Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य
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में ऐक्य नहीं है। कुछ विद्वान् ई०पू० १५५ वर्ष मानते हैं तो कुछ ई०पू० ९९ वर्ष । फिर भी विद्वानों का मानना है कि 'मिलिन्दप्रश्न' की रचना ईस्वी सन् के पहले ही हो गयी थी। १०५ 'मिलिन्दप्रश्न' छ अध्यायों में विभक्त है – (१) बाहिरकथा, (२) लक्खणपन्हे, (३) विमत्तिच्छेदनपन्हे, (४) मेण्डकपन्हे, (५) अनुमानपन्हे, (६) ओपम्मकथाहं । कुछ संस्करणों में धुतङ्ग को एक अलग प्रकरण के रूप में उद्धरित किया है।
प्रथम अध्याय में नागसेन एवं मिलिन्द के पूर्वजन्म की कथाओं का वर्णन है। तत्पश्चात् नागसेन की शिक्षा प्राप्ति का वर्णन है । कहा गया है कि नागसेन ने तीनों वेदों, इतिहासों और लोकायतशास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर स्थविर रोहण से बुद्धशासन सम्बन्धी शिक्षा प्राप्त की एवं बौद्धधर्म में प्रवेश किया। तत्पश्चात् उन्होंने वत्तनिय सेनासन के स्थविर अस्सगुप्त (अश्वगुप्त ) से शिक्षा प्राप्त कर पाटलिपुत्र में धर्मरक्षित से बौद्ध शिक्षा का अध्ययन किया।१०६ नागसेन की शिक्षा के विषय में लिखा गया है कि उन्होंने निघण्टु, तीनों वेद, इतिहास, व्याकरण, लोकायत आदि शास्त्रों का अध्ययन अपनी अल्पावस्था में ही कर लिया था। १०७ इसी प्रकार मिलिन्द की शिक्षा के सम्बन्ध में कहा गया है। कि वे श्रुति, स्मृति, सांख्य-योग, न्याय (नीति), वैशेषिक आदि उन्नीस विषयों के ज्ञाता थे । १०८ नागसेन एवं मिलिन्द की शिक्षाओं से तत्कालीन समाज में प्रचलित शिक्षा के विषयों का पता चलता है।
मेण्डकप्रश्न परिच्छेद में शिष्य के प्रति आचार्य के पच्चीस प्रकार के कर्तव्यों को बताया गया है । यथा- शिष्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए, कर्तव्य और अकर्तव्य का उपदेश देते रहना चाहिए, शिक्षार्थी ने क्या पाया, क्या नहीं पाया, इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए, शिक्षा बिना किसी अन्तराल से देना चाहिए, पुत्रवत् स्नेह करना चाहिए, आदि । १०९ शिष्य के लक्षण पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है, जो अरण्य, वृक्षमूल तथा शून्यागार में रहते हैं, अच्छी बातों में आगे रहते हैं, सदाचारी होते हैं, विवेकसम्पन्न होते हैं तथा शिक्षा पदों को पूरा करनेवाले होते हैं वे विनीत कहलाते हैं इत्यादि। ११०
ललितविस्तर
‘ललितविस्तर' बौद्ध-संस्कृति का उत्कृष्टतम महाकोष है जो मिश्रित संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसे 'वेपूल्यसूत्र' या 'महावेपूल्यसूत्र' भी कहा गया है। यह ग्रन्थ सत्ताईस अध्यायों में विभक्त है जिसमें बुद्ध के जन्म से प्रथम उपदेश तक का जीवन दर्शन निबद्ध है। इसमें तत्कालीन लोकजीवन से सम्बन्धित विभिन्न सन्दर्भों की झलकियाँ देखने को मिलती हैं। शान्तिभिक्षु शास्त्री ने इस ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद भी किया है।
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