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महावीर की साधना का रहस्य होती। तृप्ति होती है तब कार्य पूरा हो जाता है । यह सब खण्ड-चेतना की लीला है।
. चेतना की अखण्डता के लिए हम क्या करें ? और कुछ न करें, केवल दिशा बदल दें। हमारी चेतना दूसरों तक पहुंचती है। मैं सामने बैठे आदमी को देख रहा हूं। उसके साथ मेरा संपर्क स्थापित हो गया। इसका माध्यम है-आंख । मैं एक आदमी को सुन रहा हूं। उसके साथ मेरा संपर्क स्थापित हो गया। इसका माध्यम है-कान । हमारी इन्द्रियां दूसरों के साथ संपर्क स्थापित करती हैं । संपर्क स्थापित होता है तब हमें द्वैत की अनुभूति होती है। जहां द्वैत की अनुभूति होती है, वहां राग भी होता है, द्वेप भी होता है, और भी बहुत कुछ होता है । सघन अंधकार है । कुछ भी दिखाई नहीं देता। एक आदमी बैठा है। थोड़ी दूर पर कोई दूसरा आदमी बैठा है। दोनों गुनगुना रहे हैं। दोनों एक-दूसरे की उपस्थिति से अभय हैं । गुनगुनाने का शब्द नहीं होता तो अकेला आदमी अंधेरे से डर जाता, चाहे पास में कोई दूसरा बैठा हो। दूसरे का पास में होना एक बात है और दूसरे के साथ संपर्क हो जाना दूसरी बात है। संपर्क के अभाव में हर व्यक्ति अकेला है। संपर्क के माध्यम से वह द्वैत में चला जाता है । व्यवहार के मंच पर द्वैत का अर्थ दो का होना नहीं किन्तु संपर्क का होना है। संपर्क का पहला सूत्र है-इन्द्रिय । धर्म के लोग कहते हैं, इन्द्रियां बहुत अनिष्ट हैं । वे हमारी चेतना को खण्ड-खण्ड कर बाहर ले जाती हैं, हमें भटकाती हैं और उलझाती हैं। अब क्या करें ? क्या
आंख को फोड़ डालें ? कान के परदे को फाड़ डालें? हिन्दुस्तान में धर्म की कछ ऐसी ही धाराएं रही हैं, जिन्होंने साधना के लिए आंख को फोड़ने की बात कही थी। किन्तु इसका बहुत गहरा अर्थ नहीं है। आंख को फोड़ना साधना नहीं है । साधना का अर्थ है-आंख की दिशा का परिवर्तन, आंख के माध्यम से बाहर जाने वाली चेतना के आकर्षण का परिवर्तन ।
आप सूर्य की ओर पीठ कर खड़े हैं । सूर्य आपको दिखायी नहीं देगा। थोड़े घूम जाएं, पश्चिम से पूर्व की ओर हो जाएं, सूर्य दीखने लग जाएगा। यह केवल दिशा का परिवर्तन है । दिशा विमुख थी, सूर्य नहीं दीख रहा था। दिशा बदली, सूर्य दीखने लग गया। साधना के लिए भी दिशा-परिवर्तन करना है । जो चेतना बाहर की ओर जा रही है, उसे समेटकर भीतर की ओर ले जाना है। चेतना की दिशा बदली, फिर रूप को छोड़ने की जरूरत नहीं, उससे घृणा करने की जरूरत नहीं । हर व्यक्ति के भीतर एक सुन्दरतम