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साधना का अर्थ
कण बाहर को प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं और बाहर खड़े लोग भीतर की ज्योति को नहीं पहचान पा रहे हैं। ज्योति के होते हुए अंधकार है और उस अंधकार में वे सब लोग भटक रहे हैं जो 'होने' का रहस्य नहीं जानते, शैवाल को समाप्त करने का उपाय नहीं जानते ।
हमारी परिणति बहुत विचित्र है । हम आंतरिक वासना से भी बदलते हैं और बाहरी प्रभावों से भी बदलते हैं । भीतर के द्वार भी खुले हैं और बाहर के द्वार भी खुले हैं । द्वार खुले होते हैं तब कोई भी आ-जा सकता है । द्वार से आदमी भी आ सकता है और गधा भी आ सकता है। हवा भी आ सकती है और धूल भी आ सकती है। हम अपने जीवन में हजारों-हजारों व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं । हजारों घटनाओं, वस्तुओं और विचारधाराओं से प्रभावित होते हैं और इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी धारा में बह जाते हैं । प्रभावित होने का क्रम निरन्तर चलता है, कभी नहीं रुकता। हमारे जीवन का एक क्षण भी ऐसा घटित नहीं होता कि जिसमें हम प्रभावित नहीं होते । जिससे हम प्रभावित होते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। आदमी क्रोध करता है । हम समझते हैं कि आदमी क्रोध कर रहा है। यह स्थूल समझ है । सचाई नहीं है । सचाई यह है कि आदमी क्रोध नहीं करता । आदमी क्रोध होता है । आदमी अभिमान नहीं करता । आदमी अभिमान होता है । क्रोध करने वाला कोई दूसरा और क्रोध कोई दूसरा-ऐसा कभी घटित नहीं होता । आदमी और क्रोध अभिन्न हैं । आदमी स्वयं क्रोध है। और यदि आदमी क्रोध न हो तो क्रोध हो ही नहीं सकता। क्रोध की चेतना इतनी तन्मय होती है कि आदमी और क्रोध दो नहीं रहते। आदमी स्वयं क्रोध होता है, तभी उसमें क्रोध प्रकट होता है । हमारी जो भी परिणति होती है, वह चेतना की तन्मयता के साथ होती है । आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र की बहनों से कहा- "तुम्हारा भाई गुफा में ध्यान कर रहा है । वहां जाओ, तुम उसे देख आओ।" वे गयीं। उन्होंने देखा, गुफा में सिंह बैठा है। भाई कहां है ? बहुत घबरा गयीं। घबरायी हुयी आयी और बोलीं- "गुरुदेव, अनर्थ हो गया ।" "क्या हुआ ?" गुरुदेव ने पूछा । वे बोलीं- "हमारे भाई को सिंह खा गया।" गुरु ने कहा"यह कैसे हो सकता है ? मैं उसे देख रहा हूं कि वह गुफा में ध्यान कर रहा है।" उन्हें विश्वास नहीं हुआ। वे अभी-अभी गुफा में सिंह को देखकर लौटी हैं । सिंह और भाई, दोनों एक साथ नहीं हो सकते । आदमी और सिंहदोनों एक गुफा में कैसे रह सकते हैं ? आचार्य ने कहा- "फिर जाओ,