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किया था, जिस नगरी को इस अवसर्पिणी के आद्य चक्रवर्ती भरत की राजधानी व ३२००० देशों की राजधानियों की भी राजधानी कहलाने का गौरव प्राप्त था जहाँ सत्यवादी हरिश्चन्द्र और मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे राजाओं ने राज किया था आज उस अयोध्या का अस्तित्व कहाँ हैं? इसी तरह हस्तिनापुर नगर जो चक्रवर्ती श्री शान्तिनाथ, श्री कुन्थुनाथ एवं श्री अरनाथ की राजधानी थी एवं उनके दीक्षित होने व तीर्थ स्थापना करने पर ६४ इन्द्र व असंख्य देव उन प्रभु की धुली को मस्तक में लगाने के लिए जहां आया करते थे। आज वह हस्तिनापुर नगर काल के किस गर्त में समा गया ऐसी ही अनंतानंत चीजें काल के गर्त में समा गई, समा रही और समायेंगी भी । इसीलिए तो कहा है संसरति इति संसार अर्थात जो संसरण करता रहता है, सरता रहता है, परिवर्तन आता रहता है उसे संसार कहते हैं।
परिवर्तन के इस अनंत प्रवाह में कुछ पुण्यशाली ऐसी आत्माएं भी आती है जो परिवर्तन में ही अपरिवर्तन (सिद्धपद) को पाने के लिए अग्रसर होती है। इन्ही भावों से प्रेरित होकर लगभग ६० वर्ष पूर्व महासती श्री कानकुवंरजी म.सा. ने एवं लगभग ४३ वर्ष पूर्व महासती चम्पाकुवंरजी म. सा. ने संयम जीवन को अपना कर महावीर की धर्म वाटिका में महकते हुए पुष्प की तरह महक उठी थी । स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म.सा. से ज्ञान ध्यान पाने वाली इन दोनों महान साधिकाओं ने राजस्थान मध्यप्रदेश मेवाड, महाराष्ट्र आन्ध्र कर्नाटक, तमिलनाडू आदि प्रान्तों में विचरण कर अपनी पतित पावनी वाणी से हजारों लाखो नर नारियों को धर्म के मार्ग में लगाया था। आप साध्वी द्वय की संयम साधना एवं पावनी वाणी का ही प्रभाव है कि महासती श्री बसंत कुवरजी म.सा. महासती श्री कंचन कुवरजी महासती श्री चेतनप्रभा जी, महासती श्री चन्द्रप्रभाजी महासती श्री सुमन प्रभाजी, महासती श्री अक्षय ज्योति जी ने अपने जीवन को आपके ही श्री चरणों में समर्पित कर जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की ।
इस तरह स्व- पर कल्याण साधिका साध्वी द्वय का जीवन जन-जन के लिए कल्याणकारक था। दोनों साध्वियों का ५ महीने के अन्तराल में ही स्वर्गारोहण होना यह श्रमण संघ के लिए अपूरणीय क्षति
है।
साध्वी जी म.सा. के पावन दर्शन का सौभाग्य मुझे जून १९९० में मद्रास में आराध्य गुरुदेव तपस्वी रत्न श्रमण संघीय सलाहकार श्री सुमति प्रकाश जी म एवं उपाध्याय प्रवर श्री विशाल मुनिजी म.सा. के साथ साहुकार पेठ जाने पर हुआ था । साध्वी जी के प्रथम दर्शन में ही उनकी संयम साधना की दृढ़ता एवं आकर्षक व्यक्तित्व ने मुझे आकर्षित किया था। मार्च १९९१ में जब साध्वी श्री चम्पाकुंवरजी म. के देहवसान की सूचना मिली तो मैं तो हतप्रभ ही रह गया था पर काल के इन क्रूर पंजों से बच भी कौन सका हैं।
चक्की है मौत की निहायत सङ्गी दो पाट है इस में जमी और आसमा ।
जो आया बीच में पीस डाला उसको
हर कोई सलामत निकला नहीं ॥
महासती जी की श्रद्धांजलि सभा में हमारा भी जाना हुआ और महासती कानकुंवरजी महाराज साहब से वार्ता भी हुई। तत्पश्चात् छह दिन साहुकार पेठ में ही रहे और साध्वी जी की ज्ञान, ध्यान एवं
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