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साधना का अर्थ
आ गया। कभी सुगन्ध खींचती है, कभी रस खींचता है और कभी स्पर्श। कभी प्रशंसा खींचती है तो कभी निन्दा । हजारों रस्सियों से बंधा हुआ मनुष्य कितना दयनीय है ! जिस रस्सी का खिंचाव हुआ, उधर ही वह लुढ़क जाता है । एक पुरानी कहानी है___एक श्रेष्ठी के दो पत्नियां थीं। दो पत्नियों का होना और लड़ाई होना दो बातें नहीं हैं । वह बारी-बारी से दोनों के पास जाता था । एक नीचे तल में रहती थीं और दूसरी ऊपर तल में । एक दिन भूल हो गयी और वह ऊपर जाने के लिए सीढ़ी पर चढ़ने लगा। बारी नीचे वाली की थी। उसने पैर पकड़ लिया। 'ऊपर कैसे जाते हो ? आज बारी नहीं है।' ऊपर वाली को पता चला । उसने हाथ पकड़ लिया । 'ऊपर चढ़ गए, अब नीचे कैसे जाओगे?' ऊपर से हाथ खींचा जा रहा है और नीचे से पैर खींचे जा रहे हैं । एक ऊपर की ओर खींचती है और एक नीचे की ओर । इस खींचतान में श्रेष्ठी का शरीर छिल गया । दोनों ओर की खींचातानी ने उसकी हालत बुरी बना दी।
उन लोगों की क्या हालत होती होगी जो चारों ओर से खींचे जाते हैं । इस स्थिति में चेतना की सघनता, अखण्डता, एकाग्रता या तन्मयता प्राप्त करने का मूल्य हम समझ सकते हैं ।
चित्त की अखण्डता आत्म-साधक के लिए ही आवश्यक नहीं है, उन सबके लिए आवश्यक है जो कला, शिल्प, गणित, अनुसंधान या किसी भी विषय में सफलता के शिखर पर पहुंचना चाहते हैं। विश्व के इतिहास में देखिए, वे ही व्यक्ति सफलता के शिखर पर पहुंचे हैं, जिन्होंने चित्त को एक बनाने का प्रयत्न किया है।
समग्रता से कार्य करने वाला अपने कार्य में सफल होता है। फिर चाहे वह लक्ष्यवेधी हो या आत्मवेधी। हम लोग क्रोध से इसीलिए मुक्ति नहीं पा रहे हैं कि हम समग्रता से क्रोध नहीं करते । समग्रता से क्रोध करने वाले क्रोध से मुक्ति पा जाते हैं। किन्तु जो क्रोध में पूरे तन्मय नहीं होते वे उससे मुक्ति नहीं पा सकते । खाते हैं तो भी समग्रता से नहीं खाते । किसी से लड़ते-झगड़ते हैं तो भी समग्रता से नहीं लड़ते-झगड़ते । बहुत बार ऐसा कहते हैं कि एक बार पूरा लड़ो ताकि बार-बार लड़ना न पड़े। किन्तु पूरा लड़ना जानते ही नहीं। सारे कार्य आधे-आधे करते हैं। इसलिए उस कार्य से हमें मुक्ति नहीं मिलती। आधे कार्य से तृप्ति नहीं होती। और तृप्ति हुए बिना मुक्ति नहीं