Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति
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(३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष- समस्त चित्त तथा चैत्त पदार्थों का आत्मसंवेदन या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। ९७ यहाँ चित्त का अभिप्राय ज्ञान से है जो अर्थमात्र का ग्राहक होता है तथा चित्त में प्रकट होनेवाली सुख-दुःख आदि रूप विभिन्न अवस्थाएँ चैत्त हैं । चित्त और चैत्तों का ज्ञान होना स्वसंवेदन है।
(४) योगज प्रत्यक्ष- यथार्थ या भूतार्थ का पुनः पुनः चिन्तन करने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे योगज प्रत्यक्ष कहते हैं । ९८ दूसरे शब्दों में जब यथार्थ तत्त्वों के चिन्तन का प्रकर्ष हो जाता है तब योगज प्रत्यक्ष ज्ञान प्रकट होता है । ९९
अनुमान
किसी सम्बन्धी धर्म से धर्मी के विषय में जो परोक्ष ज्ञान होता है, वह अनुमान है। १०० अनुमान के दो भेद हैं- ( १ ) स्वार्थानुमान, (२) परार्थानुमान। स्वार्थानुमान का प्रयोग किसी निर्णय पर पहुँचने के लिये किया जाता है और परार्थानुमान का प्रयोग किसी दूसरे समझाने के लिये किया जाता है।
(१) स्वार्थानुमान - जिस अनुमान द्वारा प्रमाता स्वयं अनुमेय अर्थ का ज्ञान करता है वह स्वार्थानुमान कहलाता है। १०१
(२) परार्थानुमान - स्वार्थानुमान के द्वारा निश्चित अर्थ का जब हेतु एवं दृष्टांत के द्वारा अन्य की प्रतिपत्ति के लिये कथन किया जाता है तो वह परार्थानुमान कहलाता है । १०
१०२
इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों ही मूल रूप से दो ही प्रमाण को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष तथा बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष एवं अनुमान, किन्तु जैन दर्शन में परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम- इन पाँच प्रमाणों को समाहित किया गया है, इस दृष्टि से जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या छह हो जाती है। बौद्ध दर्शन स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को प्रमाण के अन्तर्गत नहीं मानता है । यद्यपि आगम या शब्द १०३ प्रमाण को अनुमान के अन्तर्गत
स्वीकार करता है।
स्वाध्याय-विधि
बौद्ध शिक्षण प्रणाली में स्वाध्याय पर विशेष बल दिया गया है। स्वाध्याय का अर्थ होता है - आत्मा के लिए हितकर शास्त्रों का अध्ययन करना । स्वाध्याय से चित्त शान्त रहता है, मन को सन्तोष प्राप्त होता है तथा बाह्य जगत में आदर और प्रतिष्ठा मिलती है। 'संयुक्तनिकाय' में वर्णित है
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