Book Title: Jain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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शिक्षा-पद्धति के बल पर होता है। जैन दर्शन में साध्य के अविनाभावी हेतु से होनेवाले ज्ञान को अनुमान कहा गया है। अनुमान को परिभाषित करते हुये सिद्धसेन ने अविनाभावी लिङ्ग द्वारा साध्य के निश्चयात्मक ज्ञान को अनुमान कहा है।११ वस्तुत: साध्य और साधन के बीच अविनाभाव सम्बन्ध ही अनुमान का मूल आधार है। अविनाभाव का यह सम्बन्ध दो नियमों पर आधारित होता है- एक सहभाव नियम और दूसरा क्रमभाव नियमा१२ जो पदार्थ एक साथ रहते हैं उनमें सहभाव नियम सम्बन्ध होता है। धूम और अग्नि में सहभाव सम्बन्ध है। इसे व्याप्य और व्यापक सम्बन्ध भी कहते हैं। जिसका विस्तार कम होता है वह व्याप्य कहलाता है और जिसका विस्तार अधिक होता है वह व्यापक कहलाता है। व्याप्य का विस्तार व्यापक से कम या बराबर होता है तथा व्यापक का विस्तार व्याप्य से अधिक या बराबर होता है। चूंआ और अग्नि में धुंआ व्याप्य है और अग्नि व्यापक, क्योंकि धुंआ का विस्तार अग्नि से कम होता है। किन्तु व्याप्य-व्यापक का यह सम्बन्ध हमेशा रहे यह निश्चित नहीं है, क्योंकि जहाँ-जहाँ धुंआ है वहाँ-वहाँ अग्नि है यह कथन तो सत्य है किन्तु जहाँ-जहाँ अग्नि है वहाँ-वहाँ धुंआ है यह कथन हमेशा सत्य नहीं होता। जैसे- तप्त लोहे में अग्नि होती है, चूंआ नहीं। कृतिका नक्षत्र का उदय अन्तर्मुहूर्त पहले होता है और रोहिणी नक्षत्र का उदय उसके बाद होता है, इसलिए इन दोनों में क्रमभाव सम्बन्ध माना जाता है। जैन दर्शन में सहभाव और क्रमभाव का स्पष्ट प्रतिपादन माणिक्यनन्दी द्वारा किया गया है, किन्तु इसके बीज अकलंक के ग्रन्थ में मिलते हैं।१३
स्वार्थानुमान और परार्थानुमान अनुमान के दो प्रकार हैं। जो अनुमान अपने लिये किया जाता है वह स्वार्थानुमान और स्वार्थानुमान द्वारा प्राप्त ज्ञान को दूसरे को समझाना परार्थानुमान कहलाता है। दूसरे शब्दों में प्रमाता का हेतु द्वारा साध्य का ज्ञान करना स्वार्थानुमान है और उसी प्रमाता द्वारा साध्य का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् किसी दूसरे को हेतु आदि का कथन करके साध्य का ज्ञान कराना परार्थानुमान है।१५ 'अनुयोगद्वार' में अनुमान के तीन प्रकार बताये गये हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टिसाधर्म्यवत्।१६
आगम- आप्त या प्रामाणिक पुरुषों के शब्दों द्वारा वस्तुओं का जो ज्ञान होता है उसे आगम प्रमाण कहते हैं। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में आप्तपुरुष के वचनादि से आविर्भूत अर्थज्ञान को आगम कहा गया है।१७ आप्तपुरुष से तात्पर्य है जो वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में जैसा जानता है वैसा ही कहता है वह आप्तपुरुष है।१८ लौकिक या लोकोत्तर दो प्रकार के आप्त पुरुष होते हैं।१९ माता-पिता, गुरु आदि लौकिक आप्त के अन्तर्गत आते हैं तथा तीर्थंकर अथवा केवली लोकोत्तर आप्त कहलाते हैं।२०
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