Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत भावार्थ--आदिमें मंगल करनेसे शिष्य विद्याके पारगामी होते हैं, मध्यमें मंगल करनेसे विद्या बिना विघ्नके आती है व अंतमें मंगल करनेसे विधाका फल प्राप्त होता है ।।६।।
आगे गौण मंगलको कहते हैं
भावार्थ-सिद्धार्थ, पूर्णकुम्भ, वंदनमाला, श्वेतछत्र, श्वेतवर्ण, आदर्श या दर्पण, नाथ (राजा), कन्या और जयपना ।।७।। जिन जिनवरोंने व्रतनियम संयमादि गुणोंके द्वारा परमार्थ साधन किया है और जिनकी सिद्ध संज्ञा है इसलिये वे सिद्धार्थ मंगल हैं।।८।। जो सर्व मनोरथोंसे और केवलज्ञानसे पूर्ण हैं ऐसे अरहंत इस लोकमें पूर्णकुम्भ मंगल हैं ।।९।। भरत चक्रीकृत वंदनमालामें किसी द्वारसे निकलते या प्रवेश होते जो चौबीस तीर्थकर वंदनीक हो जाते हैं इसलिये वंदन-मालाको मंगल कहा है ।।१०।। जगके प्राणियोंके लिये अरहंत भगवान सुगम्य कर्ता हैं इनके समान रक्षक हैं इसलिये श्वेतछत्रको कहा है ।।११।। जिन अरहंतोंके श्वेतवर्ण शुक्लध्यान है व शुक्ललेश्या है और जिनके चार अधातिया कर्म शेष हैं ऐसे अरहंतोंको श्वेत वर्ण मंगल कहा है ।।१२।। जैसे दर्पणमें प्रतिबिंब झलकता है वैसे जिन जिनेन्द्रों के केवलज्ञानमें लोक अलोक दिखता है इसलिये आदर्श मंगल है ।।१३।। जैसे वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र मंगलरूप हैं वैसे जगत् में राजा और बालकन्याको भी मंगल जानना चाहिये ।।१४।। जिन्होंने कर्म शत्रुओंको जीतकर मोक्ष प्राप्त कर लिया है- ऐसे चारों धातियारूपी शत्रुके दलको जीतनेसे जयरूप मंगल है ।।१५।।
अथवा मंगल दो प्रकार है-एक निबद्ध मंगल, दूसरा अनिबद्ध मंगल । जो मंगल उस ही ग्रन्थकारने किया हो वह निबद्ध मंगल है, जैसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि । जो दूसरे ग्रन्थसे लाकर नमस्कार किया गया हो वह अनिबद्ध मंगल है, जैसे "जगत्त्रयनाथाय'' इत्यादि ।
इस सम्बन्धमें कोई शिष्य यह पूर्वपक्ष उठाकर तर्क करता है कि-किसलिये शास्त्रके प्रारम्भमें शास्त्रकार मंगलके लिये परमेष्ठीके गुणों का स्तोत्र करते हैं । जो शास्त्रा शुरु किया हो उसे ही कहना चाहिये, मंगलकी जरूरत नहीं हैं। यह भी कहना नहीं चाहिये कि मंगलरूप नमस्कारसे पुण्य होता है तथा पुण्यसे कार्य विघ्नरहित होता है, क्योंकि ऐसा कहने से व्यभिचार आता है। कहीं पर तो नमस्कार, दान, पूजा आदि करते हुए विघ्न होता दिखाई देता है तथा कहींपर दान, पूजा, व नमस्कार न करते हुए भी निर्विघ्न काम दिखाई पड़ता है ? इसका समाधान आचार्य करते है कि-हे शिष्य ! तुम्हारा यह कहना योग्य नहीं है। पूर्वकालमें आचार्यों ने इष्टदेवताको नमस्कार पहले करके ही कार्य शुरु
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