Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन बांधने का प्रयत्न किया गया।२ ऐसे विचारकों के विषय में अग्रवाल और उनियाल का कहना है कि वे इसी प्रकार की गलती करते हैं जिस प्रकार कि कुछ विचारक दर्शन को सूक्ष्म तथा जटिल विषय कहकर वैचारिक क्षेत्र से भागते हैं, जो कि एक ओर आत्मपराजय तथा आत्मप्रवंचना का द्योतक है तो दूसरी ओर शिक्षा-दर्शन जैसे विषय को बोधगम्य तथा उपयोगी बनाने से रोकती है।४३ लेकिन समस्या उठ खड़ी होती है कि यदि दर्शन बोधगम्य नहीं है तो फिर शिक्षा के उद्देश्य और उसकी दिशाओं का निर्धारण कौन करेगा? इसका उत्तर एक है— दर्शन। समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं
की पूर्ति के लिए शिक्षा की क्या दिशा होनी चाहिए, इसका समाधान दार्शनिक करते हैं। शिक्षा-दर्शन का मुख्य विषय तो है- शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करना। शिक्षा-दर्शन के क्षेत्र में तो मुख्य रूप से विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप, उद्देश्य, पाठ्यचर्या, शिक्षण-विधियाँ, अनुशासन, शिक्षक और शिक्षार्थी का आपेक्षिक स्थान और विद्यालयों की आवश्यकता एवं उनके स्वरूप की चर्चा होनी चाहिए न कि आदर्शवाद, यथार्थवाद आदि की।
इस प्रकार शिक्षा-दर्शन के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत समस्त शैक्षणिक समस्याएँ और उनके दार्शनिक हल आ जाते हैं। इस प्रकार शिक्षा-दर्शन का क्षेत्र बहुत व्यापक है। दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा-दर्शन
शिक्षा-दर्शन हो या समाज-दर्शन, जब भी वह 'दर्शन' संज्ञा से सम्बोधित होता है तो निश्चित ही वह दर्शनशास्त्र की समग्रता में समाहित हो जाता है। शिक्षा-दर्शन दर्शनशास्त्र का एक अंग है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। दोनों के बीच अंग-अंगी या अंश-अंशी का सम्बन्ध है। चूँकि दर्शनशास्त्र अंशी है और शिक्षा-दर्शन उसका एक अंश है, इसलिए दोनों अभिन्न हैं। परन्तु अंश का एक अपना रूप होता है और एक अपना कार्य भी होता है जिसके कारण अंश का एक अलग नाम होता है, जो अंशी और उसके बीच भेद उत्पन्न करता है। शरीर का एक अंग हाथ होता है, परन्तु हाथ का नाम हाथ इसलिए होता है कि वह सम्पूर्ण शरीर से भेद रखता है। शरीर का काम हाथ नहीं करता और हाथ का काम शरीर नहीं करता। इसलिए दोनों में भेद होता है। इस दृष्टि से विचार करने पर दर्शनशास्त्र और शिक्षा-दर्शन में भेद है, भिन्नता है। इन दोनों के भेद और अभेद को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दोनों में भेदाभेद अथवा भिन्नाभिन्न सम्बन्ध है।
दर्शनशास्त्र मुख्यत: सैद्धान्तिक होता है जिसका व्यावहारिक रूप शिक्षा के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। कोई भी सिद्धान्त यदि प्रतिपादक के द्वारा अन्य लोगों को
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