Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
१८९
(७) संयमी होना। (८) क्षान्ति (क्षमा) से युक्त होना। (९) सूरत अर्थात् सहृदय तथा कृपालु होना। (१०) श्रेष्ठ आचार-विचार का होना। (११) ऊँची और पवित्र इच्छाओं वाला होना। (१२) विवेकशील होना। (१३) पाप कार्यों से लज्जा एवं भय होना। (१४) वीर्यवान होना। (१५) अप्रमादी अर्थात् लापरवाह न होना। (१६)शिक्षापदों की आवृत्ति में सदैव उत्साहशील रहना। (१७) धर्म की आवृत्ति में सदैव उत्साहशील रहना। (१८) शीलों के पालन में तत्पर रहना। (१९) तृष्णा पर विजय पाने वाला होना। (२०) शिक्षा पदों को पूरा करने वाला, इत्यादि। विनय एवं अविनय के फल
विनय को शिक्षार्थी का आवश्यक गुण माना गया है। बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों तथा उपासक-उपासिकाओं के आचार का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि साधक शील, समाधि और प्रज्ञा के क्षेत्र में जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे विनम्रता भी उतनी ही गम्भीर होती जाती थी। इसी प्रकार अविनय का फल बताते हुए ‘उपाहन जातक' में कहा गया है कि जिस प्रकार सुख के लिए खरीदा गया जूता पैरों को काट खाता है, उसी प्रकार अविनीत शिष्य के लिए सुख लाभ के लिए सीखी गयी विद्या विनाश का कारण बनती है।१०६ शिक्षार्थी के कर्तव्य
आचार्य (गुरु) के प्रति शिष्य के शारीरिक और नैतिक दोनों ही कर्तव्य बनते हैं और इन कर्तव्यों का उल्लेख 'विनयपिटक' में विस्तृत रूप में मिलता है जो निम्नलिखित है१०७ (१) सर्वप्रथम समय से उठकर, जूता छोड़कर उत्तरासंग को एक कंधे पर रख गुरु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org