Book Title: Paumchariyam Part 04
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 45
________________ ९६. रामसोयपव्वं अह तक्खणंमि सिबिया, समाणिया वरविमाणसमसोहा । लम्बूस-चन्द-चामर-दप्पण-चित्तंसुयसणाहा ॥१॥ मयहरयपरिमिया सा, आरूढा जणय नन्दिणी सिवियं । वच्चइ परचिन्तेन्ती, कम्म्स विचित्तया एसा ॥२॥ दिवसेसु तीसु रण्णं, वोलेऊणं च पाविया विसयं । बहुगाम-नगर-पट्टण-समाउलं जण-धणाइण्णं ॥३॥ पोक्खरिणि-वावि-दीहिय-आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । देसं पसंसमाणी, पोण्डरियपुरं गया सीया ॥४॥ उवसोहिए समत्थे, पोण्डिरियपुरे वियड्डजणपउरे। पइसइ जणयस्स सुया, नायरलोएण दीसन्ती ॥५॥ पडुपडह-भेरि-झल्लरि-आइङ्ग-मुइङ्ग-सङ्घसद्देणं । मङ्गलगीयरवेण य, न सुणइ लोगो समुल्लावं ॥६॥ एवं सा जणयसुया, परियणपरिवारिया महिड्डीए । सुरवासहरसरिच्छं, नरवइभवणं अह पविठ्ठा ॥७॥ परितुटुमणा सीया, तत्थऽच्छड़ वज्जजङ्घनरवइणा । पुइज्जन्ती अहियं, बहिणी भामण्डलेणेव ॥८॥ जय जीव नन्द सुइरं, ईसाणे ! देवए ! महापुज्जे । कल्लाणी ! सुहकम्मे !, भण्णइ सीया परियणेणं ॥९॥ धम्मकहासत्तमणा धम्मई धम्मधारणुज्जुत्ता । धम्मं अहिलसमाणी, गमेइ दियहे तहिं सीया ॥१०॥ अह सो कयन्तवयणो, अहियं खिन्नेसु वस्तुरंगेसु । सणियं अइक्कमन्तो पउमसयासं समणुपत्तो ॥११॥ || ९६. रामशोकपर्वम् अथ तत्क्षणे शिबिका समानीता वरविमानसमशोभा । लम्बुसक-चन्द्र-चामर-दर्पणचित्रांशुकसनाथा ॥१॥ महतरकपरिमिता साऽऽरुढा जनकनन्दिनी शिबिकाम् । व्रजति परिचिन्तयन्ती कर्मणो विचित्रतैषा ॥२॥ दिवसैस्त्रिभिररण्यं व्यतीत्य च प्राप्ता विषयम् । बहुग्राम-नगर-पत्तन-समाकूलं जनधनाकीर्णम् ॥३॥ पुष्करिणि-वापि दीर्घिकाऽऽरामोद्यानकाननसमृद्धम् । देशं प्रशंस्यमानी पुण्डरिकपुरं गता सीता ॥४॥ उपशोभिते समस्ते पुण्डरिकपुरे विदग्धजनप्रचूरे । प्रविशति जनकस्य सुता नागेरलोकेन दृश्यमानी ॥५॥ पटु-पटह-भेरि-झल्लरि-आइग-मृदङ्ग-शङ्खशब्देन । मङ्गलगीतरवेण च न श्रुणोति लोकः समुल्लापम् ॥६॥ एवं सा जनकसुता परिजनपरिवारिता महर्द्धया । सुरवासगृहसदृशं नरपतिभवनमथ प्रविष्टा ॥७॥ परितुष्टमना सीता तत्रास्ते वज्रजयनरपतिना। पूज्यमन्यधिकं भगिनी भामण्डलेनेव ॥८॥ जय जीव नन्द सुचिरमीशाने ! देवते ! महापूज्ये ! । कल्याणी ! शुभकर्मे ! भण्यते सीता परिजनेन ॥९॥ धर्मकथाऽऽसक्तमना धर्मरति धर्मधारणोद्यता । धर्ममभिलषमाणी गमयति दीवसांस्तत्र सीता ॥१०॥ अथ स कृतान्तवदनोऽधिकं खिन्नैर्वरतुरङ्गमैः । शनैरतिक्रामन् पद्मसकाशं समनुप्राप्तः ॥११॥ १. ०यणंदणी-प्रत्य० । २. पविसइ-प्रत्य० । ३. पुज्जिज्जन्ती-मु० । ४. सुचिरं सरस्सई ! दे०-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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