Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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__ जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय हैं जिसे अष्टाङ्गिक मार्ग के नाम से अभिहित किया जाता है। इस मार्ग पर चलने से व्यक्ति अपने दुःखों का नाश कर पाता है और निर्वाण को प्राप्त करता है। अत: उसे समस्त मार्गों में श्रेष्ठ माना गया है।९८ भगवान् बुद्ध ने इसी मार्ग को ज्ञान की विशुद्धि के लिए तथा मार को मोहित करने के लिए ग्रहणीय बतलाया है।९९ अष्टाङ्गिक मार्ग का जो स्वरूप बतलाया गया है, वह इस प्रकार है
(१) सम्यक-दृष्टि- अविद्या के कारण संसार तथा आत्मा के सम्बन्ध में मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है, जैसे- आत्मा अमर है, संसार सत्य है आदि। इस प्रकार हम अनित्य, दुःखमय और अनात्म वस्तु को नित्य समझने लगते हैं। इस मिथ्या-दृष्टि को छोड़कर वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप पर ध्यान रखने को सम्यक्-दृष्टि कहते हैं। कायिक, वाचिक
और मानसिक कर्म के दो भेद हैं - कुशल तथा अकुशल। इन दोनों कर्मों को भली प्रकार से जानना 'सम्यक-दृष्टि' है। 'मज्झिमनिकाय'१०० में कर्मों का विवेचन इस प्रकार
कायिक कर्म . कुशल
अकुशल (१) अहिंसा
प्राणातिपात अर्थात् हिंसा करना। (२) अचौर्य
अदत्तादान अर्थात् चोरी करना। (३) अव्यभिचार मिथ्याचार अर्थात् व्यभिचार। वाचिक कर्म .
(१) अमृषा वचन मृषा वचन अर्थात् झूठ बोलना। (२) अपिशुनवचन पिशुन वचन अर्थात् चुगली खाना।
(३) अपरुष वचन परुष वचन अर्थात् कटुवचन बोलना। मानसिक कर्म - (१) अलोभ
अभिध्या अर्थात् लोभ करना। (२) अप्रतिहिंसा व्यापाद अर्थात् प्रतिहिंसा। (३) अमिथ्यादृष्टि - मिथ्यादृष्टि अर्थात् झूठी धारणा रखना। उपर्युक्त कर्मों का सम्यक्-ज्ञान होना आवश्यक है। (२) सम्यक्-संकल्प- सम्यक्-संकल्प का अर्थ होता है- सम्यक्-निश्चय।
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