Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपसंहार
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आज भी दिगम्बर-परम्परा के लोग उनसे आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा ग्रहण करने आश्रमों में जाते हैं जहाँ वे गुरुजन रहते हैं। किन्तु क्या यह सम्भव है कि उन्हें सामान्य तौर से शिक्षक के रूप में पूरे समाज के सामने लाया जाये और समाज के सभी वर्ग उन्हें शिक्षक के रूप में स्वीकार कर लें। पहले शिक्षा जंगलों में दी जाती थी। गुरु और शिष्य जंगलों में ही रहा करते थे तथा भिक्षाटन के आधार पर जीवनयापन करते थे, किन्तु आज के परिवेश में यह भी सम्भव नहीं है।
जैन एवं बौद्ध परम्पराएँ मूलत: निवृत्तिमार्गी हैं। इन दोनों ही परम्पराओं में मोक्ष को प्रथम वरीयता प्राप्त है। यद्यपि जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने सभ्यता के प्रारम्भ में असि, मषि और कृषि की शिक्षा दी थी। बौद्ध-परम्परा में भी वस्त्र आदि बनाने का उल्लेख मिलता है पर आध्यात्मिकता ही इन परम्पराओं में प्रमुखता रखती है। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता को श्रेष्ठता प्राप्त है, परन्तु आज के वैज्ञानिक युग में सिर्फ आध्यात्मिक शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है इसलिए जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शनों को वैज्ञानिक पद्धतियों को भी अपनाना होगा, तभी उनकी उपयोगिता आज के युग में प्रमाणित हो सकती है। यद्यपि जैन और बौद्ध दर्शनों की जो मौलिक अवधारणाएँ हैं उनकी आज भी समाज को आवश्यकता है। खून-खराबा से भरा हुआ आज का अशान्त समाज अहिंसा को अपनाकर ही शान्ति प्राप्त कर सकता है। भारतीय समाज की बढ़ती हुई आबादी को रोकने के लिए ब्रह्मचर्य से बढ़कर और कोई साधन नहीं। सामाजिक विषमता को अपरिग्रह से हटाया जा सकता है। अत: इससे हम इन्कार नहीं कर सकते कि यदि भारतीय समाज को अथवा सम्पूर्ण विश्व को शान्ति चाहिए, सद्भाव चाहिए, समानता चाहिए तो जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शनों को भी आत्मसात करना होगा।
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