Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व के समान होते हैं वे उत्तम कहलाते हैं। तोता और मिट्टी के समान विद्यार्थी मध्यम हैं तथा शेष अधम की कोटि में आते हैं।
बौद्ध परम्परा अध्ययन काल
बौद्ध शिक्षा-पद्धति में बालक का शिक्षारम्भ ८ वर्ष की आयु से होता था।६४ इसे विद्यारम्भ संस्कार के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। यह संस्कार उपनयन संस्कार के पश्चात् सम्पन्न होता था।६५ स्वकुल के अनुरूप विद्या ग्रहण कराने के लिए बालक को सहस्रों मंगल कर्मों के साथ लिपिशाला में ले जाया जाता था। शिक्षारम्भ के इस मौके पर विशेष रूप से बालकों को दान दिया जाता था जिसमें भोज्य और खाद्य पदार्थों के साथ हिरण्य-सुवर्ण का दान भी देने का विधान था। कुमार सिद्धार्थ को भी सर्वप्रथम लिपिशाला में ले जाया गया था। इसका विस्तृत वर्णन 'ललितविस्तर' में देखने को मिलता है६६ - जब कुमार बोधिसत्व बड़े हुए तब उन्हें सहस्रों मंगलाचारों के साथ लिपिशाला में ले जाया गया। आदर के साथ दस हजार बालकों द्वारा घिरे हुए थे। दस हजार रथ चबाने-खाने की वस्तुओं व हिरण्य तथा सुवर्ण से परिपूर्ण थे। उन वस्तुओं की कपिलवस्तु महानगर के मार्गों पर, चौराहों पर, तिराहों पर, गलियों में तथा नगर के मध्य में बने बाजारों के प्रवेश द्वारों पर बौछार की गयी। आठ हजार बाजों के साथ फूलों की महावृष्टि की गयी। नगर के चबूतरों, अटारियों, द्वार के बाह्य भागों, गवाक्षों अर्थात् हवादार जाली वाले झरोखों, महलों पर बने कूटगारों, घरों तथा प्रासादों के तलों पर शत सहस्र कन्याएँ विविध आभूषणों से सजी हई थीं जो बोधिसत्त्व को देखकर फूल फेंक रही थीं। आठ हजार देवकन्याएँ, अभी-अभी मानो गिर ही पड़ेंगे ऐसे अलंकारों एवं आभूषणों से सजी हुईं, हाथ में रत्नभद्र लिये, मार्ग का शोधन करती हुई, बोधिसत्व के आगे-आगे चल रही थीं। देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व, असुर, गरुड़, किन्नर तथा महोरग अर्थात् जो ऊपर के आधे शरीर से प्रकट हो, आकाश में पुष्पमालाएँ तथा पट्टमालाएँ लटका रहे थे। सब शाक्यगण राजा शुद्धोधन को आगे कर बोधिसत्व के आगे-आगे चल रहे थे। इस तरह साज-सज्जा के साथ बोधिसत्व को लिपिशाला में ले जाया गया।६७ लिपिशाला में प्रवेश के पश्चात् दारकाचार्य से संख्या, लिपि,६८ गणना, धातुतन्त्र, मातृकापद आदि का ज्ञान प्राप्त किया। बोधिसत्व के साथ दस हजार बालक भी लिपिशाला में लिपि का ज्ञान प्राप्त करते थे। इनमें कन्याएँ भी लिपि की शिक्षा प्राप्त करती थीं। उस समय विद्यारम्भ चन्दन की पट्टिका पर प्रारम्भ कराया जाता था।६९ जिसकी पुष्टि गान्धार कला से होती है जिसमें लिपिफलक का चित्रण देखने को मिलता है।७०
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