Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१२४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन के ऊपर अवलम्बित रहता है वह अविसंवादी होता है।९१ 'प्रमाणवार्तिक' के वृत्तिकार मनोरथनन्दी के अनुसार उपदर्शित अर्थ के अनुरूप क्रिया की स्थिति होना अविसंवादकता है और यही प्रमाणयोग्यता है क्योंकि ज्ञान से अर्थ को जानकर भी पुरुष प्रवृत्त नहीं होता है एवं प्रवृत्त होता हुआ भी प्रतिबन्ध आदि के कारण अर्थक्रिया को प्राप्त नहीं करता है, तथापि उपदर्शित अर्थ का ज्ञान प्रमाणयोग्यता रूप अविसंवादकता के प्राप्त होने से प्रमाण होता है।९२
प्रमाण के दो भेद हैं- (१) स्वलक्षण अर्थात् प्रत्यक्ष, (२) सामान्य लक्षण अर्थात् अनुमान। प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों ही ज्ञान अविसंवादक होने से प्रमाण हैं। अर्थक्रियासामर्थ्य से युक्त स्वलक्षण को विषय करने के कारण प्रत्यक्ष स्वत: अविसंवादक है जबकि अनुमान की अविसंवादकता उसके द्वारा स्वलक्षण की प्राप्ति कराये जाने पर निर्भर करती है। यद्यपि धर्मकीर्ति ने अनुमान को भ्रान्तज्ञान माना है ९३ तथापि सामान्यलक्षणविषयक अनुमान से अर्थक्रियासमर्थस्वलक्षण की प्राप्ति होने से उसे अविसंवादक माना है। मणिप्रभा और दीपप्रभा का उदाहरण देते हुये उन्होंने कहा है कि कोई व्यक्ति मणिप्रभा और दीपप्रभा को 'यह मणि है' मानकर उसकी ओर दौड़ता है, किन्तु मणिप्रभा और दीपप्रभा दोनों ही मणि नहीं हैं, अत: उस व्यक्ति का ज्ञान भ्रान्त है। किन्तु भ्रान्त होने पर भी वह ज्ञान अविसंवादक है।९४
प्रत्यक्ष
वह ज्ञान जो कल्पना से रहित और निर्धान्त हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष के चार भेद हैं- (१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) मानस प्रत्यक्ष, (३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, (४) योगज प्रत्यक्षा
(१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष- इन्द्रिय द्वारा जो कल्पनारहित और अभ्रान्त ज्ञान प्राप्त होता है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। इसे परिभाषित करते हुये धर्मकीर्ति ने कहा है- सभी ओर से चिन्तन अथवा विकल्प को समेटकर शान्त चित्त से युक्त पुरुष चक्षु से रूप को देखता है तब इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।९५
(२) मानस प्रत्यक्ष- इन्द्रिय ज्ञान के विषय को समनन्तर प्रत्यय बनाकर जो मन में उत्पन्न होता है वही मानस प्रत्यक्ष है।९६ जिस कारण से पूर्व ज्ञान का उद्बोध होता है उस कारण को 'समनन्तर प्रत्यय' कहते हैं। इस ज्ञान के तीन स्तर होते हैं(क) यह ज्ञान इन्द्रिय ज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होता है, (ख) इन्द्रिय ज्ञान के विषय क्षण के अनन्तर उत्पन्न सजातीय द्वितीय क्षण इसका विषय बनता है और (ग) इन्द्रिय विज्ञान तथा द्वितीय-क्षण विषय के द्वारा एक मनोविज्ञान उत्पन्न होता है।
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