Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 220
________________ गुरु-शिष्य-सम्बन्ध एवं दण्ड-व्यवस्था २०७ (क) यदि कोई शिक्षार्थी दिन में दो बार जाता था तो उसके लिए लघु मासिक प्रायश्चित्त के दण्ड का विधान था। (ख) यदि कोई शिक्षार्थी तीन बार जाता था तो उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त लगता था। (ग) यदि कोई शिक्षार्थी चार बार जाता था तो उसे चातुर्मासिक लघु प्रायश्चित्त था। (घ) यदि कोई शिक्षार्थी पाँच बार जाता थातो उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त था। यदि कोई शिक्षार्थी छः बार जाता था तो उसे षट्मासिक लघु प्रायश्चित्त था। (च) यदि कोई शिक्षार्थी सात बार जाता था तो उसे षट्मासिक गुरु प्रायश्चित्त था। (छ) यदि कोई शिक्षार्थी आठ बार जाता था तो उसे छेद प्रायश्चित्त था। (ज) यदि कोई शिक्षार्थी नौ बार जाता था तो उसे मूल प्रायश्चित्त था। (झ) यदि कोई शिक्षार्थी दस बार जाता था तो उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त था। (ब) यदि कोई शिक्षार्थी ग्यारह बार जाता था तो उसके लिए पारांजिक प्रायश्चित्त का विधान था। वर्तमान में भी ये दण्ड-व्यवस्थायें जिनशासन में विद्यमान हैं। बौद्ध दण्ड-प्रक्रिया बौद्ध शिक्षण-प्रणाली में नियमों के पालन में शिथिलता या अवहेलना करने पर शिक्षार्थियों को दण्ड देने का विधान था। बौद्ध शिक्षण-प्रणाली में दो प्रकार के दण्ड निर्धारित किये गये थे- (१) कठोर दण्ड, (२) नरम दण्ड। कठोर दण्ड पारांजिक और संधादिसेस नामक दण्ड कठोर दण्ड के अन्तर्गत आते हैं। इसके दुट्ठलापति, गरुकापति, ३९ अदेसनागामिनी आपत्ति,४० थुल्लवज्जा आपत्ति,४१ अनवसेसापत्ति २ आदि नाम भी मिलते हैं। नरम दण्ड पारांजिक एवं संघादिसेस को छोड़कर बाकी सभी दण्ड नरम दण्ड के अन्तर्गत आते हैं। इसके अदुट्ठएलापति, लहुकापति, अथुल्लवज्जा आपत्ति,७२ सावसेसापत्ति, देसनागामिनी आपत्ति आदि नाम भी हैं। यद्यपि तथागत ने छोटी-छोटी गलतियों को क्षमा कर देने की सलाह दी थी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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