Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 15
________________ पंचास्तिकाय प्राभृत जिसको क्रोधसमा विष को शांत किए हुए पशुगण भी अपने कानोंसे सुन सकते हैं ।।१।। इस तरह वचनके माहात्म्य द्वारा प्रगट जो अरहंतका वचन वही प्रमाण है। एकांत करके अपौरुषेय वचन जो किसी पुरुषका न कहा हुआ हो और न नाना कथाओंसे रचित पुराणवचन प्रमाणभूत है। भावार्थ-वचन वही प्रमाणभूत है जो अनेकांत या स्याद्वाद द्वारा वर्णन करे व जो किसी सर्वज्ञ पुरुषकी परम्परासे कहा हुआ हो । जिन अरहंतों के अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको जान लेने से अनंतकेवलज्ञान आदि गुण पाए जाते हैं, ऐसा कहनेसे यह बताया है कि वे अरहंत उन गणधर देवको आदि लेकर योगीश्वरों से भी नमस्कार योग्य है, जो बुद्धि आदि सात ऋद्धि व मतिज्ञान आदि चार ज्ञानके धारी हैं तथा जिन अरहंतोंने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंच परावर्तनरूप संसारको जीत लिया है। ऐसा कहनेसे यह बताया है कि उन्होंने यातिया कोंक नाशके माहात्म्यसे कृतकृत्यपना अपने में प्रगट कर लिया है। इसीसे जो कृतकृत्य नहीं हैं ऐसे जो अल्पज्ञानी संसारी जीव उनके लिये वे अरहंत ही शरणरूप हैं और कोई नहीं। इस तरह चार विशेषणों सहित श्री जिनेन्द्रों को नमस्कार किया है। इस तरह मंगलके लिये अनन्तज्ञान आदि गुणोंका स्मरणरूप भाव नमस्कार किया गया । जो अनेक भवरूपी वन और इन्द्रिय विषय व आपत्तिमें डालनेके कारण कर्मरूपी शत्रु हैं उनको जीतनेवाला है वह जिन है, उसीके ये चार विशेषण इसी न्यायसे किये गये हैं । जैसे यह कहना कि शंख श्वेत्त है । केवल शंख कहनेसे भी उसकी सफेदीका बोध होता जाता है वैसे केबल जिन शब्दको व्युत्पत्ति से ही उनके अनन्तगुणों का बोध होजाता है, तो भी विशेषता बतानेके लिये तथा नाम मात्र जिन कहलानेवालेको नमस्कार नहीं किया गया है ऐसा बतानेके लिए विशेषण दिये हैं। ऐसा भाव विशेषण व विशेष्यका जानना चाहिये। इस तरह शब्दार्थ कहा गया। अनन्तज्ञानादि गुणोंका स्मरणरूप भाव नमस्कार अशुद्ध निश्चय नयसे जानना "नमो जिनेभ्यः' ऐसा वचनरूप द्रव्य नमस्कार है सो असद्भूत व्यवहारनयसे जानना तथा शुद्ध निश्चय नयसे अपने आत्मामें ही आराध्य और आराधकभाव समझना कि यह आत्मा ही आराधनके योग्य व वही आराधनेवाला है ऐसा अभेदभाव रूप होना । इस तरह नयोंके द्वारा अर्थ कहा गया । ये ही अरहंत देव नमस्कारके योग्य हैं अन्य कोई रागी द्वेषी अल्पज्ञ नहीं, ऐसा कहनेसे जिनमतका अर्थ भी झलकाया गया। सौ इन्द्रोंसे वन्दनीक हैं ऐसा कहनेसे परंपरा आगमका अर्थ प्रसिद्ध किया गया तथा इस मंगलाचरणका भावार्थ यह है कि अनन्तज्ञानादिगुणोंसे युक्त शुद्ध जीवास्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है। इस तरह शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ जानना चाहिये । इसी तरह जहाँ कहीं

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