Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१३८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन वचन को आदेय कहते हैं), गम्भीर प्रवादियों द्वारा कभी भी परिभव-तिरस्कार आदि प्राप्त न करनेवाला, शूर, धर्म की प्रभावना करनेवाला, क्षमा गुण में पृथ्वी के समान, सौम्य गुण में चन्द्रमा और निर्मलता में समुद्र के समान विशिष्ट गुणों से युक्त हो वह आचार्य है। २०
आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने की योग्यताओं के विषय में 'व्यवहारसूत्र' में कहा गया है कि कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षा पर्यायवाले श्रमणाचार में कुशल, प्रवचन में प्रवीण, प्रज्ञाबुद्धि में निष्णात, आहारादि के उपग्रह में कुशल, अखण्डाचारी, सबल दोषों से रहित, भिन्नता रहित, आचार का पालन करनेवाले, निःकषाय चरित्रवाले, अनेक सूत्रों और आगमों में पारंगत श्रमण आचार्य अथवा उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित होने के योग्य हैं।२१ ___आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये तीनों साधु अवस्था के ही भेद हैं। श्रमणत्व की दृष्टि से तीनों समान ही होते हैं और सामान्य रूप से मूल गुणों तथा उत्तर गुणों का पालन सभी को करना पड़ता है। चूँकि आचार्य संघ के प्रधान होते हैं, अत: उनमें अनेक विशिष्ट गुण माने गये हैं। 'भगवती आराधना' में आचार्य को आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, कर्ता (प्रकुर्वीत), रत्नत्रय के लाभ और विनाश को दिखानेवाला (आयापाय दर्शनोद्यत), अवपीड़क (उत्पीलक), अपरिस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रसिद्धकीर्तिशाली (प्रथितकीर्ति) तथा निर्यापन आदि विशिष्ट गुणों से सम्पन्न बताया गया है।२२ इनके अतिरिक्त आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस गुण बताये गये हैं। छत्तीस गुण
आचार्य अनेक गणों से सम्पन्न होते हैं। उनके गुणों की परिगणना नहीं की जा सकती। शास्त्रानुसार वे साधु के साधारण गुणों के साथ-साथ विशिष्ट छत्तीस गुणों के धारक होते हैं। जैन धर्म की दोनों परम्पराओं में आचार्य के छत्तीस गुण कहे गये हैं, किन्तु संख्या में एकरूपता होते हुए भी भेदों में एकरूपता नहीं है।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार जो पाँच इन्द्रियों को वश में करता है, नौ बाड़ से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता है, पाँच महाव्रतों से युक्त होता है, पाँच आचारों के पालन में समर्थ होता है, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालक होता है और जो चार प्रकार के कषायों से मुक्त होता है वही गुरु या आचार्य है। २३
दिगम्बर परम्परा में भी आचार्य के गुणों की संख्या छत्तीस स्वीकार की है, किन्तु गुणों के भेदों में आचार्यों के बीच मतैक्य नहीं है। 'भगवती आराधना' में आचारवत्व आदि आठ गुण, दस स्थितिकल्प, बारह तप, छः आवश्यक आदि छत्तीस गुणों का
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