Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अष्टम अध्याय
उपसंहार
मानव इतिहास में 'शिक्षा' मानव समाज के विकास-क्रम में सतत् आधार रही है। बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा ही लोगों में शक्ति प्रदान करती है, मानव को सामाजिक विकास के लिए प्रेरित करती है तथा उसे समाज में योगदान देने के योग्य बनाती है। परन्तु जीवन के कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो शाश्वत और चिरन्तन होते हैं जिनका समाधान मानव-मस्तिष्क देश और काल के अनुरूप प्रत्येक युग में देता आया है। ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका प्रारम्भ कहाँ से हुआ और अन्त कहाँ पर होगा- यह बताना मुश्किल है। शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए और उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कौन-सी पद्धति होनी चाहिए? इन सब सवालों को लेकर प्रबुद्ध वर्ग में अशान्ति छायी रहती है। जहाँ तक शिक्षा के उद्देश्यों की बात है तो प्राचीन काल से लेकर अब तक दार्शनिकों, विचारकों और शिक्षाविदों ने अपने-अपने अनुरूप उद्देश्यों को बताने का प्रयास किया है। किसी ने पूर्ण मानव जीवन का चारित्रिक विकास तो किसी ने विद्या की प्राप्ति को शिक्षा का उद्देश्य बताया है। किसी ने ज्ञान तथा आनन्द की प्राप्ति को तो किसी ने बौद्धिक विकास तथा सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों को ऊँचा करने को शिक्षा का उद्देश्य बताया है।
___ यदि हम शिक्षा का अर्थ मानव के चारित्रिक विकास या चारित्रिक निर्माण से लेते हैं तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या शिक्षा के उद्देश्य शाश्वत हैं अथवा परिवर्तनशील? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि शिक्षा का उद्देश्य तो एक होता है, परन्तु व्यवहार में उसका रूप व अर्थ देश तथा काल के अनुरूप भिन्न भी हो सकता है। यदि चरित्र-निर्माण को शिक्षा का सर्वसम्मत उद्देश्य स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी यह देश और काल के साथ-साथ भिन्न हो सकता है। अत: हमें शिक्षा-सम्बन्धी उस चिर सत्य एवं लक्ष्य को पहचानना होगा जिसकी नींव पर शिक्षा का भव्य प्रासाद खड़ा है, क्योंकि शिक्षा पर ही मानव जीवन की सफलता और असफलता निर्भर करती है। शिक्षा का सम्बन्ध मानव के सम्पूर्ण जीवन से है। शिक्षा ही वह उपयुक्त साधन है जिससे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जिस प्रकार बच्चे का क्रमिक विकास होता
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