Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व (२) शास्त्र-स्वाध्याय, प्रतिलेखना, सामायिक आदि जिन कार्यों के करने का विधान
शास्त्र में किया गया है, उनके न किये जाने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए।
कर्तव्य कर्म को न करना भी एक पाप है। (३) शास्त्र प्रतिपादित आत्मा आदि अमूर्त तत्त्वों की सत्यता के विषय में सन्देह
लाने पर अर्थात अश्रद्धा उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह मानसिक
शुद्धि का प्रतिक्रमण है। (४) आगम विरुद्ध विचारों का प्रतिपादन करने पर अर्थात् हिंसा आदि के समर्थक
विचारों की प्ररूपणा करने पर भी अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह वचन शुद्धि का प्रतिक्रमण है।
कायोत्सर्ग- संयमित जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, विशुद्ध करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग तप का एक भाग है जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है।
प्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान तीन शब्दों से बना है- प्रति+आ+आख्यान। अविरति एवं असंयम के प्रति आ अर्थात् मर्यादा स्वरूप आकार के साथ आख्यान या प्रतिज्ञान करना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान करने से संयम होता है, संयम से आश्रव का निरोध अर्थात् संवर होता है। आश्रव निरोध से तृष्णा का नाश होता है।७१ अत: प्रत्याख्यान द्वारा ही आशा, तृष्णा, लोभ, लालच आदि विषय विकारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
___ उपर्युक्त छत्तीस गुणों के धारक ही सच्चे गुरु होते हैं। आगम में कहा गया है कि जो आचार्य अथवा गुरु इन छत्तीस गुणों का पालन नहीं करते, वे स्वयं तो धर्म से भ्रष्ट होते ही हैं, साथ ही औरों को भी धर्म से पथभ्रष्ट कर देते हैं। जो स्वयं भ्रष्टाचारी हैं, भ्रष्टाचारवालों की अपेक्षा करते हैं और उत्सूत्ररूप मार्ग का प्रस्थापन करते हैं, ये तीनों ही प्रकार के आचार्य सन्मार्ग का विनाश करते हैं। भगवान् महावीर गौतम से कहते हैं- हे गौतम! जो ऐसे उन्मार्ग-आश्रित आचार्यों की सेवा करते हैं, वे अपनेआपको संसार-समुद्र में गिराते हैं।७२ आचार्य की गणि-सम्पदायें
'स्थानांग'७३ में आचार्य को आठ प्रकार की सम्पदाओं से युक्त बताया गया है। (१) आचार-सम्पदा अर्थात् संयम की समृद्धि का होना। (२) श्रुत-संपदा अर्थात् श्रुतज्ञान की समृद्धि का होना।
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