SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 जो के विद्वानोए आ कारणोने वजूद वगरना जणावी आना उत्तरो पण आप्या छे. १. 'यवन' शब्दनो उल्लेख महाभारत १२ - २०७ - ४३ मां अने पाणिनी अष्टाध्यायी अने अशोकना शिलालेखमां पण छे. 'सुरंग' शब्द अर्थशास्त्रमां पण प्रयुक्त छे. २. ग्रीक शब्दोनो परिचय ई. पूर्वे पांच-छ सदीमां पण होवाना पुरावा छे. वगेरे. समग्रतया जोईए तो ग्रंथकारो पोतानी गुरुपरंपरा रचना संवत विषे भाग्ये ज उल्लेख करता होय छे. क्यारेक रचना संवत आप्यो होय तो पण ए शक संवत के विक्रमसंवत गणवो एवा प्रश्नो थाय छे. ज्यारे अहीं तो प्रभुवीरना मोक्षगमनथी ५३० वर्ष गये छते रचना कर्यानुं लख्युं छे त्यारे एने अमान्य करवानुं कोई व्याजबी कारण जणातुं नथी. वर्तमानकाळमां संस्कृतनुं अध्ययन जेटलुं व्यापक बन्युं छे एटलुं प्राकृत भाषाओनुं बन्युं नथी. संस्कृत छाया संस्कृत अध्ययन माटे विपुल प्रमाणमां साधनग्रंथो रचाया छे. रचाय छे. कमनसीबे प्राकृत अध्ययन माटे प्रमाणमा ओछ्रं साहित्य मळे छे. अभ्यासीओए पण प्राकृत भाषाना अध्ययन माटे विशेष प्रयत्न करवो जरूरी छे एम लागे छे. ज्यारे आपणां बधा आगमग्रंथो अने अनेक प्रकरणादि ग्रंथो अर्धमागधी वगेरे प्राकृत भाषाओमां रचाया छे त्यारे साधु-साध्वीजीओए ए माटे विशेष लक्ष्य आपवुं जरूरी छे. आवा विशिष्ट अभ्यासीओनी अल्पताने कारणे घणां प्राकृत भाषाओना अमूल्य ग्रंथोनो अभ्यास घटतो रह्यो छे. आ संजोगोमां आवा प्राकृत ग्रंथोनी संस्कृत छाया बनाववानो प्रयोग शरू थयो.. ताजेतरमां आ. धनेश्वरसूरिकृत सुरसुंदरी चरियंनी संस्कृत छाया साध्वी श्री महायशाश्रीए अने संवेगरंगसाळानी मुनि मुक्ति श्रमणविजयजीए करी छे. भूतकाळमां पण सुपासनाहचरियं वगेरेनी संस्कृत छायाओ प्रगट थई छे. प्रस्तुत पउमचरियंनी पण संस्कृत छाया आ ग्रंथनो वधु अभ्यास थाय ए लक्ष्यथी करवामां आवी छे. अभ्यासीओ मूळ पउमचरियं ग्रंथने ज वांचवा प्रयत्न करे अने संस्कृत छायाने क्लिष्ट स्थळो समजवा माटे उपयोगमा ले तेवी अपेक्षा छे. मुनिश्री पार्श्वरत्नविजयजीए आ ग्रंथरत्ननी संस्कृतछाया घणा उत्साहथी बनावी ने अभ्यासीओ उपर उपकार कर्यो छे. आख्यानकमणिकोशनी प्राकृतकथाओनी संस्कृतछाया पण तेओ बनावी रह्या छे. प्राकृतसाहित्यने लोकभोग्य बनाववानो आ प्रयत्न सफळ रहे एज आशा आशीर्वाद. पू.आ.भ. श्री अरविन्दसूरीश्वरजी म. सा.ना आज्ञावर्तिनी स्व. सा. श्री सत्यरेखाश्रीजीना शिष्या विदुषी साध्वीश्री महायशाश्रीजीए ग्रंथना आदिथी अंत सुधीना प्रुफो जोया छे अने संस्कृत छायामां जरुरी परिमार्जन वगेरे कर्तुं छे. खूब खूब आशीर्वाद. Jain Education International पू. आ. विजयभद्रसुरीश्वरजीना शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री जिनचंद्रविजयजी म.सा.ना विनेय आ. विजयमुनिचंद्रसूरि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004027
Book TitlePaumchariyam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshvaratnavijay
PublisherOmkarsuri Aradhana Bhavan
Publication Year2012
Total Pages166
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy