Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पूरणचन्द्रजी नाहरके संग्रहमें कृतियों को देखकर मैं कुमारसिंह हाल में जाकर उनका कलाभवन देखने लगा । जब नाहरजीको पता लगा तो वे स्वयं आकर मुझे सारे संग्रहको दिखाकर अपने मकानमें ले गये । फिर तो उनके साथ इतना घनिष्ट सम्बन्ध हो गया कि रविवारको ८-८ घंटे हम उनके यहाँ जमकर बैठे रहते । उनके संग्रहको देखकर हमारे मनमें होता कि कभी हम भी ऐसा संग्रह करने में सफल हो सकेंगे । सचमुच ही संग्रहकर्त्ता नाही अद्वितीय पुरुष थे और हमारे जीवनमें उनसे एतद्विषयक बड़ी भारी प्रेरणाएँ प्राप्त हुई ।
सिलहटमें हमारी दुकानमें एक श्री महिमचन्द्र पुरकायस्थनामक मुहर्रिर काम करते थे । वे हमारी शोध वृत्तिसे प्रभावित तो थे ही और हमारे अनुरोधपर उन्होंने बंगाललिपिके (संधिवृत्ति, चंडीमाहात्म्य, पद्मपुराण) कागज व ताड़पत्रके ग्रन्थ खरीदकर भेजे । कलकत्ते में हमारे यहाँ काम करनेवाले कार्तिक सरदार (उत्कलनिवासी) ने दो एक उत्कल लिपिके ताड़पत्रीय उत्कीर्णित ग्रन्थ पाकर हमारे संग्रह के लिए खरीद दिये । बीकानेरके गोपाल मथेरण आदि व्यक्तियोंसे सम्बन्ध था ही । इस तरह हमारे संग्रह में कुछ प्राचीन सामग्री संगृहीत हो गई ।
हमारे जन्म से २०-३० वर्ष पूर्व ही सैकड़ों मन अनमोल साहित्य भंडारके तीतर- कबूतर उड़ानेवाले कुशिष्य यतियों द्वारा व अज्ञानी रक्षकों द्वारा नष्ट हो चुका था तथा इस विषयके दलाल अपने डोरे डालकर हस्तलिखित ग्रन्थोंकी हजारों पेटियाँ विदेश पहुँचाने में भी सफल हो चुके थे ।
हस्तलिखित ग्रन्थों की खोजके सिलसिले में सर्वप्रथम बीकानेरके ज्ञानभंडारोंका अवलोकन प्रारम्भ किया गया। हम उनमेंसे आवश्यक सामग्री लाकर पढ़ते और नकल करते । सं० १९८६ में उपाश्रयों में घूमतेफिरते पुराने पोथी पन्ने देखते रहते थे ।
कई वर्ष पूर्व एक पुराने भंडार के ग्रन्थ, जो अव्यवस्थित हो चुके थे, निकालकर बाड़ेमें डाल दिये गये। उनमें से कुछ तिलोकमुनिने इकट्ठे करके रखे और कुछ मुकनजीयतिने बटोरकर रख लिये । एक बार मैं वहाँ गया और उन पन्नोंको देखने लगा तो मुझे उसमें बहुत-सी महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलनेका आभास हुआ । मैंने पन्नालालजी यतिसे पूछा कि यह खंतड़ क्यों संग्रह कर रखा है ? उन्होंने कहा ये रद्दी हैं, पखाल एक पानी लगेगा, यतिलोग कूढा बना लेंगे। मैंने कहा- कृपाकर जितना भी इस कूढसेका मुनासिब समझें मेरेसे पैसा लेकर इसके मालिकसे मुझे दिला दें । पन्नालालजीने मुकनजीके एक शिष्यसे, जिसके अधिकार में वह खंतड़ था, मुझे खूब सस्ते में दिला दिया । कुल १३) रुपये में कितने ही छबड़े भरे हुए ग्रन्थ हमारे हस्तगत हो गये । इस सौदे की एक शर्त के अनुसार यतियोंके सैकड़ों आदेश पत्र मुझे वापस लौटा देने पड़े थे जो कि इतिहास के लिए एक महत्त्वक वस्तु थी । फिर भी उसमें कई राजाओंके खास हुक्के, ज्ञानसारजीकी कृतियोंके विकीर्ण पत्र व खरड़े आदि महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हुईं। खंतड़को एक कमरेमें रखकर उसके वर्गीकरण में लम्बे समय तक कठिन परिश्रम करना पड़ा । आदिपत्र, मध्य पत्र, अन्त्यपत्र, भाष्य, पंचपाठ, त्रिपाठ आदि तथा विभिन्न दृष्टिकोण से छाँटकर थाग लगाये जाते और एक-एक पन्ना एकत्र करते कितने ही ग्रन्थ पूरे जाते और हमारे उत्साह में वृद्धि करते पर बीच-बीच में भोला पक्षी कबूतर आकर अपने पंखोंके फड़फड़ाहट से पन्नोंको उड़ाकर हमारा सारा काम गुड़गोबर कर देते । हमें उनपर बड़ा रोष आता पर निरुपाय थे । पसीने से शरीर तरबतर हो जाता और उसपर ग्रन्थोंकी गर्दी आकर शरीरको इतना गन्दा कर देती कि बिना नहाये, कपड़ा बदले कहीं भी बाहर जाना मुश्किल हो जाता । परन्तु इस सौदे में सैकड़ों ग्रन्थ हमारे संग्रहमें हो गए । एक बार बड़े उपाश्रयमें त्रिलोकयतिसे ज्ञात हुआ कि उसने २५) रु० में २५-३० ग्रन्थ (अव्यवस्थित खंतड़ ) खरीदके रखे हैं तथा बाड़ेमेंसे इकट्ठे किये हुए कुछ बंडल भी मैंने उन्हें समझा-बुझाकर प्रार्थना की कि वे अपने अधिकृत सारा खंतड़ मुझे बेच दें ।
बंडल हस्तलिखित अलग रखे हुए हैं । उन्होंने कहा कि मैं
जीवन परिचय : ३३
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