Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (३) शरीर-संपदा अर्थात प्रभावक शरीर-सौन्दर्य होना। (४) वचन-सम्पदा अर्थात् वचन की कुशलता का होना। (५) वाचन-सम्पदा अर्थात् अध्ययन-अध्यापन में निपुण होना। (६) मति-सम्पदा अर्थात् बुद्धि की कुशलता से सम्पन्न होना। (७) प्रयोग-सम्पदा अर्थात प्रवीणता(वाद) सम्पन्न होना। (८) संग्रह-परिज्ञा अर्थात् संघ की व्यवस्था तथा उसकी देखभाल में निपुण होना।
'दशाश्रुतस्कंध' में इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद किये गये हैं७४आचार-सम्पदा (१) संयम ध्रुवयोगयुक्तता-संयम में ध्रुव, निश्चल योगवाले तथा प्रमार्जना,प्रतिलेखनादि
क्रिया में सदैव संलग्न रहनेवाला। (२) असंग्रही आत्मा- आत्मा में कषायादि का संग्रह न करना तथा जाति, श्रुत आदि
मदों का त्याग करना। (३) अनियत वृत्ति- आहार-विहारादि कार्य में प्रतिबद्धता रहित होना । (४) वृद्धशीलता- क्षमाशीलता, गंभीरता आदि गुणों से यक्त होना। श्रुत-सम्पदा (१) बहुश्रुतता -- अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होना। (२) विचित्रसूत्रता - स्वसमय-परसमय का ज्ञाता तथा एक अर्थ को विचित्र/कई
प्रकार से समझाने की क्षमता का होना। (३) परिचितसूत्रता – सूत्रार्थ से भलीभाँति परिचित होना। (४) घोष विशुद्धिकर्ता - शुद्ध उच्चारण करने में समर्थ होना। शरीर-सम्पदा (१) आरोहपरिणाहसंपन्नता- शरीर की ऊँचाई और विशालता से सम्पन्न होना। (२) अनुतप्त शरीर- अंगोपांग की हीनता, अपलक्षणादि दोषों से रहित होना। (३) स्थिरसंहननता- बलिष्ठ पुष्ट परीषह से चालित होना। (४) परिपूर्ण इन्द्रियता- श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों का धारक होना
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