Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 216
________________ गुरु-शिष्य-सम्बन्ध एवं दण्ड-व्यवस्था २०३ विप्र (गुरु) शिष्यों से घिरे रहते थे। गुरु की भक्ति और उनकी सेवा समाज में प्रचलित थी।° शिष्य अपने गुरु का आदर करने के साथ ही सेवक की तरह श्रद्धापूर्वक उनका सभी कार्य करते थे।११ दोनों के बीच पिता-पुत्र का सम्बन्ध था, जैसे कोई पुत्र पिता की अर्थी को कन्धा देता है या दास अपने स्वामी की सेवा करता है उसी प्रकार बौद्ध विहारों में छात्र अपने आचार्य की सेवा करते थे।१२ राजा, माता-पिता तथा देवता की भाँति गुरु का सम्मान करना छात्रों का कर्तव्य था।१३ प्रात: समय से उठकर आचार्य का अभिवादन करना, सर्वदा उनसे नीचे आसन पर बैठना, भड़कीले वस्त्र न पहनना आदि उनकी शालीनता थी।१४ अग्निशाला तथा सोने-बैठने के स्थान को ठीक रखना, हाथ-पैर दबाना, पीठ मलना तथा शौच स्थान को स्वच्छ रखना आदि उनके दैनिक कार्य थे।१५ शिष्य अपने आचार्य के पाँव धाते, उनका छाता, जूता और थैली आदि अपने हाथ में लेकर चलते थे।१७ शिष्य गुरु के परिवार के एक सदस्य के रूप में रहते थे।१८ गुरु के लिए वनों से लकड़ियाँ लाना, गुरु के माता-पिता के भोजन करने के समय पानी का बर्तन ले जाना, थूकने का बर्तन तथा दूसरे पात्र ले जाना तथा पंखा एवं पानी लेकर खड़ा रहना शिष्य अपना कर्तव्य समझते थे। शौच जाते समय परदे की जगह तक पानी का बर्तन लेकर जाते थे। इस प्रकार ये सभी कार्य गुरु के प्रति उनकी (शिष्यों की) कर्तव्यनिष्ठता थी।११ गुरु की माँ को नहलाना, खिलाना, हाथ, पैर, सिर और पीठ आदि दबाना रोज का नियम था।२० अध्यापक भी अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। वे अध्यापन के लिए उन्हीं विद्यार्थियों को चुनते थे जो सच्चे, उत्साही और सदाचारी होते थे। छात्र या तो गुरु के घर में रहते थे या उनकी देखरेख में।२१ विहार में छात्रों को बहत ही सादा जीवन व्यतीत करना पड़ता था, चाहे वे सम्पन्न परिवार के हों या गरीब परिवार के। 'जातकों' में वर्णन आया है कि सम्पन्न राजकुमार भी आचार्य के निकट सादा जीवन व्यतीत करते थे। आचार्यकुल में उन्हें भी सबके समान सादा भोजन दिया जाता था।२२ अगर कोई दम्पत्ति उन्हें भोजन पर आमन्त्रित करता था तभी उन्हें दही, दूध आदि से परिपूर्ण स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होता था।२३ । अध्यापक शिष्य की मदद भी करते थे। वे गरीब विद्यार्थियों से शुल्क नहीं लेते थे। भोजन-वस्त्र आदि जुटाने में भी उनकी मदद करते थे। शिष्य के बीमार होने पर उसकी परिचर्या भी करते थे। इत्सिंग ने लिखा है - छात्र की रुग्णावस्था में अध्यापक पिता की भाँति उसकी चिकित्सा और शुश्रूषा का भार भी वहन करते थे।२४ गुरु शिष्य के यहाँ भी जाते थे और उनके निवास की पूरी व्यवस्था करते थे। गुरु शिष्यों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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