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साधना का अर्थ
शिष्य ने पूछा - "गुरुदेव ! आपको साधना करते बहुत लम्बा समय हो गया है । इतने लम्बे समय में आपने क्या पाया ? "
"कुछ भी नहीं" - गुरु ने उत्तर दिया, "बहुत कुछ खोया है, पाया कुछ भी नहीं ।"
बड़ा विचित्र उत्तर था । सब कुछ खोया ही खोया । यह साधना के प्रति निराशा उत्पन्न करने वाला उत्तर है, क्योंकि हर आदमी पाने की चेष्टा करता है। जहां खोने की बात होती है, वहां जाना ही नहीं चाहता । गुरु का उत्तर दुनिया की आकांक्षा से बिलकुल उल्टा था। उन्होंने कहा - " आज तक मैंने जो साधना की उसमें खोया ही खोया । अब तक खोता चला जा रहा हूं । खोना ही मेरी साधना है ।" यह समझ में आने वाली बात नहीं है । जो आदमी व्यवहार की बात सोचता है और व्यवहार की भाषा बोलता है, वह उसे समझ ही नहीं सकता । कोई समझ सके या न समझ सके किन्तु गुरु ने बहुत बड़े सत्य को छोटे से उत्तर में प्रकट कर दिया ।
हमें पाना कुछ भी नहीं है । हम जो पाना चाहते हैं, वह हमारे पास है । वह हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान् है । हमें बाहर से कुछ भी नहीं लेना है । जो बाहर से लेता है, वह खाली हो जाता है । आपने देखा होगा, रहद की डोलियां बाहर से पानी लेती हैं और थोड़ी देर बाद पानी को नीचे उड़ेल देती हैं । वे भरती हैं और खाली हो जाती हैं । फिर भरती हैं और फिर खाली होती हैं । जो लेता है, उसे छोड़ना ही पड़ता है । हम खाते हैं तो हमें उत्सर्ग करना ही पड़ता है । हमारी उपलब्धि इतनी क्षणिक हो कि हमने कुछ पाया और कल ही उसे खो देना है तो उस उपलब्धि का हमारे लिए क्या उपयोग है ? हम क्षणिक के लिए जीवन का समर्पण नहीं कर सकते । उसका समर्पण शाश्वत के लिए ही किया जा सकता है । शाश्वत को पाने का एक ही मार्ग है और वह है-खोना और खोना यानी निर्जरा करना ।
हम जानते हैं कि निर्जरा मोक्ष का मार्ग है, आत्मा को पाने का उपाय है । उसका अर्थ है—खोना, छोड़ना, त्यागना ।