Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२१० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आहार सम्बन्धी दण्ड जैनमत (१) नाव में या जल में बैठकर या खड़े होकर भोजन ग्रहण करने पर चातुर्मासिक
उद्घातिक प्रायश्चित्त दण्ड दिया जाता था।५६ (२) अन्य धर्मावलम्बियों से भोजन की याचना करने पर मासिक उद्धातिक अर्थात्
लघुमासिक प्रायश्चित दण्ड दिया जाता था।५७ (३) स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर खराब भोजन फेंक देने या स्वामी के घर का भोजन
ग्रहण करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता था।५८ (४) राजाओं के यहाँ से भोजन की याचना करने या उनके अन्तःपुर के नौकरों, दासों
से भोजन माँगने या राजाओं के घोड़े, हाथी आदि का भोजन माँगने पर गुरु
चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता था।५९ (५) आचार्य या उपाध्याय को दिये बिना भोजन ग्रहण करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त
का दण्ड दिया जाता था।६० (६) गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने पर लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता था।६१ बौद्धमत (१) लहसुन का सेवन करने पर पाचित्तिय प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जाता था।६२ (२) कच्चे अनाज को माँगकर या भूनकर खाने पर पाचित्तिय प्रायश्चित्त दण्ड दिया
जाता था।६३ यदि कोई गृहस्थ भिक्षु को आग्रहपूर्वक पूआ (पाहुर), मंथ (मट्ठा) यथेच्छ प्रदान करे तो इच्छा होने पर पात्र के मेखला तक ग्रहण करे। उससे अधिक ग्रहण करने
पर पाचित्तिय दण्ड देने का विधान था।६४ (४) निरोग भिक्षु को एक निवास स्थान में एक ही बार भोजन ग्रहण करने का विधान था। यदि इससे अधिक ग्रहण करता था तो पाचित्तिय दण्ड का भागी होता था।६५
स्वाध्याय सम्बन्धी दण्ड जैनमत (१) अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय और स्वाध्याय काल में अस्वाध्याय करने पर
चातुर्मासिक उद्घातिक प्रायश्चित्त दण्ड देने का विधान था।६६ अस्वाध्याय काल
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