Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
१५ हेतुका व्याख्यान करते हैं-हेतुको ही फल कहते हैं क्योंकि वह फलका कारण है इसलिये उपचारसे फल कहते हैं। वह फल दो प्रकार का है-एक प्रत्यक्ष फल, दूसरा परोक्ष फल । प्रत्यक्ष फल भी दो प्रकार का है- एक साक्षात्, दूसरा परम्परा । साक्षात् प्रत्यक्ष फल यह है कि इस शास्त्रसे अज्ञानका नाश होकर सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है तथा असंख्यात गुण श्रेणीरूप कर्मोंकी निर्जरा होती है इत्यादि । परम्परा-प्रत्यक्ष-फल यह है कि शिष्य प्रति शिष्य द्वारा पूजा व प्रशंसा होती है तथा शिष्यों की प्राप्ति होती है। भावार्थ-पढ़कर अनेक जन लाभ उठाते हैं। इस तरह संक्षेप से प्रत्यक्ष फल कहा । अब परोक्ष फल कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है-एक सांसारिक ऐश्वर्य सुखकी प्राप्ति, दूसरा मोक्ष-सुखका लाभ । अब ऐश्वर्य सुखको कहते हैं। राजाधिराज, महाराजा, अर्धमंडलीक, मंडलीक, महामंडलीक, अर्धचक्रवर्ती, चक्रवर्ती, इन्द्र, गणथर देव, तीर्थकर परमदेव इति १८ श्रेणी सेनाका पति मुकुटधर होता है । पाँच सौ मुकुटधर का अधिपति अधिराजा, इससे दूने दूने दलके स्वामी सकल चक्रवर्ती तक होना सो ऐश्वर्य सुख है। अब मोक्ष या परम कल्याणमय सुखको कहते हैं-वह अरहंत और सिद्ध पदका लाभ है। अर्हतका स्वरूप कहते हैं
जिन्होंने चार घातिया कर्मोका नाशकर चौतीस अतिशय, ८ प्रातिहार्य्य व पंच कल्याणक प्राप्त किये हैं वे अरहंत हैं सो मेरे लिये मंगलरूप हैं ।।२०।। सिद्धका स्वरूप कहते है
जो मूल व उत्तर कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय सत्तासे रहित हैं, आठ गुण सहित हैं व संसारसे पार हो गए हैं वे मंगलमयी सिद्ध भगवान हैं ।। २१।। इस तरह ऐश्वर्य व मोक्षसुखको संक्षेपमें कहा गया। तात्पर्य यह है कि जो कोई वीतराग सर्वज्ञको परम्परासे कहे हुए हुए इस पंचास्तिकाय प्राभृत आदि शास्त्रको पढ़ता है, श्रद्धामें लाता है तथा बारंबार विचारता है वह इस प्रकार सुखको पाता है। अब परिमाण कहते हैं, वह दो प्रकार का है- ग्रन्थ परिमाण और अर्थपरिमाण । ग्रन्थ परिमाण तो ग्रन्थकी गाथा या श्लोक संख्या यथासंभव जाननी । अर्थपरिमाण अनन्त है, इस तरह संक्षेपसे परिमाण कहा । अब नाम कहते हैं । नाम दो प्रकार का है-एक अन्वर्थ, दूसरा इच्छित । जैसा ग्रन्थका नाम हो वैसा ही अर्थ हो सो अन्वर्थ है जैसे जो तपे सो तपन या सूर्य है । इसी तरह पाँच अस्तिकाय जिस शास्त्र में कहे गए हों सो पंचास्तिकाय है, अथवा जिसमें द्रव्योंका संग्रह हो वह द्रव्यसंग्रह है इत्यादि । इच्छित नाम जैसे काष्ठका भार ढोनेवालेको ईश्वर कहना इत्यादि । अब ग्रन्थका कर्ता कहते हैं। कर्त्ता तीन प्रकारसे है- मूलतंत्रकर्ता, उत्तरतंत्रकर्ता तथा उत्तरोत्तर तंत्रकर्ता । इनमें मूल तंत्रकर्ता तो इस कालकी अपेक्षासे अंतिम तीर्थंकर अठारह
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