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अन्दर आते ही मारसिंगय्या ने कहा, "क्षमाप्रार्थी हूँ! सन्निधान का जब बुलावा आया था तब मैं अपने मुकाम पर नहीं था इसलिए देरी हुई। दण्डनायक जी के बुलाये पर उनके यहाँ चला गया था। कोई जरूरी काम रहा हो और मुझसे देरी हो गयी हो तो माफ़ करेंगी।" ।
'नहीं, नहीं-ऐसा कोई जरूरी काम नहीं था। आज शाम तक युवराज के राजधानी पहुंचने की खबर आयी है। उनके यहाँ आने तक आप यहीं रहें। इसलिए कहला भेजा था। इतना ही।"
"शायद इसीलिए प्रधानजी ने भी दण्डनायक जी को बुलावा भेजा था।"
"हो सकता है। फिर यह खबर भी है कि प्रभु की तबीयत ठीक नहीं, इसीलिए उनकी अगवानी के लिए विशेष समारम्भ न हो, यह आदेश दिया गया है। उनके आगमन के समय की भी सार्वजनिक सूचना न देने का निर्णय किया गया है। फिर भी राजमहल के अन्दर राजकुल की रीति के अनुसार जयमाला पहनाकर तो उनका स्वागत करना ही चाहिए। इस मौके पर अप राजधानी में रहकर भी अनुपस्थित रहें तो प्रभु को अच्छा नहीं लगेगा इसलिए प्रभु के पधारने तक आप यहाँ से कहीं न जाएँ ।'
"जैसी आपकी आज्ञा!" मारसिंगय्या ने युवरानी को विनम्र जवाब दिया।
"राजकुमारों का पठन-पाठ समाप्त होते ही कविजी को भी यहीं भिजवा दूंगी। नहीं तो अकेले-अकेले ऊब जाएँगे।" कहकर युवरानी चली गयीं। मासिंगय्या ने उन्हें जाते देखकर उठकर प्रणाम किया। उनके चले जाने के बाद ही वह बैठे। थोड़ी देर में तभी बोम्मला आयी और बोली, "आपको पाठशाला में ही आने के लिए बुलाया हैं, कविजी बहीं हैं।"
"अभी राजकुमारों का अध्यापन चल रहा है, बोम्मले ?" "नहीं, कविजी किसी ग्रन्थ का अक्लोकन कर रहे थे।" "ठीक," कहकर मारसिंगव्या पाठशाला जा पहुँचे।।
उन्हें आते देख कवि नागचन्द्र खड़े हो गये और प्रणाम करके बोले, "पचारिए, यूँ तो मुझको ही यहाँ आना चाहिए था। आपको ही यहाँ बुलवा लिया, क्षमा करें। वैठिए।"
"मुझे प्रतीक्षा करनी है। इसलिए चाहे यहाँ रहूँ या वहाँ, सब वरावर है। आप बैंटिए।' कहकर हेगड़े भी बैठ गये।
"कौन-सा ग्रन्थ है यह?" "शिवकोटि जी का 'वटाराधने' ।" "जैन-धर्म का ग्रन्थ है?" "काव्य-कृतियों में धर्म का संस्कार जुड़ा ही रहता है। जीवन के अनुभव के
पट्टमहादेवी शान्तसा : भाग दो :: 2।