरुत जिनधर्मम् ॥२६॥ श्रुत्वा वचनमेतत्प्रतिबुद्धास्ते तत्र कुमारवराः । पितरं कृताञ्जलिपुटा भणन्ति निश्रुणु विज्ञापनम् ॥२७॥ यदि तातेच्छसि हितमस्माकं वल्लभानां पुत्रणाम् । तदा मा करिष्यषि विघ्नं दिक्षाभिमुखानामस्माकम् ॥२८॥ संसारे ऽनन्ते परिभ्रान्ता विषयलोलुपा वयम् । दु:खान्यनुभवन्तः संप्रतीच्छामः प्रव्रजितुम् ॥२९॥ तदा भणति लक्ष्मीनिलयो वचनमाघ्राय शिरसि पुत्राः ! । कैलाशशिखरसदृशा एत एव युस्माकं प्रासादाः ॥३०॥ वरकञ्चनभित्तिकाः सर्वोपकरणैः संयुता रम्याः । वीणावंशरवेण च मधुरस्वरोद्गीतनिर्घोषाः ॥३१॥ वरयुवतिभि मनोहरान् विबुधावासानिव रत्नप्रज्वलितान् । कथं पुत्रा मुञ्चतेमान्प्रासादान्नित्यरमणीयान् ॥३२॥ आहार-पान-चन्दन-मालाऽऽभरणै लालिता यूयम् । विसहिष्यध्वे कथमेतदुष्करचरितं मुनिवराणाम् ॥३३॥ कथं स्नेहनिर्भरा मञ्चत यो विलपन्त्यः । न च जीवन्ति क्षणमपि खल तववियोग एताः ॥३५॥ स तैरपि प्रतिभणितस्तात ! भ्रमतामस्माकं संसारे । जननीनां शतसहस्राः पितॄणां च व्यतीताऽनन्ताः ॥३५॥ न च पिता नैव माता न च भ्राता नैवार्थसम्बन्धाः । कुर्वन्ति परित्राणं जीवस्य तु धर्मरहितस्य ॥३६॥ यभणसि तात ! भुजतेश्वर्यमत्र मनुष्ये जन्मनि । तत्क्षिपस्यन्धकपे जानन दस्तरे ऽस्मान ॥३७॥ १. तहिं वरकुमारा-प्रत्य० । २. तुब्भ वि०-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ पउमचरियं सलिलं चेव पियन्तं, हरिणं जह हणइ एक्कओ वाहो । तह हणइ नरं मच्चू, तिसियं चिय कामभोगेसु ॥३८॥ जइ एव विप्पओगो, जायइ बन्धूहिं सह धुवो एत्थं । तो कीस की रई, संसारे दोसबाहुल्ले ? ॥३९॥ बंधवसिणेहनडिओ, पुणरवि भोगेसु दारुणं सत्तो । पुरिसो पावइ दुक्खं, चिरकालं दीहसंसारे ॥४०॥ दुक्खसलिलावगाढे, कसायगाहुक्कडे भवावत्ते । घणदोग्गइविच्चीए, जरमरणकिलेसकल्लोले ॥४१॥ एयारिसे महायस!, भमिया संसारसायरे अम्हे । दुक्खाइं अणुहवन्ता, कह कह वि इहं समुष्पित्तण्णा ॥४२॥ संसारियदुक्खाणं, भीया जरमरणविप्पओगाणं । अणुमन्नसु ताय ! तुमं, पव्वज्जं गिहिमो अज्जं ॥४३॥ ते एव निच्छियमणा, दिक्खाभिमुहा सुया मुणेऊणं । अणुमन्निया कुमारा, अवगूढा लच्छिनिलएणं ॥४४॥ आउच्छिऊण पियरं, बन्धुजणं चेव सव्वजणणीओ । ताहे गया कुमारा, महिन्दउदयं वरुज्जाणं ॥४५॥ चइऊण निरवसेसं, परिग्गरं जायतिव्वसंवेगा । सरणं महाबलमुणिं, पत्ता ते अट्ठ वि कुमारा ॥४६॥ उग्गं तवोविहाणं, कुणमाणा समिइ-गुत्तिसंजुत्ता । अह ते कुमारसमणा, विहरन्ति महिं दढधिईया ॥४७॥ एयं कुमारवरनिक्खमणं पसत्थं, भावेण जे वि हु सुणन्ति नराऽपमत्ता। ताणं पणस्सइ खणेण समत्थपावं, बोहीफलं च विमलं समुवज्जिणन्ति ॥४८॥ ॥ इइ पउमचरिए कुमारनिक्खमणं नाम छउत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ सलिलमेव पिबन्तं हरिणं यथा हन्त्येको व्याधः । तथा हन्ति नरं मृत्युस्तृिषितमेव कामभोगेषु ॥३८॥ यद्येवं विप्रयोगो जायते बन्धुभिः सह ध्रुवोऽत्र । तदा कथं क्रियते रतिः संसारे दोषबाहुल्ये ? ॥३९॥ बन्धवस्नेहनटितः पुनरपि भोगेषु दारुणं सक्तः । पुरुषः प्राप्नोति दुःखं चिरकालं दीर्घसंसारे ॥४०॥ दुःख सलिलावगाढे कषायग्राहोत्कटे भवावर्ते । घनदुर्गतिवीचौ जरामरणक्लेशकल्लोले ॥४१॥ एतादृशे महायशः ! भ्रान्ताः संसारसागरे वयम् । दुःखान्यनुभवन्तः कथं कथमपीह समुत्पन्नाः ॥४२॥ संसारिकदुःखेभ्यो भीता जरामरणविप्रयोगेभ्यः । अनुमन्यस्व तात ! त्वं प्रव्रज्यां गृह्णामोऽद्यः ॥४३॥ तानेवं निश्चितमना दिक्षाभिमुखान् सुतान् मुणित्वा । अनुमन्ताः कुमारा आलिङ्गिता लक्ष्मीनिलयेन ॥४४॥ आपृच्छय पितरं बन्धुजनमेव सर्वजननी: । तदा ता: कुमारा महेन्द्रोदयं वरोद्यानम् ।।४५॥ त्यक्त्वा निरवशेष परिग्रहं जाततीव्रसंवेगाः । शरणं महाबलमुनि प्राप्तास्तेऽष्टावपि कुमाराः ॥४६।। उग्रं तपोविधानं कुर्वन्तः समितिगुप्तिसंयुक्ताः । अथ ते कुमारश्रमणा विहरन्ति महीं दृढधृतयः ॥४७॥ एतत्कुमारनिष्क्रमणं प्रशस्तं भावेन येऽपि हु श्रुण्वन्ति नरा अप्रमत्ताः । तेषां प्रणश्यति क्षणेन समस्तपापं बोधिफलं च विमलं समुपार्जयन्ति ॥४८॥ ॥ इति पद्मचरिते कुमारनिष्क्रमणं नाम षडोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. महिन्ददढधिइया-मु० । २. सुणिति-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. भामंडलपरलोयगमणविहाणपव्वं वीरजिणिन्दस्स गणी, पढमपयं संसिओ मइपगब्भो । साहइ मणोगयं सो, भामण्डलसन्तियं चरियं ॥१॥ निसुणेहि मगहसामिय !, अह सो भामण्डलो पुरे नियए । भुञ्जइ खेयरइड्डेि, कामिणिसहिओ सुरिन्दो व्व ॥२॥ चिन्तेऊण पयत्तो, संपइ जइ हं लएमि जिणदिक्खं । तो जुवइपउमसण्डो, सुस्सिहिइ इमो न संदेहो ॥३॥ कामिणिजणमज्झगओ, विसयसुहं भुञ्जिऊण चिरकालं । पच्छा तवं सुघोरं, दुक्खविमोक्खं करिस्से हं ॥४॥ भोगेसु अज्जियं जं, पावं अइदारुणं पमाएणं । तं पच्छिमम्मि काले, झाणग्गीणं दहिस्से हं ॥५॥ अहवा वि माणभङ्ग, समरे काऊण खेयरभडाणं । ठावेमि वसे दोण्णि वि, आणाकारीउ सेढीओ ॥६॥ मन्दरगिरीसु बहुविहरयणुज्जोवियनियम्बदेसेसु । कीलामि तत्थ गन्तुं, इमाहिं सहिओ पणइणीहिं ॥७॥ वत्थूणि एवमाई, परिचिन्तन्तस्स तस्स मगहवई ! । भुञ्जन्तस्स य भोगं, गयाइं संवच्छरसयाई ॥८॥ एवं काऊण इमं, करेमि कालम्मि चिन्तयन्तस्स । भामण्डलस्स आउं, संथारं आगयं ताव ॥९॥ अह अन्नया कयाई, पासाओवरि ठियस्स सयराहं । भामण्डलस्स असणी, पडिया य सिरे धगधगेन्ती ॥१०॥ जणयसुए कालगए, जाओ अन्तेउरे महाकन्दो। हाहाकारमुहरवो, पयलियनयणंसुविच्छड्डो ॥११॥ || १०७. भामण्डलपरलोकगमनविधानपर्वम् । वीरजिनेन्द्रस्य गणी प्रथमपदं शंसितो मतिप्रगल्भः । कथयति मनोगतं स भामण्डलसत्कं चरितम् ॥१॥ निश्रुणु मगधस्वामिन् ! अथ स भामण्डल: पुरे निजे । भुनक्ति खेचरद्धिं कामिनिसहितः सुरेन्द्र इव ॥२॥ चिन्तयितुं प्रवृत्तः संप्रति यद्यहं लामि जिनदिक्षाम् । तदा युवतिपद्मखण्ड: शूष्यत्ययं न संदेहः ॥३॥ कामिनिजनमध्यगतो विषयसुखं भुक्त्वा चिरकालम् । पश्चात्तपः सुघोरं दुःखविमोक्षं करिष्ये ऽहम् ॥४॥ भोगैरजितं यत्पापमतिदारुणं प्रमादेन । तत्पश्चिमे काले ध्यानाग्निना धक्ष्याम्यहम् ।।५।। अथवापि मानभगं समरे कृत्वा खेचभटानाम् । स्थापयामि वशे द्वावप्याज्ञाकारिणी श्रेणी ॥६॥ मन्दरगिरिषु बहुविधरत्नोद्योतितनितम्बदेशेषु । क्रीडामि तत्र गत्वेमाभिः सहितः प्रणयिनिभिः ॥७॥ वस्तून्येवमादिनि परिचिन्तयतस्तस्य मगधपते ! । भुञ्जतश्च भोगं गतानि संवत्सरशतानि ।।८।। एवं कृत्वेदं करोमि काले चिन्तयतः । भामण्डलस्यायुः संस्तारकमागतं तावत् ॥९॥ अथान्यदा कदाचित्प्रासादोपरि स्थितस्य शीघ्रम् । भामण्डलस्याशनिः पतिता च शिरसि धगधगन्ती ॥१०॥ जनकसुते कालगते जातोऽन्तःपुरे महाकन्दः । हाहाकारमुखरवः प्रगलितनयनाश्रुनिवहः ॥११॥ १. एवमाई-प्रत्य० । २. एयं का०-प्रत्य० । ३. हाहाकारपलावो, पय०-प्रत्यः । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ पउमचरियं जाणन्ता वि पमाई, अन्नं जम्मन्तरं धुवं पुरिसा । तह वि य कालखेवं, कुणन्ति विसयामिसासत्ता ॥१२॥ खणभङ्गरस्स कज्जे, इमस्स देहस्स साररहियस्स । पुरिसा करेन्ति पावं, जाणन्ता चेव असुहमई ॥१३॥ किं कीरइ सत्थेहि अप्पाणो जेहि नेव उवसमिओ? । एक्कपयं पि वरं तं जं निययमणं पसाएइ ॥१४॥ एवं जो दीहसुत्तं कुणई इह नरो णेयवावारजुत्तो, निच्चं भोगाभिलासी सयणपरियणे तिव्वनेहाणुरत्तो। संसारं सो महन्तं परिभमइ चिरं घोरंदुक्खं सहन्तो । तम्हा रायं ! पसत्थे ससियरविमले होहि धम्मेक्कचित्तो ॥१५॥ ॥ इइ पउमचरिए भामण्डलपरलोयगमणविहाणं नाम सत्तुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ जानन्तोऽपि प्रमादिनोऽन्यं जन्मान्तरं ध्रुवं पुरुषाः । तथाऽपि च कालक्षेपं कुर्वन्ति विषयामिषासक्ताः ॥१२॥ क्षणभङ्गुरस्य कार्ये एतस्य देहस्य साररहितस्य । पुरुषाः कुर्वन्ति पापं जानन्त श्चैवाशुभमतयः ॥१३।। किं क्रियते शास्त्रैरात्मा यै नैवोपशमितः ? । एकपदमपि वरं तद्यन्निजमनः प्रसादयति ॥१४॥ एवं यो दीर्घसूत्रं करोतीहनरो ज्ञेयव्यापारयुतः । नित्यं भोगाभिलाषी स्वजनपरिजने तीव्र स्नेहानुरक्तः । संसारं यो महान्तं परिभ्रमति चिरं घोरदुःखं सहमानः, तस्माद्राजन् ! प्रशस्ते शशिकरविमले भव धर्मे एकचितः ॥१५॥ ॥इति पद्मचरिते भामण्डलपरलोकगमनविधानं नाम सप्तोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. अप्पाणं जेहि णेव संजमियं । एक्क०-प्रत्य० । २. कुणइह पुरिसो णेय०-प्रत्य० । ३. ०दुक्खं लहन्तो-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८. हणुवणिव्वाणगमणपव्वं तो महाहवई !, सुणेहि हणुयस्स ताव वित्तन्तं । वरकण्णकुण्डलपुरे, भोगे चिय सेवमाणस्स ॥१॥ जुवइसहस्सेण समं, विमाणसिहरट्ठिओ महिड्डीओ । लीलायन्तो विहरड़, महीए वरकाणणवणाई ॥२॥ अह अन्नया वसन्ते, संपत्ते जणमणोहरे काले । कोइलमहुरुग्गीए, महुयरमुच्चन्तझंकारे ॥३॥ चलिओ मेरुनगवरं वन्दणभत्तीए चेइयहराणं । हणुओ परियणसहिओ, दिव्ववि माणे समारूढो ॥४॥ उप्पइओ गयणयले वच्चइ मणपवणदच्छपरिहत्थो । कुलपव्वयाण उवरिं, अभिवन्दन्तो जिणहराई ॥५॥ संपत्तो य नगवरं, रयणसिलाकणयसिहरसंघायं । नाणाविहदुमगहणं, चउकाणणमण्डियं रम्मं ॥६॥ सो भइ पेच्छ सुन्दरि !, नगरायस्सुवरि जिणहरं तुङ्गं । जगजगजगेन्तसोहं, उब्भासेन्तं दिसायकं ॥७॥ पन्नास जोयणाई, दीहं पणुवीस चेव वित्थिण्णं । रेहइ छत्तीसुच्चं, गिरिस्स मउडाय रम्मं ॥८ ॥ तवणिज्जुज्जल-निम्मलगोउरअइतुङ्गवियडपायारं । धय-छत्त े - पट्ट- चामर-लम्बूसा - ऽऽदरिस - मालड्डुं ॥ ९ ॥ एयाइं पेच्छ कन्ते !, नाणाविहपायवोहछन्नाई । चत्तारि उववणाई, 'उवरुवरिं नगवरिन्दस्स ॥१०॥ धरणियले सालवणं च नन्दणं मेहलाए अइरम्मं । तत्तो च्चिय सोमणसं, पण्डगपरिमण्डियं सिहरं ॥११॥ " १०८. हनुमान्निर्वाणगमनपर्वम् इतो मगधाधिपते ! श्रुणु हनुमतस्तावद्वृत्तान्तम् । वरकर्णकुण्डलपुरे भोगानेव सेवमानस्य ॥१॥ युवतिसहस्रेण समं विमानशिखरस्थितो महर्द्धिकः । लीलायन्विहरति मह्यां वरकाननवनानि ॥२॥ अथान्यदा वसन्ते संप्राप्ते जनमनोहरे काले । कोकिलमधुरोद्गीते मधुकरमुञ्चज्झंकारे ॥३॥ चलितो मेरुनगवरं वन्दनभक्त्या चैत्यगृहाणाम् । हनुमान्परिजनसहितो दिव्यविमाने समारुढः ॥४॥ उत्पतितो गगनतले व्रजति मनपवनदक्षपरिपूर्णः । कुलपर्वतानामुपर्यभिवन्दजिनगृहाणि ॥५॥ संप्राप्तश्च नगवरं रत्नशिलाकनकशिखरसंघातम् । नानाविधद्रुमगहनं चतुष्काननमण्डितं रम्यम् ॥६॥ स भणति पश्य सुन्दरि ! नगराजस्योपरि जिनगृहं तुङ्गम् । जगजगजगच्छोभमुद्भासन्तं दिक्चक्रम् ||७|| पञ्चाशद्योजनानि दीर्घं पञ्चविंशतिरेव विस्तीर्णम् । शोभते षट्त्रिंशदुच्चं गिरे मुकुटायति रम्यम् ॥८॥ तपनीयोज्वलनिर्मलगोपूरातितुङ्गविकटप्राकारम् । ध्वज - छत्र-पट्ट - चामर-लम्बूसकादर्शमालाढ्यम् ॥९॥ एतानि पश्य कान्ते ! नानाविधपादपौघछ्न्नानि । चत्वार्युपवनान्युपरोपरि नगवरेन्द्रस्य ॥१०॥ धरणितले सालवनं च नन्दनं मेखलायामतिरम्यम् । तत एव सोमनसं पण्डकपरिमण्डितं शिखरम् ॥११॥ १. ० माणेसु आरूढो - मु० । २. ०त्तचारुचा० - प्रत्य० । ३. उवरोवरि- प्रत्य० । 1 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० पउमचरियं वरबउल-तिलय-चम्पय-असोय-पुन्नाय-नायमाईहिं । रेहन्ति पायवेहि, कुसुमफलोणमियसाहाहिं ॥१२॥ घणकुसुमगुच्छकेसरमयरन्दुद्दामसुरहिगन्धेणं । वासन्ति व्व दिसाओ, समन्तओ काणणवणाई ॥१३॥ एएसु चउनिकाया, देवा-कीलन्ति परियणसमग्गा । रइसागरोवगाढा, न सरन्ति निए वि हु विमाणे ॥१४॥ एयाण उववणाणं, ठियाई मज्झम्मि चेइयघराइं । तवणिज्जपिञ्जराइं, बहुविहसुरसङ्घनमियाई ॥१५॥ अवइण्णो पवणसुओ, तत्थ विमाणउ परियणसमग्गो । पायक्खिणं करेउं, पविसरइ तओ जिणागारं ॥१६॥ दट्टण सिद्धपडिमा, बहुलक्खणसंजुया दिणयराभा । पणमइ पहट्ठमणसो, कन्ताहिं समं पवणपुत्तो ॥१७॥ मण-नयणहारिणीओ, हणुवस्स पियाउ कणयकमलेहिं । पूएन्ति सिद्धपडिमा, अन्नेहिं वि दिव्वकुसुमेहिं ॥१८॥ सयमेव पवणपुत्तो, पडिमाओ कुङ्कमेण अच्चेउं । देइ वरसुरहिधूयं, बलिं च तिव्वाणुराएणं ॥१९॥ एत्तो वाणरमउली, अरहन्तं झाइऊण भावेणं । थुणइ थुइमङ्गलेहिं, विविहेहिं पावमहणेहिं ॥२०॥ थुणिऊण जहिच्छाए, विणिग्गओ जिणहराउ हणुवन्तो । पायक्खिणेइ मेरुं, वन्दन्तो सिद्धभवणाई ॥२१॥ भरहं एन्तस्स तओ, कमेण अत्थंगओ दियसनाहो । हणुवस्स सयलसेन्नं, ठियं च सुरदुन्दुहिगिरिम्म ॥२२॥ सो तत्थ बहुलपक्खे, गयणयलं मारुई पलोयन्तो । पेच्छइ घणञ्जणनिहं, तारासु समन्तओ छन्नं ॥२३॥ चिन्तेइ तो मणेणं, जह एयं चन्दविरहियं गयणं । न य सोहइ कुलगयणं, तहा विणा पुरिसचन्देणं ॥२४॥ वरबकुलतिलकचम्पकाशोकपुन्नागनागादिभिः । शोभन्ते पादपैः कुसुमफलावनतशाखाभिः ॥१२॥ घनकुसुमगुच्छकेसरमकरन्दोद्दामसुरभिगन्धेन । वासन्ति च दिशः समन्ततः काननवनानि ॥१३॥ एतेषु चतुर्निकाया देवा क्रीडन्ति परिजनसमग्राः । रतिसागरावगाढा न स्मरन्ति निजानपि हु विमानान् ॥१४॥ एतेषामुपवनानां स्थितानि मध्ये चैत्यगृहाणि । तपनीयपिञ्जराणि बहुविधसुरसङ्घनमितानि ॥१५॥ अवतीर्णः पवनसुतस्तत्र विमानात्परिजनसमग्रः । प्रदक्षिणां कृत्वा प्रविशति ततो जिनागारम् ।।१६।। दृष्ट्वा सिद्धप्रतिमां बहुलक्षणसंयुतां दिनकराभाम् । प्रणमति प्रहष्टमनाः कान्ताभिः समं पवनपुत्रः ॥१७॥ मनोनयनहारिण्यो हनुमतः प्रियाः कनककमलैः । पूजयन्ति सिद्धप्रतिमा अन्यैरपि दिव्यकुसुमैः ॥१८॥ स्वयमेव पवनपुत्रः प्रतिमाः कुङ्कुमेनार्चित्वा । ददाति वरसुरभिधूपं बलिं च तीव्रानुरागेण ॥१९॥ इतो वानरमौल्यर्हन्तं ध्यात्वा भावेन । स्तौति स्तुतिमङ्गलैः विविधैः पापमथनैः ॥२०॥ स्तुत्वा यथेच्छया विनिर्गतो जिनगृहाद्धनुमान् । प्रदक्षिणयति मेरुं वन्दमानः सिद्धभवनानि ॥२१॥ भरतमायातस्ततः क्रमेणास्तंगतो दिवसनाथः । हनुमतः सकलसैन्यं स्थितं च सुरदुन्दुभिगिरौ ॥२२॥ स तत्र बहुलपक्षे गगनतलं मारुतिः प्रलोकयन् । पश्यति घनाञ्जननिभं ताराभिः समन्ततश्च्छन्नम् ॥२३॥ चिन्तयति तदा मनसाऽथेतच्चन्द्रविरहितं गगनम् । न च शोभते कुलगगनं तथा विना पुरुषचन्द्रेण ॥२४॥ १. ण चच्चेउं-प्रत्य० । २. दिवस०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हणुवणिव्वाणगमणपव्वं - १०८ / १२-३८ जिएस, ठाणं तिलतुसतिभागमेत्तं पि । जत्थ न कीलइ, मच्चू, सच्छन्दो सुरवरेहिं पि ॥ २५ ॥ जइ देवाण वि एसा, चवणावत्था उ हवइ सव्वाणं । अम्हारिसाण संपइ, का एत्थ कहा मणूसाणं ? ॥२६॥ वुब्भन्ति जत्थ हत्थी, मत्ता गिरिसिहरसन्निहा गरुया । तो एत्थ किं व भण्णइ ?, पढमं चिय अवहिया ससया ॥२७॥ अन्नाणमोहिएणं, पञ्चिन्दियवसगएण जीवेणं । तं नत्थि महादुक्खं, जं नऽणुहूयं भमन्तेणं ॥ २८ ॥ महिलाकरेणुयाणं, लुद्धो घरवारिनियलपडिबद्धो । अणुहवइ तत्थ दुक्खं, पुरिसगओ वम्महासत्तो ॥२९॥ पासेण पञ्जरेण य, बज्झन्ति चउप्पया य पक्खी य । इह जुवइपञ्जरेणं, बद्धा पुरिसा किलिस्सन्ति ॥३०॥ किंपागफलसरिच्छा, भोगा पमुहें हवन्ति गुलमहुरा । ते चेव उ परिणामे, जायन्ति य विसमविससरिसा ॥३१॥ तं जाणिऊण एवं असासयं अद्भुवं चलं जीयं । अवहत्थिऊण भोगे, पव्वज्जं गिरिहमो अज्जं ॥३२॥ एयाणि य अन्नाणि य, परिचिन्तेन्तस्स पवणपुत्तस्स । रयणी कमेण झीणा, पभासयन्तो रवी उड़ओ ॥३३॥ पडिबुद्धो पवणसुओ, भणइ तओ परियणं पियाओ य । धम्माभिमुहस्स महं, निसुणेह परिप्फुडं वयणं ॥३४॥ वसिऊण सुइरकालं, माणुसजम्मम्मि बन्धवेहिं समं । अवसेण विप्पओगो, हवइ य मा अद्धि कुणह ॥ ३५ ॥ ताहे भणन्ति हणुवं, महिलाओ महुरमम्मणगिराओ । मा मुञ्चसु नाह! तुमं, अम्हे एत्थं असरणाओ ॥३६॥ भाइ तओ हणुवन्तो, परिहिण्डन्तस्स मज्झ संसारे । महिलाण सहस्साई, गयाई कालेण बहुयाई ॥३७॥ नय माया नेव पिया, न पुत्तदारा इहं मरन्तस्स । पुरिसस्स परित्ताणं, न कुणन्ति जहा कुणइ धम्मो ॥ ३८ ॥ तन्नास्ति जगति सकले स्थानं तिलतुषत्रिभागमात्रमपि । यत्र न क्रीडति मृत्युः स्वच्छन्दः सुरवरैरपि ॥२५॥ यदि देवानामप्येषा च्यवनावस्था तु भवति सर्वेषाम् । अस्मादृशानां संप्रति कात्र कथा मनुष्याणाम् ? ॥२६॥ उद्यन्ते यत्र हस्तिन: मत्ताः गिरिशित्वरसन्निभा गरुका: । ततोऽत्र किं वा भण्यते, प्रथमभेव अवहिता शशका : ॥२७॥ अज्ञानमोहितेन पञ्चेन्द्रियवशगतेन जीवेन । तन्नास्ति महादुःखं यन्नानुभूतं भ्रमता ॥२८॥ महिलाकरेणुकायां लुब्धो गृहवारिनिगडप्रतिबद्धः । अनुभवति तत्र दुःखं पुरुषगजः कामासक्तः ॥ २९॥ पाशेन पञ्जरेण च बध्नन्ति चतुष्पदाश्च पक्षिनश्च । इह युवतिपञ्जरेण, बद्धा पुरुषा क्लेशयन्ति ॥३०॥ किम्पाकफलसदृशा भोगाः प्रमुखे भवन्ति गुडमधुराः । त एव तु परिणामे ज्ञायन्ते च विषमविषसदृशाः ||३१|| तज्ज्ञात्वैवमशाश्वतमध्रुवं चलं जीवितम् । अपहस्तयित्वा भोगान्प्रव्रज्यां गृह्णाम्यद्यः ||३२| एतानि चान्यानि च परिचिन्तयतः पवनपुत्रस्य । रजनी क्रमेण क्षीणा प्रभासमानो रविरुदितः ॥३३॥ प्रतिबुद्धः पवनसुतो भणति ततः परिजनं प्रियाश्च । धर्माभिमुखस्य मम निश्रुणुत परिस्फुटं वचनम् ॥३४॥ उषित्वा सुचिरकालं मनुष्यजन्मनि बान्धवैः समम् । अवशेन विप्रयोगो भवति च माऽधृतिं कुरुत ॥३५॥ तदा भणन्ति हनुमन्तं महिलाः मधुरमन्मनगिराः । मामुञ्च नाथ ! त्वमस्मानत्राशरणाः ||३६|| भणति ततो हनुमान् परिहिण्ड मानस्य मम संसारे । महिलानां सहस्राणि गतानि कालेन बहूनि ॥३७॥ न च माता नैव पिता न पुत्रदारा इह म्रियमाणस्य । पुरुषस्य परित्राणं न कुर्वन्ति यथा करोति धर्मः ॥३८॥ I १. गुणम० मु० । ६८१ For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ पउमचरियं तं एव अणुहवेडं, नरयतिरिक्खेसु दारुणं दुक्खं । कह पुण जाणन्तो हं, करेमि महिलासु सह नेहं ॥३९॥ संसारम्मि अणन्ते, भीओ हं जाइयव्व-मरणाणं । संपइ लएमि दिक्खं, मरिसह मे अविणयं सव्वं ॥४०॥ मेरुं पिव थिरगरुयं, हिययं नाऊण तस्स महिलाओ । ताहे कुणन्ति परमं, अक्वन्दं लोलनयणाओ ॥४१॥ आसासिऊण धीरो, जुवईओ ठाविउं सुयं रज्जे । निष्फिडइ विमाणाओ, विज्जाहरसुहडपरिकिण्णो ॥४२॥ आरुहिय पुरिसजाणं, नाणाविहरयणकिरणपज्जलियं । संपत्थिओ कमेणं, उज्जाणत्थं जिणाययणं ॥४३॥ काऊणं वन्दणयं, जिणभवणे साहवं सुहनिविटुं । नामेण धम्मरयणं, तं पणमइ मारुई तुट्ठो ॥४४॥ काऊण य किइकम्मं, हणुवो तो भणइ मुणिवरं एत्तो । भयवं ! होहि गुरू मे, विहेहि संखेवओ दिक्खं ॥४५॥ अणुमन्निओ गुरूणं, ताहे मउडं सकुण्डलाहरणं । देइ सुयस्स नरिन्दो, संजममग्गे कउच्छाहो ॥४६॥ परिचत्तकामभोगो, कुणइ सिरे मारुई तओ लोयं । हणुवन्तो पव्वइओ, पासे मुणिधम्मरयणस्स ॥४७॥ पन्नासा सत्त सया, संवेगपरायणा य नरवइणो । पव्वइया खायजसा, चारणसमणं पणमिऊणं ॥४८॥ हणुयस्स महिलियाओ, सव्वाओ दइयसोगदुहियाओ।लच्छीमईए सयासे, जायाओ चेव समणीओ ॥४९॥ सिरिसेलो कम्मवणं,सव्वं झाणाणलेण दहिऊण तओ। केवललद्धाइसओ, संपत्तो विमलनिम्मलं परमपयं ॥५०॥ ॥ इइ पउमचरिए हणुवनिव्वाणगमणं नाम अट्टत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ तदेवमनुभूय नरकतिर्यक्षु दारुणं दुःखम् । कथंपुन निन्नहं करोमि महिलाभिः सह स्नेहम् ॥३९॥ संसारे ऽनन्ते भीतोऽहं जातिमरणेभ्यः । संप्रति लामि दिक्षां मष्ट मे ऽविनयं सर्वम ॥४०॥ मेरुरिव स्थिरगुरुकं हृदयं ज्ञात्वा तस्य महिलाः । तदा कुर्वन्ति परममाक्रन्दं लोलनयनाः ॥४१॥ आश्वास्य धीरो युवती: स्थापयित्वा सुतं राज्ये । निष्फिटति विमानाद्विधाधरसुभटपरिकीर्णः ॥४२॥ आरुह्य पुरुषयानं नानाविधरत्नकिरणप्रज्वलितम् । संप्रस्थितः क्रमेणोद्यानस्थं जिनायतनम् ॥४३॥ कृत्वा वन्दनकं जिनभवने साधु सुखनिविष्टम् । नाम्ना धर्मरत्नं तं प्रणमति मारुतिस्तुष्टः ॥४४॥ कृत्वा च कृतिकर्म हनुमांस्तदा भणति मुनिवरमितः । भगवन् ! भव गुरुर्मे विधाय संक्षेपतो दिक्षाम् ॥४५॥ अनुमतो गुरुणा तदा मुकुटं सकुण्डलाभरणम् । ददाति सुताय नरेन्द्रः संयममार्गे कृतोत्साहः ॥४६॥ परित्यक्तकामभोगः करोति शिरसि मारुतिस्ततो लुञ्चनम् । हनुमान्प्रव्रजितः पार्श्वे मुनिधर्मरत्नस्य ॥४७॥ पञ्चाशत्सप्तशताः संवेगपरायणाश्च नरपतयः । प्रव्रजिताः ख्यातयशसश्चारणश्रमणं प्रणम्य ॥४८॥ हनुमतो महिलाः सर्वा दयितशोकदुःखिताः । लक्ष्मीमत्याः सकाशे जाता एव श्रमण्यः ॥४९॥ श्रीशैलः कर्मवनं सर्वं ध्यानानलेन दग्ध्वा ततः । केवललब्धातिशयः संप्राप्तो विमलनिर्मलं परमपदम् ।।५०॥ __॥इति पद्मचरिते हनुमान्निर्वाणगमनं नामाष्टोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. काऊण वंदणविहिं, जिण०-प्रत्य० । २. दाहिण-वामकरहिं, कुणइ-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९. सक्कसंकहाविहाणपव्वं अह तत्थ कुमाराणं, हणुयस्स य निसुणिऊण पव्वज्जं । भणइ पउमो हसन्तो, कह भोगाणं विरत्ता ते ॥ १ ॥ सन्ते वि य परिचइडं, भोगे गिण्हन्ति जे हु पव्वज्जं । नूणं ते गहगहिया, वाऊण विलङ्घिया पुरिसा ॥२॥ अहवा ताण न विज्जा, अत्थि सहीणा पओगमइकुसला । जेणुज्झिऊण भोगा, ठिया य तव-संजमाभिमुहा ॥ ३ ॥ एवं भोगसमुद्दे, तस्स निमग्गस्स रामदेवस्स । बुद्धी आसि अइजडा, सेणिय ! उदएण कम्मस्स ॥४॥ अह अन्नया सुरिन्दो, सहाए सीहासणे सुहनिविट्ठो । चिट्ठइ महिड्डिजुत्तो, देवसहस्सेहिं परिकिण्णो ॥५॥ नाणालंकारधरो, धीरो बल - विरिय-तेयसंपन्नो । अह संकहागयं सो, वयणं चिय भणइ देविन्दो ॥६॥ देवत्तं इन्दत्तं, जस्स पसाएण पवरसिद्धत्तं । लब्भइ तं नमह सया, ससुरासुरवन्दियं अहं ॥७॥ जेण इमो निस्सारो, संसाररिवू जगे अजियपुव्वो । संजमसंगाममुहे, पावो नाणासिणा निहओ ॥८॥ कन्दप्पतरङ्गाढं, कसायगाहाउलं भवावत्तं । संसारसलिलनाहं, उत्तारइ जो जणं भवियं ॥ ९ ॥ जायस्स जस्स तइया, सुमेरुसिहरे सुरेहिं सव्वेहिं । जणिओ च्चिय अहिसेओ, खीरोयहिवारिकलसेहिं ॥१०॥ मोहमलपडलछन्नं, पासण्डविवज्जियं नयविहीणं । नाणकिरणेहि सव्वं, पयासियं जेण तेलोक्कं ॥ ११ ॥ सो विसयंभू, भाणु सिवो संकरो महादेवो । विण्हू हिरण्णगब्भो, महेसरो ईसरो रुद्दो ॥१२॥ जो एमाइएहिं, थुव्व नामेहिं देव मणुएहिं । सो उसहो जगबन्धू, संसारुच्छेयणं कुणइ ॥१३॥ १०९. शक्रसङ्कथाविधानपर्वम् अथ तत्र कुमाराणां हनुमतश्च निश्रुत्य प्रव्रज्याम् । भ्रमति पद्मो हसन् कथं भोगेभ्यो विरक्तास्ते ॥१॥ सतोऽपि च परित्यज्य भोगान्गृह्णन्ति ये हु प्रव्रज्याम् । नूनं ते ग्रहगृहीता वायुना विलङ्घिताः पुरुषाः ||२| अथवा तेषां न विद्याऽस्ति स्वाधीना प्रयोगमतिकुशला । येनोज्झित्वा भोगान्स्थिताश्च तपः संयमाभिमुखाः ||३|| एवं भोगसमुद्रे तस्य निमग्नस्य रामदेवस्य । बुद्धिरासीदतिजडा श्रेणिक ! उदयेन कर्मणः ॥४॥ अथान्यदा सुरेन्द्रः सभायां सिंहासने सुखनिविष्टः । तिष्ठति महर्द्धियुक्तो देवसहस्रैः परिकीर्णः ॥५॥ नानालङ्कारधरो धीरो बल-वीर्य - तेज: संपन्नः । अथ संकथागतं स वचनमेव भणति देवेन्द्रः ॥६॥ देवत्वमिन्द्रत्वं यस्य प्रसादेन प्रवरसिद्धत्वम् । लभ्यते तन्नमत सदा ससुरासुरवन्दितमर्हन्तम् ॥७॥ येनायं निःसारः संसाररिपु र्जगत्यजितपूर्वः । संयमसंग्राममुखे पापो ज्ञानासिना निहतः ॥८॥ कन्दर्पतरड्गाढ्यं कषायग्राहाकुलं भवावर्तम् । संसारसलिलनाथमुत्तारयति यो जनं भविकम् ॥९॥ जातस्य तस्य तदा सुमेरुशिखरे सुरैः सर्वैः । जनित एवाभिषेकः क्षीरोदधिवारिकलशैः ॥१०॥ मोहमलपटलच्छन्नं पाखण्डविवर्जितं नयविहीनम् । ज्ञानकिरणैः सर्वं प्रकाशितं येन त्रैलोक्यम् ॥११॥ स जिनवरः स्वयंभू र्भानुः शिवः शङ्करो महादेवः । विष्णु हिरण्यगर्भो महेश्वर इश्वरो रुद्रः ॥१२॥ य एवमादिकैः स्तूयते नामभि र्देवे मनुष्यैः । स ऋषभो जगद्बन्धुः संसारोच्छेदनं करोति ॥१३॥ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ पउमचरियं जइ इच्छह अणुभविलं, कल्लाणपरंपरं निरवसेसं । तो पणमह उसहजिणं, सुर-असुरनमंसियं भयवं ॥१४॥ जीवो अणाइनिहणो, सकम्मपवणाहओ परिभमन्तो । कह कह वि माणुसत्तं, पत्तो न कुणेइ जिणधम्मं ॥१५॥ मिच्छादसणचरियं, काऊणं जइ वि लहइ देवत्तं । तह वि य चुओ समाणो', मुझे इह माणुसे जम्मे ॥१६॥ निन्दइ जिणवरधम्म, मिच्छत्तो नाण-दंसणविहूणो । सो हिण्डइ संसारे, दुक्खसहस्साइं अणुहोन्तो ॥१७॥ पेच्छह महिड्डियस्स वि, सुरस्स चइयस्स माणुसे जम्मे । दुलहा उ हवइ बोही, किं पुण अन्नाणजुत्तस्स ? ॥१८॥ इन्दो भणइ कया हं, बोहिं लभ्रूण माणुसे जम्मे । कम्मट्ठविप्पमुक्को, परमपयं चेव पाविस्सं? ॥१९॥ तं भणइ सुरो एक्को, जइ तुज्झ वि एरिसी हवइ बुद्धी । अम्हारिसाण नियमा, माणुसजम्मे विमुज्झिहिइ ॥२०॥ इन्दं महिड्डिजुत्तं, बम्भविमाणे सुरं चुयसमाणं । रामं किं च न पेच्छह, माणुसभोगेसु अइमूढं ? ॥२१॥ तो भणइ देवराया, सव्वाण वि बन्धणाण दूरेणं । कढिणो उ नेहबन्धो, संसारत्थाण सत्ताणं ॥२२॥ नियलेहि पूरिओ च्चिय, वच्चइ पुरिसो जहिच्छियं देसं । एक्कं पि अङ्गलमिणं, न जाइ घणनेहपडिबद्धो ॥२३॥ रामस्स निययकालं, सोमित्ती घणसिणेहमणुरत्तो । सो वि य तस्स विओगे, मुञ्चइ जीयं अइसमत्थो ॥२४॥ सो तं लच्छिनिकेयं, पउमो न य मुयइ नेहपडिबद्धो । कम्मस्स य उदएणं, कालं चिय नेइ मइमूढो ॥२५॥ सुरवइभणियं जं तच्चमग्गाणुरतं, जिणवरगुणगहणं सुप्पसत्थं पवित्तं । सुणिय विबुहसङ्घा तं च इन्दं नमेऊं, अइविमलसरीरा जन्ति सं सं निकेयं ॥२६॥ ॥ इइ पउमचरिए सक्कसकहाविहाणं नाम नवुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ यदीच्छतानुभवितुं कल्याणपरंपरां निरवशेषाम् । तदा प्रणत ऋषभजिनं सुरासुरनमितं भगवन्तम् ॥१४॥ जीवोऽनादिनिधनः स्वकर्मपवनाहतः परिभ्रमन् । कथं कथमपि मानुष्यत्वं प्राप्तो न करोति जिनधर्मम् ॥१५॥ मिथ्यादर्शनचरितं कृत्वा यद्यपि लभते देवत्वम् । तथापि च च्युतः सन् सिध्यतीह मनुष्ये जन्मे ॥१६।। निन्दति जिनवरधर्मं मिथ्यात्वो ज्ञानदर्शनविहीनः । स हिण्डते संसारे दुःखसहस्राण्यनुभवन् ॥१७॥ पश्यत महर्द्धिकस्यापि सुरस्य च्युतस्य मनुष्ये जन्मनि । दुर्लभा तु भवति बोधिः किंपुनारज्ञानयुक्तस्य ? ॥१८॥ इन्द्रो भणति कदाहं बोधि लब्ध्वा मनुष्ये जन्मनि । कर्माष्टविप्रमुक्तः परमपदमेव प्राप्स्यामि ? ॥१९॥ तं भणति सुर एको यदि तवाप्येदृशी भवति बुद्धिः । अस्मादृशां नियमा मनुष्यजन्मनि विमोहिष्यति ॥२०॥ इन्द्र महद्धियुक्तं ब्रह्मविमाने सुरं च्युतसन्तम् । रामं किं च न पश्यत मनुष्यभोगेष्वतिमूढम् ? ॥२१॥ तदा भणति देवराजा सर्वेभ्योऽपि बन्धनेभ्यो दूरेण । कठिनस्तु स्नेहबन्धः संसारस्थानां सत्त्वानाम् ॥२२॥ निगडै: पूरित एव व्रजति पुरुषो यथेच्छितं देशम् । एकमप्यङ्गुलमिदं न याति घनस्नेहप्रतिबद्धः ॥२३।। रामस्य नित्यकालं सौमित्रिः घनस्नेहमनुरक्तः । सोऽपि च तस्य वियोगे मुञ्चति जीवमतिसमर्थः ॥२४॥ स तं लक्ष्मीनिकेतं पद्मो न मुञ्चति स्नेहप्रतिबद्धः । कर्मणश्चोदयेन कालमेव नयति मतिमूढः ॥२५॥ सुरपतिभणितं यत्तथ्यमार्गानुरुक्तं जिनवरगुणग्रहणं सुप्रशस्तं पवित्रम् । श्रुत्वा विबुधसङ्यास्तं चेन्द्रं नत्वाऽतिविमलशरीरा यान्ति स्वं स्वं निकेतम् ॥२६॥ ॥इति पद्मचरिते शक्रसकथाविधानं नाम नवोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०णो सिज्झइ इह-मु० । २. सुरस्स चइयस्स माणुसे-मु० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०. लवण-ऽङ्कसतवोवणपवेसविहाणपव्वं अह तत्थ दोण्णि देवा, कुऊहली रयणचूल-मणिचूला । नेहपरिक्खणहेडं, समागया राम-केसीणं ॥१॥ रामं सोऊण मयं, केरिसियं कुणइ लक्खणो चेटु ? । रूसइ किं वा गच्छइ ?, किं वा परिभासए वयणं? ॥२॥ अहवा सोगाउलियं, पेच्छामो लक्खणस्स मुहयन्दं । ते एव कयालावा, साएयपुरि अह पविट्ठा ॥३॥ देवा रामस्स घरे, कुणन्ति मायाविणिम्मियं सदं । पउमो मओ मओ त्ति य, वरजुवईणं चिय विलावं ॥४॥ रामस्स मरणसइं, सोउं अक्कन्दियं च जुवईहिं लिच्छीहरो विसण्णो, जंपइ ताहे इमं वयणं ॥५॥ हा किं व इमं वत्तं, एव भणन्तस्स तस्स सयराहं । वायाए समं जीयं, विणिग्गयं लच्छिनिलयस्स ॥६॥ कञ्चणथम्भनिसन्नो, अणिमीलियलोयणो तहावत्थो । लक्खिज्जइ चक्कहरो, लेप्पमओ इव विणिम्मविओ ॥७॥ दट्ठण विगयजीयं, सोमित्तिं सुरवरा विसण्णमणा । निन्दन्ति य अप्पाणं, दोण्णि वि लज्जासमावन्ना ॥८॥ लक्खणमरणनिहेणं, एएणं एत्थ पुव्वविहिएणं । जायं परितावयरं, अम्हाण मणं तु अप्पाणं ॥९॥ पच्छातावुम्हविया, जीयं दाऊण तस्स असमत्था । निन्दन्ता अप्पाणं, सोहम्मं पत्थिया देवा ॥१०॥ असमिक्खियकारीणं, पुरिसाणं एत्थ पावहिययाणं । सयमेव कयं कम्मं, परितावयरं हवइ पच्छा ॥११॥ || ११०. लवणाङ्कुशतपोवनप्रवेशविधान पर्वम् || अथ तत्र द्वौ देवौ कुतूहली रत्नचूडमणिचूडौ । स्नेहपरीक्षणहेतुं समागतौ रामकेशीनौ ॥१॥ रामं श्रुत्वा मृतं कीदृशी करोति लक्ष्मण श्चेष्टा ? । रुष्यति किं वा गच्छति ? किंवा परिभाषते वचनम् ? ॥२॥ अथवा शोकाकुलितं पश्यावो लक्ष्मणस्य मुखचन्द्रम् । तावेवं कृतालापौ साकेतपुरिमथ प्रविष्टौ ॥३॥ देवौ रामस्य गृहे कुर्वतो मायाविनिर्मितं शब्दम् । पद्मो मृतो मृत इति च वरयुवतीनामेव विलापम् ॥४|| रामस्य मरणशब्दं श्रुत्वाऽऽक्रन्दितं च युवतिभिः । लक्ष्मीधरो विषण्णो जल्पति तदेदं वचनम् ।।५।। हा कि वेदं वृत्तमेवं भणतस्तस्य शीघ्रम् । वाचया समं जीवो विनिर्गतो लक्ष्मीनिलयस्य ॥६॥ कञ्चनस्तम्भनिसण्णोऽनिमिलितलोचनस्तथावस्थः । लक्ष्यते चक्रधरो लेप्यमय इव विनिर्मापितः ।।७।। दृष्ट्वा विगतजीवं सौमित्रिं सुरवरौ विषण्णमनसौ । निन्दत श्चात्मानं द्वावपि लज्जासमापन्नौ ॥८॥ लक्ष्मणमरणनिभेनानेनात्र पूर्वविहितेन । जातं परितापकरमस्माकं मनस्त्वात्मानम् ॥९॥ पश्चात्तपोष्मापितौ जीवं दातुं तस्यासमर्थौ । निन्दन्तावात्मानं सौधर्मं प्रस्थितौ देवौ ॥१०॥ असमीक्षितकारिणां पुरुषाणामत्र पापहृदयानाम् । स्वयमेव कृतं कर्म परितापकरं भवति पश्चात् ॥११॥ १. वत्तं, इमं भ०-मु० । २. ०मओ चेव निम्म०-मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ पउमचरियं सुरवरमायाए कयं, कम्मं अविजाणिऊण जुवईओ । पणयकुविओ त्ति काउं, सव्वाउ पइं पसाएन्ति ॥ १२ ॥ एक्का भाइ सुभणिया, जोव्वणमयगव्वियाए पावाए। सामि ! तुमं रोसविओ, कवणाए पावबुद्धीए ॥ १३ ॥ पणयकलहम्मि सामिय !, भणिओ जं अविणयं तुमं ताए । तं अम्ह खमसु संपइ, जंपसु महुराए वायाए ॥१४॥ वरकमलकोमलङ्गी, अवगूहइ कावि निब्भरसिणेहं । चलणेसु पडइ अन्ना, पत्तिय सामी ! कउल्लावा ॥१५॥ घेत्तूण काइ वीणं, तस्स य गुणकित्तणं महुरसद्दं । गायइ वरगन्धव्वं, दइयस्स पसायजणणट्टं ॥१६॥ अवगूहिऊण काई, चुम्बइ गण्डत्थलं मणभिरामं । जंपइ पुणो पुणो च्चिय, अम्ह पहू ! देहि उल्लावं ॥१७॥ संपुण्णचन्दवयणा, कयनेवच्छा कडक्खविच्छोहं । नच्चइ कावि मणहरं, पियस्स पुरओ ससब्भावं ॥१८॥ याणि अन्नाणि य, ताण कुणन्तीण चेट्ठियसयाइं । जायं निरत्थयं तं जीवियरहियम्मि कन्तम्मि ॥ १९ ॥ चारियमुहाउ सुणिउं, तं वित्तन्तं ससंभमो रामो । तं लक्खणस्स भवणं, तूरन्तो चेव संपत्तो ॥२०॥ अन्तेउरं पविट्ठो, पेच्छइ विगयप्पभं सिरीरहियं । लच्छीहरस्स वयणं, पभायससिसन्निहायारं ॥२१॥ चिन्तेइ तओ पउमो, केण वि कज्जेण मज्झ चक्कहरो । रुट्ठो अब्भुवाणं, न देइ चिट्ठइ अविणयङ्गो ॥ २२ ॥ विरलक्कमेसु गन्तुं, अग्घायइ मत्थए घणसिणेहं । पउमो भणइ कणिट्टं, किं मज्झ न देसि उल्लावं ? ॥२३॥ चिन्धेहि जाणिऊण य, गयजीयं लक्खणं तहावत्थं । तह वि य तं जीवन्तं, सो मन्नइ निब्भरसिणेहो ॥२४॥ I सुरवरमायया कृतं कर्माविज्ञाय युवतयः । प्रणयकुपित इति कृत्वा सर्वाः पतिं प्रसादयन्ति ॥ १२॥ एका भणति सुभणिता यौवनमदगर्वितया पापया । स्वामिंस्त्वं रोषित कया पापबुद्धया ॥१३॥ प्रणयकलहे स्वामिन् ! भणितो यदविनयं तव तदा । तदस्मान् क्षम संप्रति जल्प मधुरया वाचया ॥१४॥ वरकमलकोमलाङ्ग्यालिड्गति कापि निर्भरस्नेहम् । चरणयोः पतत्यन्या ऽऽश्रिता स्वामिन्! कृतोल्लापा ॥१५॥ गृहीत्वा कापि वीणां तस्य च गुणकीर्त्तनं मधुरशब्दम् । गायति वरगान्धर्वं दयितस्य प्रसादजननार्थम् ॥१६॥ आलिङ्ग्य कापि चूम्बति गण्डस्थले मनोभिरामम् । जल्पति पुनः पुनरेवास्मान् प्रभो ! देहयुल्लापम् ॥१७॥ संपूर्णचन्द्रवदना कृतनेपथ्या कटाक्षविक्षोभम् । नृत्यति कापि मनोहरं प्रियस्य पुरतः ससद्भावम् ॥१८॥ एतानि चान्यानि च तासां कुर्वन्तीनां चेष्टितशतानि । जातं निरर्थकं तज्जीवरहिते कान्ते ॥ १९ ॥ चारिकमुखाच्छ्रुत्वा तद्वृत्तान्तं ससंभ्रमो रामः । तं लक्ष्मणस्य भवनं त्वरमाणैव संप्राप्तः ||२०|| अन्तःपुरं प्रविष्टः पश्यति विगतप्रभं श्रीरहितम् । लक्ष्मीधरस्य वदनं प्रभातशशिसंनिभाकारम् ॥२१॥ चिन्तयति ततः पद्मः केनाऽपि कार्येण मम चक्रधरः । रुष्टोऽभ्युत्थानं न ददाति तिष्टत्यविनयाङ्गः ||२२|| विरलक्रमै र्गत्वाऽऽघ्राति मस्तके घनस्नेहम् । पद्मो भणति कनिष्ठं किं मम न ददास्युल्लापम् ? ॥२३॥ चिनैर्ज्ञात्वा च गतजीवं लक्ष्मणं तथावस्थम् । तथापि च तं जीवन्तं स मन्यते निर्भरस्नेहः ||२४|| १. महुरक्खराए वायाए- प्रत्य० । २. ०सद्दा । गा० मु० । ३. ०ऊणं, ग०- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवणंऽङ्कुसतवोवणपवेसविहाणपव्वं -११०/१२-३७ न य हसइ नेव जंपड़, न चेव उस्ससइ चेट्ठपरिहीणो । दिट्ठो य तहावत्थो, सोमित्ती रामदेवेणं ॥ २५ ॥ मुच्छागओ विद्धो, पउमो परिमुसइ तस्स अङ्गाई । नक्खक्खयं पि एक्वं, न य पेच्छइ मग्गमाणो वि ॥२६॥ एयावत्थस्स तओ, वेज्जा सद्दाविऊण पउमाभो । कारावेइ तिगिच्छं, मन्तेहिं तहोसहेहिं पि ॥२७॥ वेज्जगणेहिं जया सो, मन्तोसहिसंजुएहिं विविहेहिं । न य पडिवन्नो चेट्टं, तओ गओ राहवो मुच्छं ॥२८॥ कह कह विसमासत्थो, कुणइ, पलावं तओ य रोवन्तो । रामो सअंसुनयणो, दिट्ठो जुवईहिं दीणमुहो ॥२९॥ एयन्तरम्मि ताओ, सव्वाओ लक्खणस्स महिलाओ । रोवन्ति विहलविम्भलमणाओ अङ्गं हणन्तीओ ॥३०॥ हा नाह ! हा महाजस !, उट्ठेहि ससंभ्रमाण अम्हाणं । पणिवइयवच्छल ! तुमं, उल्लावं देहि वियसन्तो ॥ ३१ ॥ हा दक्खिण्णगुणायर, तुज्झ सयासम्मि चिट्ठए पउमो। एयस्स किं व रुट्ठो, न य उट्ठसि आसणवराओ ॥३२॥ 'अत्थाणियागयाणं, सुहडाणं नाह ! दरिसणमणाणं । होऊण सोमचित्तो, आलावं देहि विमणाणं ॥३३॥ हा नाह ! किं न पेच्छसि, एयं अन्तेउरं विलवमाणं ? । सोयाउरं च लोयं, किं न निवारेसि दीणमुहं ? ॥३४॥ सोयाउराहिं अहियं, जुवईहिं तत्थ रोवमाणीहिं । हिययं कस्स न कलुणं, जायं चिय गग्गरं कण्ठं ? ॥३५॥ एवं रोवन्तीहिं, जुवईहिं हार कडयमाईयं । खित्तुज्झिएहिं छन्ना, सव्वा रायङ्ग णत्थाणी ॥३६॥ एयन्तरम्मि सोडं, कालगयं लक्खणं सुसंविग्गा । लवणं - ऽकुसा विरत्ता, भोगाणं तक्खणं धीरा ॥३७॥ न च हसति नैव जल्पति नैवोच्छ्रवसति चेष्टापरिहीणः । दृष्टश्च तथावस्थः सौमित्री रामदेवेन ॥२५॥ मुर्च्छागतो विबुद्धः पद्मः परिस्पृशति तस्याङ्गानि । नखक्षतमप्येकं न च पश्यति मार्ग्यमाणोऽपि ॥ २६॥ एतदवस्थस्य ततो वैद्यान् शब्दाय्य पद्माभः । कारयति चिकित्सां मन्त्रैस्तथैौषधैरपि ॥२७॥ वैद्यगणैर्यदा स मन्त्रौषधिसंयुक्तै विविधैः । न च प्रतिपन्नश्चेष्टयं ततो गतो राघवो मूर्च्छाम् ॥२८॥ कथं कथमपि समाश्वास्तः करोति प्रलापं ततश्च रुदन् । रामः साश्रुनयनो दृष्टो युवतिभि र्दीनमुखः ||२९|| एतदन्तरे ताः सर्वा लक्ष्मणस्य महिलाः । रुदन्ति विफलविह्वलमना अड्गं घ्नन्त्यः ||३०|| हा नाथ ! हा महायशः ! उत्तिष्ठ संसभ्रमानामस्माकम् । प्रणिपतिवत्सल ! त्वमुल्लापं देहि विहसन् ॥३१॥ हा दाक्षिण्यगुणाकर ! तव सकाशे तिष्ठति पद्मः । एतस्य किं वा रुष्टो न चोत्तिष्ठस्यासनवरात् ॥३२॥ आस्थानिकागतानां सुभटानां नाथ ! दर्शनमनसाम् । भूत्वा सौम्यचित्त आलापं देहि विमनसाम् ॥३३॥ हा नाथ ! किं न पश्यस्येतदन्तः पुरं विलपमानम् ? | शोकातूरं च लोकं किं न निवारयसि दीनमुखम् ? ॥३४॥ शोकातूराभिरधिकं युवतिभिस्तत्र रुदन्तीभिः । हृदयं कस्य न करुणं जातमेव गद्गदं कण्ठम् ? ॥३५॥ एवं रुदन्तीभि र्युवतिभि र्हारकटकादिकम् । क्षिप्तोज्झितैश्च्छन्ना सर्वा राजाङ्गनास्थानी ||३६|| एतदन्तरे श्रुत्वा कालगतं लक्ष्मणं सुसंविग्नौ । लवणाड्कुशौ विरक्तौ भोगेभ्यस्तत्क्षणं धीरौ ॥३७॥ १. अत्थाणआग०- प्रत्य० । २. ०डाणं णेहदरि०- प्रत्य० । ३. ०ङ्गणुच्छाणी - प्रत्य० । ६८७ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ पउमचरियं चिन्तेन्ति जो सुरेसु वि, संगामे लक्खणो अजियपुव्वो। ____ बल-विरियसमत्थो वि हु, सो कह कालारिणा निहओ ? ॥३८॥ किं वा इमेण कीड्, कयलीथम्भो व्व साररहिएणं । देहेण दुक्ख-दोग्गइकरेण भोगाहिलासीणं? ॥३९॥ गब्भवसहीए भीया, पियरं नमिऊण परमसंवेगा। दोण्णि वि महिन्दउदयं, उज्जाणं पत्थिया धीरा ॥४०॥ अमयरसनामधेयं.साहं पडिवज्जिऊण ते सरणं । पव्वइया खायजसा.उत्तमगणधारया जाया ॥४॥ एक्कत्तो सुयविरहो, मरणं च सहोयरस्स अन्नत्तो । घणसोयमहावत्ते, रामो, दुक्खण्णवे पडिओ ॥४२॥ रामस्स पिया पुत्ता, पुत्ताण उ वल्लहो य सोमित्ती । विरहे तस्स नराहिव!, रामो अइदुक्खिओ जाओ ॥४३॥ एवं कम्मनिओगे, संपत्ते सव्वसंगए बन्धुजणे । सोगं वेरग्गसमं, जायन्तिह विमलचेट्ठिया सप्पुरिसा ॥४४॥ ॥ इइ पउमचरिए लवणं-ऽकुसतवोवणपवेसविहाणं नाम दसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ चिन्तयतो यः सुरैरपि संग्रामे लक्ष्मणोऽजितपूर्वः । बलवीर्यसमर्थोऽपि हु स कथं कालारिणा निहतः ॥३८॥ किं वानेन क्रीयते कदलीस्तम्भ इव साररहितेन । देहेन दुःखदुर्गतिकरेण भोगाभिलाषीणाम् ? ॥३९॥ गर्भवसते भॊतौः पितरं नत्वा परमसंवेगौ । द्वावपि महेन्द्रोदयमुद्यानं प्रस्थितौ धीरौ ॥४०॥ अमृतरसनामधेयं साधुं प्रतिपद्य तौ शरणम् । प्रव्रजितौ ख्यातयशसावुत्तमगुणधारकौ जातो ॥४१॥ एकतः सुतविरहो मरणं च सहोदरस्यान्यतः । घनशोकमहावर्ते रामो दुःखार्णवे पतितः ॥४२॥ रामस्य प्रियाः पुत्राः पुत्रेभ्यस्तु वल्लभश्च सौमित्रिः । विरहे तस्य नराधिप ! रामोऽतिदुःखितो जातः ॥४३॥ एवं कर्मनियोगे संप्राप्ते सर्वसंगते बन्धुजने । शोकं वैराग्यसमं जायन्ते इह विमलचेष्टिताः सत्पुरुषाः ॥४४|| ॥इति पद्मचरिते लवणाकुशतपोवनप्रवेशविधानं नाम दशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०थम्भं व सा०-मु० । २. ०मसंविग्गा-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १११. रामविप्पलावविहाणपव्वं ॥ अह कालगयसमाणे, सेणिय ! नारायणे जुगपहाणे । रामेण सयलरज्जं, बन्धवनेहेण परिचत्तं ॥१॥ लच्छीहरस्स देहं, सुरहिसुगन्धं सहावओ मउयं । जीएण वि परिमुक्कं, न मुयइ पउमो सिणेहेणं ॥२॥ अग्घायइ परिचुम्बइ, ठवेइ अङ्के पुणो फुसइ अङ्गं । रुयइ महासोगाणलसंतत्तो राहवो अहियं ॥३॥ हा कह मोत्तूण मए, एक्कागि दुक्खसागरनिमग्गं । अहिलससि वच्छ ! गन्तुं, सिणेहरहिओ इव निरुत्तं ? ॥४॥ उडेहि देव ! तुरियं, तवोवणं मज्झ पत्थिया पुत्ता। जाव न वि जन्ति दूरं, ताव य आणेहि गन्तूणं ॥५॥ धीर ! तुमे रहियाओ, अइगाढं दुक्खियाओ महिलाओ।लोलन्ति धरणिवढे, कलुणपलावं कुणन्तीओ ॥६॥ वियलियकुण्डलहारं, चूडामणिमेहलाइयं एयं । जुवइजणं न निवारसि, वच्छय ! अहियं विलवमाणं ॥७॥ उडेहि सयणवच्छल !, वाया मे देहि विलवमाणस्स । किं व अकारणकुविओ, हरसि मुहं दोसरहियस्स? ॥८॥ न तहा दहइ निदाहो,दिवायरो हुयवहो व्व पज्जलिओ । जह दहइ निरवसेसं, देहं एक्कोयरविओगो ॥९॥ किं वा करेमि वच्छय ! ? कत्तो वच्चामि हं तुमे रहिओ ? । ठाणं पेच्छामि न तं, निव्वाणं जत्थ उ लहामि ॥१०॥ हा वच्छ ! मुञ्चसु इमं, कोवं सोमो य होहि संखेवं । संपइ अणगाराणं, वट्टइ वेला महरिसीणं ॥११॥ १११. रामविप्रलापविधानपर्वम् । अथ कालगते सति श्रेणिक ! नारायणे युगप्रधाने । रामेण सकलराज्यं बन्धवस्नेहेन परित्यक्तम् ॥१॥ लक्ष्मीधरस्य देहं सुरभिसुगन्धं स्वभावतो मृदुकम् । जीवेनापि परिमुक्तं न मुञ्चति पद्मः स्नेहेन ॥२॥ आघ्राति परिचम्बति स्थापयत्यडके पनः स्पशत्यगम । रोदिति महाशोकानलसंतप्तो राघवोऽधिकम् ॥३॥ हा कथं मुक्त्वा मामेकाकिनं दुःखसागरनिमग्नम् । अभिलषसि वत्स ! गत्वा स्नेहरहित इव निश्चितम् ? ॥४|| उत्तिष्ठ देव ! त्वरितं तपोवनं मम प्रस्थितौ पुत्रौ । यावन्नापि यातो दूरं तावच्चानय गत्वा ॥५॥ धीर ! त्वया रहिता अतिगाढं दुःखिताः महिलाः । लोलन्ति धरणीपृष्टे करुणप्रलापं कुर्वन्त्यः ॥६॥ विगलितकुण्डलहारं चूडामणिमेखलायितमेतत् । युवतिजनं न निवारयसि वत्स ! अधिकं विलपमानम् ॥७॥ उत्तिष्ठ स्वजनवत्सल ! वाचां मे देहि विलपमानस्य । किं वाऽकारणकुपितो हरसि मुखं दोषरहितस्य ? ॥८॥ न तथा दहति निदाधो दिवाकरो हुतवह इव प्रज्वलितः । यथा दहति निरवशेषं देहमेकोदरवियोगः ॥९॥ किं वा करोमि वत्स ! कुतो गच्छाम्यहं त्वया रहितः ? । स्थानं पश्यामि न तन्निर्वाणं यत्र तु लभे ॥१०॥ हा वत्स ! मुञ्चेमं कोपं सौम्यश्च भव संक्षेपम् । संप्रत्यणगाराणां वर्तते वेला महर्षीणाम् ॥११॥ १. ०वअइरम्म-प्रत्य० । २. ०इयं सव्वं । जुडइजणं ण वि वारसि-प्रत्य० । ३. सि मुहं दो०-मु० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० पउमचरियं अत्थाओ दिवसयरो, लच्छीहर! किं न पेच्छसि इमाइं । मउलन्ति कुवलयाई, वियसन्ति य कुमुयसण्डाइं? ॥१२॥ अत्थरह लहुँ सेज्जं, काऊण भुयन्तरम्मि सोमित्तिं । सेवामि जेण निइं, परिवज्जियसेसवावारो ॥१३॥ संपुण्णचन्दसरिसं, आसि तुमं अइमणोहरं वयणं । कज्जेण केण सुपुरिस!, संपइ विगयप्पभं जायं? ॥१४॥ जंतुज्झ हिययइटुं, दव्वं संपाययामि तं सव्वं । सव्वावारमणहरं, काऊण मुहं समुल्लवसु ॥१५॥ मुञ्च विसायं सुपुरिस !, अम्हं चिय खेयरा अइविरुद्धा । सव्वे वि आगया वि हु, घेत्तुमणा कोसलं कुद्धा ॥१६॥ महयं पि सत्तुसेन्नं, जिणयन्तो जो इमेण चक्केणं । सो कह सहसि परिभवं, कयन्तचक्कस्स धीर तुमं ॥१७॥ सुन्दर ! विमुञ्च निर्दे, वोलीणा सव्वरी रवी उइओ। देहं पसाहिऊणं, चिट्ठसु अत्थाणमज्झगओ ॥१८॥ सव्वो वि य पुहइजणो, समागओ तुज्झ सन्नियासम्मि । गुरुभत्त ! मित्तवच्छल !, एयस्स करेहि माणत्थं ॥१९॥ निययं तु सुप्पहायं, जिणाण लोगावलोगदरिसीणं । भवियपउमाण वि पुणो, जायं मुणिसुव्वओ सरणं ॥२०॥ वच्छ ! तुमे चिरसइए, सिढिलायइ जिणहरेसु संगीयं । समणा जणेण समयं, संपत्ता चेव उव्वेयं ॥२१॥ उद्वेहि सयणवच्छल !, धीरेहि ममं विसायपडिवन्नं । एयावत्थम्मि तुमे, न देइ सोहा इमं नयरं ॥२२॥ णूणं कओ विओगो, कस्स वि जीवस्स अन्नजम्मम्मि मया। एक्कोयरस्स"वसणं, विमलविहाणस्स पावियं तेण सया ॥२३॥ ॥ इइ पउमचरिए रामविप्पलावविहाणं नाम एगादसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ अस्तो दिवसकरो लक्ष्मीधर ! किं न पश्यसीमानि । मुकुलन्ति कुवलयानि विकसन्ति च कुमुदखण्डानि ? ॥१२॥ आस्तर लघु शय्यां कृत्वा भुजान्तरे सौमित्रे ! । सेवे येन निद्रां परिवर्जिताशेषव्यापारः ॥१३॥ संपूर्णचन्द्रसदृशमासीत्तवातिमनोहरं वदनम् । कार्येण केन सत्पुरुष ! संप्रति विगतप्रभं जातम् ? ॥१४॥ यत्तव हृदयेष्टं द्रव्यं संपादयामि तत्सर्वम् । सव्यापारमनोहरं कृत्वा मुखं समुल्लप ॥१५॥ मुञ्च विषादं सत्पुरुष ! अस्माकमेव खेचरा अतिविरुद्धाः । सर्वेऽप्यागता अपि हु ग्रहितुमनसः कोशलां क्रुद्धाः॥१६॥ महदपि शत्रुसैन्यं जयन् योऽनेन चक्रेण । स कथं सहसे परिभवं कृतान्तचक्रस्य धीर त्वम् ॥१७॥ सुन्दर ! विमुञ्च निद्रां व्यतीता शर्वरी रविरुदितः । देहं प्रसाध्य तिष्ठास्थानमध्यगतः ॥१८॥ सर्वोऽपि च पृथिवीजनः समागतस्तव संनिकाशे । गुरुभक्त ! मित्रवत्सल ! एतस्य कुरु मानार्थम् ॥१९॥ नित्यं तु सुप्रभातं जिनानां लोकालोकदर्शिनाम् । भविकपमानामपि पुन र्येषां मुनिसुव्रतः शरणम् ॥२०॥ वत्स ! त्वयि चिरशयिते शिथीलायति जिनगृहेषु संगीतम् । श्रमणा जनेन समं संप्राप्ता एवोद्वेगम् ॥२१॥ उत्तिष्ठ स्वजनवत्सल ! धीरय मां विषादप्रतिपन्नम् । एतदवस्थायां त्वयि न ददाति शोभामिदं नगरम् ।।२२॥ नूनं कृतो वियोगः कस्यापि जीवस्यान्यजन्मनि मया । एकोदरस्य व्यसनं विमलविधानस्य प्राप्तं तेन सदा ॥२३॥ ॥इति पद्मचरिते रामविप्रलापविधानं नाम एकादशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. अच्छुरह-प्रत्य० । २. परिसेसियसे०-प्रत्य० । ३. ०पाडयामि तं सव्वं । वावारमणहरं तं काऊ०-प्रत्य० । ४. ०न्तवक्कस्स-मु० । ५. वि ह पु०प्रत्य० । ६. मा (? मो) पेच्छं-प्रत्य० । ७. ०यकुमुयाण य पुणो,-प्रत्य० । ८. जाणं मु०-मु० । ९. वच्छ ! तुमए विरहिए,-प्रत्य० । १०. वयणंमु०।११. ०लपहाणस्स तेण पावियं पि सया-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२. लक्खणविओगविहीसणवयणपव्वं एत्तो खेयरवसहा, सव्वे' तं जाणिऊण वित्तन्तं । महिलासु समं सिग्घं, साएयपुरिं समणुपत्ता ॥१॥ असो लङ्काविई, बिहीसणो सह सुएहिं सुग्गीवो । चन्दोयरस्स पुत्तो, तहेव ससिवद्धणो सुहडो ॥२॥ एए अन्ने य वहू, खेय` वसहा सअंसुनयणजुया । पविसन्ति सिरिहरं ते, रामस्स कयञ्जलिपणामा ॥३॥ अह ते विसण्णवयणा, काऊण 'विही उ महियले सव्वे । उवविट्ठा पउमाभं, भणन्ति पाएसु पडिऊणं ॥४॥ जइ वि य इमो महाजस !, सोगो दुक्खेहिं मुञ्चइ हयासो । तह वि य अवसेण तुमे, मोत्तव्वो अम्ह वयणेणं ॥ ५ ॥ ते एव जंपिऊणं, तुहिक्का खेयरा ठिया सव्वे । संथाव णम्मि कुसलो, तं भणइ बिहीसणो वयणं ॥६॥ जलबुब्बुयसरिसाई, राहव ! देहाई सव्वजीवाणं । उप्पज्जन्ति चयन्ति य, नाणाजोणीसु पत्ताणं ॥७॥ इन्दा सलोगपाला, भुञ्जन्ता उत्तमाई सोक्खाई । पुण्णक्खयम्मि ते वि य, 'चइउं अणुहोन्ति दुखाइं ॥८ ॥ 'ते तत्थ मणुयदेहे, तणबिन्दुचलाचले अइदुगन्धे । उप्पज्जन्ति महाजस !, का सन्ना पायए लोए ? ॥९॥ ७ अन्नं यं समाणं, सोइ अहियं विमूढभावेणं । मच्चुवयणे 'पविट्टं, न सोयई चेव अप्पाणं ॥ १० ॥ पड़ जाओ, जीवो तत्तो पभूड़ मच्चूणं । गहिओ कुरङ्गओ विव, करालवयणेण सीहेणं ॥११॥ ११२. लक्ष्मणवियोगबिभीषणवचनपर्वम् इतः खेचरवृषभाः सर्वे तज्ज्ञात्वा वृत्तान्तम् । महिलाभिः समं शीघ्रं साकेतपुरिं समनुप्राप्ताः ॥१॥ अथ स लङ्काधिपति बिभीषणः सह सुतैः सुग्रीवः । चन्द्रोदरस्य पुत्रस्तथैव शशिवर्द्धनः सुभटः ॥२॥ एतेऽन्ये च बहवः खेचरवृषभाः साश्रुनयनयुक्ताः । प्रविशन्ति श्रीगृहं ते रामस्य कृताञ्जलिप्रणामाः ॥३॥ अथ ते विषण्णवदनाः कृत्वा विधिना महितले सर्वे । उपविष्टाः पद्माभं भणन्ति पादयोः पतित्वा ॥४॥ यद्यपि चायं महायशः ! शोको दुःखै र्मुञ्चति हताशः । तथापि चावशेन त्वया मुक्तव्यो ऽस्मद्वचनेन ||५|| ते एवं जल्पित्वा तुष्णिकाः खेचराः स्थिताः सर्वे । संस्थापने कुशलस्तं भणति बिभीषणो वचनम् ||६|| जलबुद्बुदसदृशानि राघव देहानि सर्वजीवानाम् । उत्पद्यन्ते च्यवन्ति च नानायोनिषु प्राप्तानाम् ॥७॥ इन्द्राः सलोकपाला भुञ्जन्त्युत्तमानि सुखानि । पुण्यक्षये तेऽपि च च्युत्वाऽनुभवन्ति दुःखानि ॥८॥ ते तत्र मनुष्यदेहे तृणबिन्दुचलाचले ऽतिदुर्गन्धे। उत्पद्यन्ते महायशः ! का संज्ञा प्राकृते लोके ? ३ ॥ ९ ॥ अन्यं मृतं स तं शोचत्यधिकं विमूढभावेन । मृत्युवदने प्रविष्टं न शोचत्येवात्मानम् ॥१०॥ यतः प्रभृतिर्जातो जीवस्ततः प्रभृति र्मृत्युना । गृहीतः कुरङ्ग इव करालवदनेन सिंहेन ॥११॥ १. सव्वे ते जा० - प्रत्य० । २. ०रसुहडा सअं० - प्रत्य० । ३. विहीए म० मु० । ४. ०थावियमइकुसलो - मु० । ५. चइयं प्रत्य० । ६. ते एत्थ - प्रत्य० । ७. अन्नं तु मयसमाणं मु० । ८. ०हूं, ण य सोयइ चेव - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ पउमचरियं लोयस्स पेच्छसु पहू !, परमं चिय साहसं अभीयस्स । मच्चुस्स न वि य बीहइ, पुरओ वि हु उग्गदण्डस्स ॥१२॥ तं नत्थि जीवलोए, ठाणं तिलतुसतिभागमेत्तं पि । जत्थ न जाओ जीवो, जत्थेव न पाविओ मरणं ॥१३॥ मोत्तूण जिणं एकं, सव्वं ससुरासुरम्मि तेलोक्के । मच्चूण छिज्जइ पहू !, वसहेण तणं व तद्दियसं ॥१४॥ भमिऊण य संसारे, जीवो कह कह वि लहइ मणुयत्तं । बन्धवनेहविणडिओ, न गणइ आउं परिगलन्तं ॥१५॥ जणणीए जइ वि गहिओ, रक्खिज्जन्तो वि आउहसएहिं। तह वि य नरो नराहिव !, हीरइ मच्चूण अकयत्थो ॥१६॥ संसारम्मि अणन्ते, सयणोहा इह सरीरिणा पत्ता । ते सिन्धुसायरस्स वि, सिकयाए सामि अहिययरा ॥१७॥ नरएसु य जं पीयं, कललं जीवेण पावसत्तेणं । तं जयइ पिण्डियं चिय, सयंभुरमणस्स वि जलोहं ॥१८॥ पुत्तो पिया रहुत्तम !, जायइ धूया वि परभवे जणणी । बन्धू वि होइ, वइरी, संसारठिई इमा सामि ! ॥१९॥ रयणप्पहाइयं जं, दुक्खं जीवेण पावियं बहुसो । तं निसुणिऊण मोहं, को न चयइ उत्तमो पुरिसो? ॥२०॥ तुम्हारिसा वि राहव !, उव्वग्गिज्जन्ति जइ वि मोहेणं । का सन्ना हवइ पहू !, धीरत्ते पागयनराणं? ॥२१॥ एयं निययसरीरं, जुत्तं मोत्तुं कसायदोसावासं । किं पुण अन्नस्स तणू, न य उज्झसि देव सुविमलं करिय मणं ? ॥२२॥ ॥ इइ पउमचरिए लक्खणविओगबिहीसणवयणं नाम बारसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ लोकस्य पश्य प्रभो ! परममेव साहसमभीतस्य । मृत्योर्नापि च बिभेति पुरतोऽपि खलूग्रदण्डस्य ॥१२॥ तन्नास्तिजीवलोके स्थानं तिलतुषत्रिभागमात्रमपि । यत्र न जातो जीवो यत्रचैव न प्राप्तो मरणम् ॥१३॥ मुक्त्वा जिनमेकं सर्वं ससुरासुरे त्रैलोक्ये । मृत्युना छिद्यते प्रभो ! वृषभेन तृणमिव तद्दिवसम् ॥१४॥ भ्रान्त्वा च संसारे जीवः कथंकथमपि लभते मनुष्यत्वम् । बन्धवस्नेहविनटितो न गणयत्यायुः परिगलत् ॥१५।। जनन्या यद्यपि गृहीतो रक्ष्यन्नाप्यायुधशतैः । तथापि च नरो नराधिप ! ह्रीयते मृत्युनाऽकृतार्थः ॥१६॥ संसारे ऽनन्ते स्वजनौघा इह शरिरिणा प्राप्ताः । ते सिन्धुसागरस्यापि सिक्तायाः स्वामिन्नधिकतराः ॥१७॥ नरकेषु च यत्पीतं कललं जीवेन पापासक्तेन । तज्जायते पिण्डितमेव स्वयंभूरमणस्यापि जलौघम् ॥१८॥ पुत्रः पिता रघूत्तम ! जायते दुहिताऽपि परभवे जननी । बन्धुरपि भवति वैरी संसारस्थितिरिमा स्वामिन् ! ॥१९॥ रत्नप्रभादिकं यदुःखं जीवेन प्राप्तं बहुशः । तन्निश्रुत्य मोहं को न त्यजत्युत्तमः पुरुषः ? ॥२०॥ युष्मादृशा अपि राघव ! उपगीयन्ते यद्यपि मोहेन । का संज्ञा भवति प्रभो ! धीरत्वे प्राकृतनराणाम् ? ॥२१॥ एतन्निजशरीरं युक्तं मोक्तुं कषायदोषावासम् । किं पुनरन्यस्य तनुर्न चोज्झसि देव सुविमलं कृत्वा मन: ? ॥२२॥ ॥इति पद्मचरिते लक्ष्मणवियोगबिभीषणवचनं नाम द्वादशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०सुरं पि ते०-प्रत्य० । २. ०ण वि सं०-प्रत्य० । ३. सयणो भाई सरी०-प्रत्य० । ४. णिरएसु जं च पीयं जीवेणं कलमलंततत्तेण । तं जिणइप्रत्य० । ५. ०या उ जायइ, राहव ! धूया-प्रत्य० । ६. ०इ वेरी-प्रत्य० । ७. ०हाइदुक्खं, जीवेणं पावियं तु इह वहुसो-प्रत्य० । ८. ०यदोससयं । किं प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. कल्लाणमित्तदेवागमणपव्वं सुग्गीवमाइएहिं, भडेहिं नमिऊण राहवो भणिओ । सक्कारेहि महाजस !, एयं लच्छीहरस्स तणुं ॥१॥ तो भणइ सकलुसमणो, रामो अचिरेण अज्ज तुब्भेहि।माइ-पिइ-सयणसहिया, डज्झह अहियं खलसहावा ॥२॥ उठेहि लच्छिवल्लह !, अन्नं देसं लहुं पगच्छामो । जत्थ इमं अइकडुयं, खलाण वयणं न य सुणामो ॥३॥ निब्भच्छिऊण एवं, खेयरवसहाऽइसोगसंतत्तो। लच्छीहरस्स देहं आढत्तो चुम्बिउं रामो ॥४॥ अह सो अवीससन्तो, ताहे लच्छीहरस्स तं देहं ।आरुहिय निययखन्थे, अन्नुद्देसं गओ पउमो ॥५॥ भुयपञ्जरोवगूढं, मज्जणपीढे तओ ठवेऊणं । अहिसिञ्चइ सोमित्ति, कञ्चणकलसेहिं पउमाभो ॥६॥ आहरिऊण असेसं, ताहे वाहरड़ सूवयारं सो। सज्जेहि भोयणविहि, सिग्धं मा कुणसु वक्खेवं ॥७॥ आणं पडिच्छिऊणं, करणिज्जं एवमाइयं सव्वं ।अणुट्ठियं तु सिग्धं, सामिहिएणं परियणेणं ॥८॥ सो ओयणस्स पिण्डं, रामो पक्खिवइ तस्स वयणम्मि । नऽहिलसइ नेव पेच्छइ, जिणवरधम्मं पिव अभव्वो ॥९॥ एसा य उत्तमरसा, निययं कायम्बरी तुम इट्ठा । पियसु चसएसु लक्खण !, उप्पलवरसुरहिगन्धड्डा ॥१०॥ वव्वीस-वंस-तिसरिय-वीणा-गन्धव्व-विविहनडएसु । थुव्वइ अविरहियं सो, सोमित्तं रामवयणेणं ॥११॥ ११३. कल्याणमित्रदेवागमनपर्वम् । सुग्रीवादिभि भटै नत्वा राघवो भणितः । सत्कारय महायशः ! एतल्लक्ष्मीनिलयस्य तनुः ॥१॥ तदा भणति सकालुष्यमना रामोऽचिरेणाद्य युष्मद्भिः । मातृ-पितृ-स्वजनसहिता दहताधिकं खलस्वभावाः ॥२॥ उत्तिष्ठ लक्ष्मीवल्लभ ! अन्यं देशं लघु प्रगच्छावः । यत्रेदमतिकटुकं खलानां वचनं न च श्रुणुवः ॥३॥ निर्भत्स्यैवं खेचरवृषभानतिशोकसंतप्तः । लक्ष्मीधरस्य देहमारब्धश्चुम्बितुं रामः ॥४|| अथ सोऽविश्वसंस्तदा लक्ष्मीधरस्य तद्देहम् । आरोहय निजस्कन्धे ऽन्योद्देशं गतः पद्मः ॥५॥ भुजपञ्जरालिङ्गितं मज्जनपीठे ततः स्थापयित्वा । अभिषिञ्चति सौमित्रिं कञ्चनकलशैः पद्माभः ॥६॥ अलङ्कृत्याशेषं तदा व्यहरति सूपकारं सः । सर्ज भोजनविधि शीघ्रं मा कुरु व्याक्षेपम् ॥७॥ आज्ञां प्रतीष्छय करणीयमेवमादिकं सर्वम् । अनुष्ठितं तु शीघ्रं स्वामिहितेन परिजनेन ॥८॥ स ओदनस्य पिण्डं रामः प्रक्षिपति तस्य वदने । नाभिलषति नैव पश्यति जिनवरधर्ममिवाभव्यः ॥९॥ एषा चोत्तमरसा नित्यं कादम्बरी तवेष्टा । पिब चसकै लक्ष्मण ! उत्पलवरसुरभिगन्धाढ्या ॥१०॥ विव्वीस-वंश-त्रिसरित-वीणा-गान्धर्व-विविधनृत्यैः । स्तौत्यविरहितं स सौमित्रिं रामवचनेन ॥११॥ १. रामो तुब्भेहिं अज्ज अचिरेणं । मा०-प्रत्य०। २.०स्स पढें, आ०-प्रत्य० । ३. अन्नं देसं गओ रामो-प्रत्य०। ४.०ज्जराव०-प्रत्य०।५. विक्खेवंमु०। ६. वाद्यविशेषः। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ पउमचरियं एयाणि य अन्नाणि य, करणिज्जसयाई तस्स पउमाभो । कारेइ मूढहियओ, परिवज्जियसेसवावारो ॥१२॥ ताव मुणिऊण एयं, वित्तन्तं वेरिया रणुच्छाहा । चारू य वज्जमाली, रयणक्खाई य सुन्दसुया ॥१३॥ जंपन्ति अम्ह गुरवं, वहिऊणं तेण अगणियभएणं । पायालंकारपुरे, ठविओ य विराहिओ रज्जे ॥१४॥ सीयाए अवहियाए, लखूणं तत्थ पवरसुग्गीवं । लछेउं लवणजलं, अणेयदीवा विणासेन्तो ॥१५॥ पत्तो च्चिय विज्जाओ, ताहे चक्केण रावणं समरे। मारेऊण य लङ्का, कया वसे खेयरा सव्वे ॥१६॥ सो कालचक्क पहओ, सोमित्ती पत्थिओ परं लोगं । रामो वि तस्स विरहे, मोहेण वसीकओ अहियं ॥१७॥ अज्जप्पभूइ वट्टइ, छम्मासो तस्स मोहगहियस्स । वावारवज्जियस्स य, भाइसरीरं वहन्तस्स ॥१८॥ काऊण संपहरां, एवं ते निययसाहणसमग्गा । सन्नद्धबद्धकवया, साएयपुरिं समणुपत्ता ॥१९॥ सोऊण वज्जमालिं, समागयं सुन्दपुत्तपरिवारं । रामो वज्जावत्तं, वाहरइ कयन्तदण्डसमं ॥२०॥ उवणीयं चिय गेण्हइ, तं धणुयं लक्खणं ठविय अङ्के । ताहे कयन्तसरिसो, देइ रहू रिवुबले दिढेि ॥२१॥ एयन्तरम्मि जाओ, आसणकम्पो सुराण सुरलोए ।माहिन्दनिवासीणं, तत्थ जडाऊ-कयंताणं ॥२२॥ अवहिविसएण दट्ठ, देवा सोगाउरं पउमनाहं । तं चेव कोसलपुर , पडिरुद्धं वेरियबलेणं ॥२३॥ सरिऊण सामियगुणे, समागया कोसलापुरं देवा । वेढन्ति अरिबलं तं, "समन्तओ सेन्ननिवहेणं ॥२४॥ एतानि चान्यानि च करणीयशतानि तस्य पद्माभः । कारयति मूढहृदयः परिवर्जिताशेषव्यापारः ॥१२॥ तावन्मुणित्वेतद्वृत्तान्तं वैरिका रणोत्साहाः । चारुश्च वज्रमाली रत्नाक्षादयश्च सुन्दसुताः ॥१३॥ जल्पन्त्यस्मद्गुरूहत्वा तेनागणितभयेन । पाताललकापुरे स्थापितश्च विराधितो राज्ये ॥१४॥ सीतायामपहृतायां लब्ध्वा तत्र प्रवरसुग्रीवम् । लवयित्वा लवणजलमनेकद्वीपान्विनाशयन् ॥१५॥ प्राप्त एव विद्यास्तदा चक्रेण रावणं समरे । मारयित्वा च लड्का कृता वशे खेचराः सर्वे ॥१६॥ स कालचक्रप्रहतः सौमित्रः प्रस्थितः परलोकम् । रामोऽपि तस्य विरहे मोहेन वशीकृतोऽधिकम् ॥१७॥ अद्यप्रभति वर्तते षण्मासस्तस्य मोहगहीतस्य। व्यापारवजितस्य च भ्रातशरीरं वहतः ॥१८॥ कृत्वा संप्रहारमेवं ते निजसाधनसमग्राः । सन्नद्धबद्धकवचा: साकेतपुरिं समनुप्राप्ताः ॥१९।। श्रुत्वा वज्रमालं समागतं सुन्दपुत्रपरिवारम् । रामो वज्रावर्तं व्याहरति कृतान्तदण्डसमम् ॥२०॥ उपनीतमेव गृह्णाति तं धनुकं लक्ष्मणं स्थापयित्वके । तदा कृतान्तसदृशो ददाति रघू रिपुबले दृष्टिम् ॥२१॥ एतदन्तरे जात आसनकम्पः सुराणां सुरलोके । माहेन्द्रनिवासीनौतत्र जटायु-कृतान्तौ ॥२२॥ अवधिविषयेण दृष्ट्वा देवौ शोकातूरं पद्मनाभम् । तामेव कोशलपुरं प्रतिरुद्धां वैरिबलेन ॥२३॥ स्मृत्वा स्वामिगुणान्समागतौ कोशलापुर देवौ । वेष्टयतोऽरिबलं तं समन्ततः सैन्यनिवहेन ॥२४॥ १. परिसेसियसव्ववा०-प्रत्य० । २. ताव सुणि०-प्रत्य० । ३. पयणक्खासंद सुन्द०-प्रत्य० । ४. लभ्रूण य तेण तत्थ सुग्गीवं-प्रत्य० । ५. रामणंप्रत्य० । ६. कनिहतो, सो०-प्रत्य० । ७. ०ओ वरं लोग-प्रत्य० । ८. धणुवं-प्रत्य० । ९. जडागीकयं०-प्रत्य० । १०. ०पुरं, प०-प्रत्य० । ११. ०न्तओ णिययसेण्णेणं-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लाणमित्तदेवागमणंपव्वं -११३/१२-३६ ६९५ दट्ठण सुरबलं तं, भीया विज्जाहरा वियलियत्था । नासेन्ति एक्कमेक्कं, लङ्घन्ता नियर्यपुरिहुत्ता ॥२५॥ पत्ता निययपुरं ते जंपन्ति बिहीसणस्स कह वयणं । पेच्छामो गयलज्जा, विभग्गमाणा खलसहावा? ॥२६॥ अह ते इन्दइतणया, सुन्दसुया चेव जायसंवेगा। रइवेगस्स सयासे, मुणिस्स दिक्खं चिय पवन्ना ॥२७॥ सत्तुभयम्मि ववगए, सुरपवरा तस्स सन्नियासम्मि । जणयन्ति सुक्खरुक्खं, रामस्स पबोहणटुम्मि ॥२८॥ वसहकलेवरजुत्तं, सीरं काऊण तत्थ य जडाऊ । उच्छहइ वाहिउँ जे, पक्खिर य बीयसंघायं ॥२९॥ रोवइ य पउमसण्ड, सिलायले पाणिएण सिञ्चन्तो । पुणरवि चक्कारूढो, पीलइ सिकया जडाउसुरो ॥३०॥ एयाणि य अन्नाणि य, अत्थविरुद्धाइ तत्थ कज्जाइं । कुणमाणा सुरपवरा, ते पुच्छइ हलहरो दो वि ॥३१॥ भो भो ! सुक्खतरुवरं, किं सिञ्चसि मूढ ! सलिलनिवहेणं । वसहकलेवरजुत्तं, सीरं नासेसि बिज्जसमं ॥३२॥ सलिले मन्थिज्जन्ते, सु१ वि ण य मूढ होइ णवणीयं । सिकयाए पीलियाए, कत्तो च्चिय जायए तेल्लं ॥३३॥ न य होइ कज्जसिद्धी, एव कुणन्ताण मोहगहियाणं । जायइ सरीरखेओ, नवरं विवरीयबुद्धीणं ॥३४॥ तं भणइ कयन्तसुरो, तुहमवि जीवेण वज्जियं देहं । कह वहसि अपरितन्तो, नेहमहामोहगहगहिओ ? ॥३५॥ तं लक्खणस्स देहं, अवगृहेऊण भणइ पउमाभो । किं सिरिहरं दुगुंछसि, अमङ्गलं चेव कुणमाणो ? ॥३६॥ दृष्ट्वा सुरबलं तद्भीता विद्याधरा विगलितार्थाः । नश्यन्त्येकमेकं लड्ययन्तो निजपूर्याभिमुखाः ॥२५|| प्राप्ता निजपुरं ते जल्पन्ति बिभीषणस्य कथं वदनम् । पश्यामो गतलज्जा विभग्नमनाः खलस्वभावाः ? ॥२६।। अथ ते इन्द्रजीत्तनयाः सुन्दसुता एव जातसंवेगाः । रतिवेगस्य सकाशे मुनेर्दिक्षामेव प्रपन्नाः ॥२७॥ शत्रुभये व्यपगते सुरप्रवरौ तस्य संनिकाशे । जनयतः शुष्कवृक्षं रामस्य प्रबोधनार्थे ॥२८॥ वृषभक्लेवरयुक्तं सीरं कृत्वा तत्र च जटायुः । उत्सहति वाहयितुं ये प्रविकीरति च बीजसंघातम् ॥२९|| रोपयति च पद्मखण्डं शिलातले पानीयेन सिञ्चन्न् । पुनरपि चक्रारुढ: पीडयति सिक्ता जटायुसुरः ॥३०॥ एतानि चान्यानि चार्थविरुद्धानि तत्र कार्याणि । क्रियमाणौ सुरप्रवरौ तौ पृच्छति हलधरो द्वावपि ॥३१॥ भो! भो ! शुष्कतरुवरं किं सिञचसि मूढ ! सलिलनिवहेन । वृषभक्लेवरयुक्तं सीरं नाशयसि बीजसमम् ॥३२॥ सलिले मथ्यमाने सुष्टुरपि न मूढ ! भवति नवनीतम् । सिक्थायां पिलीतायां कुत एव जायते तैलम् ॥३३।। न च भवति कार्यसिद्धिरेव कुर्वतां मोहगृहीतानाम् । जायते शरीरखेदो नवरं विपरितबुद्धीनाम् ॥३४॥ तं भणति कृतान्तसुरस्त्वमपि जीवेन वर्जितं देहम् । कथं वहस्यपरित्रान्तो स्नेहमहामोहगृहीतः ? ॥३५।। तल्लक्ष्मणस्य देहमालिङ्ग्य भणति पद्माभः । किं श्रीगृहं जुगुप्सस्यमङ्गलमेव क्रियमाणः ? ॥३६।। १. यपुरहु-प्रत्य० । २. जडागी-प्रत्य० । ३. ०रई वी०-प्रत्य० । ४. रोयति-प्रत्य० । ५. जडागिसु०-प्रत्य० । ६. विहूणाई त०-प्रत्य० । ७. य तुम्ह क०-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ पउमचरियं जावकयन्तेण समं, परमो रामस्स वट्टइ विवाओ । रयणकलेवरखन्धो, ताव जडाऊ समणुपत्तो ॥ ३७॥ दट्ठूण अभिमुहं तं, हलाउहो भणइ केण कज्जेणं । एवं कलेवरं चिय े, मइमूढो वहसि खन्धेणं ? ॥३८॥ भणिओ सुरेण पमो, तुमं पि पाणेसु वज्जियं मडयं । वहसि अविवेगवन्तो, अहिययरं बालबुद्धीओ ॥३९॥ वालग्गकोडिमेत्तं, दोसं पेच्छसि परस्स अइसिग्धं । मन्दरमेत्तं पि तुमं, न य पेच्छसि अत्तणो दोसं ॥४०॥ दण तु परमा, मह पीई संपयं समणुजाया । सरिसा सरिसेसु सया, रज्जन्ति सुई जणे एसा ॥४१॥ काऊ म पुरओ, जणम्मि सव्वाण बालबुद्धीणं । पुव्वपिसायाण तुमं, राया मोहं उवगयाणं ॥ ४२॥ अम्हे मोहवसगया, दोण्णि वि उम्मत्तयं वयं काउं । परिहिण्डामो वसुहं, कुणमाणा गहिलियं लोयं ॥४३॥ एवं भणियं सुणिउं, पसिढिलभावं च उवगए मोहे । सुमरइ गुरुवयणं सो, पउमो लज्जासमावन्नो ॥४४॥ ववगयमोहघणो सो, पडिबोहणविमलकिरण संजुत्तो । चन्दो व्व सरयकाले, छज्जइ पउमो दढधिईओ ॥४५॥ असणाइएण व जहा, लद्धं चिय भोयणं हि । तहाघत्थेण सरं, दिवं पिव सलिल पडिपुणं ॥४६॥ लद्धं महोसहं पिव, अच्चन्तं वाहिपीडियतणूणं । एव पउमेण सरियं, गुरुवयणं चेव दुक्खेणं ॥४७॥ पडिबुद्धो नरवसहो जाओ पप्फुल्ल कमलदलनयणो । चिन्तेइऽह उत्तिण्णो, अहयं मोहन्धकूवाओ ॥ ४८ ॥ विमलं चिय संजायं, तस्स मणं गहियधम्मपरमत्थं । मोहमलपडलमुक्कं, नज्जइ सरए व्व रविबिम्बं ॥ ४९ ॥ यावत्कृतान्तेन समं परमो रामस्य वर्तते विवादः । रत्नकलेवरस्कन्धस्तावज्जटायुः समनुप्राप्तः ||३७|| दृष्ट्वाभिमुखं तं हलायुधो भणति केन कार्येण । एतत्कलेवरमेव मतिमूढो वहसि स्कन्धेन ? ॥३८॥ भणितः सुरेण पद्मस्त्वमपि प्राणै वर्जितं मृतकम् । वहस्यतिवेगवानधिकतरं बालबुद्धिकः ||३९|| वालाग्रकोटिमात्रं दोषं पश्यसि परस्यातिशीघ्रम् । मन्दरमात्रमपि त्वं न च पश्यस्यात्मनो दोषम् ||४०|| दृष्ट्वा त्वां मम परमा प्रीतिः संप्रति समनुजाता । सदृशाः सदृशैः सदा रज्यन्ते श्रुतिर्जने एषा ॥४१॥ कृत्वा मां पुरतो जने सर्वेषां बालबुद्धीनाम् । पूर्वपिशाचानां त्वं राजा मोहमुपगतानाम् ॥४२॥ आवां मोहवशगतौ द्वावपि उन्मत्तकं वचः कृत्वा । परिहिण्डावहे वसुधां क्रियमाणौ ग्रथिलितं लोकम् ॥४३॥ एवं भणितं श्रुत्वा परिशिथील भावं चोपगते मोहे । स्मरति गुरुवचनं स पद्मो लज्जासमापन्नः ॥४४॥ व्यपगतमोहघनः स प्रतिबोधनविमलकिरण संयुक्तः । चन्द्र इव शरदकाले शोभते पद्मो दृढधृतिः ॥४५॥ क्षुधितेनेव यथा लब्धमेव भोजनं हृदयेष्टम् । तृष्णाग्रस्तेन सरो दृष्टमिव सलिलप्रतिपूर्णम् ॥४६॥ लब्धं महौषधमिवात्यन्तं व्याधिपीडिततनूनाम् । एवं पद्मेन स्मृतं गुरुवचनमेव दुःखेन ॥४७॥ प्रतिबुद्धो नरवृषभो जातः प्रोत्फुल्लकमलदलनयनः । चिन्तयत्यहो उत्तीर्णोऽहं मोहान्धकूपात् ॥४८॥ विमलमेव संजातं तस्य मनो गृहीतधर्मपरमार्थम् । मोहमलपटलमुक्तं ज्ञायते शरदीव रविबिम्बम् ॥४९॥ १. जडागी - प्रत्य० । २. चिय, अइ० - प्रत्य० । ३. ०णयुज्जुत्तो - प्रत्य० । ४. हियं इट्ठ-प्रत्य० । ५. ताहोघत्थेण प्रत्य० । ६. ० परिपु० - प्रत्य० । ७. •ल्लवयणकमलो सो | चि०- प्रत्य० । ८. मोहपडलमलमुक्कं - मु० । For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९७ कल्लाणमित्तदेवागमणंपव्वं-११३/३७-६२ अन्नं भवन्तरं पिव, संपत्तो विमलमाणसो रामो । चिन्तेऊणाढत्तो, संसारठिई सुसंविग्गो ॥५०॥ परिहिण्डन्तेण मया, संसारे कह वि माणुसं जम्मं । लद्धं अलद्ध पुव्वं, मूढो च्चिय जाणमाणो हं ॥५१॥ लब्भन्ति कलत्ताइं, संसारे बन्धवा य णेयविहा । एक्का जिणवरविहिया, नवरं चिय दुल्लहा बोही ॥५२॥ एवं पडिबुद्धं तं, देवा नाऊण अप्पणो रिद्धि । दावेन्ति हरिसियमणा, विम्हयजणणिं तिहुयणम्मि ॥५३॥ पवणो सुरहिसुयन्धो, जाणविमाणेसु छाइयं गयणं । सुरजुवईसु मणहरं, गीयं वरवीणमहुरसरं ॥५४॥ एयन्तरम्मि देवा, दोण्णि वि पुच्छन्ति तत्थ रहुणाहं । कह तुज्झ नरवराहिव !, सुहेण दियहा वइक्कन्ता ॥५५॥ तो भणइ सीरधारी, कत्तो कुसलं महं अपुण्णस्स । निययं तु ताण कुसलं, जाण दढा जिणवरे भत्ती ॥५६॥ पुच्छामि फुडं साहह, के तुब्भे सोमदंसणसहावा ? । केणेव कारणेणं, जणियं च विचेट्ठियं एवं ? ॥५७॥ तत्तो जडाउदेवो, जंपइ जाणासि दण्डयारण्णे।मुणिदरिसणेण तइया, गिद्धो तुब्भं समल्लीणो ॥५८॥ ___ धरिणीए तुज्झ नरवइ !, अणुएण य लालिओ चिरं कालं । सीयाए हरणसमए, निहओ च्चिय रक्खसिन्देणं ॥५९॥ तस्स मरन्तस्स तुमे, महिलाविरहाउलेण वि किवाए । दिन्नो य नमोक्कारो, पञ्चमहापुरिससंजुत्तो ॥६०॥ कालगओ माहिन्दे, सामिय ! सो हं सुरो समुप्पन्नो । तुज्झ पसाएण पहू !, परमिड्डिं चेव संपत्तो ॥६१॥ तिरियभवदुक्खिएणं, जं सुरसोक्खं मए समणुपत्तं । तं चेव तुमं राहव !, पम्हट्ठो एत्तियं कालं ॥६२॥ अन्यद्भवान्तरमिव संप्राप्तो विमलमानसो रामः । चिन्तयितुमारब्धः संसारस्थितिं सुसंविग्नः ॥५०॥ परिहिण्डमानेन मया संसारे कथमपि मनुष्यं जन्म । लब्धमलब्धपूर्वं मूढ एव ज्ञायमानोऽहम् ॥५१॥ लभ्यन्ते कलत्राणि संसारे बान्धवाश्चानेकविधाः । एका जिनवरविहिता नवरमेव दुर्लभा बोधिः ॥५२।। एवं प्रतिबुद्धं तं देवौ ज्ञात्वाऽऽत्मनो ऋद्धिम् । दर्शयतो हर्षितमनसौ विस्मयजननी त्रिभुवने ॥५३॥ पवनः सुरभिसुगन्धो यानविमानैच्छादितं गगनम् । सुरयुवतिभि मनोहरं गीतं वरवीणामधुरस्वरम् ॥५४॥ एतदन्तरे देवौ द्वावपि पृच्छतस्तत्र रघुनाथम् । कथं तव नराधिप ! सुखेन दिवसा व्यतिक्रान्ताः ॥५५।। तदा भणति सीरधारी कृतः कुशलं मेऽपुण्यस्य । नित्यं तु तेषां कुशलं येषां दृढा जिनवरे भक्तिः ।।५६।। पृच्छामि स्फुटं कथयतां कौ युवां सौम्यदर्शनस्वभावौ ? । केनैव कारणेन जनितं च विचेष्टितमेतत् ? ॥५७।। ततो जटायुदेवो जल्पति जानासि दण्डकारण्ये । मुनिदर्शनेन तदा गृध्रस्त्वां समालीनः ॥५८॥ गृहिण्यास्तव नरपते ! अनुजेन च लालितश्चिरंकालम् । सीताया हरणसमये निहत एव राक्षसेन्द्रेण ॥५९॥ तस्य म्रियमाणस्यत्वया महिलाविरहाकूलेनापि कृपया । दत्तश्च नमस्कारः पञ्चमहापुरुषसंयुक्तः ॥६०॥ कालगतो महेन्द्रे स्वामिन् ! सोऽहं सुरः समुत्पन्नः । तव प्रसादेन प्रभो ! परमद्धिमेव संप्राप्तः ॥६॥ तिर्यग्भवदःखितेन यत्सरसखं मया समनप्राप्तम । तदेव त्वं राघव ! प्रमष्ट एतावन्तं कालम ॥१२॥ १. ०द्धयं वो, मू०-प्रत्य० । २. अत्तणो-प्रत्य० । ३. गीयवरं वीण०-प्रत्य० । ४. ०हा अइ०-प्रत्य० । ५. जडागिदे०-प्रत्य० । ६. ०द्धो उ तुम स०प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ पउमचरियं तुज्झऽवसाणे राहव !, अकयग्यो हं इहागओ पावो । किर किंचि थेवयं पि य, करेमि एयं तु उवयारं ॥६३॥ तं भणइ कयन्तसुरो, इहासि सेणावई अहं तुझं । नामेण कयन्तमुहो, सो सुरपवरो समुप्पन्नो ॥६४॥ सामिय ! देहाणत्ति, दव्वं जं उत्तमं तिहुयणम्मि । तं तुज्झ संपइ पहू !, सव्वं तु करेमि साहीणं ॥६५॥ रामो भणइ रिखुबलं, भग्गं तुब्भेहि बोहिओ अहयं । दिट्ठा कल्लाणमुहा, एयं चिय किन्न पज्जत्तं? ॥६६॥ तं भासिऊण रामं, निययं संपत्थिया सुरा ठाणं । भुञ्जन्ति उत्तमसुहं, जिणवरधम्माणुभावेणं ॥६७॥ पेयविभवेण एत्तो, सक्कारेऊण लक्खणं रामो । पुहईए पालणद्वे, सिग्धं चिय भणइ सत्तुग्धं ॥६८॥ वच्छ ! तुमं सयलमिणं, भुञ्जसु रज्जं नराहिवसमग्गो । संसारगमणभीओ, पविसामि तवोवणं अहयं ॥६९॥ सत्तुग्यो भणइ तओ, अलाहि रज्जेण दोग्गइकरेणं । संपइ मोत्तूण तुमे, देव ! गई नत्थि मे अन्ना ॥७०॥ न कामभोगा न य बन्धुवग्गा, न चेव अत्थो न बलं पभूयं । कुणन्ति ताणं सरणं च लोए, जहा सुचिण्णो विमलो हु धम्मो ॥७१॥ ॥इइ पउमचरिए कल्लाणमित्तदेवागमणं नाम तेरसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ तवावसाने राघव ! अकृतघ्नोऽहमिहागतः पापः । किल किञ्चित्स्तोकमपि च करोम्येतत्तूपकारम् ॥६३|| तं भणति कृतान्तसुर इहासीत्सेनापतिरहं तव । नाम्ना कृतान्तमुखः स सुरप्रवरः समुत्पन्नः ॥६४॥ स्वामिन् ! देह्याज्ञेति द्रव्यं यदुत्तमं त्रिभुवने । तत्तव संप्रति प्रभो ! सर्वं तु करोमि स्वाधीनम् ॥६५॥ रामो भणति रिपुबलं भग्नं युवाभ्यां बोधितो ऽहम् । दृष्टौ कल्याणमुखावेतदेव किं न पर्याप्तम् ? ॥६६।। तं भाषित्वा रामं निजं संप्रस्थितौ सुरौ स्थानम् । भुजत उत्तमसुखं जिनवरधर्मानुभावेन ॥६७॥ प्रेतविभवेनेतः सत्कार्य लक्ष्मणं रामः । पृथिव्याः पालनार्थे शीघ्रमेव भणति शत्रुघ्नम् ।।६८।। वत्स ! त्वं सकलमिदं भुग्धि राज्यं नराधिपसमग्रः । संसारगमनभीतः प्रविशामि तपोवनमहम् ॥६९॥ शत्रुघ्नो भणति ततोऽलं राज्येन दुर्गतिकरेण । संप्रति मुक्त्वा त्वां देव ! गतिर्नास्ति मेऽन्या ॥७०|| न कामभोगा न च बन्धुवर्गा नैवार्थो न बलं प्रभूतम् । कुर्वन्ति तेषां शरणं च लोके यथा सुचीर्णो विमलः खलु धर्मः ॥७१।। ॥इति पद्मचरिते कल्याणमित्रदेवागमनं नाम त्रयोदशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०णसुहा, ए०-प्र०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४. बलदेवणिक्खमणपव्वं परलोगनिच्छियमणं, सत्तुग्धं जाणिऊण पउमाभो । पेच्छइ आसन्नत्थं, अणङ्गलवणस्स अङ्गरुहं ॥१॥ तं ठवइ कुमारवरं समत्तवसुहाहिवं निययरज्जे । रामो विरत्तभोगो, आउच्छइ परियणं ताहे ॥२॥ एत्तो बिहीसणो वि य, सुभूसणं नन्दणं निययरज्जे । ठावेइ अङ्गयं पि य, सदेसणाहं तु सुग्गीवो ॥३॥ एवं अन्ने वि भडा, मणुया विज्जाहरा य पुत्ताणं । दाऊण निययरज्जं, पउमेण समं सुसंविग्गा ॥४॥ पउमो संविग्गमणो, सेटुिं तत्थागयं अरहदासं । पुच्छइ सावय ! कुसलं, सबालवुड्डस्स सङ्घस्स ॥५॥ तो भणइ अरहदासो, सामि ! तुमे दुक्खिए जणो सव्वो। दुकखं चेव पवन्नो, तह चेव विसेसओ सङ्को ॥६॥ भणियं च सावएणं, सामिय ! मुणिसुव्वयस्स वंसम्मि । संपइ चारणसमणो, इहागओ सुव्वओ नाम ॥७॥ सुणिऊण वयणमेयं, जणियमहाभावपुलइयसरीरो । रामो मुणिस्स पासं, गओ य बहुसुहडपरिकिण्णो ॥८॥ समणसहस्सपरिमियं, महामुणिं पेच्छिऊण पउमाभो । पणमइ ससंभममणो, तिक्खुत्तपयाहिणावत्तं ॥९॥ विज्जाहरा य मणुया, कुणन्ति परमं तु तत्थ महिमाणं । धय-तोरणमाईयं, बहुतूरसहस्ससद्दालं ॥१०॥ गमिऊण तत्थ रयणि, दिवसयरे उग्गए महाभागो । रामो भणइ मुणिवरं, भयवं ! इच्छामि पव्वइउं ॥११॥ . ११४. बलदेवनिष्क्रमणपर्वम् परलोकनिश्चितमनसं शत्रुघ्नं ज्ञात्वा पद्माभः । पश्यत्यासनस्थमनङ्गलवणस्याङ्गहम् ॥१॥ तं स्थापयति कुमारवरं समस्तवसुधाधिपं निजराज्ये । रामो विरक्तभोग आपृच्छति परिजनं तदा ॥२॥ इतो बिभीषणोऽपि च सुभूषणं नन्दनं निजराज्ये । स्थापयत्यङ्गदमपि च स्वदेशनाथं तु सुग्रीवः ॥३॥ एवमन्येऽपि भटा मनुष्या विद्याधराश्च पुत्रेभ्यः । दत्वा निजराज्यं पद्मेन समं सुसंविग्नाः ॥४॥ पद्मः संविग्नमनाः श्रेष्ठिनं तत्रागतमर्हद्दासम् । पृच्छति श्रावक ! कुशलं सबालवृद्धस्य समस्य ।।५।। ततो भणत्यर्हद्दासः स्वामिस्त्वयि दुःखिते जनः सर्वः । दु:खमेव प्रपन्नस्तथैव विशेषतः सङ्घः ॥६॥ भणितं च श्रावकेन स्वामिन् ! मुनिसुव्रतस्य वंशे । संप्रति चारणश्रमण इहागत: सुव्रतो नाम ॥७॥ श्रुत्वा वचनमेतज्जनितमहाभावः पुलकितशरीरः । रामो मुनेः पार्श्व गतश्च बहुसुभटपरिकीर्णः ॥८॥ श्रमणसहस्रपरिवृतं महामुनिं दृष्ट्वा पद्माभः । प्रणमति ससंभ्रममनास्त्रिकृत्वः प्रदक्षिणावर्तम् ।।९।। विद्याधराश्च मनुष्याः कुर्वन्ति परमं तु तत्र महिमानम् । ध्वज-तोरणादिकं बहुतूर्यसहस्रशब्दवन्तम् ॥१०॥ गमयित्वा तत्र रजनी दिवसकर उद्गते महाभागः । रामो भणति मुनिवरं भगवन्निच्छामि प्रव्रजितुम् ॥११॥ १.०ण माहप्पं । पे०-प्रत्य० । २. समत्थव०-मु०। ३.०सो मित्त ! तु०-प्रत्य० । ४.०सद्दाई-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० पउमचरियं अणुमन्निओ य गुरुणा, पयाहिणं कुणइ मुणिवरं रामो । उप्पन्नबोहिलाभो, संवेगपरायणो धीरो ॥१२॥ छेत्तूण मोहपासं, संचुण्णेऊण नेहनियलाई । ताहे मुञ्चइ पउमो, मउडाइं भूसणवराई ॥१३॥ काऊण तत्थ धीरो, उववासं कमलकोमलकरहिं । उप्पाडइ निययसिरे, केसे वरकुसुमसुसुयन्थे ॥१४॥ वामप्पासठियस्स उ, सह रयहरणेण दाउ सामइयं । पव्वाविओ य पउमो, सुव्वयनामेण समणेणं ॥१५॥ पञ्चमहव्वयकलिओ, पञ्चसु समिईसु चेव आउत्तो । गुत्तीसु तीसु गुत्तो, बारसतवधारओ धीरो ॥१६॥ मुक्का य कुसुमवुट्ठी, देवेहि य दुन्दुही नहे पहया । पवणो य सुरहिगन्धो, पडुपडहरवो य संजणिओ ॥१७॥ मोत्तूण रायलच्छि, निययपए ठाविउं सुयं जेटुं । सत्तुग्घो पव्वइओ, इन्दियसत्तू जिणिय सव्वे ॥१८॥ राया बिहीसणो वि य, सुग्गीवो नरवई नलो नीलो । चन्दनहो गम्भीरो, विराहिओ चेव दढसत्तो ॥१९॥ एए अन्ने य बहू, दणुइन्दा नरवई य पव्वइया । रामेण सह महप्पा, संखाए सोलस सहस्सा ॥२०॥ जुवईण सहस्साइं, तीसं सत्तुत्तराई तद्दिवसं । पव्वज्जमुवगयाइं, सिरिमइअज्जाए पासम्मि ॥२१॥ काऊण य पव्वज्जं, सद्धिं वासाडूं सुव्वयसयासे । तो कुणइ मुणिवरो सो, एकलविहारपरिकम्मं ॥२२॥ विविहाभिग्गहधारी, पुव्वगयसुएण भावियमईओ । तवभावणाइयाओ, भावेउं भावणाओ य ॥२३॥ अह निग्गओ मुणी सो, गुरूण अणुमोइओपउमनाहो । पडिवन्नो य विहारं, एक्काई सत्तभयरहिओ ॥२४॥ अनुमतश्च गुरुणा प्रदक्षिणां करोति मुनिवरं रामः । उत्पन्नबोधिलाभः संवेगपरायणो धीरः ॥१२॥ छित्वा मोहपासं संचूर्ण्य स्नेहनिगडानि । तदा मुञ्चति पद्म मुकुटादिनि भूषणवराणि ॥१३।। कृत्वा तत्र धीर उपवासं कमलकोमलकराभ्याम् । उत्पातयति निजशिरसः केशान्वरकुसुमसुसुगन्धान् ॥१४॥ वामपार्श्वस्थितस्य तु सह रजोहरणेन दत्वा सामायिकम् । प्रव्रजितश्च पद्मः सुव्रतनाम्ना श्रमणेन ॥१५॥ पञ्चमहाव्रतकलितः पञ्चभिः समितिभिरेवायुक्तः । गुप्तिभिस्त्रिभिर्गुप्तो द्वादशतपोधारको धीरः ॥१६।। मुक्ता च कुसुमवृष्टि देवैश्च दुन्दुभि नभसि प्रहता। पवनश्च सुरभिगन्धः पटुपटहरवश्च संजनितः ॥१७॥ मुक्त्वा राजलक्ष्मी निजपदे स्थापयित्वा सतं ज्येष्ठम । शत्रघ्नः प्रवजित इन्द्रियशत्रन जित्वा सर्वान ॥१८॥ राजा बिभीषणोऽपि च सुग्रीवो नरपतिश्च प्रव्रजिताः । चन्द्रनखो गम्भीरो विराधित एव दृढसत्त्वः ॥१९॥ एत अन्ये च बहवो दानवेन्द्रा नरपतयश्च प्रव्रजिताः । रामेण सह महात्मानः संख्यया षोडशसहस्राः ॥२०॥ युवतीनां सहस्राणित्रिंशत्सप्तोत्तराणि तद्दिवसम् । प्रव्रज्यामुपगतानि श्रीमत्यार्यायाः पार्श्वे ॥२१॥ कृत्वा च प्रव्रज्यां षष्ठिवासानि सुव्रतसकाशे । तदा करोति मुनिवरः स एकलविहारपरिकर्म ॥२२॥ विविधाभिग्रहधारी पूर्वगतसूत्रेण भावितमतिः । तपोभावनादयो भावयित्वा भावनाश्च ॥२३।। अथ निर्गतो मुनिः स गुरुणानुमोदितः पद्मनाभः । प्रतिपन्नश्च विहारमेकाकी सप्तभयरहितः ॥२४॥ १.०णो जाओ-प्रत्य० । २. मोहजालं, सं०-प्रत्य० । ३. रे, वरकुसुमसुगंधिए केसे-प्रत्य० । ४. ०मसुहगंधे-प्रत्य० । ५. वामेण संठियस्सा, सहप्रत्य० । ६. देवेहि दु०-प्रत्य० । ७. ०वरा य-प्रत्य० । ८. ०हार, उत्तमसामत्थसंपण्णो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेवणिक्खमणपव्वं - ११४ / १२-३४ ५ गिरिकन्दरट्टियस्स यौं, रयणीए तीए तस्स उप्पन्नं । पउमस्स अवहिनाणं, सहसा झाणेक्वचित्तस्स ॥२५॥ अवहिविसएण ताहे, सुमरइ लच्छीहरं पउमणाहो । अवियहकामभोगं, नरयावत्थं च दुक्खत्तं ॥२६॥ 'सयमेग कुमारते, तिण्णेव 'सयाणि मण्डलित्ते य । चत्तालीस य विजए, जस्स उ संवच्छरों ऽतीया ॥२७॥ एक्कारस य सहस्सा, पञ्चेव सया तहेव सट्ठिजुया । वरिसाणि महारज्जे, जेण सयासे ठिया विसया ॥२८॥ बारस चेव सहस्सा, हवन्ति वरिसाण सव्वसंखाए । भोत्तूण इन्दियसुहं, गओ य नरयं अनियमियप्पा ॥२९॥ देवाण को व दोसो, परभवजणियं समागयं कम्मं । बन्धवनेहनिहेणं, मओ गओ लक्खणो नरयं ! ॥३०॥ मह तस्स नेहबन्धो, वसुदत्ताईभवेसु बहुएसुं । आसि पुरा मह झीणो, संपइ सव्वो महामोहो ॥३१॥ एवं जो समत्थो, बन्धवनेहाणुरायपडिबद्धो । धम्मं असद्दहन्तो, परिहिण्डड़ दीहसंसारे ॥३२॥ एवं सो बलदेवो, गागी तत्थ कन्दरुद्देस । चिट्ठइ सज्झायरओ, दुक्खविमोक्खं विचिन्तेन्तो ॥३३॥ एयं चिय निक्खमणं, बलदेवमुणिस्स सुणिय एयमणा । होह जिणधम्मनिया, "निच्चं भो विमलचेट्टिया सप्पुरिसा ॥३४॥ १० १२ ॥ इइ पउमचरि बलदेव " निक्खमणं नाम चउदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ गिरिकन्दरास्थितस्य च रजन्यां तस्यां तस्योत्पन्नम् । पद्मस्यावधिज्ञानं सहसा ध्यानैकचित्तस्य ॥ २५ ॥ अवधिविषयेण तदा स्मरति लक्ष्मीधरं पद्मनाभः । अवितृष्णकामभोगं नरकावस्थं च दुःखार्तम् ॥२६॥ शतमेकं कुमारत्वे त्रिण्येव शतानि मण्डलिकत्वे च । चत्वारिंशच्च विजये यस्य तु संवत्सरा अतीताः ||२७|| एकादश च सहस्राः पञ्चैव शतास्तथैव षष्ठि युताः । वर्षाणि महाराज्ये येन सकाशे स्थिता विषयाः ॥२८॥ द्वादशैव सहस्रा भवन्ति वर्षाणां सर्वसंख्यया । भुक्त्वेन्द्रिय सुखं गतश्च नरकमनियमितात्मा ॥२९॥ देवानां को वा दोषः परभवजनितं समागतं कर्म । बन्धुस्नेहनिभेन मृतो गतो लक्ष्मणो नरकम् ॥३०॥ मम तस्य स्नेहबन्धो वसुदत्तादि भवेषु बहुषु । आसीत्पुरा मम क्षीणः संप्रति सर्वो महामोहः ||३१|| एवं जनः समस्त बन्धुस्नेहानुरागप्रतिबद्धः । धर्ममश्रद्धन् परिहिण्डते दीर्घसंसारे ॥३२॥ एवं स बलदेव एकाकी तत्र कन्दरोद्देशे । तिष्ठति स्वाध्यायरतो दुःखविमोक्षं विचिन्तयन् ॥३३॥ एतदेव निष्क्रमणं बलदेवमुनेः श्रुत्वेकाग्रमनसः । भवत जिनधर्मनिरता नित्यं भो विमलचेष्टिताः सत्पुरुषाः ||३४|| ।। इति पद्मचरिते बलदेवनिष्क्रमणं नाम चतुर्दशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ ७०१ १. उ-प्रत्य० । २. सयसत्त कु० मु० । ३. सया य मंडलीए य प्रत्य० । ४ ०राणि तहा - प्रत्य० । ५. ०स्सा, सपंचणवया त० मु० । ६. ०ण पंचविसूणा । भो० मु० । ७. ०सु सव्वेसु- प्रत्य० । ८. क्खवणं प्रत्य० । ९ ०स्स निसुणिउं एय० मु० । १०. मुणिउ - प्रत्य० । ११. निच्चं वो वि०प्रत्य० । १२. ० वमुणिस्स नि० मु० । For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५. बलदेवमुणिगोयरसंखोभविहाणपव्वं । अह सो बलदेवमुणी, छट्ठववासे तओ वइक्वन्ते । पविसइ सन्दणथलि, महापुरं पारणट्ठाए ॥१॥ मत्तगयलीलगामी, सरयरवी चेव कन्तिसंजुत्तो । दिट्ठो नयरिजणेणं, अच्चब्भुयरूवसंठाणो ॥२॥ तं पेच्छिऊण एन्तं, विणिग्गओ अहिमुहो जणसमूहो । वेढेइ पउमणाहं, साहुक्कारं विमुञ्चन्तो ॥३॥ जंपइ जणो समत्थो, अहो हु तवसंजमेण रूवेणं । नरसुन्दरेण सयलं, एएण अलंकियं भुवणं ॥४॥ वच्चइ जुगन्तदिट्ठी, पसन्तकलुसासओ पलम्बभुओ।अच्चब्भुयरूवधरो, संपइ एसो जयाणन्दो ॥५॥ पविसइ तं वरनयरिं, वन्दिज्जन्तो य सव्वलोएणं । उक्कीलिय-णच्चण -वग्गणाइ अहियं कुणन्तेणं ॥६॥ नयरी पविट्ठ सन्ते, जहक्कम समयचेट्ठिए रामे । पडिपूरिया समत्था, रत्थामग्गा जणवएणं ॥७॥ वरकणयभायणत्थं, एयं आणेहि पायसं सिग्धं । सयरं दहिं च दुद्धं, तूरन्तो कुणसु साहीणं ॥८॥ कप्पूरसुरहिगन्धा, बद्धा गुलसक्कराइसु मणोज्जा ।आणेहि मोदगा इह, सिग्धं चिय परमरसजुत्ता ॥९॥ थालेसु वट्टएसु य, कञ्चणपत्तीसु तत्थ नारीओ । उवणेन्ति वराहारं, मुणिस्स दढभत्तिजुत्ताओ ॥१०॥ आबद्धपरियरा वि य, केइ नरा सुरभिगन्धजलपुण्णा । उवणेन्ति कणयकलसे, अन्नोन्नं चेव लङ्घन्ता ॥११॥ || ११५. बलदेवमुनिगोचरसंक्षोभविधान पर्वम् । अथ स बलदेवमुनिः षष्टोपवासे ततो व्यतीक्रान्ते । प्रविशति स्यन्दनस्थलि महापुरिं पारणार्थे ॥१॥ मत्तगजलीलागामी शरदरविरिव कान्तिसंयुक्त: । दृष्ये नगरिजनेनात्यद्भूतरुपसंस्थानः ॥२॥ तं दृष्ट्वाऽऽयान्तं विनिर्गतोऽभिमुखो जनसमूहः । वेष्टयति पद्मनाभं साधुकारं विमुञ्चन् ॥३॥ जल्पति जनः समस्तोऽहो खलु तप:संयमेन रुपेण । नरसुन्दरेण सकलमेतेनालङ्कृतं भुवनम् ॥४॥ व्रजति युगान्तर्दृष्टिः प्रशान्तकलुषाशयः प्रलम्बभुजः । अत्यद्भूतरुपधरः संप्रत्येष जगदानन्दः ।।५।। प्रविशति तां वरनगरिं वन्द्यमानश्च सर्वलोकेन । उत्क्रीडित-नर्तन-वल्गनादि अधिकं कुर्वता ॥६॥ नगरिं प्रविष्टे सति यथाकर्म समयचेष्टिते रामे । प्रतिपूरिताः समस्ता रथ्यामार्गा जनपदेन ॥७॥ वरकनकभाजनस्थमेतदानय पायसं शीघ्रम् । शर्करं दधि च दुग्धं त्वरन्कुरु स्वाधीनम् ॥८॥ कर्पूर सुरभिगन्धा बद्धा गुडशर्करादिभि मनोज्ञाः । आनयमोदका इह शीघ्रमेव परमरसयुक्ताः ॥९॥ स्थालेषु वर्तकेषु च कञ्चनपात्रिषु तत्र नार्यः । उपानयन्ति वराहारं मुने दृढभक्तियुताः ॥१०॥ आबद्धपरिकरा अपि च केचिन्नरा सुरभिगन्धजलपूर्णान् । उपानयन्ति कञ्चनकलशानन्योन्यमेव लड्ययन्तः ॥११॥ १. तओ अइ०-प्रत्य० । २. संपिच्छिऊण-प्रत्य० ।३. णयमंदिरेण-प्रत्य० । ४. उवकीलिय-णच्चण-वनणाति-प्रत्य० ।५.०ण-गायणाइ-प्रत्य०।१. Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ बलदेवमुणिगोयरसंखोभविहाणपव्वं-११५/१-२३ जंपन्ति नायरजणा, भयवं ! गेण्हह इमं सुपरिसुद्धं ।आहारं चिय परमं, नाणारसगुणसमाउत्तं ॥१२॥ दढ-कढिणदप्पिएहि, भिक्खादाणुज्जएहिं एएहि । पाडिज्जन्ति अणेया, भायणहत्था तुरन्तेहिं ॥१३॥ एवं तत्थ पुरजणे, संजाए कलयलारवे महए । हत्थी अलाणथम्भे, भंतूण विणिग्गया बहवे ॥१४॥ गलरज्जुया य तुरया, तोडेऊणं पलायणुज्जुत्ता । जाया खर-करहा विय, महिस-बइल्ला य भयभीया ॥१५॥ तंजणवयस्स सइं, पडिणन्दी नरवई सुणेऊणं । पेसेइ निययभिच्चे, कीस इमं आउलं नयरं? ॥१६॥ परिमुणियकारणेहिं, सिट्टे भिच्चेहि नरवई ताहे। पेसेइ पवरसुहडे, आणह एवं महासमणं ॥१७॥ गन्तूण ते वि सुहडा, भणन्ति तं मुणिवरं कयपणामा । विनवइ अम्ह सामी, तस्स घरं गम्मए भयवं ! ॥१८॥ तस्स घरम्मि महामुणि!, सहावमुवकप्पियं वराहारं । गेण्हसु निराउलमणा, एहि पसायं कुणसु अहं ॥१९॥ एव भणियं सुणेउं, सव्वाओ तत्थ पउरनारीओ।भिक्खा समुज्जयाओ, दाउं सुपसन्नभावाओ ॥२०॥ रायपुरिसेहिं ताओ, सिग्धं अवसारियाउ जुवईओ । ताहे सुदुम्मणाओ, तक्खणमेत्तेण जायाओ ॥२१॥ उवयारछलेणेवं, नाऊण य अन्तराइयं ताहे । जाओ विपराहुत्तो, महामुणी वच्चइ पहेणं ॥२२॥ पविस महारण्णं, संवेगपरायणो विसुद्धप्पा । जुगमित्तंतरदिट्ठी, मयमोहविवज्जिओ सया विमलमणो ॥२३॥ ॥इइ पउमचरिए गोयरसंखोभविहाणं नाम पञ्चदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ जल्पन्ति नागरजना भगवन् ! गृहाण सुपरिशुद्धम् । आहारमेव परमं नानारसगुणसमायुतम् ॥१२॥ दृढकठिनदर्पितै भिक्षादानोद्यतैरेतैः । पातयन्तेऽनेका भाजनहस्तास्त्वरमाणभिः ॥१३॥ एवं तत्र पुर्जने संजाते कलकलारावे महति । हस्तिन आलानस्तम्भान् भक्त्वा विनिर्गता बहवः ॥१४॥ गलरज्जुकाश्च तुरगास्त्रोटयित्वा पलायनोद्यताः । जाता खरकरभा अपि च महिष-बलीवर्दाश्च भयभीताः ॥१५॥ तज्जनपदस्य शब्द प्रतिनन्दीनरपतिः श्रुत्वा । प्रेषयति निजभृत्यान् कथमिदमाकुलं नगरम् ? ॥१६।। परिमुणितकारणैः शिष्टे भृत्यै नरपतिस्तदा । प्रेषयति वरसुभटानानयैनं महाश्रमणम् ॥१७॥ गत्वा तेऽपि सुभटा भणन्ति तं मुनिवरं कृतप्रणामाः । विज्ञापयत्यस्मत्स्वामी तस्य गृहं गम्यते भगवन् ॥१८॥ तस्य गृहे महामुने ! स्वभावमुपकल्पितं वराहारम् । गृहाण निराकुलमना एहि प्रसादं कुर्वस्माकम् ॥१९॥ एवं भणितं श्रुत्वा सर्वास्तत्र पौरनार्यः । भिक्षां समुद्यता दातुं सुप्रसन्नभावाः ॥२०॥ राजपुरुषैस्ताः शीघ्रमपसार्य युवतयः । तदा सुदुर्मनसस्तत्क्षणमेव जाताः ॥२१॥ उपकारच्छलेनैवं ज्ञात्वा चान्तरायिकं तदा । जातो विपराभिमुखो महामुनिव्रजति पथा ॥२२॥ प्रविशति महारण्यं संवेगपरायणो विशुद्धात्मा । युगमात्रान्तर्दृष्टि र्मदमोहविवर्जितः सदा विमलमनाः ॥२३।। ॥इति पद्मचरिते गोचरसंक्षोभविधानं नाम पञ्चदशोत्तरशतं पर्व समाप्तम् ॥ •न्ति णाह ! भयवं ! गिण्ह इमं सव्वदोसपरि०-प्रत्य० । २. महाजस ! सहावउव०-प्रत्य० । ३. सव्वत्तो त०-प्रत्य० । ४. ०इ पहेणं-प्रत्य० । ५. तवसिरिंजियदेहो, सुरनरखइनमियचरणजुओ। पविसरइ महारणं, मयमोह०-मु०, उक्कण्ठाउलहिययं, सव्वं काऊण जणवयं सुपुरिसो। पविसरइ महारण्णं, मयमोह०-प्रत्य० । ६. पाठान्तरस्य छाया - तप:श्रीरज्झितदेहः सुरनरपतिनमितचरणयुगः । प्रविशति महारण्यं मदमोहविवर्जितः सदा विमलमनाः ॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. बलदेवमुणिदाणपसंसाविहाणपव्वं अह सो मुणिवरवसहो, वोलीणे तत्थ वासरे बिइए । कुणईय संविग्गमणो, अभिग्गहं धीरगम्भीरो ॥१॥ जइ एत्थ महारण्णे, होहिइ भिक्खा उ देसयालम्मि। तं गेण्हीहामि अहं, न चेव गामं पविसरामि ॥२॥ अह तत्थ समारूढे, साहूण अभिग्गहे महाघोरे। ताव य दुट्ठाऽऽसहिओ, पडिणन्दी पेसिओ रणे ॥३॥ तस्सऽवहियस्स सव्वो, समाउलो जणव ओऽणुमग्गेणं । वच्चइ तुरयारूढो, सहिओ सामन्तचक्केणं ॥४॥ हीरन्तस्सारण्णे, पडिणन्दिनराहिवस्स सो तुरओ । वेगेण वच्चमाणो, सरवरपङ्केच्चिय निहत्तो ॥५॥ ताव य तुरयारूढा, समागया वप्पकद्दमनिहत्तं । पेच्छन्ति वरहयं तं, मरणावत्थं समणुपत्तं ॥६॥ उत्तारिऊण तुरयं, भणन्ति सुहडा तओ नरवरिन्दं । एयं नन्दणपुण्णं, सरं तुमे दरिसियं अम्हं ॥७॥ थोवन्तरेण ताव य, समागओ नरव इस्स खन्धारो । तस्सेव सरस्स तडे, सिग्धं आवासिओ सव्वो ॥८॥ अह सो भडेहिं सहिओ, विमलजले मज्जिऊण नरवसहो । आहरणभूसियङ्गो, भोयणभूमीसु हासीणो ॥९॥ एत्तो सो बलदेवो, गोयरवेलाए पविसइ निवेसं । दिट्ठो य नरवईणं, पणओ य ससंभममणेणं ॥१०॥ संमज्जिओवलित्ते, कमलेहि समच्चिए महिपएसे । तत्थेव मुणिवरो सो, ठविओ निवईण भत्तीए ॥११॥ ११६. बलदेवमुनिदानप्रशंसाविधानपर्वम् अथ स मुनिववृषभो व्यतीते तत्र वासरे द्वितीये । करोति च संविग्नमना अभिग्रहं धीरगम्भीरः ॥१॥ यद्यत्र महारण्ये भविष्यति भिक्षा तु देशकाले । तद्ग्रहिष्याम्यहं नैव ग्रामं प्रविक्ष्यामि ।।२।। अथ तत्र समारुढे साधुनाऽभिग्रहे महाघोरे । तावच्च दुष्टाश्वहृतः प्रतिनन्दी प्रवेशितोऽरण्ये ॥३॥ तस्यापहृतस्य सर्वः समाकूलो जनपदोऽनुमार्गेण । गच्छति तुरगारुढः सहित: सामन्तचक्रेण ॥४॥ ह्रियमाणस्याऽरण्ये प्रतिनन्दिनराधिपस्य स तुरगः । वेगेन व्रजन्सरोवरपड्के एव निग्मनः ॥५॥ तावच्च तुरगारुढाः समागताः वप्रकर्दमनिमग्नम् । पश्यन्ति वरहयं तं मरणावस्थं समनुप्राप्तम् ।।६।। उत्तार्य तुरगं भणन्ति सुभटास्ततो नरवरेन्द्रम् । एतन्नन्दनपुण्यं सरस्त्वया दर्शितमस्मान् ॥७॥ स्कोतान्तरेण तावच्च समागतो नरपतेः स्कन्धावारः । तस्यैव सरसस्तटे शीघ्रमावासितः सर्वः ॥८॥ अथ स भटैः सहितो विमलजले स्नात्वा नरवृषभः । आभरणभूषिताङ्गो भोजनभूमिसुखासीनः ॥९।। इतः स बलदेवो गोचरवेलायां प्रविशति निवेसम् । दृष्टश्च नरपतिना प्रणतश्च ससंभ्रममनसा ॥१०॥ संमर्जितोपलिप्ते कमलैः समर्चिते महिप्रदेशे। तत्रैव मुनिवरः स स्थापितो नृपतिना भक्त्या ॥११॥ १. वारिसे दिवसे । कु०-प्रत्य० । २. ०इ सुसंवि०-प्रत्य० । ३. होही भि०, होहइ भि०-प्रत्य० । ४. तं गिहिस्सामि-प्रत्य० । ५. ओ सम०-मु०। ६. ०वरस्स-प्रत्य० । ७. सुसाहीणो-प्रत्य०। ८. ०वरेणं-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेवमुणिदाणपसंसाविहाणपव्वं - ११६ / १-१७ गेण्हित्तु वराहारं, राया पउमस्स मुइयसव्वङ्गो । खीराइसुसंपुण्णं, आहारं देइ परितुट्ठो ॥१२॥ सद्धाइगुणसमग्गं, दायारं जाणिऊण सुरपवरा । मुञ्चन्ति रयणवुट्ठि, गन्धोदयसुरभिकुसुमजुयं ॥१३॥ घुटुं च अहो दाणं, गयणयले दुन्दुही तओ पहया । देवेहि अच्छराहि य, पवत्तियं गीयगन्धव्वं ॥१४॥ एवं कमेण पत्ते, पारणए नरवईण पउमाभो । पणओ भावियमइणा, परिअणसहिएण पुणरुत्तं ॥१५॥ पूया सुरेहिं पत्तो, साहूण अणुव्वयाई दिन्नाई । जाओ विसुद्धभावो, पडिणन्दी जिणमयाणुओ ॥ १६ ॥ रामो वि समयसंगय-सीलङ्गसहस्सणेयजोगधरो । विहरइ विमलसरीरो, बीओ य दिवायरो समुज्जोयन्तो ॥१७॥ ॥ इइ पउमचरिए दाणपसंसाविहाणं नाम सोलसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ गृहीत्वा वराहारं राजा पद्माय मुदितसर्वाङ्गः । क्षीरादिसुसंपूर्णमाहारं ददाति परितुष्टः ॥ १२॥ श्रद्धादिगुणसमग्रं दातारं ज्ञात्वा सुरप्रवराः । मुञ्चन्ति रत्नवृष्टि गन्धोदक-सुरभिकुसुमयुतम् ॥१३॥ घृष्टं चाहो दानं गगनतले दुन्दुभिस्ततः प्रहता । देवैरप्सरोभिश्च प्रवर्तितं गीतगान्धर्वम् ॥१४॥ एवं क्रमेण प्राप्ते पारणके नरपतिना पद्माभः । प्रणतो भावितमतिना परिजनसहितेन पुनरुक्तम् ॥१५॥ पूजा सुरैः प्राप्तः साधुनाऽणुव्रतानि दत्तानि । जातो विशुद्धभावः प्रतिनन्दी जिनमतानुरतः ॥१६॥ रामोऽपि समयसंगतशीलाङ्गसहस्रानेकयोगधरः । विहरति विमलशरीरो द्वितीय श्च दिवाकरः समुद्योतयन् ॥१७॥ ॥ इति पद्मचरिते दानप्रशंसाविधानं नाम षोडशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०स्स सुद्धसंवेगो । खी० - प्रत्य० । २. पत्तो, पा० मु०, दत्ते, पा० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ७०५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७. पउमकेवलनाणुप्पत्तिविहाणपव्वं भयवं बलदेवो सो, पसन्तइमच्छरो तवं घोरं । काऊण समाढत्तो, नाणाविहजोगसुपसत्थं ॥१॥ छठ्ठ-ऽट्ठमेहिं विहरइ, गोयरचरियाए तत्थ आरपणे । वणवासिणीहि अहियं, पूइज्जन्तो सुरवहूहिं ॥२॥ वय-समिइ-गुत्तिजुत्तो, समभावो तह जिइन्द्रिक्षसाओ । सज्झायझाणनिरओ, नाणाविहलद्धिसंपन्नो ॥३॥ कत्थइ सिलायलत्थो, निबद्धपलियङ्कझाणगयचित्तो । चिट्ठइ पलम्बियभुओ, कत्थइ थम्भो इव अकम्पो ॥४॥ एवं महातवं सो, कुणमाणो अणुकमेण संपत्तो । कोडिसिला जा तइया, हक्खुत्ता लच्छिनिलएणं ॥५॥ अह सो तत्थारुहिङ, रत्तिं मण-वयण-कायसंजुत्तो । पडिमाए ठिओ धीरो, कम्मस्स विणासणट्ठाए ॥६॥ अह सो झाणोवगओ, सीयापुव्वेण अच्चुइन्देणं । अवहिविसएण दिट्ठो अच्चन्तं नेहराएणं ॥७॥ निययं भवसंघट्ट, नाऊण य जिणतवस्स माहप्पं । अच्चुयवई खणेणं, संपत्तो विम्हयं ताहे ॥८॥ चिन्तन्तेण य मुणिओ, एसो हलधारिणो जयाणन्दो । जो आसि मणुयलोए, महिलाभूयाए मह कन्तो ॥९॥ एयं चिय अच्छेरं, कम्मस्स विचित्तयाए जं जीवो । लभ्रूण इत्थिभावं, पुणरवि उप्पज्जइ मणुस्सो ॥१०॥ अवियोहकामभोगो, अहोगई लक्खणो समणुपत्तो । सो चेव रामदेवो, बन्धुविओगम्मि पव्वइओ ॥११॥ ११७. पद्मकेवलज्ञानोत्पत्तिविधानपर्वम् भगवान्बलदेवः स प्रशान्तरतिमत्सरस्तपः घोरम् । कर्तुं समारब्धो नानाविधयोगसुप्रशस्तम् ॥१॥ षष्टाऽष्टमै विहरति गोचरचर्यायां तत्राऽरण्ये । वनवासिभिरधिकं पूज्यमानः सुरवधुभिः ॥२॥ व्रतसमितिगुप्तियुक्तः समभावस्तथा जितेन्द्रियकषायः । स्वाध्यायध्याननिरतो नानाविधलब्धिसंपन्नः ॥३॥ कुत्रचिच्छिलातलस्थो निबद्धपर्यंकध्यानगतचित्तः । तिष्ठति प्रलम्बितभुजः कुत्रचित्स्तम्भ इवाकम्पः ॥४॥ एवं महातपः स कुर्वन्ननुक्रमेण संप्राप्तः । कोटिशिलां या तदोत्क्षिप्ता लक्ष्मीनिलयेन ॥५॥ अथ स तत्रारुह्य रात्रि मनोवचनकायसंयुक्तः । प्रतिमया स्थितो धीरः कर्मणो विनाशनार्थे ॥६॥ अथ स ध्यानोपगतः सीतापूर्वेणाच्युतेन्द्रेण । अवधिविषयेण दृष्टोऽत्यन्तं स्नेहरागेण ॥७॥ निजकं भवसंघटै ज्ञात्वा च जिनतपसो माहात्म्यम् । अच्युतपतिः क्षणेन संप्राप्तो विस्मयं तदा ॥८॥ चिन्तयता च मुणित एष हलधारिणो जगदानन्दः । य आसीन्मनुष्यलोके महिलाभूताया मम कान्तः ॥९॥ एतदेवाश्चर्यं कर्मणो विचित्रताया यज्जीवः । लब्ध्वा स्त्रीभावं पुनरप्युत्पद्यते मनुष्यः ॥१०॥ अवितृष्णकामभोगोऽधोगति लक्ष्मणः समनुप्राप्तः । स एव रामदेवो बन्धुवियोगे प्रव्रजितः ॥११॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ पउमकेवलनाणुप्पत्तिविहाणपव्वं -११७/१-२४ एयस्स खवगसेढीगयस्स रामस्स तं करेमि अहं । वेमाणिओ य देवो, जायइ मित्तो महं जेणं ॥१२॥ तो तेण समं पीई, काऊणं मन्दराइसु ठियाई । वन्दीहामि पहट्ठो, चेइयभवणाइ सव्वाइं ॥१३॥ नरयगयं सोमित्तिं, आणेउं लद्धबोहिसम्मत्तं । समयं रामसुरेणं, सुह-दुक्खाइं च जंपेहं ॥१४॥ परिचिन्तिऊण एवं, अवइण्णो सुरवरो विमाणाओ । सिग्धं माणुसलोयं, संपत्तो जत्थ पउमाभो ॥१५॥ बहुकुसुमरओवाही, कओ य पवणो सुरेण सयराहं । कोलाहलियं च वणं, पक्खिगणाणं कलरवेणं ॥१६॥ तरुतरुणपल्लवुग्गयमञ्जरिसहयारकिंसुयावयरं । कोइलमहुरुग्गीयं, उज्जाणं महुयरारुणियं ॥१७॥ एवंविहं उवसग्गं, देवो काऊण जाणगीरूवं । रामस्स समब्भासं, गओ य नेहाणुराएणं ॥१८॥ सीया किल सहसत्ती. भणड अहं आगया तह समीवं । राहव ! विरहाउलिया, संपड़ दक्खं चिय पवन्ना ॥१९॥ जंपइ पासल्लीणा, पण्डियमाणी अहं तुह समक्खं । पव्वइया विहरन्ती, खेयरकन्नाहि परियरिया ॥२०॥ खेयरकन्नाहिं अहं, भणिया दावेहि राहवं अम्हं । तुज्झाएसेण सिए !, तं चेव वरेमु भत्तारं ॥२१॥ एयन्तरम्मि सहसा, नाणालंकारभूसियङ्गीओ । पत्ताउ कामिणीओ, सुरिन्दवेउव्वियकयाओ ॥२२॥ ठविऊण मए पुरओ, समयं एयाहिं उत्तमं भोगं । भुञ्जसु देव ! जहिच्छं, साएयाए सुरिन्दसमं ॥२३॥ अइकक्खडा महाजस !, बावीस परीसहा छुहाईया । एएहि संजमरणे, राहव ! बहवो नरा भग्गा ॥२४॥ एतस्य क्षपक श्रेणी गतस्य रामस्य तत्करोम्यहम् । वैमानिकश्च देवो जायते मित्रो मम येन ॥१२॥ तदा तेन समं प्रीतिं कृत्वा मन्दरादिषु स्थितानि । वन्दिष्येमि प्रहृष्ट श्चैत्यभवनानि सर्वाणि ॥१३॥ नरकगतं सौमित्रिमानयित्वा लब्धबोधिसम्यक्त्वम् । समकं रामसुरेण सुख-दुःखानि च जल्पाम्यहम् ॥१४॥ परिचिन्त्यैवमवतीर्णः सुरवरो विमानात् । शीघ्रं मनुष्यलोकं संप्राप्तो यत्र पद्माभः ॥१५॥ बहुकुसुमरजोवाही कृतश्च पवनः सुरेण शीघ्रम् । कोलाहलितं च वनं पक्षिगणानां कलरवेण ॥१६॥ तरुतरुणपल्लवोद्गतमञ्जरि-सहकार-किंशुकाकरम् । कोकिलमधुरोद्गीतमुद्यानं मधुकरारुणितम् ॥१७।। एवंविध मुपसर्ग त देवः कृत्वा जानकीरूपम् । रामस्य समभ्यासं गतश्च स्नेहानुरागेण ॥१८॥ सीता किल सहसेति भणत्यहमागता तव समीपम् । राघव ! विरहाकुलिता संप्रति दुःखमेव प्रपन्ना ॥१९॥ जल्पति पार्श्वलीना पण्डितमान्यहं तव समक्षम् । प्रव्रजिता विहरन्ती खेचरकन्याभिः परिवारिता ॥२०॥ खेचरकन्याभिरहं भणिता दर्शय राघवमस्मान् । तवादेशेन सीते ! तमेव वरामो भर्तारम् ॥२१॥ एतदन्तरे सहसा नानालङ्कारभूषिताङ्गी । प्राप्ताः कामिन्यः सुरेन्द्रवैक्रियकृताः ॥२२॥ स्थापयित्वा मां पुरतः समकमेताभिरुत्तमं भोगम् । भुक्ष्व देव ! यथेच्छं साकेतायां सुरेन्द्रसमम् ॥२॥ अतिकर्कशा महायशः ! द्वाविंशः परिषहाः क्षुधादिकाः । एतैः संयमरणे राघव ! बहवो नरा भग्नाः ॥२४|| १. ०णं धणरवेणं-प्रत्य० । २. सुयवयारं । कोइलमुहल्लग्गीयं-प्रत्य० । ३. ०हं च देवो काऊणं जणयतणयवररूयं । रा०-प्रत्य० । ४.०ल विहरंती, ०ल सुहपत्ती-प्रत्य० । ५. नाहि अवहरिया-प्रत्य० । ६. परिवरिया-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ पउमचरियं ताव य सुरजुवईहिं , पवत्तियं सवणमणहरं गीयं । आढत्तं चिय नटुं, कडक्खदिट्ठीवियारिलं ॥२५॥ कुङ्कमकयचच्चिक्कं, दावेन्ती थणहरं तहिं का वि । नच्चइ मणखोभयरं, अधीरसत्ताण पुरिसाणं ॥२६॥ अन्ना जंपइ महुरं, इमाहि जुवईहिं सामि ! अइगाढं। उव्वेइया महाजस!, सरणं तुह आगया सिग्धं ॥२७॥ का वि विवायं महिला, कुणमाणी आगया सह सहीहिं। पुच्छड़ कहेहि राहव कवणा सवणस्सऽतीयाडा ? ॥२८॥ बाहा पसारिऊणं, दूरत्थाए असोगलइयाए । गेण्हेइ कुसुमामेलं, दावेन्ती का वि थणजुयलं ॥२९॥ एएसु य अन्नेसु य, करणनिओगेसु तत्थ पउमाभो । न य खुभिओ धीरमणो, अहियं झाणं चिय पवन्नो ॥३०॥ जाहे विउव्वणाहिं, सुरेण न य तस्स खोभियं झाणं । ताहे कम्मरिउबलं , नटुं पउमस्स निस्सेसं ॥३१॥ माहस्स सुद्धपक्खे, बारसिरत्तिम्मि पच्छिमे जामे । पउमस्स निरावरणं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥३२॥ एत्तो केवलनाणं, उप्पन्नं जाणिऊण सुरपवरा । रामस्स सन्नियासं, समागया सयलपरिवारा ॥३३॥ गय-तुरय-वसह-केसरि-जाण-विमाणा-ऽऽसणाई मोत्तुणं । वन्दन्ति सुरा पउमं, तिक्खुत्तपयाहिणावत्तं ॥३४॥ सीयाइन्दो वि तओ, केवलमहिमं च तत्थ काऊणं । पणमइ बलदेवमुणि', पउञ्जमाणो थुइसयाई ॥३५॥ बहुदुक्खजला पुण्णं, कसायगाहाउलं "भवावत्तं । संजमपोयारूढो, संसारमहोयहिं तिण्णो ॥३६॥ तावच्च सुरयुवतिभिः प्रवर्तितं श्रवणमनोहरं गीतम् । आरब्धमेव नृत्यं कटाक्षदृष्टिविकारितम् ॥२५॥ कुकुमकृतचर्चिकं दर्शयन्ती स्तनभारं तत्र काऽपि । नृत्यति मनःक्षोभकरमधीरसत्त्वानां पुरुषाणाम् ॥२६॥ अन्या जल्पति मधुरमिमाभि युवतिभिः स्वामिन् ! । अतिगाढमुद्वेजिता महायशः ! शरणं तवागताः शीघ्रम् ।।२७।। काऽपि विवादं महिला कुर्वन्त्यागता सह सखिभिः । पृच्छति कथय राघव ! १२का श्रवणस्यातिनिगाढा ? ॥२८॥ बाहा प्रसार्य दुरस्थाया अशोकलतिकायाः । गृह्णाति कुसुमगुच्छं दर्शयन्ती कापि स्तनयुगलम् ॥२९॥ एतैश्चान्यैश्च करणनियोगैस्तत्र पद्माभः । न च क्षुभितो धीरमना अधिकं ध्यानमेव प्रपन्नः ॥३०॥ यदा विकुर्वणाभिः सुरेण न च तस्य क्षोभितं ध्यानम् । तदा कर्मरिपुबलं नष्टं पद्मस्य निःशेषम् ॥३१॥ माघस्य शुद्धपक्षे द्वादशीरात्रौ पश्चिमे यामे । पद्मस्य निरावरणं केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥३२॥ इतः केवलज्ञानमुत्पन्नं ज्ञात्वा सुरप्रवराः । रामस्य सन्निकाशं समागताः सकलपरिवाराः ॥३३॥ गज-तुरग-वृषभ-केसरि-यान-विमानाऽऽसनादीन् मुक्त्वा । वन्दन्ते सुराः पद्म त्रिकृत्वः प्रदक्षिणावर्तम् ॥३४॥ सीतेन्द्रोऽपि तत: केवलमहिमानं च तत्र कृत्वा । प्रणमति बलदेवमुनि प्रयुज्यमानः स्तुतिशतानि ॥३५॥ बहुदुःखजलापूर्णं कषायग्राहाकुलं भवावर्तम् । संयमपोतारुढः संसारमहोदधि तीर्णः ॥३६।। १. हिं, णिव्वत्तं समणमण०-प्रत्य० । २. उव्वेविया-प्रत्य० । ३. कवणेस वणस्सई नियडे-मु०। ४. दावेइ य तह य थण-प्रत्य० । ५. ०रमुणीप्रत्य० । ६. उघणं, न०-प्रत्य० । ७.०पक्खेक्कारसि०-प्रत्य० । ८.०वलिमहिमं च सुविउलं काउं। प०-प्रत्य० । ९. मुर्णि, उक्कित्तंतो गुणसयाईप्रत्य० । १०. ०लाइण्णं-प्रत्य० । ११. भयावत्तं-मु० । १२. अत्रान्यादर्श - 'कवणेस वणस्सई नियडे' ह.लि.आदर्श 'कवणा सवणस्सती णियाडा' इति पाठान्तरमपि दृश्यते । अत्र तु पाठान्तरमेवानुसृतमस्माभिः । तदनुसारेणेमा छाया कृताऽस्ति । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०९ पउमकेवलनाणुप्पत्तिविहाणपव्वं -११७/२५-४६ झाणाणिलाहएणं, विविहतवेन्धणमहन्तजलिएणं । नाणाणलेण राहव !, तुमए जम्माडवी दड्डा ॥३७॥ वेरग्गमोग्गरेणं, विचुणियं णेहपञ्जरं सिग्धं । निहओ य मोहसत्तू, उवसमसूलेण धीरेणं ॥३८॥ भणइ सुरो मुणिवसभं, संसारमहाडविं भमन्तस्स । केवललद्धाइसयं, तुह मह सरणं भवविणासं ॥३९॥ एवं संसारनइं, बहुदुक्खावत्तअरड्कल्लोलं । एत्थ निबुडं राहव !, उत्तारसु नाणहत्थेणं ॥४०॥ भणइ तओ मुणिवसहो, मुञ्चसु दोसासयं इमं रागं । लहइ सिवं तु अरागी, रागी पुण भमइ संसारे ॥४१॥ जह बाहासु सुराहिव, उत्तरिउं नेव तीरए उयही । तह न य तीर तरिउं, भवोयही सीलरहिएहि ॥४२॥ नाणमयदारुएणं, तवनियमायासबद्धकढिणेणं । संसारोयहितरणं, हवइ परं धम्मपोएणं ॥४३॥ राग-द्दोसविमुक्को, पुरिसो तव-नियम-संजमाउत्तो । झाणेक्कजणियभावो, पावइ सिद्धिं न संदेहो ॥४४॥ सुणिऊण वयणमेयं, सीयादेवो तओ सुपरितुट्ठो । नमिऊण सीरधारिं, निययविमाणं गओ सिग्धं ॥४५॥ ____ एवं सुरासुरा ते, केवलनाणी कमेण थोऊण गया। विहरड् महामुणी वि य, ससहरकरनियरसरिसविमलाभतणू ॥४६॥ ॥ इइ पउमचरिए पउमस्स केवलनाणुप्पत्तिविहाणं नाम सत्तदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ ध्यानानिलाहतेन विविध तपः इन्धमहज्ज्वलितेन । ज्ञानानलेन राघव ! त्वया जन्माटवी दग्धा ॥३७॥ वैराग्यमुद्गरेण विचूर्णितं स्नेहपिञ्जरं शीघ्रम् । निहतश्च मोहशत्रुरुपशमशूलेन धीरेण ॥३८॥ भणति सुरो मुनिवृषभं संसारमहाटविं भ्रमतः । केवललब्धातिशयं त्वं मम शरणं भवविनाशम् ॥३९॥ एतां संसारनदी बहुदु:खावर्तारतिकल्लोलाम् । अत्र निमग्नं राघव ! उत्तारय ज्ञानहस्तेन ॥४०॥ भणति ततो मुनिवृषभो मुञ्च दोषाश्रयमेमं रागम् । लभते शिवं त्वरागी रागी पुन भ्रमति संसारे ॥४१॥ यथा बाहाभिः सुराधिप ! उत्तरितुं नैव शक्यत उदधिः । तथा न च शक्यते तरितुं भवोदधिः शीलरहितैः ॥४२॥ ज्ञानमयदारुकेन तपोनियमायासबद्धकठिनेन । संसारोदधितरणं भवति परं धर्मपोतेन ॥४३।। रागदोषविमुक्तः पुरुषस्तपोनियमसंयमायुक्तः । ध्यानैकजनितभावः प्राप्नोति सिद्धि न संदेहः ॥४४॥ श्रुत्वा वचनमेतत्सीतादेवस्ततः सुपरितुष्टः । नत्वा सीरधारिणं निजविमानं गतः शीघ्रम् ॥४५॥ एवं सुरासुरास्ते केवलज्ञानिनं क्रमेण स्तुत्वा गताः । विहरति महामुनिरपि च शशधरकरनिकरसदृश विमलाभतनूः ॥४६।। ॥इति पद्मचरिते पद्मस्य केवलज्ञानोत्पत्तिविधानं नाम सप्तदशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ १. ०ग्धं । हणिओ य मोहसत्तू उत्तमलेसातिसूलेणं-प्रत्य० । २.०डवि वसंतस्स-प्रत्य० । ३. तुहुं-प्रत्य० । ४. इ य सिवं अ०-प्रत्य० । ५. ०एणंप्रत्य० । ६. नाणकय०-मु० । ७. ०इ तओ धम्म०-प्रत्य० । ८. ससिकरणियर०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. पउमणिव्वाणगमणपव्वं अह सो सीयाइन्दो, नरयत्थं लक्खणं सुमरिऊणं । अवइण्णो मणवेगो, पडिबोहणकारणुज्जुत्तो ॥१॥ सो लविऊण पढमं, सक्करपुढविं च वालुयापुढविं । पङ्कत्थे च्चिय पेच्छइ, नेरड्या तत्थ दुक्खत्ता ॥२॥ पढमं सुरेण दिवो, संबुक्को घणकसायपरिणामो । घोरग्गिमाइयाई, अणुहोन्तो तिव्वदुक्खाइं ॥३॥ अन्ने वि तत्थ पेच्छइ, नेरड्या हुयवहम्मि पक्खित्ता । डज्झन्ति आरसन्ता, नाणाचेट्ठासु दीणमुहा ॥४॥ केएत्थ सामलीए, कण्टयपउराए विलइया सन्ता। ओयरणा-ऽऽरुहणाइं, कारिज्जन्तेत्थ बहुयाइं ॥५॥ जन्तेसु केइ छूढा, पीलिज्जन्ते पुरा अकयपुण्णा । कन्दूसु उद्धपाया, डज्झन्ति अहोमुहा अन्ने ॥६॥ असिचक्कमोग्गरहया, लोलेन्ता कक्खडे धरणिवढे । खज्जन्ति आरसन्ता, चित्तय-वय-वग्घ-सीहेहिं ॥७॥ पाइज्जन्ति रडन्ता, सुतत्तत वुतम्बसन्निभं सलिलं । असिपत्तवणगया वि य, अन्ने छिज्जन्ति सत्थेहिं ॥८॥ सो एवमाइयाइं, दर्दू दुक्खाइं नरयवासीणं । कारुण्णजणियहियओ, सोयइ परमं सुरवरिन्दो ॥९॥ सो अग्गिकुण्डमज्झाउ निग्गयं लक्खणं सुरवरिन्दो । पेच्छइ तालिज्जन्तं, बहुएहि य नरयपालेहिं ॥१०॥ सो तेहि तस्स पुरओ, करवत्त-ऽसिपत्त-जन्तमादीहिं । भयविहलवेवियङ्गो, जाइज्जइ जायणसएहिं ॥११॥ ११८. पद्मनिर्वाणगमनपर्वम् अथ स सीतेन्द्रो नरकस्थं लक्ष्मणं स्मृत्वा । अवतीर्णो मनोवेगः प्रतिबोधनकारणोद्यतः ॥१॥ स लवयित्वा प्रथमं शर्करापृथिवीं च वालुकापृथिवीम् । पङ्कस्थानेव एव पश्यति नैरयिकांस्तत्र दुःखार्तान् ।।२।। प्रथमं सुरेण दृष्ट: संबुक: धनकषायपरिणामः । घोराग्न्यादिन्यनुभवंस्तीव्रदुःखानि ॥३॥ अन्यानपि तत्र पश्यति नैरयिकान् हुतवहे प्रक्षिप्तान् । दहन्त्यारसन्तो नानाचेष्टाभि र्दीनमुखाः ॥४॥ केऽत्र शाल्मल्यां कण्टकप्रचूरायां विलगिताः सन्तः । अवतरणरोहणानि क्रिर्यमाणा अत्र बहूनि ॥५|| यन्त्रेषु कोऽपि क्षिप्ता पीड्यन्ते पुराऽकृतपुण्याः । कन्दूषूर्ध्वपादा दह्यन्तेऽधोमुखा अन्ये ॥६॥ असिचक्र मुद्गरहता लोलन्तः कर्कशे धरणिपृष्टे । खाद्यमाना आरसन्तश्चित्रक-वृक-व्याघ्र-सिंहैः ॥७॥ पाय्यन्ते रटन्तः सुतप्तताम्रसंनिभं सलिलम् । असिपत्रवनगता अपि चान्ये छिद्यन्ते शस्त्रैः ॥८॥ स एवमादिनि दृष्ट्वा दुःखानि नरकवासीनाम् । कारुण्यजनितहृदयः शोचति परमं सुरवरेन्द्रः ॥९॥ सोऽग्निकुण्डमध्यान्निर्गतं लक्ष्मणं सुरवरेन्द्रः । पश्यति ताड्यमानं बहुभिश्च नरकपालैः ॥१०॥ स तैस्तस्य पुरतः करपत्राऽसिपत्र-यन्त्रादिभिः । भयविह्वलवेपिताङ्गो याच्यते याचनाशतैः ॥११॥ १. समरि०-मु० । २. ओसरणाo-मु० । ३. लोलिता-प्रत्य० । ४. ०तउसण्णिभं कलकलितं असि०-प्रत्य० । ५. भं कललं-मु० । For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमणिव्वाणगमणपव्वं -११८/१-२४ ७११ दिट्ठो लङ्काहिवई, सुरेण भणिओ य तत्थ संबुक्को । रे पाव ! पुव्वजणियं, अज्ज वि कोवं न छड्डेसि ॥१२॥ तिव्वकसायवसगया, अणिवारियइन्दिया किवारहिया । ते एत्थ नरयलोए, अणुहुन्ति अणेयदुक्खाइं ॥१३॥ सोऊण वि नेरड्यं, दुक्खं जीवस्स जायइ भवोहे । किं पुण तुज्झ न जायइ, भयं इहं विसहमाणस्स ? ॥१४॥ सोऊण वयणमेयं, संबुक्को उवसम समणुपत्तो । ताहे लङ्काहिवई, लक्खणसहियं भणइ देवो ॥१५॥ मोत्तूण भउव्वेयं, मह वयणं सुणह ताव वीसत्था । तुब्भे हि विरहिया, संपत्तां एरिसं दुक्खं ॥१६॥ दिव्वविमाणारूढं, ते रावण-लक्खणा सुरं दटुं । पुच्छन्ति साहसु फुडं, को सि तुमं आगओ एत्थ ? ॥१७॥ सो ताण साहइ सुरो, एत्तो पउमाइयं जहावत्तं । पडिबोहकारणटे, निययं च समागमारम्भं ॥१८॥ निययं चिय वित्तन्तं, सुणिउं ते तत्थ दो वि पडिबुद्धा । सोएन्ति दीणवयणा, अप्पाणं लज्जियमईया ॥१९॥ धी! किं न कओ धम्मो, तइया अम्हेहिं माणुसे जम्मे ? । जेणेह दुहावत्था, संपत्ता दारुणे नरए ॥२०॥ धन्नो सि तुमं सुरवर !, जो परिचइऊण विसयसोक्खाई। जिणवरधम्माणुरओ, संपत्तो चेव देवि९ि ॥२१॥ तत्तो सो कारुणिओ, जंपइ मा भाह दो वि तुब्भे हं । हक्खुविऊण इमाओ, नरगाओ नेमि सुरलोयं ॥२२॥ आबद्धपरियरो सो, हक्खुविऊणं तओ समाढत्तो । विलियन्ति अइदुगेज्झा, ते अणलहओ व्व नवनीओ ॥२३॥ सव्वोवाएहि जया, घेत्तूण न चाइया सुरिन्देणं । ताहे ते नेरड्या, भणन्ति देवं मुयसु अम्हं ॥२४॥ दृष्टो लङ्काधिपतिः सुरेण भणितस्तत्र संबुक: । रे पाप ! पूर्वनजनितमद्यापि कोपं न मुञ्चसि ॥१२॥ तीव्रकषायवशगता अनिवारितेन्द्रियाः कृपारहिताः । तेऽत्र नरकलोकेऽनुभवन्त्यनेकदुःखानि ॥१३॥ श्रुत्वाऽपि नैरयिकं दुःखं जीवस्य जायते भवौघे । किं पुनस्तव न जायते भयमिह विषहमानस्य ? ॥१४|| श्रुत्वा वचनमेतत्संबुक उपशमं समनुप्राप्तः । तदा लकाधिपति लक्ष्मणसहितं भणति देवः ॥१५॥ मुक्त्वा भयोद्वेगं मम वचनं श्रुणुत तावद्विश्वस्ताः । यूयं हि विरतिरहिता संप्राप्ता इदृशं दुःखम् ॥१६।। दिव्यविमानारुढं तौ रावण-लक्ष्मणौ सुरं दृष्ट्वा । पृच्छतः कथय स्फुटं कोऽसि त्वमागतोऽत्र ? ॥१७॥ स तयोः कथयति सुर इतः पद्मादिकं यथावृत्तम् । प्रतिबोधकारणार्थे निजकं च समागमारम्भम् ।।१८।। निजकमेव वृत्तान्तं श्रुत्वा ते तत्र द्वावपि प्रतिबुद्धौ । शोचतो दीनवदनावात्मानं लज्जितमतिकौ ॥१९॥ धि! किं न कृतो धर्मस्तदाऽऽवाभ्यां मानुष्ये जन्मनि ? । येनेह दु:खावस्थां संप्राप्तौ दारुणे नरके ॥२०॥ धन्योऽसि त्वं सुरवर ! यः परित्यज्य विषयसुखानि । जिनवरधर्मानुरतः संप्राप्त एव देवर्द्धिम् ॥२१॥ ततः स कारुणिको जल्पति मा बिभेतं द्वावपि यूवामहम् । उत्क्षिप्यास्मान्नरकान्नयामि सुरलोकम् ।।२२।। आबद्धपरिकरः स उत्क्षेप्तुं ततः समारब्धः । विलीनीतोऽतिदुर्गाह्यो तावनलहत इव नवनीतः ॥२३॥ सर्वोपायै र्यदा गृहीतुं न शक्यते सुरन्द्रेण । तदा तौ नैरयिकौ भणतो देव मुञ्चावाम् ॥२४॥ १. छड्डेहि-प्रत्य० । २. तुम्हेहिं । ह०-मु० । ३. ०वं सुणसु-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ७१२ गच्छस तुमं सुराहिव !, सिग्धं चिय आरणच्चुयं कप्पं । अम्हेहिं पावजणियं, अणुहवियव्वं महादुक्खं ॥ २५ ॥ विसयामिसलुद्धाणं, नरयगाणं' अईवदुक्खाणं । निययं परव्वसाणं, देवा वि कुणन्ति किं ताणं ? ॥२६॥ देव ! तुमं असमत्थो, इमस्स दुक्खस्स मोइउं अम्हे । तह कुणसु जह न पुणरवि हवइ मई नरयगइगमणे ॥२७॥ भइ सुरो अ रहस्सं, परमं चिय उत्तमं सिवं सुद्धं । सम्मद्दंसणरयणं, गेण्हह परमेण विणणं ॥ २८ ॥ एवं गए वि संपइ, जइ इच्छह अत्तणो धुवं सेयं । तो गेण्हह सम्मत्तं, सुद्धं निव्वाणगमणफलं ॥२९॥ तो उत्तरं वि हु, नय भूयं न य भविस्सए अन्नं । महमङ्गलं पवित्ता तिलोगसिहरट्टिया सिद्धा ॥ ३० ॥ जीवाइपयत्था जे, जिणेहिं भणिया तिलोयदरिसीहिं । तिविहेण सद्दहन्तो, सम्मद्दिट्ठी नरो होई ॥३१॥ भणिएहिं तेहि एवं, गहियं नरयट्ठिएहिं सम्मत्तं । जं बहुभव कोडीहि विअणापत्तेहि न य पत्तं ॥३२॥ I भोसुइ ! अम्ह हियं, तुमे कयं कारणं अइमहन्तं । जं सयलजीवलोए, सम्मत्तं उत्तमं दिन्नं ॥३३॥ भो भो सीइन् ! तुमं गच्छ लहुं आरणच्चुयं कप्पं । जिणवरधम्म स्स फलं, भुञ्जसु अइउत्तमं भोगं ॥३४॥ एवं महाणुभावो', देवो काऊण ताण उवयारं । सोएन्तो नेरइए, संपत्तो अत्तणो ठाणं ॥३५॥ सो तत्थ वरविमाणे, सेविज्जन्तो वि अमरकन्नाहिं । सरिऊण नरयदुक्खं, देविन्दो अद्धि कुणइ ॥३६॥ अवयरिऊणाढत्तो, पउमेणालंकियं इमं भरहं । गय-तुरय-वसह केसरिठिएसु देवेसु परिकिण्णो ॥३७॥ गच्छ त्वं सुराधिप ! शीघ्रमेवारणाच्युतं कल्पम् । अस्मद्भ्यां पापजनितमनुभवितव्यं महादुःखम् ॥२५॥ विषयामिषलुब्धानां नरकगतानामतिवदुःखानाम् । नित्यं परवशानां देवाऽपि कुर्वन्ति किं तेषाम् ? ||२६|| देव ! त्वमसमर्थ एतस्माद्दुःखान्मोचयितुमस्मान् । तथा कुरु यथा न पुनरपि भवति मति र्नरकगति गमने ॥२७॥ भणति सुरो रहस्यं परममेवोत्तमं शिवं शुद्धम् । सम्यग्दर्शनरत्नं गृहणीतं परमेण विनयेन ॥२८॥ एवं गतेऽपि संप्रति यदीच्छतमात्मनो ध्रुवं श्रेयम् । तदा गृह्णतां सम्यक्त्वं शुद्धं निर्वाणगमनफलम् ॥२९॥ इतो नोत्तरमपि खलु न च भूतं न च भविष्यत्यन्यत् । महामड्गलं पवित्रास्त्रिलोकशिखरस्थिताः सिद्धाः ॥३०॥ जीवादिपदार्था ये जिनैर्भणितास्त्रिलोकदर्शिभिः । त्रिविधेन श्रद्धन् सम्यग्दृष्टी नरो भवति ॥ ३१ ॥ भणितैस्तैरेवं गृहीतं नरकस्थितैः सम्यक्त्वम् । यद्बहुभवकोटिभिवैदनाप्राप्तै र्न च प्राप्तम् ॥३२॥ भो सुरपते ! ऽस्मद्धितं त्वया कृतं कारणमतिमहत् । यत्सकलजीवलोके सम्यक्त्वमुत्तमं दत्तम् ॥३३॥ भो भो सीतेन्द्र ! त्वं गच्छ लघ्वारणाच्युत कल्पम् । जिनवरधर्मस्य फलं भुङ्ग्यत्युत्तमं भोगम् ॥३४॥ एवं महानुभावो देवो कृत्वा तेषामुपकारम् । शोचयन्नैरयिकान् संप्राप्त आत्मनः स्थानम् ॥३५॥ स तत्र वरविमाने सेव्यमानोऽप्यमरकन्याभिः । स्मृत्वा नरकदुःखं देवेन्द्रोऽधृतिं करोति ॥३६॥ अवतरितुमारब्धः पद्मेनालङ्कृतमिमं भरतम् । गज- तुरग - वृषभ - केसरिस्थितै देवैः परिकीर्णः ||३७|| ० भावो, १. ०याणं च तिव्वदु०- प्रत्य० । २. होहि प्रत्य० । ३. ०वकोडीहिं वियणापत्तेहि वि ण पत्तं प्रत्य० । ४. ०म्मफलं चिय, भु० - प्रत्य० । ५. महयं का०-मु०, ०भावो, काऊणं ताण सो उ उव० - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमणिव्वाणगमणपव्वं -११८/२५-५० ७१३ बहुतूरनिणाएणं, अच्छर संगिज्जमाणमाहप्पो । पउमस्स गओ सरणं, सीइन्दो सयलपरिवारो ॥३८॥ सव्वायरेण देवो, थोऊण पुणो पुणो पउमणाहं । तत्थेव सन्निविट्ठो, महिवीढे परियणसमग्गो ॥३९॥ नमिऊण पुच्छइ सुरो, भयवं ! जे एत्थ दसरहाईया । लवणं-ऽकुसा य भविया, साहसु कवणं गई पत्ता ? ॥४०॥ जं एव पुच्छिओ सो, बलदेवो भणइ आणए कप्पे । वट्टइ अणरण्णसुओ, देवो विमलम्बराभरणो ॥४१॥ ते दो वि जणय-कणया, केगइ तह सुप्पहा य सोमित्ती । अवराइयाए समयं, इमाइं सग्गोववन्नाई ॥४२॥ णाण-तव-संजमदढा, विसुद्धसीला लवं-ऽकुसा धीरा । गच्छीहन्ति गुणधरा, अव्वाबाहं सिवं ठाणं ॥४३॥ एव भणिओ सुरिन्दो, अच्चन्तं हरिसिओ पुणो नमिउं। पुच्छइ कहेहि भयवं!, संपइ भामण्डलस्स गई ॥४४॥ तो भणइ सीरधारी, सुरवर ! निसुणेहि ताव संबन्धं । चरिएण तुज्झ भाया, जेणं चिय पावियं ठाणं ॥४५॥ अह कोसलापुरीए, धणवन्तो अत्थि वज्जको नामं । पुत्ता असयो-तिलया, तस्स पिया मयरिया भज्जा ॥४६॥ निव्वासियं सुणेउं, सीयं सो दुक्खिओ तओ जाओ।चिन्तेइ सा अरण्णे, कह कुणइ धिई महाघोरे? ॥४७॥ अहियं किवालुओ सो, संविग्गो जुइमुणिस्स सीसत्तं । पडिवज्जिऊण जाओ समणो परिवज्जियारम्भो ॥४८॥ अह अन्नया कयाई, असोग-तिलया गया जुइमुणिन्दं । पणमन्ति आयरेणं, पियरं च पुणो पुणो तुट्ठा ॥४९॥ सोऊण धर्मरयणं, सहसा ते तिव्वजायसंवेगा। दोण्णि वि जुइस्स पासे, असोय-तिलया विणिक्खन्ता ॥५०॥ बहुतूर्यनिनादेनाप्सर:संगीयमानमाहात्म्यः । पद्मस्य गतः शरणं सीतेन्द्रः सकलपरिवारः ॥३८॥ सर्वादरेण देवः स्तुत्वा पुनः पुनः पद्मनाभम् । तत्रैव सन्निविष्टो महीपृष्टे परिजनसमग्रः ॥३९॥ नत्वा पृच्छति सुरो भगवन् ! ये ऽत्र दशरथादयः । लवणाङ्कुशाश्च भविकाः कथय कां गतिं प्राप्ताः? ॥४०॥ यदेवं पृष्टः स बलदेवो भणत्यानते कल्पे । वर्तते ऽनरण्यसुतो देवो विमलाम्बराभरणः ॥४१॥ तौ द्वावपि जनक-कनकौ कैकयी तथा सुप्रभा च सोमित्रिः । अपराजितया समकमिमे स्वर्गोत्पन्नाः ॥४२॥ ज्ञानतप:संयमदृढौ विशुद्धशीलौ लवाङ्कुशौ धीरौ । गमिष्यतो गुणधरावव्याबाधं शिवं स्थानम् ॥४३॥ एवंभणितः सुरेन्द्रोऽत्यन्तं हर्षितः पुनर्नत्वा । पृच्छति कथय भगवन् ! संप्रति भामण्डलस्य गतिम् ॥४४॥ तदा भणति सीरधारी सुरवर ! निश्रुणु तावत्सम्बन्धम् । चरितेन तव भ्रात्ता येनैव प्राप्त स्थानम् ॥४५॥ अथ कोशलापूर्यां धनवानस्ति वज्रको नाम । पुत्रावशोक-तिलकौ तस्य प्रिया मकरिका भार्या ॥४६।। निर्वासितां श्रुत्वा सीतां स दुःखितस्ततो जातः । चिन्तयति साऽरण्ये कथं करोति धृति महाघोरे ? ॥४७॥ अधिकं कृपालुः स संविग्नो द्युतिमुनेः शिष्यत्वम् । प्रतिपद्य जातः श्रमणः परिवर्जितारम्भः ॥४८॥ अथान्यदा कदाचिदशोक-तिलकौ गतौ द्युतिमुनीन्द्रम् । प्रणमत आदरेण पितरं च पुनः पुनस्तुष्टौ ॥४९।। श्रुत्वा धर्मरत्नं सहसा तौ तीव्रजातसंवेगौ । द्वावपि धुतेः पार्श्वे ऽशोक-तिलकौ विनिष्क्रान्तौ ॥५०॥ १. ०रसुरगि०-मु० । २. गयं प०-प्रत्य० । ३. ०यतणया-मु० । ४. ०सा वीरा । गच्छीहिंति-प्रत्य० । ५. घणमंतो अत्थि वज्जगो ना०-प्रत्य० । ६. ०म्मसवणं-प्रत्य० । ७. दो वि जुइस्स य पासे-प्रत्यः । Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ पउमचरियं काऊण तवं घोरं, कालगओ उवरिमम्मि गेवेज्जे । उववन्नो तत्थ 'जुई, महाजुई उत्तमो देवो ॥५१॥ ते तत्थ पिया पुत्ता, कुक्कुडनयरं समुज्जया गन्तुं । संवेयजणियभावा, वन्दणहेउं जिणिन्दस्स ॥५२॥ पन्नास जोयणाई, गयाण अह अन्नया समणुपत्तो । नवपाउसो महाघणतडिच्छडाडोवसलिलोहो ॥५३॥ तो गिरिवरस्स हेतु, जोगत्था मुणिवरा दढधिईया । जन्तेण कोसलाए, दिट्ठा जणयस्स पुत्तेणं ॥५४॥ चिन्तेइ इमे साहू, इहट्ठिया समयरक्खणट्ठाए । घोरे उत्तासणए, रण्णे बहुसावयाइण्णे ॥५५॥ भामण्डलेण एवं, चिन्तेउं पाणरक्खणनिमित्तं । साहूण समासन्ने, विज्जासु कयं पुरं परमं ॥५६॥ काले देसे य पुरं, समागया गोचरेण ते समणा । पडिलाभेइ महप्पा, चउविहआहारदाणेणं ॥५७॥ एवं कमेण ताणं, चाउम्मासी गया मुणिवराणं । भामण्डलेण वि तओ,दाणफलं अज्जियं विउलं ॥५८॥ भामण्डलो कयाई, सह सुन्दरमहिलियाए उज्जाणे ।असणिहओ उववन्नो, देवकुराए तिपल्लाऊ ॥५९॥ दाणेण भोगभूमी, लहइ नरो तवगुणेण देवत्तं । नाणेणं सिद्धिसुहं, पावइ नत्थेत्थ संदेहो ॥६०॥ पुणरवि भणइ सुरिन्दो, अहोगइं लक्खणो समणुपत्तो । उव्वट्टिओ महामुणि !, ठाणं कवणं तु पाविहिइ ? ॥६१॥ निज्जरिय कम्मनिवहं, लभिही कवणं गईं च दहवयणो?।को व भवीहामि अहं ?, एयं इच्छामि नाउंजे ॥२॥ भणइ तओ बलदेवो, सुणेहि देविन्द ! आगमिस्साणं । उक्वित्तणं भवाणं, लङ्काहिव-लच्छिनिलयाणं ॥६३॥ कृत्वा तपः घोरं कालगता उपरिमे ग्रैवेयके । उत्पन्नस्तत्र द्युति महाद्युतिरुत्तमो देवः ॥५१॥ ते तत्र पितापुत्राः कुर्कुटनगरं समुद्यता गन्तुम् । संवेगजनितभावा वन्दनहेतुं जिनेन्द्रस्य ॥५२॥ पञ्चाशद्योजनानि गतानामथान्यदा समनुप्राप्तः । नवप्रावृड् महाघनतडिच्छटाटोपसलिलौघः ॥५३॥ तदा गिरिवरस्याधो योगस्था मुनिवरा दृढधृतयः । याता कोशलायां दृष्टा जनकस्य पुत्रेण ॥५४॥ चिन्तयतीमे साधव इहस्थिता समयरक्षणार्थे । घोर उत्रासने ऽरण्ये बहुश्वापदाकीर्णे ॥५५॥ भामण्डलेनैवं चिन्तयित्वा प्राणरक्षणनिमित्तम् । साधूनां समासन्ने विद्याभिः कृतं पुरं परमम् ॥५६॥ काले देशे च पुरं समागता गोचरेण ते श्रमणाः । प्रतिलाभयति महात्मा चतुर्विधाहारदानेन ॥५७॥ एवं क्रमेण तेषां चातुर्मासी गता मुनिवराणाम् । भामण्डलेनाऽपि ततो दानफलमर्जितं विपुलम् ॥५८॥ भाम्डलः कदाचित्सह सुन्दरमहिलाया उद्याने । असनिहत उत्पन्नो देवकुरौ त्रिपल्यायुः ॥५९।। दानेन भोगभूमि र्लभते नरस्तपोगुणेन देवत्त्वम् । ज्ञानेन सिद्धिसुखं प्राप्नोति नास्त्यत्र संदेहः ॥६०॥ पुनरपि भणति सुरेन्द्रो ऽधोगति लक्ष्मणः समनुप्राप्तः । उद्वर्तितो महामुनि ! स्थानं कं तु प्राप्स्यति ? ॥६१॥ निर्जीर्य कर्मनिवहं लास्यति कां गतिं च दशवदनः ? । को वा भविष्याम्यहमेतदिच्छामि ज्ञातुं ये ॥६२॥ भणति ततो बलदेवः श्रुणु देवेन्द्र ! आगमिष्यताम् । उत्कीर्तनं भवानां लकाधिप-लक्ष्मीनिलययोः ॥६३|| १. चरिऊण तवं-प्रत्य० । २. जुई, महइमहा उ०-प्रत्य० । ३. ०ण तह-मु०। ४. चउव्विहाहार०-प्रत्य० । ५. सुंदरिम०-प्रत्य० । ६. कमणं-प्रत्य०। ७. लभिहिति कमणं गतिं च-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ पउमणिव्वाणगमणपव्वं -११८/५१-७६ नरयाउ समुत्तिण्णा, कमेण सुरपव्वयस्स पुव्वेणं । विजयावइनयरीए, मणुया ते दो वि होहिन्ति ॥६४॥ ताणं पिया सुणन्दो, जणणी वि य हवइ रोहिणी नामं । सावयकुलसंभूया, गुरुदेवयपूयणाहिरया ॥६५॥ अइसुन्दररूवधरा, नामेणं अरहदास-सिरिदासा । काऊण सावयत्तं, देवा होहिन्ति सुरलोए ॥६६॥ चइया तत्थेव पुरे, मणुया होऊण सावया परमा । मुणिवरदाणफलेणं, होहिन्ति नरा य हरिवरिसे ॥६७॥ भोगं भोत्तूण मया, देवा होहिन्ति देवलोगम्मि । चइया तत्थेव पुरे, नरवइपुत्ता भविस्संति ॥६८॥ वाउकुमारस्स सुया, लच्छीदेवीए कुच्छिसंभूया ।अमरिन्दसरिसरूवा, जयकन्त-जयप्पहा धीरा ॥६९॥ काऊण तवमुयारं, देवा होहिन्ति लन्तए कप्पे । उत्तमभोगठिईया, उत्तमगुणधारया धीरा ॥७०॥ तुहमवि इह भरहे खलु, चइऊणं अच्चुयाउ कप्पाओ । चोद्दसरयणाहिवई, चक्कहरो होहिसि निरुत्तं ॥७१॥ ते चेव सुरा चइया, दोण्णि वि तुह नन्दणा भवीहन्ति । इन्दुरह-भोयरहा, अमरकुमारोवमसिरीया ॥७२॥ परनारिवज्जणेणं, वएण एक्केण सो हु दहवयणो । जाओ च्चिय इन्दुरहो, सम्मत्तपरायणो धीरो ॥७३॥ सो चेव य इन्दुरहो, लभिऊण भवा सुराईयाकेइ । पच्छा होहइ अरहा, समत्थतेलोक्कपरिमहिओ ॥४॥ अह सो वि चक्कवट्टी, रज्जं रयणस्थले पुरे काउं । होहइ तवोबलेणं, अहमिन्दो वेजयन्तम्मि ॥१५॥ सो हु तुमं सग्गाओ, चइओ अरहस्स तस्स गणपवरो । होऊण तिहुयणग्गं, सिद्धिसुहं चेव पाविहिसि ॥७६॥ नरकायुः समुत्तीर्णौ क्रमेण सुरपर्वतस्य पूर्वेण । विजयावतीनगर्यां मनुष्यौ तौ द्वावपि भविष्यतः ॥६४॥ तयोः पिता सुनन्दो जनन्यपि च भवति रोहिणीनामा । श्रावककुलसंभूतौ गुरुदेवपूजनाभिरतौ ॥६५॥ अतिसुन्दररुपधरौ नाम्ना ऽर्हद्दास-श्रीदासौ । कृत्वा श्रावकत्वं देवौ भविष्यतः सुरलोके ॥६६॥ च्युतौ तत्रैव पुरे मनुष्यौ भूत्वा श्रावको परमौ । मुनिवरदानफलेन भविष्यतो नरौ च हरिवर्षे ॥६७|| भोगं भुक्त्वा मृतौ देवौ भविष्यतो देवलोके । च्युतौ तत्रैव पुरे नरपतिपुत्रौ भविष्यतः ॥६८॥ वायुकुमारस्य सुतौ लक्ष्मीदेव्याः कुक्षिसंभूतौ । अमरेन्द्रसदृशरुपौ जयकान्त-जयप्रभौ धीरौ ॥६९॥ कृत्वा तप उदारं देवौ भविष्यतो लान्तके कल्पे । उत्तमभोगस्थितिकावुत्तमगुणधारको धीरौ ॥७०|| त्वमपि इह भरते खलु च्युत्वाऽच्युतात्कल्पात् । चतुर्दशरत्नाधिपतिश्चक्रधरो भविष्यषि निश्चित्तम् ।।७१।। तावेव सुरौ च्युतौ द्वावपि तव नन्दनौ भविष्यतः । इन्दुरथ-भोगरथावमरकुमारोपमश्रियौ ॥७२॥ परनारीवर्जनेन व्रतेनैकेन स खलु दशवदनः । जात एवेन्दुरथः सम्यक्त्वपरायणो धीरः ॥७३॥ स एवेन्दुरथो लब्ध्वा भवा सुरादिकान् कोऽपि । पश्चाद्भविष्यत्यर्हन् समस्तत्रैलोक्यपरिमहितः ॥७४।। अथ सोऽपि चक्रवर्ती राज्यं रत्नस्थले परे कत्वा । भविष्यति तपोबलेनाहमिन्द्रो वैजयन्ते ॥७५।। स खलु त्वं स्वर्गाच्च्युतोऽर्हतस्तस्य गणप्रवरः । भूत्वा त्रिभुवनाग्रं सिद्धिसुखमेव प्राप्स्यसि ॥७६|| १. ०त्ता य भवि०-प्रत्य० । २. ०न्दरूवसरिसा, उ०-मु० । ३. ०रहा-भो०-मु० । ४. होहिइ-प्रत्य० । ५. ०त्थले तवं का०-प्रत्य० । ६. होहिइप्रत्य० । ७. स्स गणहरो पवरो-मु०, ०स्स गणहरो परमो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ पउमचरियं एसो ते परिकहिओ, दसाणणो सह तुमे सुराहिवई ! । एत्तो सुणाहि पुणरवि, लक्खणपगयं भणिज्जन्तं ॥७७॥ जो सोऽयं भोयरहो, चक्कहरसुओ तवप्पभावेणं । भणिऊण उत्तमभवे, केई दढधम्मसंजुत्तो ॥७८॥ पुक्खरदीवविदेहे, पउमपुरे लक्खणो उ चक्कहरो । होहिइ तित्थयरो पुण, तत्थेव भवे तियसणाहो ॥७९॥ सत्तसु वरिसेसु जिणो', काऊण असेसदोससंघारं । सुर-असुरनमियचलणो, पाविहिइ अणुत्तरं ठाणं ॥४०॥ एवं केवलिकहियं, भविस्सभवसंकहं सुणेऊणं । जाओ संसयरहिओ, पडिइन्दो, भावणाजुत्तो ॥८१॥ नमिऊण रामदेवं, ताहें सव्वायरेण पुणरुत्तं । अभिवन्दइ सुरपवरो, जिणवरभवणाई विविहाई ॥८२॥ नन्दीसराइयाई, अभिवन्देऊण चेइयहराइं । कुरुवं चिय संपत्तो, पेच्छड़ भामण्डलं देवो ॥८३॥ संभासिऊण पयओ, संबोहिय भायरं सिणेहेणं । विबुहाहिवो खणेणं, संपत्तो अच्चुयं कप्पं ॥८४॥ तत्थारणच्चुए सो, अमरवहूसयसहस्सपरिकिण्णो ।अणुहवइ उत्तमसुहं, सीइन्दो सुमहयं कालं ॥८५॥ पन्नरस सहस्साइं, वरिसाण तयाऽऽसि आउयं हलिणो । सोलस चावाणि पुणो, उच्चत्तं चेव नायव्वं ॥८६॥ पेच्छह बलेण महया, जिणिन्दवरसासणे धिई काउं । जम्म-जरा-मरणरिवू पराजिया धीरसत्तेणं ॥८७॥ निस्सेसदोसरहिओ, नाणाअइसयविभूइसंजुत्तो । केवलकिरणुज्जलिओ, विभाइ सरए व्व दिवसयरो ॥४८॥ आराहिऊण धीरो, जिणसमयं पञ्चवीस वरिसाइं । आउक्खयम्मि पत्तो, पउमो सिवसासयं ठाणं ॥८९॥ एष ते परिकथितो दशाननः सह त्वया सुराधिपते ! । इतः श्रुणु पुनरपि लक्ष्मणप्रगतं भणन्तम् ॥७७॥ यः सोऽयं भोगरथश्चक्रधरसुतस्तपः प्रभावेण । भ्रान्त्वोत्तमभवान्काञ्चिददृढधर्मसंयुक्तः ॥७८॥ पुष्करद्वीपविदेहे पद्मपुरे लक्ष्मणस्तु चक्रधरः । भविष्यति तीर्थकरः पुनस्तत्रैव भवे त्रिदशनाथः ॥७९॥ सप्तभिर्वर्षे जिनः कृत्वाऽशेषदोषसंहारम् । सुराऽसुरनतचरणः प्राप्स्यत्यनुत्तरं स्थानम् ।।८०॥ एवं केवलिकथितां भविष्यद्भवसंकथां श्रुत्वा । जातः संशयरहितः प्रतीन्द्रो भावनायुक्तः ॥८१॥ नत्वा रामदेवं तदा सर्वादरेण पुनरुक्तम् । अभिवन्दति सुरप्रवरो जिनवरभवनानि विविधानि ॥८२॥ नन्दीश्वरादिकान्यभिवन्द्य चैत्यगृहाणि । कुरुवमेव संप्राप्तः पश्यति भामण्डलं देवः ॥८३॥ संभाष्य प्रयत: संबोध्य भ्रातरं स्नेहेन । विबुधाधिपः क्षणेन संप्राप्तोऽच्युतं कल्पम् ॥८४॥ तत्राऽऽरणाच्युते सोऽमरवधुशतसहस्रपरिकीर्णः । अनुभवत्युत्तमसुखं सीतेन्द्रः सुमहत्कालम् ॥८५॥ पञ्चदशसहस्राणि वर्षाणां तदाऽऽसीदायु हलिनः । षोडशचापानि पुनरुच्चत्तमेव ज्ञातव्यम् ॥८६॥ पश्यत बलेन महता जिनेन्द्रवरशासने धृतिं कृत्वा । जन्म-जरा-मरणशत्रवः पराजिता धीरसत्त्वेन ॥८७॥ निःशेषदोषरहितो नानाऽतिशयविभूतिसंयुक्तः । केवलकिरणोज्वलितो विभाति शरदीव दिवसकरः ॥८८॥ आराध्य धीरो जिनसमयं पञ्चविंशति वर्षाणि । आयुः क्षये प्राप्तः पद्मः शिवशाश्वतं स्थानम् ॥८९।। १. सो पुण भो०-प्रत्य० । २. ०रवतीवि०-प्रत्य० । ३. ०णो खविऊण असेसकम्मसंघायं सु०-प्रत्य० । ४. एवं केवलिविहियं-मु० । ५. सत्तरसमु०। ६. वीरो-प्रत्य०। Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमणिव्वाणगमणपव्वं -११८/७७-१०१ ७१७ विगयर्भवहेउगं तं, अणगारं सुद्धसीलसम्मत्तं । सव्वायरेण पणमह, दुक्खक्खयकारयं रामं ॥१०॥ पुव्वसिणेहेण तया, सीयादेवाहिवेण परिमहियं । परमिड्डिसंपउत्तं, पणमह रामं मणोरामं ॥११॥ इक्खागवंसतिलयं, इह भरहे अट्ठमं तु बलदेवं । तं नमह णेयभवसंयसहस्समुक्कं सिवपयत्थं ॥१२॥ एयं हलहरचरियं, जो पढइ सुणइ परम सुद्धभावेणं । सो लहइ बोहिलाभं, बुद्धि-बलाऽऽउंच अइपरमं ॥१३॥ उज्जयसत्थो वि रिवू, खिप्पं उवसमइ तस्स उवसग्गो ।अज्जिणइ चेव पुण्णं, जसेण समयं न संदेहो ॥१४॥ रज्जरहिओ वि रज्ज, लहइ धणत्थी धणं महाविउलं । उवरूमइ तक्खणं चिय, वाही सोमा य होन्ति गहा ॥१५॥ महिलत्थी वरमहिलं, पुत्तत्थी गोत्तनन्दणं पुत्तं । लहइ परदेसगमणे, समागमं चेव बन्धूणं ॥१६॥ दुब्भासियाइं दुच्चिन्तियाई दुच्चरियसयसहस्साई । नासन्ति पउमकित्तणकहाए दूरं समत्थाई ॥१७॥ जं पि य जणस्स हियए, अवट्ठियं कारणं अइमहन्तं । तं तस्स निच्छएणं, उवणमइ सुहाणुबन्धेणं ॥१८॥ एवं धम्मोवाया, सिट्ठा तव-नियम-सीलमाईया । तित्थयरेहि महाजस !, अणन्तनाणुत्तमधरेहिं ॥१९॥ निययं करेह भत्ति, जिणाण मण-वयण-कायसंजुत्ता । जेणऽट्टकम्मरहिया, पावह सिद्धि सुवीसत्था ॥१००॥ एवं विसुद्धललियक्खरहेउजुत्तं, अक्खाणएसु विविहेसु निबद्धअत्थं । नासेइ दुग्गइपहं खलु निच्छएणं, रामारविन्दचरियं तु सुयं समत्थं ॥१०१॥ विगतभवहेतुकं तमणगारं शुद्धशीलसम्यक्त्वम् । सर्वादरेण प्रणमत दुःखक्षयकारकं रामम् ॥१०॥ पूर्वस्नेहेन तदा सीतादेवाधिपेन परिमहितम् । परमद्धिसंप्रयुक्तं प्रणमत रामं मनोरामम् ॥९१॥ इक्ष्वाकुवंशतिलकमिह भरतेऽष्टमं तु बलदेवम् । तं नमतानेकभवशतसहस्रमुक्तं शिवपदस्थम् ॥९२॥ एतद्धलघरचरितं यः पठति श्रुणोति परम शुद्धभावेन । स लभते बोधिलाभं बुद्धि-बलायुश्चातिपरमम् ॥९३॥ उद्यतशस्त्रोऽपि रिपुः क्षिप्रमुपशमति तस्योपसर्गः । अर्जयत्येव पुण्यं यशसा समकं न संदेहः ॥१४॥ राज्यरहितोऽपि राज्यं लभते धनार्थी धनं महाविपुलम् । उपशमति तत्क्षणमेव व्याधिः सौम्याश्च भवन्ति ग्रहाः ॥१५॥ महिलार्थी वरमहिलां पुत्रार्थी गोत्रनन्दनं पुत्रम् । लभते परदेशगमने समागममेव बन्धूनाम् ॥१६॥ दुर्भाषितानि दुश्चिन्तितानि दुश्चरितशतसहस्राणि । नश्यन्ति पद्मकीर्तनकथया दूरं समस्तानि ॥९७॥ यदपि च जनस्य हृदये ऽवस्थितं कारणमतिमहत् । तत्तस्य निश्चयेनोपनमति सुखानुबन्धेन ॥९८॥ एवं धर्मोपायाः शिष्टास्तपो-नियमशीलादयः । तीर्थकरै महायशः ! अनन्तज्ञानोत्तमधरैः ॥१९॥ नित्यं कुरुत भक्तिं जिनानां मनोवचनकायसंयुक्ताः । येनाऽष्टकर्मरहिताः प्राप्नुत सिद्धि सुविश्वस्ताः ॥१००॥ एतद्विशुद्धललिताक्षरहेतुयुक्तमाख्यानकेषु विविधेषु निबद्धार्थम् । नाशयति दुर्गतिपथं खलु निश्चयेन रामारविन्दचरितं तु श्रुतं समस्तम् ॥१०१॥ १.०भयहे०-प्रत्य०। २. कारणं रा०-मु०। ३.०वभय०-प्रत्य०। ४. जो पढइ सुद्धo-मु०, जो पढइ परमभावेणं-प्रत्य० ।५.०इ सो य पु०-प्रत्य०। ६. सरिसं न-मु० । ७. धणट्ठी धयं महाविउलं-प्रत्य०। ८. हिं भगवया, अ०-प्रत्य० । ९.०पहं इह नि०-प्रत्य० । १०. यं विमलं स०-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ पउमचरियं एवं वीरजिणेण रामचरियं सिटुं महत्थं पुरा, पच्छाऽऽखण्डलभूइणा उ कहियं सीसाण धम्मासयं । भूओ साहुपरंपराए, सयलं लोए ठियं पायडं, एत्ताहे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥१०२॥ पञ्चेव य वाससया, दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए, तओ निबद्धं इमं चरियं ॥१०३॥ हलहर-चक्कहराणं, समयं लङ्काहिवेण जं वत्तं । विसयामिससत्ताणं, इत्थिनिमित्तं रणं परमं ॥१०४॥ बहुजुवइसहस्सेहिं, न य पत्तो उवसमं मयणमूढो । सो विज्जाहरराया, गओ य नरयं अणिमियप्पा ॥१०५॥ जोऽणेयपणइणीहिं, लालिज्जन्तो वि न य गओ तित्ति। कह पुण अन्नो तुढेि, वच्चिहिइ सुथोवविलयाहिं ? ॥१०६॥ जे विसयसुहासत्ता, पुरिसा तव-नियम-संजमविहूणा । ते उज्झिऊण रयणं, गेण्हन्ति हु कागिणिं मूढा ॥१०७॥ एयं वेरनिमित्तं, परनारीसंसियं सुणेऊणं । होह परलोयकढी, परविलयं चेव वज्जेह ॥१०८॥ सुकयफलेण मणुस्सो, पावइ ठाणं सुसंपयनिहाणं । दुकयफलेण य कुगई, लहइ सहावो इमो लोए ॥१०९॥ न य देइ कोइ कस्सइ, आरोग्गधणं तहेव परमाउं। जइ देन्ति सुरा लोए', तह वि हु किं दुक्खिया बहवे ? ॥११०॥ काम-त्थ-धम्म-मोक्खा, एत्थ पुराणम्मि वणिया सव्वे । अगुणे मोत्तूण गुणे, गेण्हह जे तुम्ह हियजणणे ॥१११॥ बहुएण किं व कीड़, अव्वो भणियव्वएण लोयम्मि ? । एक्कपयम्मि वि बुज्झह, रमह सया जिणवरमयम्मि ॥११२॥ एतद्वीरजिनेन रामचरितं शिष्टं महार्थं पुरा पश्चादाखण्डलभूतिना तु कथितं शिष्येभ्यो धर्माशयम् । भूयः साधुपरंपरया सकलं लोके स्थितं प्रकटमीदानी विमलेन सूत्रसहितं गाथानिबद्धमिदं चरितम् ॥१०२।। पञ्चैव च वर्षशता दुषमायास्त्रिंशद्वर्षसंयुक्ताः । वीरे सिद्धिमुपगते ततो निबद्धमिदं चरितम् ॥१०३।। हलधर-चक्रधराणां समकं लकाधिपेन यद्वृत्तम् । विषयामिषसक्तानां स्त्रीनिमित्तं रणं परमम् ।।१०४।। बहुयुवतिसहस्रैर्न च प्राप्त उपशमं मदनमूढः । स विद्याधरराजा गतश्च नरकमनिमितात्मा ॥१०५।। योऽनेकप्रणयिनिभिर्लाल्यमानोऽपि न च गतस्तृप्तिम् । कथं पुनरन्यस्तृष्टि व्रजिष्यति सुस्तोकवनिताभिः ॥१०६।। ये विषयसुखासक्ताः पुरुषास्तपोनियमसंयमविहीनाः । ते उज्झित्वा रत्नं गृह्णन्ति खलु काकिणीं मूढाः ॥१०७॥ एतद्वैरनिमित्तं परनारिशंसितं श्रुत्वा । भवत परलोककाक्षिणः परवनितामेव वर्जयत ॥१०८॥ सुकृतफलेन मनुष्यः प्राप्नोति स्थानं सुसंपन्निधानम् । दुष्कृतफलेन च कुगतिं लभते स्वभावोऽयं लोके ॥१०९।। न च ददाति कोऽपि कस्मा अप्यारोग्यधनं तथैव परमायुः । यदि ददति सुरा लोके तथापि खलु किं दुःखिता बहवः? ॥११०॥ कामार्थधर्ममोक्षा अत्र पुराणे वर्णिताः सर्वे । अगुणान्मुक्त्वा गुणान्गृह्णीत ये युस्माकं हितजननाः ॥१११॥ बहुना किं वा क्रियतेऽहो भवितव्येन लोके ? । एकपदेऽपि बुध्यत रमध्वं सदा जिनवरमते ॥११२॥ १. पच्छा गोयमसामिणा उ कहियं सिस्साण-प्रत्य० । २. ०न्तो य न-मु० । ३. वच्चिइह-प्रत्य० । ४. एयं वइर०-प्रत्य० । ५. ०ए ताहे किंप्रत्य० । ६. ०म्मि गिण्हिया-प्रत्य० । ७. ०व्वयम्मि लो०-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१९ पउमणिव्वाणगमणपव्वं -११८/१०२-११९ जिण सासणाणुरत्ता, होऊणं कुणह उत्तमं धम्मं । जेण अविग्धं पावह, बलदेवाई गया जत्थ ॥११३॥ एयं राहवचरियं, सव्वा वि य समयदेवया निययं । कुव्वन्तु संसणिज्जं, जणं च नियभत्तिसंजुत्तं ॥११४॥ रक्खन्तु भवियलोयं, सूराईया गहा अपरिसेसा । सुसमाहियसोममणा, जिणवरधम्मुज्जयमईया ॥११५॥ ऊणं अइरित्तं वा, जं एत्थ कयं पमायदोसेणं । तं मे पडिपूरेउं, खमन्तु इह पण्डिया सव्वं ॥१६॥ राह नामायरिओ, ससमयपरसमयगहियसब्भावो । विजओ य तस्स सीसो, नाइलकुलवंसनन्दियरो ॥११७॥ सीसेण तस्स रइयं, राहवचरियं तु सूरिविमलेणं । सोऊणं पुव्वगए, नारायण -सीरिचरियाई ॥११८॥ जेहिं सुर्य ववगयमच्छरेहिं तब्भत्तिभावियमणेहिं । ताणं विहेउ बोहिं, विमलं चरियं सुपुरिसाणं ॥११९॥ ॥इइ पउमचरिए पउमनिव्वाणगमणं नाम अट्ठदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ ॥"इइ नाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण महप्पेण पुव्वहरेण विमलायरिएण विड्यं सम्मत्तं पउमचरियं ॥ जिनशासनानुरक्ता भूत्वा कुरुतोत्तमं धर्मम् । येनाविघ्नं प्राप्नुत बलदेवादयो गता यत्र ॥११३।। एतद्राघवचरितं सर्वा अपि च समयदेवता नित्यम् । कुर्वन्तु शंसनीयं जनं च निजभक्तिसंयुक्तम् ॥११४।। रक्षन्तु भविकलोकं सूर्यादयो ग्रहा अपरिशेषाः । सुसमाधितसौम्यमनसो जिनवरधर्मोद्यतमतयः ॥११५॥ ऊनमतिरिक्तं वा यदत्र कृतं प्रमाददोषेण । तन्मे प्रतिपूर्य क्षमन्तामिह पण्डिताः सर्वम् ।।११६॥ राहुर्नामाचार्यः स्वसमयपरसमयगृहीतस्वभावः । विजयश्च तस्य शिष्यो नागिलकुलवंशनन्दीकरः ॥११७॥ शिष्येण तस्य रचितं राघवचरितं तु सूरिविमलेन । श्रुत्वा पूर्वगतान्नारायण-सीरिचरितानि ॥११८॥ यैः श्रुतं व्यपगतमत्सरैस्तद्भक्तिभावितमनोभिः । तेषां विदधातु बोधि विमलं चरितं सुपुरुषाणाम् ॥११९॥ ॥इति पद्मचरिते पद्मनिर्वाणगमनं नामाष्टादशोत्तरशतं पर्वं समाप्तम् ॥ ॥इति नागिलवंशदिनकरराहुसूरिप्रशिष्येण महात्मना पूर्वधरेण विमलाचार्येण विरचितं समाप्तं पद्मचरितम् ॥ श्री वीरनिर्वाणात्सप्तत्रिशद्युते पञ्चविंशतिशते वर्षे (२५३७) मृगशीर्षबहुलसप्तम्यां रविवासरे श्रीसूर्यपुर (सुरत) नगरे गुरुगुणभृतां विशुद्धसंयमगुणशालीनां मुनिपार्श्वरत्नविजयेन २०६७ वर्षे कृताऽस्य प्राकृतनिबद्धस्य पद्मचरित्रस्य संस्कृतभाषायां छायेमा । प्रमाददोषेण यत्किञ्चिदपि विपरितं वा स्खलितं वा दृश्यते । तन्मे संशोध्य विद्वज्जनाः क्षमन्तु । शुभं भवतु श्री संघस्य। ॥समाप्तम् ॥ १-२. एकस्मिन् प्रत्यन्तरे नास्तीयं गाथा । ३. ०न्तु ससणिज्झं, ज०-प्रत्य० । ४. खमंत मह पं०-प्रत्य० । ५. बहुनामा आयरिओ-प्रत्य० । ६. विजयो तस्स उ सी०-प्रत्य० । ७. ०ण-राम च०-प्रत्य० । ८. वोहिं, स (? म) हिसिमलचरियाण जिणइंदे-प्रत्य० । ९. ०साणं ॥११९।। ।।८६८४||-प्रत्य०। १०. पव्वं सम्मत्तं ॥ ग्रन्थानम् १०५५० सर्वसंख्या-प्रत्य० । ११. नास्तीमा पुष्पिका एकस्मिन्-प्रत्यन्तरे । १२. चरियं ।। इति पउमचरियं सम्मत्तं । ग्रन्थाग्रम् सर्वसंख्या । अक्खर-मत्ता-विदू, जं च न लिहियं अयाणमाणेणं । तं [च] खमसु सव्व महं, तित्थयरविणिग्गया वाणी ! ।। शुभं भवतु ॥ श्री संघस्य श्रेयोऽस्तु । ग्रन्थाग्रम् १२००० । संवत् १६४८ वर्षे वइसाख वदि ३ बुधे ओझा रुई लिखितं । लेखक पाठकयोऽस्तु-एकस्मिन् प्रत्यन्तरे। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' આ.શ્રીૐકારસૂરિ જ્ઞાનમંદિર ગ્રંથાવલિનાં પ્રકાશનો જે કં = " $ $ લેખક અભયશેખરસૂરિ રમ્યરેણુ રમ્યરેણુ રમ્યરેણુ અભયશેખરસૂરિ અભયશેખરસૂરિ પં. મુક્તિદર્શનવિજયજી પં.શ્રી પદ્રસેનવિજય ગણિવર આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ મુ. રત્નવલ્લભ વિ. આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ વસંતલાલ કાન્તિલાલ ઈશ્વરલાલ $ ? ૧૧. ૧૫. ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર પડિક્કમણું ભાવશું શ્રી શાન્તિનાથ ચરિત મહાકાવ્યમ્ ભાગ-૧ શ્રી શાન્તિનાથ ચરિત મહાકાવ્યમ્ ભાગ-૨ ચતુર્થ કર્મગ્રંથ ષડશીતિ નવાંગી ગુરુપૂજન નવાંગી ગુરુપૂજન પ્રશ્નોત્તરી યોગ દૃષ્ટિનાં અજવાળાં ભાગ-૩ ધ્યાન અને જીવન ભાગ ૧-૨ આતમજ્ઞાની શ્રમણ કહાવે સો-હી ભાવ નિગ્રંથ મેરે અવગુણ ચિત્ત ન ધરો પ્રભાવક ચરિત્ર ૧૩. આપ હી આપ બુઝાય ૧૪. પ્રસંગ પ્રભા ન્યાય સંગ્રહ-સ્વોપજ્ઞ ન્યાયાર્થ મંજુષા બૃહદ્રવૃત્તિ સહિત પ્રભુનો પ્યારો સ્પર્શ ૧૭. ઋષભ જિનેસર પ્રીતમ માહરો રે ૧૮. મહાયોગી આનંદઘન ૧૯. આનંદઘન આકાશવ્યાપી જૈન કાષ્ઠપટ ચિત્ર-ગુજરાતી જૈન કાષ્ઠપટ ચિત્ર-અંગ્રેજી ૨૨. પંચમ કર્મગ્રંથ ૨૩. શ્રી ઉપમિતિ કથોદ્ધાર શ્રી દાનોપદેશમાલા ૨૫. પ્રસંગ કલ્પલતા ૨૬. આત્માનુભૂતિ પ્રમાણ નય તત્વાલક (વિવેચન સાથે) જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૧ ૨૯. જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૨ ૩૦. જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૩ ૩૧. સુર સુંદરી ચરિયું પ્રસંગવિલાસ ૩૩. હૂકાર સ્તોત્ર સ્વાધ્યાય ૩૪. પ્રસંગ સુવાસ ૩૫. યોગશાસ્ત્ર અષ્ટમ પ્રકાશનું સવિસ્તર વિવરણ ભાગ-૧ જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ (સચિત્ર) ૩૭. પાઈઅ (પ્રાકૃત) ભાષાઓ અને સાહિત્ય ૧૬. ૨૦. O 2 ૨૭. ૨૮. વાસુદેવ સ્માર્ત જગદીપ સ્માર્ત રમ્યરેણુ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ રમ્યરેણુ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ સા. મહાયશાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ સા. મહાયશાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ હર્ષશીલાશ્રીજી | ક્ષમાશીલાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ અમૃતલાલ કાલીદાસ દોશી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ સં.આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ ૩૨. જ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮, ૪૧.. ૪૨. ૪૫. ૪૯. ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ સંક્ષિપ્ત મુક્તાવલી પ્રવેશિકા પ્રભુના હસ્તાક્ષર ધ્યાન અને કાયોત્સર્ગ પ્રસંગ અંજન કથા રત્નસાગર ૪૩. પ્રવચન અંજન જો સદગુરુ કરે ધ્યાન અને કાયોત્સર્ગ (બીજી આવૃત્તિ) એકાંતનો વૈભવ ચોપન મહાપુરુષોના ચરિત્ર પરમ તારા માર્ગે ૪૮. સાધનાપથ રસો વૈ સહઃ ૫૦.. પ્રસંગ સિદ્ધિ (હિન્દી) ૫૧. વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૧) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૨) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૩) ૫૪. વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૪) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૫) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૬) ૫૭. પ્રસંગરંગ ૫૮. પ્રગટ્યો પૂરના રાગ વિવિધ ગચ્છો કા સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ ૬૦. વાત્સલ્યનો ઘૂઘવતો સાગર ૬૧.. ચતુર્વિશતિ ચૈત્યવંદન ૬૨.. વિજયચંદ્ર કેવલીચરિત્ર ૬૩. અપ્રગટ પ્રાચીન ગુર્જર સાહિત્ય પ્રસંગરંગ શ્વેતાંબર ગચ્છોના સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ ભાગ-૧ ૬૬. શ્વેતાંબર ગચ્છોના સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ ભાગ-૨ ૬૭. સમાધિ શતક ભાગ-૧ સમાધિ શતક ભાગ-૨ ૬૯. સમાધિ શતક ભાગ-૩ ૭૦. સમાધિ શતક ભાગ-૪ લેખક ૫. જગદીશભાઈ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આયશોવિજયસૂરિ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. યશોવિજયસૂરિ સા.શ્રી મહાયશાશ્રીજી ૫૨. ૫૩. ૫૫. ૫૬. પ૯, વિવિ* w ૬૫. સા. વિરાગરસાશ્રી / ડૉ. કવિન શાહ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ ૬૮, w ૭૨. ૭૩. ૭૪. ૭૫. વીર નિર્વાણોત્તર બૃહદ્ગચ્છ કા ઈતિહાસ બૃહદ્ગચ્છીય લેખ સમુચ્ચય પ્રસંગ સરિતા , ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं (पश्चिम) KIRIT GRAPHICS P09898490191