Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१५६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन होते थे जो नये भिक्षुओं (शिक्षार्थियों) को शास्त्र एवं सिद्धान्त की शिक्षा दिया करते थे जबकि आचार्य की यह जबाबदेही होती थी कि वे उनके (नये भिक्षुओं के) आचरण की देख-रेख करें। इसीलिए उन्हें कर्माचार्य की संज्ञा से भी सम्बोधित किया जाता था।
पालि बौद्ध ग्रन्थों में आध्यात्मिक गुरु के लिए 'उपज्झाय' शब्द प्रयोग किया गया है, जो संस्कृत शब्द 'उपाध्याय' का रूपान्तरण है। 'उपज्झाय' शब्द का अर्थ बताते हुए डॉ० मदनमोहन सिंह ने कहा है - 'जो निकट चला गया हो।' इसी तरह आचार्य के लिए 'आचरिय' शब्द का प्रयोग किया गया है। डॉ. सिंह के अनुसार शिक्षा द्वारा जीविकोपार्जन करनेवाले को आचरिय की संज्ञा दी गयी है।९५
बुद्धघोष की टीका के अनुसार उपाध्याय' वे भिक्षु हो सकते हैं जो दस वर्ष या इससे अधिक काल से भिक्षु रहे हों और 'आचार्य' वे हो सकते हैं जो छः वर्ष से अधिक भिक्षु रहे हों।९६ किन्तु मात्र उम्र की वरीयता पर्याप्त नहीं होती थी यदि वे विद्वान्
और निपुण न हों। गुरु की परिभाषा
'बोधिपथ-प्रदीप' में गुरु को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जो संवर देने में समर्थ तथा कृपालु हो, वह सद्गुरु है।९७ 'खुद्दकनिकाय' के अनुसार- शिक्षक उस नाविक के समान है जो स्वयं नदी पार करने के साथ ही दूसरों को भी पार कराता है।९८ ‘महावग्ग' में कहा गया है - 'तथागत केवल आख्याता अथवा शिक्षक हैं, उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर तुम्हें स्वयं ही चलना है।'९९ इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षक एक मार्गदर्शक है, किन्तु उसे सबसे पहले उस विषय का अध्ययन, चिन्तन एवं मनन करना आवश्यक है जिसे वह दूसरे को देना चाहता है क्योंकि दूसरों को सद्मार्ग पर प्रेरित करने से पूर्व स्वयं को प्रेरित करना आवश्यक है। गुरु के लक्षण
गुरु बहुश्रुत, संयमी, सांसारिकता से परे तथा उत्साही होते हैं। बौद्ध-ग्रन्थों में गुरु के लिए विप्र,१०° शास्त्रकर्ता१०१ आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। इनके अतिरिक्त सुतंत्तक, विनयधर, मातिकाधर आदि शब्द भी देखने को मिलते हैं।१०२ धम्म के विद्वानों को सुत्तंतक, विनय के विद्वानों को विनयधर तथा मन्त्रादि अर्थात् मात्रिकाएं जाननेवाले विद्वानों को मातिकाधर कहा गया है। १०३ ये तीनों शब्द भी उपाध्याय के ही पर्यायवाची जान पड़ते हैं। ‘विनयपिटक'१०४ में योग्य विनयधर के लक्षण को बताते हुए कहा गया है
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