Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१५० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
भाव, स्वात्मा, परात्मा का तथा उपकार, अपकार का विचार कर वाद करना
चाहिए। संग्रह-परिज्ञा
संग्रह-परिज्ञा का अर्थ होता है संघ की व्यवस्था में निपुणता को प्राप्त होना। संग्रह परिज्ञा के भी चार भेद किये गये हैं
(१) बालादियोग्यक्षेत्र- बालादियोग्यक्षेत्र को बहुजनयोग्य क्षेत्र भी कहते हैं। बहुजनयोग्य क्षेत्र के दो अर्थ होते हैं --- (१) वर्षा ऋतु में सम्पूर्ण संघ के योग्य विस्तृत क्षेत्र का निर्वाचन करनेवाला तथा (२) जो क्षेत्र बालक, दुर्बल, ग्लान आदि के लिए उपयुक्त हो।
(२) पीठ-फलग सम्प्राप्ति- पीठ-फलग, चौकी आदि की व्यवस्था करना। (३) कालसमानयन- यथासमय स्वाध्याय, भिक्षा आदि की व्यवस्था करना।
(४) गुरुपूजा- यथोचित विनय की व्यवस्था बनाये रखना। उत्तराधिकारी आचार्य
आचार्य संघ के प्रमुख होते हैं। जब उन्हें अपने आयुष्य पर भरोसा नहीं रहता और संघ के विकास एवं नेतृत्व के लिए एक सुयोग्यतम उत्तराधिकारी की आवश्यकता होती है, तब आचार्य अपनी आयुष्य समाप्त होने से पूर्व योग्य शिष्य को अपना उत्तरदायित्व सौंपना चाहते हैं ताकि वे निश्चल भाव से आत्म-साधना में संलग्न हो सकें। 'व्यवहारसूत्र' में कहा गया है कि आचार्य जब रोग आदि की गिल्यता को प्राप्त हो जाते थे तो अपने शिष्यों को बुलाकर कहते थे कि मेरे आयुष्यपूर्ण होने के बाद इन योग्यताओं वाले अमुक श्रमण को इस पद पर प्रतिष्ठित करना। यदि वह इस पद के योग्य परीक्षा में असफल रहे तो दूसरे को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना।७५ किन्तु आचार्य द्वारा बताये गये उस साधु को उस समय पदवी के योग्य होने की अवस्था में ही पदवी प्रदान करनी चाहिए, अयोग्यता की अवस्था में नहीं। कदाचित् उसे पदवी प्रदान कर दी गयी हो; किन्तु उसमें आवश्यक योग्यता न हो तो अन्य साधुओं को उससे कहना चाहिए कि तुम इस पदवी के योग्य नहीं हो, अत: इसे छोड़ दो। ऐसी अवस्था में यदि वह पदवीं छोड़ देता है तो उसे किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है।०६ उत्तराधिकारी आचार्य की यह चयन-प्रक्रिया एक ओर जहाँ व्यक्ति की योग्यता के महत्त्व को दर्शाती है वहीं दूसरी ओर भारतवर्ष के प्रजातांत्रिक स्वरूप को प्रदर्शित करती है।
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